Dwadas pradhan bhakt

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                  द्वादश प्रधान भक्त 

बिधि नारद संकर सनकादिक कपिलदेव मनुभूप । नरहरिदास जनक भीषम बलि सुकमुनि धर्मस्वरूप ॥ अंतरंग अनुचर हरिजू के जो इन कौ जस गावै । आदि अंत लौं मंगल तिन को श्रोता बक्ता पावै ॥ अजामेल परसँग यह निरनै परम धर्म को जान । इन की कृपा और पुनि समझे द्वादस भक्त प्रधान ॥७ ॥ 

श्रीब्रह्माजी , श्रीनारदजी , श्रीशंकरजी , श्रीसनकादिक , श्रीकपिलदेवजी महाराज , श्रीमनुजी , श्रीप्रह्लादजी श्रीजनकजी , श्रीभीष्मपितामहजी , श्रीबलिजी , महामुनि श्रीशुकदेवजी और श्रीधर्मराजजी- ये बारहों भगवान के अन्तरंग सेवक हैं , जो इनके यशको सुनें और गायें , उन सभी श्रोता और वक्ताओंका आदिसे अन्ततक सर्वदा मंगल हो । 

अजामिलके प्रसंगमें धर्मराजका यह परमश्रेष्ठ निर्णय जानिये कि इन्हींकी कृपासे और दूसरे भक्त भक्तिके रहस्योंको समझते हैं , ये द्वादश प्रधान भक्त हैं ॥ ७ ॥

 यहाँ संक्षेपमें श्रीब्रह्माजी , श्रीनारदजी आदि इन भक्तोंका वर्णन प्रस्तुत है ।

१ ) श्रीब्रह्माजी

 द्वादश प्रधान महाभागवतोंमें श्रीब्रह्माजी अग्रगण्य हैं । श्रीमद्भागवतजीमें भी यमराजजीने अपने दूतोंसे परमभागवतोंका वर्णन करते हुए श्रीब्रह्माजीकी गणना सर्वप्रथम की है , यथा स्वयम्भूनारदः कुमार : कपिलो मनुः । जनको प्रह्लादो द्वादशैते बलियासकिर्वयम् ॥ विजानीमो भटाः । गुह्यं विशुद्धं दुर्योधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥ 

अर्थात् भगवान्‌के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है । उसे जानना बहुत हो कठिन है । जो उसे जान लेता है , वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है । दूतो ! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं । ब्रह्माजी , देवर्षि नारद , भगवान् शंकर , सनत्कुमार , कपिल , स्वायम्भुव मनु , प्रह्लाद , जनक , भीष्म पितामह , बलि , शुकदेवजी और मैं ( धर्मराज ) ।

 सृष्टिके पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व प्रलयार्णवके जलमें डूबा हुआ था । उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेषशय्यापर पौढ़े हुए थे । सृष्टिकाल आनेपर भगवान् नारायणकी नाभिसे एक परम प्रकाशमय कमल प्रकट हुआ और उसी कमलसे साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए । उस कमलकी कर्णिकामें बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया , तब वे आँखें फाड़कर आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे , इससे उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये । आश्चर्यचकित श्रीब्रह्माजी कुतूहलवश कमलके आधारका पता लगाने के लिये उस कमलकी नालके सूक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे । परंतु दिव्य सहस्रों वर्षोंतक प्रयत्न करनेपर भी कुछ भी पता न मिलनेपर अन्तमें विफल मनोरथ हो , वे पुनः कमलपर लौट आये । तदनन्तर अव्यक्त वाणीके द्वारा तप करनेकी आज्ञा पाकर श्रीब्रह्माजी एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्रचित्तसे कठिन तप करते रहे । उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपने लोकका एवं अपना दर्शन कराया । सफल मनोरथ श्रीब्रह्माजीने भगवान्की स्तुति की । भगवान्ने उन्हें भागवत - तत्त्वका चार श्लोकोंमें उपदेश दिया , जिसे चतुःश्लोकी भागवत कहते हैं । उपदेश देकर भगवान्ने कहा - ब्रह्माजी ! आप अविचल समाधिके द्वारा मेरे इस सिद्धान्तमें पूर्ण निष्ठा कर लो । इससे तुम्हें कल्प - कल्पमें विविध प्रकारकी सृष्टि रचना करते रहनेपर भी कभी मोह नहीं होगा । फिर भगवान्ने अपने संकल्पसे ही ब्रह्माजीके हृदयमें सम्पूर्ण वेद - ज्ञानका प्रकाश कर दिया।

