श्रीमनुजी
सृष्टिके प्रारम्भ में जब ब्रह्माने सनकादि पुत्रोंको उत्पन्न किया और वे निवृत्तिपरायण हो गये तब इन्हें बड़ा क्षोभ हुआ । इस क्षोभके कारण ब्रह्मा रजोगुण और तमोगुणसे अभिभूत हो गये । इससे ब्रह्माके दाहिने अंगसे स्वायम्भुव मनुकी और बायें भागसे शतरूपाकी उत्पत्ति हुई । स्वायम्भुव मनुने जब तपस्याके द्वारा शक्ति संचय करके सृष्टिकी अभिवृद्धि करनेकी आज्ञा प्राप्त की तब उन्होंने अपने पिता ब्रह्माके आदेशानुसार सकलकारणस्वरूपिणी आद्याशक्तिकी आराधना की । इनकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवतीने वर याचनाको प्रेरणा की । स्वायम्भुव मनुने भगवतीसे बड़े विनयपूर्वक कहा - ' यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो ऐसी कृपा कीजिये , जिससे प्रजाकी सृष्टिका कार्य निर्विघ्न चलता रहे । ' देवीने ' तथास्तु ' कहा और अन्तर्धान हो गयीं । इसके बाद मनुने ब्रह्मासे एक उपयुक्त स्थानके लिये प्रार्थना की । ब्रह्माने मनुको भगवान् विष्णुकी शरण लेनेका उपदेश किया । इसी समय भगवान् वाराहरूप धारण करके ब्रह्माकी नासिकासे निकल पड़े और थोड़े ही समयमें बड़ा विशाल रूप धारण करके भीषण गर्जना करने लगे । उस समय सभी देव - दानव , ऋषि - मुनि उनकी महिमाका गायन करने लगे । उनकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर भगवान्ने जलमग्न पृथ्वीका उद्धार और उसकी स्थापना की । स्वायम्भुव मनु पृथ्वीपर रहकर सृष्टिकार्य करने लगे । पहले उनके प्रियव्रत , उत्तानपाद नामके दो तेजस्वी पुत्र एवं आकूति , देवहूति और प्रसूति नामकी तीन कन्याएँ हुई । उत्तानपादसे ध्रुव - जैसे भगवद्भक्त प्रकट हुए और इनकी देवहूति नामकी कन्यासे स्वयं भगवान्ने कपिलरूपमें अवतार ग्रहण किया । भगवान्के आज्ञानुसार राज्य करते हुए इन्होंने भृगु आदि ऋषियोंको व्याज़ बनाकर अनेक प्रकारके धर्मों और नीतियोंका प्रचार किया तथा सम्पूर्ण मानवजातिके लिये एक ऐसी सुन्दर व्यवस्था की , जिसके द्वारा अपने अपने अधिकारानुसार सब भगवान्को प्राप्त कर सकें । अन्तमें इनके मनमें यह बात आयी कि घरमें रहकर विषयोंको भोगते - भोगते बुढ़ापा आ गया , किंतु इन विषयोंसे वैराग्य नहीं हुआ । भगवान्के भजन बिना जीवनका यह अमूल्य समय यों ही बीत गया , यह सोचकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ । यद्यपि पुत्रोंने उन्हें घरमें रहकर राज्य करते रहनेका बड़ा आग्रह किया फिर भी उनके विरक्त हृदयने पुत्रोंकी एक भी न मानी , अन्ततः पुत्रोंको राज्य देकर वे अपनी पत्नी शतरूपाके साथ घरसे निकल पड़े । नैमिषारण्यमें जाकर इन्होंने ऋषि मुनियोंका सत्संग प्राप्त करके समस्त तोधों में स्नान किया , देवताओंके दर्शन किये और फिर वल्कल वस्त्र पहनकर हविष्य भोजन करते हुए शरीरकी और संसारकी परवाह पेड़कर द्वादशाक्षर मन्त्रका सप्रेम जप हुए भगवान्लग गये । उनके मनमें एकमात्र यही अभिलाषा भी कि इन्हीं से भगवान् हा । इस तरह हो तरस्या करते करते हजारों वर्ष बीत गये । इस बीच कई बार ब्रह्मा , विष्णु देनेके बड़े - बड़े प्रलोभन दिले ; परंतु कभी हुए ।