Dwadas pradhan bhakt part 2

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श्रीकपिलदेवजी '

 सिद्धानां कपिलो मुनिः '

 ब्रह्माजीने सर्गके आदिमें सृष्टिविस्तारके उद्देश्यसे कई पुत्र उत्पन्न किये । इनमेंसे एक कर्दम नामके प्रजापति भी थे । इन्होंने ब्रह्माजीकी आज्ञासे सन्तान उत्पन्न करनेके हेतु सरस्वतीनदीके तटपर दस हजार वर्षतक तप किया ; इसके अनन्तर वे समाधिसहित तप , स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधानरूप क्रियायोगके द्वारा शरणागतवत्सल भगवान्की भक्तिसहित उपासना करने लगे । उनकी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें दर्शन   दिया । कर्दम ऋषि भगवान्‌का योगिजनदुर्लभ दर्शन पाकर कृतार्थ हो गये और उन्हें साष्टांग प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे । उन्होंने भगवान्‌से प्रार्थना की कि मुझे अपने समान स्वभाववाली और चतुर्वर्गकी प्राप्ति करानेवाली सहधर्मिणी प्रदान कीजिये । भगवान्ने कहा- ' हे प्रजापते ! ब्रह्माजीका पुत्र स्वायम्भुव मनु अपनी पत्नीके साथ परसों यहाँ आयेगा तथा अपनी देवहूति नामक कन्याको तुम्हारे अर्पण करेगा । उसके द्वारा तुम्हें नौ कन्याएँ प्राप्त होंगी । मैं भी तुम्हारे प्रेमसे आकृष्ट होकर अपने अंशरूप कलाके द्वारा तुम्हारे यहाँ पुत्ररूपमें प्रकट होऊँगा और सांख्यशास्त्ररूप संहिताकी रचना करूंगा । ' यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । 

भगवान्के कथनानुसार तीसरे दिन स्वायम्भुव मनु अपनी पत्नीके सहित कन्याको साथमें लेकर कर्दमके आश्रममें पहुँचे और बड़े आग्रह और विनयके साथ वे ऋषिको अपनी कन्या अर्पित कर चले गये । इधर देवहूति माता - पिताके लौट जानेपर पतिकी अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सेवा करने लगी । उसने विषयभोगकी इच्छा तथा कपट , द्वेष , लोभ , निषिद्ध आचरण और प्रमाद आदि दोषोंको त्यागकर शौच , इन्द्रियनिग्रह आदि गुणोंसे अपने तेजस्वी पतिको सन्तुष्ट किया । काल पाकर उन्हें नौ कन्याएँ उत्पन्न हुई । अब तो कर्दम ऋषि अपने पिता ब्रह्माजीकी आज्ञा पूरी हुई जानकर संन्यासधर्ममें दीक्षित होनेका विचार करने लगे । उनके इस विचारको जानकर देवहूति उनसे हाथ जोड़कर बोली - ' भगवन् ! आप अपनी आत्माका कल्याण करनेके लिये घर छोड़कर वनमें जाना चाहते हैं तो जाइये , मैं आपके मार्गमें बाधक होना नहीं चाहती । किंतु मेरी एक छोटी सी प्रार्थना है , उसे पूरी करके आपको जानेका विचार करना चाहिये । वह यह है कि आपके वन चले जानेपर मेरा शोक दूर करनेके लिये मुझे एक ब्रह्मज्ञानी पुत्र चाहिये । केवल कन्या उत्पन्न करके आप पितृ ऋणसे मुक्त नहीं हुए । अतः आप कुछ दिन और घरमें रहिये और पुत्र उत्पन्न होनेके बाद चले जाइये । मैंने विषयों में लिप्त रहकर अबतककी आयु तो व्यर्थ खो दी , परंतु शेष जीवन मेरा भगवान्के भजनमें ही बीते ऐसी मेरी इच्छा है । आपको ब्रह्मज्ञानी न जानकर मैंने अबतक आपसे ग्राम्य सुखोंकी ही कामना की । अब आप कृपा करके मुझे पुत्रकी प्राप्ति कराकर इस संसाररूप बन्धनसे छूटनेमें सहायता दीजिये । उसके इन विनय एवं वैराग्ययुक्त वचनोंको सुनकर ऋषिको भगवान्‌के वचनोंका स्मरण हो आया । वे बोले- ' हे राजपुत्रि ! तुम किसी प्रकारकी चिन्ता न करो । तुम्हारे उदरमें भगवान् जगदीश्वर शीघ्र ही अवतार धारण करेंगे और तुम्हें ब्रह्मज्ञानका उपदेशकर तुम्हारे हृदयकी अहंकाररूप ग्रन्थिका छेदन करेंगे ।