 यथा - ' तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः - भगवान्ने अपने संकल्पसे ही ब्रह्माजीको उस वेदज्ञानका दान किया , जिसके सम्बन्धमें बड़े - बड़े विद्वान् लोग भी मोहित हो जाते हैं । कालान्तरमें श्रीनारदजीकी सेवासे सन्तुष्ट होकर श्रीब्रह्माजीने उनको चतुःश्लोकी भागवत - तत्त्वका उपदेश किया और देवर्षि नारदजीने वह तत्त्व - ज्ञान भगवान् वेदव्यासजीको सुनाया और श्रीव्यासजीने चार श्लोकोंसे ही अठारह  हजार श्लोकोंके रूप में श्रीमद्भागवत श्रीमद्भागवतका लोकमें विस्तार हुआ। 

 भगवान के द्वारा प्राप्त उपदेशका निरन्तर चिन्तन करते रहने से तथा भगवत्स्वरूपका ध्यान करते रहने से श्रीब्रह्माजीका अपने मन - वाणी और इन्द्रियोंपर इतना अधिकार हो गया है कि सदा - सर्वदा जगत् - प्रपंच लगे रहनेपर भी इनकी वृत्तियाँ स्वप्नमें भी असत् की  ओर नहीं जाती हैं । 

श्रीब्रह्माजीके परम सौभाग्यका क्या कहना है ? जो कि ये भगवान्‌के समस्त अवतारोंक दर्शन - स्तवन करते हैं । ' कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं ' इसके अनुसार ब्रह्माजीके अधिकारकालमें ३६०० बार भगवान्के विविध अवतार होते हैं , क्योंकि एक कल्प ब्रह्माजीका एक दिन होता है और सौ वर्षकी ब्रह्माजीको आयुमें ३६०० कल्प दिनके ( उतने ही रात्रिके भी ) होते हैं । साथ ही प्रायः अधिकांश अवतार ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे होते हैं।

                   २  श्रीनारदजी '

 उत्सङ्ग्रान्नारदो जज्ञे ' अर्थात् प्रजापति ब्रह्माजीकी गोदसे श्रीनारदजी उत्पन्न हुए । जब ब्रह्माजीने इन्हें भी सृष्टि विस्तारकी आज्ञा दी तो श्रीनारदजीने यह कहकर कि ' अमृतसे भी अधिक प्रिय श्रीकृष्ण सेवा छोड़कर कौन मूर्ख विषय नामक विषका भक्षण ( आस्वादन ) करेगा ? ब्रह्माजीकी आज्ञाका अनौचित्य दिखाया । श्रीनारदजीकी यह बात सुनकर ब्रह्माजी रोषसे आग - बबूला हो गये और नारदजीको शाप देते हुए बोले- नारद ! मेरे शापसे तुम्हारे ज्ञानका लोप हो जायगा , तुम पचास कामिनियोंके पति बनोगे । उस समय तुम्हारी उपबर्हण नामसे प्रसिद्धि होगी , फिर मेरे ही शापसे दासीपुत्र बनोगे , पश्चात् सन्त - भगवन्त कृपासे मेरे पुत्ररूपमें प्रतिष्ठित हो जाओगे ।

 ब्रह्माजीके दिये हुए उस शापके ही कारण नारदजी आगे चलकर उपबर्हण नामके गन्धर्व हुए और चित्ररथ गन्धर्वकी पंचास कन्याओंने उन्हें पतिरूपमें वरण किया । एक बार वे पुष्करक्षेत्र में श्रीब्रह्माजीके स्थानपर गये और वहाँ श्रीहरिका यशोगान करने लगे । वहीं रम्भा अप्सराको नृत्य करते देखकर काममोहित होनेसे वीर्य स्खलित हो गया , जिससे कुपित होकर ब्रह्माजीने उन्हें शाप देते हुए कहा- तुम गन्धर्व शरीरको त्यागकर शूद्रयोनिको प्राप्त हो जाओ शाप सुनकर उपवर्हणने तत्काल उस शरीरको योग - क्रियाके द्वारा छोड़ दिया और कालान्तरमें दुमिल गोपकी पत्नी कलावतीके गर्भसे उत्पन्न होकर दासीपुत्र कहलाये ।