अनुभव नहीं हुआ । महाराज स्वायम्भुव मनु और शतरूपाकी इस अनन्य तपस्याको देखकर बड़ी ही गम्भीर और भगवत्कृपापूर्ण आकाशवाणी हुई कि तुम्हारी जो इच्छा हो , वह वर माँग लो । भगवान्की यह अमृतभरी वाणी सुनकर उनका शरीर सर्वांगसुन्दर और हष्ट - पुष्ट हो गया सारा शरीर पुलकित हो गया । हृदय प्रेमसे भर गया और उन्होंने दण्डवत् करके भगवान से प्रार्थना की - ' प्रभो ! आप बड़े भक्तवत्सल हैं ; ब्रह्मा , शशंकर और विष्णु भी आपकी चरणधूलिकी वन्दना करते हैं । यदि आप मुझपर सचमुच प्रसन्न हैं तो आपका वह स्वरूप जो शिवके हृदय में निवास करता है , काकभुशुण्डिजी जिसका ध्यान करते हैं और वेदोमं जिसे सगुण होते हुए भी निर्गुण और निर्गुण होते हुए भी सगुण कहा गया है , वही स्वरूप हम अपनी इन्हीं आँखोंसे देखें । उनकी प्रेमसे भरी बात भगवान्को बड़ी प्रिय लगी और भगवान उनके सामने प्रकट हो गये । दम्पतीका ध्यान टूटा और उन्होंने भगवान् श्रीरामकी ओर देखा । भला , भगवानकी उस रूपमाधुरीका कोई क्या वर्णन कर सकता है ! आदिशक्ति भगवती सीता और पुरुषोत्तम भगवान् रामकी अनूप रुपराशिको देखकर उनकी आँखें निर्निमेष हो गयीं । उन्हें तृप्ति होती ही न थी । आनन्दातिरेकसे शरीरकी सुध - बुध जाती रही और वे बिना सहारेकी लकड़ीकी भाँति उनके चरणोंपर गिर पड़े । भगवान्ने उन्हें बलात् उठाकर उनके सिरपर अपने करकमल फेरकर अपने हृदयसे लगा लिया । जब भगवान्ने उन्हें धैर्य धारण कराकर वर मांगनेकी प्रेरणा की तो पहले उन्हें बड़ा संकोच हुआ , परंतु भगवान्के बहुत ढाढ़स देनेपर और यह कहनेपर कि तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है , वे बोले — ' मैं तुम्हारे ही सरीखा पुत्र चाहता हूँ । ' भगवान्ने कहा- ' मेरे सरीखा तो मैं ही हूँ , अतः मैं ही तुम्हारा पुत्र बनूँगा । "प्रमों में इसके बाद भगवान्ने शतरूपापर अपनी कृपादृष्टि डाली और उनसे वर माँगनेकी प्रेरणा की वह वर तो माँगा ही जो उनके पतिदेवने माँगा था , साथ ही भक्त जीवनकी प्रार्थना की । भगवान्ने बड़ी प्रसन्नतासे कहा - ' इतना ही नहीं , तुम्हारे मनमें जो - जो रुचियाँ हैं , सब पूर्ण होंगी , इसमें सन्देह नहीं । इसके पश्चात् महाराज मनुने ऐश्वर्यभक्तिके स्थानपर वात्सल्परति- पुत्रविषयक प्रेमकी याचना की और कहा कि संसारके लोग चाहे मुझे मूर्ख ही क्यों न समझें , आप कृपा करके यह वर दीजिये कि आपके वियोगमें मेरा जीवन रहे ही नहीं । इसके बाद स्वायम्भुव मनु दशरथ और उनकी पत्नी शतरूपा कौसल्या हुई । भगवान् इनके पुत्ररूपसे जन्म ग्रहण किया । इन पुण्यश्लोक आदिराज स्वायम्भुव मनु एवं उनकी पत्नी रूपका चरित्र बड़ा ही विस्तृत है , इसका पूर्ण अनुशीलन तो इतिहास - पुराणोंमें ही हो सकता है । यहाँ तो केवल उनका स्मरणमात्र कर लिया गया है । श्रीरामचरितमानस बालकाण्डमें इनके तपका प्रसंग वर्णित है ।