 देवहूति भी प्रजापतिके वचनोंमें पूर्ण विश्वासकर भगवान् श्रीहरिकी प्रेमपूर्वक आराधना करने लगी । समय पाकर उसके उदरसे भगवान् मधुसूदन प्रकट हुए और चारों दिशाओंमें जयजयकारकी ध्वनि होने लगी । उस समय मरीचि आदि ऋषियोंसहित ब्रह्माजी कर्दम ऋषिके आश्रममें पहुँचे । उन्होंने कर्दम - देवहूतिको उनके पुत्रका माहात्म्य बतलाया और कहा कि साक्षात् पूर्णपुरुष ही तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण हुए हैं । इनके केशकलाप सुवर्णके समान कपिलवर्ण होनेके कारण ये जगत्‌में कपिल नामसे विख्यात होंगे । ये सिद्ध - मुनियोंमें अग्रगण्य होंगे और सांख्यशास्त्रका प्रचार करेंगे । ' यों कहकर ब्रह्माजी सत्यलोकको चले गये । उनके चले जानेके बाद कर्दम ऋषिने अपने यहाँ पुत्ररूपसे अवतीर्ण हुए भगवान् कपिलदेवकी अनेक प्रकारसे स्तुति की और उनसे संन्यासधर्मको स्वीकार करनेकी आज्ञा माँगी । भगवान् बोले - ' हे प्रजापते ! मुमुक्षुओंको आत्मज्ञान प्राप्त कराने में सहायक प्रकृति , पुरुष आदि तत्त्वोंका निरूपण करनेके लिये ही मैं इस समय धराधामपर अवतीर्ण हुआ हूँ । तुम अब सब प्रकारके ऋणानुबन्धोंसे मुक्त हो गये हो , अतः तुम संन्यास ग्रहण कर सकते हो , यद्यपि तुम्हें घरमें भी मुक्तिकी प्राप्ति कठिन नहीं है । परंतु तुम मुझे बराबर स्मरण करते रहना और अपने  समस्त कर्मोंको मुझे अर्पणकर मोक्षकी प्राप्तिके निमित्त मेरी उपासनामें लगे रहना । यद्यपि यह सूक्ष्म आत्मज्ञानका मार्ग बहुत पहलेसे चला आ रहा है , तथापि बहुत काल बीत जानेसे वह लुप्त सा हो गया है , अतः उसका पुनः प्रचार करनेके निमित्त ही मैं पृथ्वीपर प्रकट हुआ हूँ । सकल प्राणियोंके अन्तःकरणमें रहनेवाले मुझ स्वयंप्रकाश परमात्माको अपने देहस्थित आत्मामें देखकर तुम शोकसे छूट जाओगे और मोक्षसुखको प्राप्त करोगे । मैं देवहूति माताको संचित और क्रियमाण आदि सब प्रकारके कर्मोंकी वासनाएँ मनसे दूर करनेवाली अध्यात्मविद्या कहूँगा , जिसके प्रभावसे यह देवहूति संसारभयको तर जायगी और मोक्षसुखको प्राप्त करेगी ।

 ' भगवान् कपिलदेवके इन वचनोंको सुनकर कर्दम ऋषि परम प्रसन्न हुए और भगवान्‌की प्रदक्षिणाकर वनको चले गये । वे सकल संगोंको त्यागकर अहिंसाव्रतका पालन करते हुए पृथ्वीपर विचरने लगे । उन्होंने अपने उत्कट भक्तियोगके द्वारा अन्तर्यामी भगवान् वासुदेवके चरणोंमें मन लगाकर उत्तम भगवद्भक्तोंको प्राप्त होनेवाली भागवती गतिको प्राप्त किया । 