 द्रुमिल गोपके स्वर्ग सिधार जानेपर कलावती एक सदाचारी ब्राह्मणके घर सेवा कार्य करती हुई जीवन यापन करने लगी । उस समयका अपना चरित्र बताते हुए नारदजीने व्यासजीसे कहा कि मैंने ब्राह्मणके घर चातुर्मास्य बिताने के लिये सन्तोंमें निवास किया । ब्राह्मणकी आज्ञासे मैं मातासमेत सन्तोंकी सेवामें लगा रहता था और पात्रोंमें लगी हुई उनकी जूठन दिनमें एक बार खा लिया करता था , जिससे मेरे सब पाप दूर हो गये , हृदय शुद्ध हो गया , जैसा भजन - पूजन वे लोग करते थे , उसमें मेरी भी रुचि हो गयी । 

चातुर्मास्य करके जाते हुए साधुओंने मुझ शान्त , विनम्र बालकको भगवान्‌के रूप - ध्यान और नाम जपका उपदेश दिया । कुछ ही दिन बाद सायंकालमें गाय दुहाकर लौटते समय साँपके काटनेसे माताकी मृत्यु हो गयी । तब मैं भगवान्‌की कृपाका सहारा लेकर उत्तर दिशाकी ओर वनमें चला गया । थककर पीपलके नीचे बैठकर ध्यान करते हुए मेरे हृदयमें प्रभु प्रकट हो गये , मैं आनन्दमग्न हो गया । परंतु वह झाँकी तो विद्युत्की भाँति आयी और चली गयी । मैं पुनः दर्शन पानेके लिये व्याकुल हो गया । उस समय आकाशवाणीने आश्वासन देते हुए बतलाया- ' अब इस जन्ममें तुम मुझे नहीं देख सकते । यह एक झाँकी तो मैंने तुम्हें  कृपा करके इसलिये दिखलायी कि इसके दर्शनमें तुम्हारा चित्त मुझमें लग जाय । ' तब मैं दयामय भगवान्को प्रणामकर उनका गुण गाते हुए पृथ्वी पर भूमने लगा । समय आनेपर मेरा वह शरीर छूट गया , तब दूसरे को मैं ब्रह्माजीका पुत्र हुआ । व्यासजी । अब तो जब मैं वीणा बजाकर प्रभु गुण - गान करता हूँ तो बुलाये की तरह भगवान् मेरे चित्तमें तुरंत प्रकट हो जाते हैं । ८ ९ नारदजी देवर्षि हैं तथा वेदान्त , योग , ज्योतिष , वैद्यक , संगीत तथा भक्तिके मुख्य आचार्य है । पृथ्वी भक्ति - प्रचारका श्रेय आपको ही है । भक्तिदेवी तथा ज्ञान - वैराग्यका कष्ट दूर करते हुए वृन्दावन में आपने प्रतिज्ञा की है कि – ' हे भक्तिदेवी कलियुगके समान दूसरा युग नहीं है , अतः कलियुगमें दूसरे धर्मोका तिरस्कार करके और भक्ति - विषयक महोत्सवोंको आगे करके जन - जन और घर - घरमें तुम्हारी स्थापना करूं तो मैं हरिदास न कहाऊँ । " स्वयं भक्तिने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे ब्रह्मपुत्र तुम्हें नमस्कार है तुम्हारे एक बारके उपदेशसे प्रह्लादने मायापर विजय तथा ध्रुवने ध्रुवपद प्राप्त कर लिया । यथा जयति जगति मायां यस्य कायाधवस्ते वचनाचनमेकं केवलं चाकलव्य | ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं सकलकुशलपात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि ॥

                      ( ३ ) श्रीशंकरजी 

 द्वादश परम भागवतों में श्रीशिवजीका प्रमुख स्थान है । भगवान्‌के स्वभाव , प्रभाव , गुण , शील , माहात्म्य आदिके जाननेवालोंमें भी श्रीशिवजी अग्रगण्य हैं । भगवान्के नाम के प्रभावको जैसा श्रीशिवजी जानते हैं , वैसा कोई जाननेवाला नहीं है । यथा- ' नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥ भगवान् नीलकण्ठ श्रीशिवजीका हलाहलपान इस बातका साक्षी है । अमृतके लोभसे समुद्र मन्थन किये जानेपर सर्वप्रथम कालकूट ( महाविष ) निकला , जो सब लोकोंको असह्य हो उठा । देवता और दैत्यतक उसकी झारसे झुलसने लगे