( ७ ) श्रीनरहरिदास ( श्रीप्रह्लादजी ) उत्तमश्लोकपदारविन्दयो निषेवयाकिञ्चनसङ्गलब्धया में म स तन्वन् परां निर्वृतिमात्मनो मुहु दुःसङ्गदीनान्यमनः शर्म व्यधात् ॥ ( ४५ ) प्रेम दैत्यराज हिरण्यकशिपुके चार पुत्र थे । उनमें प्रह्लाद अवस्थामें सबसे छोटे थे , किंतु भगवद्भकि तथा अन्य गुणोंमें सबसे बड़े हुए । संसारमें जितने भक्त हो गये हैं , प्रह्लादजी उन सबके मुकुटमणि हैं । वे बाल्यकालसे ही भगवान्का नामकीर्तन और गुणकीर्तन करते - करते अपने आपको भूल जाते थे । कभी वे प्रेममें बेसुध होकर गिर पड़ते , कभी कीर्तन करते - करते नाचते और कभी भगवन्नामोंका उच्चारण करते हुए ढाढ़ मारकर रोने लगते ।
उत्पन्न इनके पिता असुरोंके राजा थे । देवताओंसे सदा उनकी खटपट रहती थी । एक बार देवताओंको पराजित करनेकी नीयतसे इनके पिता घोर तप करने लगे । वे भगवान्की सकाम आराधनामें इतने निमग्न हो गये कि उन्हें अपने शरीरतकका होश नहीं रहा । देवराज इन्द्रने अवसर पाकर असुरोके ऊपर चढ़ाई कर दी , उन दिनों प्रह्लाद गर्भमें थे । इन्द्रने असुरोंको मार भगाया , उनकी पुरीको लूट लिया और प्रह्लादको माताको पकड़कर ले चले । वह बेचारी गर्भवती दीना अबला कुररीकी भाँति रोती जाती थी । रास्ते में दयालु देवर्षि नारद मिले । उन्होंने इन्द्रको बहुत डाँटा और कहा- ' तुम इसे क्यों पकड़े ले जाते हो ? " इन्द्रने कहा- ' भगवन् ! मैं स्त्रीवध नहीं करूंगा । इसके पेटमें हिरण्यकशिपुका जो गर्भ है , उसके होनेपर मैं उसे मारकर इसे छोड़ दूँगा । ' देवर्षिने अपनी दिव्य दृष्टिसे देखकर कहा — ' अरे , इसके गर्भ में परम भागवत पुत्र है , इससे तुम्हें कोई भय नहीं , इसे छोड़ जाओ । ' देवर्षिकी आज्ञा पाकर इन्द्रने उसे छोड़ दिया । देवर्षि उसे अपने आश्रमपर ले गये । यहाँ लाकर वे प्रह्लादकी माताका मन बहलाने के लिये भाँति - भाँतिके भगवत् - चरित्रोंको कहा करते थे । गर्भमें स्थित प्रह्लादजीने माताके गर्भमें ही भक्तिका समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया । पीछे हिरण्यकशिपुके आनेपर प्रह्लादकी माता घर आ गयीं और वहीं प्रह्लादजीका जन्म हुआ । ये जन्मसे ही भक्तिकी बातें किया करते थे , बच्चोंमें खेलते - खेलते ये उन्हें भगवन्नाम कीर्तनका उपदेश किया करते और स्वयं सबसे कीर्तन कराते थे । पाँच वर्षकी अवस्था होनेपर हिरण्यकशिपुने अपने गुरुके पुत्र शण्ड और अमर्कके यहाँ इन्हें पढ़ने भेजा । किंतु ये तो समस्त शास्त्र माताके पेटमें