महामुनि भगवान् कपिलदेव पिता कर्दम ऋषिके चले जानेपर माता । प्रिय करनेकी इच्छासे कुछ दिन अपने पिताके आश्रममें ही रहे । एक दिन ब्रह्माजीके कथनको स्मरणकर देवहूति आसनपर बैठे हुए , वास्तवमें कर्मरहित किंतु मुमुक्षुओंको तत्त्वमार्ग दिखानेवाले अपने पुत्रसे कहने लगी- ' हे प्रभो ! मैं इन दुर्निवार इन्द्रियोंकी तृप्तिके निमित्त विषयोंकी अभिलाषासे अत्यन्त श्रान्त हो रही हूँ । हे देव ! आप मेरे इस महामोहको दूर करिये । आप शरणागतोंके रक्षक और भक्तोंके संसाररूप वृक्षको छेदन करनेमें कुठारके समान हैं । माताके इन वचनोंको सुनकर कपिलदेव मन - ही - मन बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराते हुए बोले - ' हे माता । इस आत्माके बन्धन और मुक्तिका कारण चित्त ही है , चित्तके सिवा कोई दूसरा नहीं । यह चित्त शब्दादि विषयों में आसक्त होनेपर बन्धनका कारण होता है और वही ईश्वरके प्रति अनुरक्त होनेपर मुक्तिका कारण बन जाता है । इसी प्रकार दुष्ट पुरुषोंका संग जीवात्माको बाँधनेवाली दृढ़ फाँसी है और सत्पुरुषोंके संगको शास्त्रों में मोक्षका द्वार कहा गया है । अतः हे जननि ! तुम्हें सत्पुरुषोंका ही संग करना चाहिये । साधुओंके सत्संगसे ही मेरे प्रभावका यथार्थ ज्ञान करानेवाली और अन्तःकरणको सुख देनेवाली कथाएँ सुननेको मिलती हैं । जिनके श्रवणसे भगवान्‌में श्रद्धा , प्रीति और भक्ति क्रमशः उत्पन्न होती है । उस भक्तिसे ऐहिक तथा पारलौकिक सुखोंके प्रति वैराग्य उत्पन्न होता है और वैराग्यसम्पन्न पुरुष आत्मसाधनके उद्योगमें तत्पर होकर योगादिके द्वारा अन्तःकरणको स्वाधीन करनेका प्रयत्न करता है और शब्दादि विषयोंके सेवनको त्यागकर वैराग्यसे बढ़े हुए ज्ञान , अष्टांगयोग और भक्तिके द्वारा इसी देहमें मुझ सर्वान्तर्यामी परमात्माको प्राप्त कर लेता है । इसके अनन्तर देवहूतिके प्रश्न करनेपर भगवान् श्रीकपिलदेवने भक्तिके लक्षणोंका वर्णन किया और फिर सांख्यशास्त्रकी रीतिसे पदार्थोंका वर्णन करते हुए प्रकृति - पुरुषके विवेकद्वारा मोक्षका वर्णन किया । इसके अनन्तर अष्टांगयोगसे स्वरूपकी उपलब्धि किस प्रकार होती है - यह बतलाते हुए भक्तियोगके अनेक प्रकार बतलाये और साथ ही संसारके दुःखदायी स्वरूपका चित्रण किया । प्रसंगतः कामीजनोंकी कैसी गति होती है - यह बतलाते हुए मनुष्ययोनिका महत्त्व बतलाया और यह भी बतलाया कि मनुष्ययोनि पाप और पुण्यके सम्मिश्रणसे प्राप्त होती है । 

अपने पुत्रके उपदेशको सुनकर देवहूतिके अज्ञानका पर्दा हट गया और वह उनके प्रभावको समझकर उनकी भगवद्बुद्धिसे स्तुति करने लगी । भगवान् कपिल उनकी स्तुतिको सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और स्नेह गद्गद वाणीसे इस प्रकार बोले- ' हे माता । मेरे कहे हुए इस मार्गसे यदि आप चलेंगी तो बहुत ही शीघ्र जीवन्मुक्तिरूप उत्तम फलको प्राप्त करेंगी । हे जननि ब्रह्मज्ञानियोंके द्वारा सेवनीय मेरे इस अनुशासनपर आप विश्वास रखें , इस प्रकार बर्ताव करनेसे आप संसारसे छूटकर मेरे जन्ममरणरहित स्वरूपको प्राप्त होंगी । मेरे इस मतको न जाननेवाले पुरुष मृत्युरूप संसारमें बार - बार गिरते हैं । ' यों कहकर महामुनि कपिलजी माता विदा लेकर ईशानदिशाकी ओर चल दिये । देवहूति भी अपने पुत्रके बताये हुए योगमार्गसे अपने चित्तको एकाग्र करके अपने पतिके आश्रममें समाधिके द्वारा समय व्यतीत करने लगीं और शीघ्र ही सर्वश्रेष्ठ , अन्तर्यामी , नित्यमुक्त एवं ब्रह्मरूप भगवान्‌के साथ एकताको प्राप्त हो गयीं ।

 हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 

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