 तब भगवान्‌का संकेत पाकर सबके सब मृत्युंजय श्रीशिवजीकी शरणमें गये और जाकर उन्होंने उनको स्तुति की । करुणावरुणालय भगवान् शंकर इनका दुःख देखकर सतीजीसे बोले - ' देवि प्रजा एवं प्रजापति महान् संकटमें पड़े हैं , इनके प्राणोंकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है , अतः मैं इस विषको पी लूँगा , जिससे इन सबका कल्याण हो । ' भवानीने इस इच्छाका अनुमोदन किया जगज्जननी जो ठहरी तथा उन्हें विश्वनाथका प्रभाव भी सर्वथा ज्ञात था । फिर तो श्रीशिवजीने यह कहकर कि

 श्रीरामनामाखिलमन्त्रबीजं मम जीवनं च हृदये प्रविष्टम् । हालाहलं वा प्रलयानलं वा मृत्योर्मुखं वा विशतां कुतो भयम् ॥ अर्थात् श्रीराम - नाम समस्त मन्त्रोंका बीज है मेरा जीवन है तथा मेरे हृदय में प्रविष्ट होकर स्थित है । फिर तो चाहे हलाहल पान करना हो , चाहे प्रलयानल पान करना हो , चाहे मृत्युके मुखमें ही क्यों न प्रवेश ' खायो कालकूट भयो अजर अमर तनु । ' 

 हलाहलपानके प्रसंगसे श्रीशिवजीकी निष्ठा तथा जीवोंपर दयाका भाव प्रकाशमें आता है । श्रीतुलसीदासजी कहते हैं कि- ' जरत सकल सुर बूंद बिषम गरल जेहिं पान किय । तेहि न भजसिं मन मंद को कृपाल संकर सरिस ॥ 'श्रीशिवजी स्वयं निरन्तर राम - नाम जपते रहते हैं । यथा — ‘ तुम्ह पुनि राम राम दिन राती सादर जपहु अनंग आराती ॥ संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥ ' तथा अपनी अत्यन्त प्रिय काशीपुरीमें मरनेवाले प्रत्येक प्राणीको मृत्यु क्षणमें श्रीराम - नामका उपदेश देकर उसे मुक्त कर दिया करते हैं यथा- ' अहं भवन्नामगृणन् कृतार्थो वसामि काश्यामनिशं भवान्या । मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं दिशामि मन्त्रं तव राम नाम ॥ ' ( अध्यात्मरामायण ६ | १५ | ६२ ) अर्थात् मैं आपके नामके गुणोंसे कृतार्थ होकर काशीमें भवानीसहित निवास करता हूँ और मरणासन्न प्राणियोंकी मुक्तिके लिये उनके कानमें आपका मन्त्र राम - नामका उपदेश करता हूँ । श्रीरामजीके साथ श्रीशिवजीका सम्बन्ध त्रिविध है । यथा - ' सेवक स्वामि सखा सिय पी के अर्थात् श्रीशिवजी श्रीसीतापति रामचन्द्रजीके सेवक भी हैं , सखा भी हैं और स्वामी भी हैं । इस भावका प्रकाश उस समय होता है , जब श्रीरामचन्द्रजीने सेतुबन्धनके समय शिवलिंगकी स्थापना की और उनका नाम रामेश्वर रखा । नामकरण होनेके पश्चात् परस्पर ' रामेश्वर ' शब्दके अर्थपर विचार होने लगा । सर्वप्रथम श्रीरामजीने इसमें तत्पुरुष समास बताते हुए अर्थ किया - रामस्य ईश्वर : ( रामके ईश्वर ) , इसपर श्रीशिवजी बोले- भगवान् ! यहाँ बहुव्रीहि समास है अर्थात् इसका अर्थ - रामः ईश्वरो यस्यासौ रामेश्वरः ( राम ही ईश्वर हैं जिनके वह रामेश्वर ) - इस भाँति हैं । ब्रह्मादिक देवता हाथ जोड़कर बोले कि - महाराज ! इसमें कर्मधारय समास है अर्थात् ' रामश्चासौ ईश्वरश्च ' अथवा ' यो रामः स ईश्वरः ' ( जो राम वही ईश्वर ) ऐसा अर्थ है । इस आख्यायिकासे तीनों भाव स्पष्ट हैं । ' रामेश्वर ' शब्दमें बहुव्रीहि समाससे शिवजीका सेवक - भाव , तत्पुरुषसे स्वामी भाव तथा कर्मधारयसे सख्य - भाव पाया जाता है । ऐसे अद्भुत भक्त हैं श्रीशिवजी ! 

श्रीभक्तमालजीके टीकाकार श्रीप्रियादासजी श्रीशिवजीकी भगवत् भागवत - निष्ठाके सम्बन्ध में लिखते हैं -

द्वादश प्रसिद्ध भक्तराज कथा ' भागवत ' अति सुखदाई , नाना विधि करि गाये हैं । शिवजी की बात एक बहुधा न जानै कोऊ , सुनि रस सानै , हियौ भाव उरझाये हैं । ' सीता ' के वियोग ' राम ' विकल विपिन देखि ' शंकर ' निपुन ' सती ' बचन सुनाये हैं । ' कैसे ये प्रवीन ईश कौतुक नवीन देखौ ' , मनेहूँ करत , अङ्ग वैसे ही बनाये हैं ॥ २० ॥ 

प्रसिद्ध बारह भक्तराजोंकी सुख देनेवाली कथाएँ श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में अनेक प्रकारसे गायी गयी हैं , परंतु शिवजीकी एक बातको प्रायः लोग नहीं जानते हैं । उस सुन्दर कथाको सुनकर हृदय भक्तिरसमें मग्न हो जाता है । ऐसे सुन्दर भावोंमें शंकरजीने अपने मनको उलझा रखा है । सीताके वियोगसे वनमें श्रीरामचन्द्रजीको व्याकुल देखकर सतीजीने भावप्रवीण शंकरजीसे कहा- यह कैसे सर्वज्ञ ईश्वर हैं ? यह इनका नवीन कौतुक देखिये कि सीताजीके वियोगमें अति दुखी हो रहे हैं । तब शंकरजीने खूब समझाया कि यह तो प्रभुकी नरलीला है । परंतु सतीजीकी समझमें नहीं आया । मना करनेपर भी परीक्षा लेनेके लिये उन्होंने सीताजीका - सा रूप बनाया ॥ २० ॥ 

सीता ही सो रूप वेष लेशहू न फेर फार रामजी निहारि नेकु मन में न आई है । तब फिर आयकै सुनाय दई शंकर को अति दुखपाय बहु बिधि समझाई है ॥ इष्टको स्वरूप धर्यो ताते तनु परिहर्यो पर्यो बड़ो शोच मति अति भरमाई है । ऐसे प्रभु भाव पगे पोथिन में जगमगे लगे मोको प्यारे यह बात रीझि गाई है ॥ २१ ॥

 सतीजीका रूप और वेश - भूषा सीताजीके समान था , उसमें थोड़ा भी अन्तर नहीं था । श्रीरामजीने उसे देखा , पर उनके मनमें नाममात्र भी यह बात नहीं आयी कि ये सीताजी हैं , उनको सती ही माना । तब सतीजीने यह बात आकर शंकरजीको सुना दी । शंकरजीने अति दुःख पाकर सतीजीको अनेक प्रकारसे समझाया कि तुमने इष्टदेवी श्रीसीताजीका रूप धारण किया । इसलिये तुम्हारे इस शरीरमें अब मेरा पत्नीभाव नहीं रहा । यह सुनकर सतीजीको बड़ा शोक हुआ और उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी । सतीजीने वह शरीर त्याग दिए पुनः हिमालयके घरमें जन्म लेकर वे शंकरजीको प्राप्त कर सकीं । शिवजी श्रीरामजीकी भक्ति - भावनाम प्रकार मग्न रहते हैं कि इतिहास - पुराणों में उनकी कथा जगमगा रही है । प्रियादासजी कहते हैं कि मुझे शिव विशद 4 देखनेव अत्यन्त प्यारे लगे , इसलिये रीझकर मैंने इस कथाका गान किया है ॥ २१ ।।। चले जात मग उभै खेरे शिव दीठि परे , करे परनाम , हिय भक्ति लागी प्यारी है । पार्वती पूछें , किये कौन को ? जू ! कहाँ मोसौं , दीखत न जन कोऊ , तब सो उचारी है । वरष हजार दश बीते तहाँ भक्त भयो , नयो और है है दूजी ठौर बीते धारी है । सुनिकै प्रभाव , हरिदासनि सो भाव बढ्यो रयो कैसे जात चढ्यो रङ्ग अति भारी है ॥ २२ ॥ एक बार भगवान् शंकर देवी पार्वती के साथ पृथ्वीपर विचर रहे थे , मार्गमें उजड़े ग्रामोंके दो टीले दिखायी पड़े । शंकरजीने नन्दीसे उतरकर दोनों को प्रणाम किया ; क्योंकि भक्ति आपको अत्यन्त प्यारी है । पार्वतीजीने पूछा - भगवन् । आपने किसको प्रणाम किया , यहाँ कोई देवता या मुनि दिखायी नहीं पह रहे हैं , तब शिवजीने उत्तर दिया कि पहले टीलेपर दस हजार वर्षपूर्व एक प्रेमी भक्त निवास करते और यह जो दूसरा टीला है , इसपर दस हजार वर्ष बाद एक भक्त निवास करेंगे । इसीसे ये दोनों स्थान वन्दनीय हैं । भक्तोंका ऐसा प्रताप सुनकर पार्वतीजीके हृदयमें भक्तोंके प्रति अधिक अनुराग बढ़ गया , उसका ऐसा गहरा रंग चढ़ा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ॥ २२ ॥ 

                4.  श्रीसनकादिजी

सनक , सनन्दन , सनातन , सनत्कुमार और सनत्सुजात - ये पाँचों ही ब्रह्माके मानस पुत्र हैं । कहीं - कहाँ सनत्कुमार और सनत्सुजातको एक मानकर चार ही कहा गया है । कहते हैं कि जब ब्रह्मासे पाँच पर्वोवाली अविद्या दूर हो गयी तब ब्रह्माने अपनी शक्तिके साथ निर्मल अन्तःकरण होकर इनकी सृष्टि की । ब्राह्मीशतिने इन्हें सम्पूर्ण विद्या , उपासना पद्धति और तत्त्वज्ञानका उपदेश किया । इन सबके अध्ययन , तपस्या , शीत स्वभाव एक से ही है । इनमें शत्रु मित्र तथा उदासीनोंके प्रति भेददृष्टि नहीं । सर्वदा पाँच वर्षकी अवस्थावाने बालकोंकी भाँति ही ये विचरते रहते हैं । संसारके द्वन्द्व इनका स्पर्श नहीं कर पाते । रातदिन भगवान् श्रीकृष्णके नामका जप किया करते हैं । ' हरिः शरणम् ' मन्त्र तो इनके श्वासोच्छासके साथ - साथ चलता रहता है , इसीसे ये सदा बालकरूप रहते हैं । इन्हें भगवान्की लीलासुधा पान करनेमें इतना आनन्द आता है कि प्रायः शेषनागके पास जाकर पूछ - पूछकर उसका रसास्वादन करते रहते हैं । इनका एक क्षण भी भगवान्‌के चिन्न बिना नहीं बीतता । ये सर्वदा ब्रह्मानन्दमें मग्न रहते हैं । इनके उपदेशोंसे अनेकों व्यक्तियोंका कल्याण साधन हुआ है । इन्होंने शुकदेव और भीष्मको अध्यात्मविद्याका सदुपदेश प्रदान किया है । महाराज पृथुने जो कि भगवान्के एक अंशावतार हैं - इनसे ही भागवत सदुपदेश ग्रहण किया । इन्होंने प्रलयके कारण पहले कल्पके भूले हुए ज्ञानका ऋषियोंके प्रति उपदेश किया । महाभारतमें सनत्सुजातमुनिने धृतराष्ट्रको बहुत सुन्दर उपदेश दिये हैं । उद्योगपर्वका एक महत्त्वपूर्ण अंश ही सनत्सुजातीयके नामसे प्रसिद्ध है । इस सनत्सुजातीयपर भगवान् श्रीशंकराचार्यकृत एक संस्कृत भाष्य भी हैं । 

कभी - कभी ये लोग स्वयं परस्पर भगवच्चर्चा किया करते थे । किसी एकको वक्ता बना लेते और दूसरे सब श्रोता बनते । इस प्रकार बड़े मर्मकी बातें होतीं । श्रीभागवतकी वेदस्तुति एक ऐसे ही अवसरपर कहाँ गयी थी । श्रीसनन्दनजीको प्रवचनकार बनाकर बाकी लोग श्रोता बन गये । इस प्रकार एक बड़े जटिल प्रश्नका  का उत्तर संसारको मिल गया कि वेदोंमें भगवान्‌का वर्णन किस प्रकार होता है । भगवान्से अतिरिक्त विशद वर्णन हुआ है । निषेध करते हुए वेद अन्तमें किस प्रकार भगवान्‌में परिसमाप्त होते हैं , इस उपदेशमें इस बातका अत्यन्त भगवान्‌के भक्तों , जीवन्मुक्तों , सिद्ध सन्तोंमें संसारके कलुषित विकार काम - क्रोधादि होते ही नहीं , न हो सकते हैं । फिर भी कभी - कभी सन्तोंके जीवनमें भी भगवदिच्छासे लीलारूपमें यह बात देखी जाती है । देखनेवाले लोग अपने कलुषित हृदयके कारण भ्रमवश महात्माओंकी लीलाओंको न समझकर उनमें काम क्रोधकी कल्पना कर बैठते हैं । उनकी इन लीलाओंके द्वारा जगत्की हानि न होकर लाभ ही होता है । इनके सम्बन्ध में भी पुराणों में एक ऐसे ही प्रसंगका वर्णन आता है । एक बार इन लोगोंने वैकुण्ठकी यात्रा की । इन्हें पाँच वर्षके नग्न बालकके रूपमें देखकर वहाँके द्वारपालों ( जय - विजय ) ने रोक दिया । इसपर इन्होंने डाँटते हुए कहा ' भगवान्‌के नित्यधाम - सत्त्वके साम्राज्य में यह विषमता उचित नहीं है । तुम दोनोंके मनमें कुछ गर्व और कपट अवश्य आ गया है , नहीं तो भगवान्‌के सबके लिये खुले हुए समधाममें भला यह कैसे हो सकता है ? तुम हमपर शंका कर रहे हो । इस एकरस धाममें तुम दोनोंने पेटके कारण होनेवाले सांसारिक भेदभावको स्थान दिया है । इसलिये शीघ्र ही यहाँसे गिर जाओ । " यद्यपि सन्तों में इस प्रकारका आवेश होना असम्भव है , फिर भी भगवान्की ऐसी ही इच्छा थी । वे इन्हीं मुनियोंको निमित्त बनाकर जगत्में आना चाहते थे । कहाँ तो उनका स्थान और दर्शन इन मुनियोंक लिये भी अगम्य था और कहाँ वे बन्दर - भालू आदि के लिये भी सुलभ हो गये । भगवान् गाँवके ग्वालोंके बीचतकमें आये । इन मुनियोंको निमित्त बनाकर अपनेको सुलभ कर दिया । भगवान्ने स्वयं आकर इनकी स्तुति की , ब्राह्मणोंकी महिमा गायी , प्रसन्नता प्रकट की , तब इन्होंने मुक्तस्वरसे कहा , ' प्रभो ! हमें तो उचित - अनुचित कुछ जान नहीं पड़ता । इस अपराधके बदले आपकी जो इच्छा हो वही दण्ड दे दो । हमें सहर्ष शिरोधार्य है । ' भगवान्ने मुसकराते हुए कहा , ' तुम्हारा कोई दोष नहीं । यह तो मेरी ही इच्छा थी । मैंने पहले ही सोच रखा था । भगवान्की प्रेमभरी गम्भीरवाणी सुनकर सब - के - सब भगवान्‌की प्रदक्षिणा , नमस्कार करके आज्ञा पाकर उनके गुण गाते हुए स्वच्छन्द विचरण करने लगे । यद्यपि ये सनकादिक सब के सब नित्यसिद्ध और निरन्तर परमार्थनिष्ठ हैं तथापि संसारमें गुरुशिष्य परम्पराके स्थापनके लिये क्रमशः बड़े भाइयोंको छोटोंने गुरुके रूपमें माना था । विधिवत् उनसे दीक्षा लेकर श्रवण - मननादि किया । आज भी वे कहीं गुप्तरूपसे विचरण करते होंगे । सम्भव है कहीं हमारे पास ही हॉ परंतु हमारा ऐसा सौभाग्य कहाँ है कि उनके दर्शनसे अपना जन्म सफल कर सकें । उनकी कृपा ही वाञ्छनीय है ।

                 हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 

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