ही पढ़ चुके थे । गुरु बताते थे कुछ , ये पढ़ते थे प्रभु प्रेमकी पाटी । एक दिन पिताने पूछा- ' तुमने जो सबसे अच्छी बात अबतक पढ़ी हो , उसे बताओ । ' प्रह्लादजी बोले - ' सबसे अच्छी बात तो यही है कि इन सब प्रपंचोंको छोड़कर भगवद्भक्तिमें शीघ्र - से - शीघ्र लग जाना चाहिये । ' अपने पुत्रके मुँहसे भगवद्भक्तिकी बात सुनकर हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हुआ । पुत्रको मारने दौड़ा , गुरुपुत्रोंको भला बुरा कहा । जैसे - तैसे समझा - बुझाकर लोगोंने प्रह्लादको छुड़ा दिया । हिरण्यकशिपुने यह कहकर कि ' अब कभी मेरे शत्रु विष्णुका नाम मत लेना ' पुत्रको छोड़ दिया ।
प्रहादजी भला हरिनाम कब छोड़नेवाले थे , वे नये उत्साहके साथ भगवत् - कीर्तनमें तल्लीन हो गये । अपने सहपाठियोंसे भी कहते - ' सच्चा पढ़ना तो भगवान्की शरण जाना ही है । सांसारिक पदार्थोके नाम पढ़ना अज्ञानकी ओर बढ़ना है । वे दिन - रात भगवान्के नामों और गुणोंके कीर्तनमें ही निमग्न रहते । इनके पिताने जब देखा कि यह किसी प्रकार भी भगवद्भक्ति नहीं छोड़ता तो उसने इन्हें सूलीपर चढ़वाया , मदमत्त हाथियोंके नीचे डलवाया , अथाह जलमें गलेमें पत्थर डालकर डुबाया , हलाहल विषका प्याला पिलाया , धधकती हुई अग्निमें जलवाया , पर्वत शिखरसे गिराया , किंतु इनका बाल भी बाँका नहीं हुआ । काँटोंकी सूली फूलोंकी सेजके समान सुखद हो गयी , हाथियोंने इन्हें उठाकर पीठपर बिठा लिया , जलके ऊपर पाषाण तैरने लगे । विष अमृत बन गया , अग्नि जलकी भाँति शीतल हो गयी और इन्हें जलानेकी इच्छासे ईंधन जलाकर बैठनेवाली होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गयी । पर्वत शिखरसे ये हँसते - हँसते नीचे आ गये । सारांश यह कि कोई यातना इन्हें दुखी न बना सकी । शण्डामर्क फिर इन्हें पाठशाला ले गये , वहाँ प्रह्लादने फिर बड़े जोरसे अपना वही काम शुरू कर दिया । लड़के सब हरिकीर्तन करने लगे । शण्डामर्कने गुस्से में आकर कहा — ' या तो हमारी बात मान जाओ , नहीं तो कृत्या उत्पन्न करके हम तुम्हें भस्म कर देंगे । ' विश्वासी भगवद्भक्त प्रह्लाद क्यों डरने लगे ! उन्होंने कहा — ' गुरुजी ! कौन किसको मार सकता है और कौन किसको बचा सकता है ? सब भगवान्की लीला है । ' इसपर क्रुद्ध होकर शण्डामर्कने महान् विकराल ज्वालामयी कृत्याको उत्पन्न किया कृत्याने प्रह्लादके हृदयमें शूल मारा , भक्तभयहारी भगवान्की शक्तिसे सुरक्षित प्रह्लादकी छातीपर लगते ही शूल टूक - टूक हो गया । कृत्या परास्त होकर लौटी और दोनों ब्राह्मणोंको मारकर स्वयं भी नष्ट हो गयी । अपने कारण गुरुओंकी मृत्यु होते देखकर प्रह्लादका सन्त - हृदय पिघल गया । उन्होंने कातर कण्ठसे भगवान् से बार - बार प्रार्थना की और कहा कि मुझे मारनेवाले , जहर देनेवाले , सूलीपर चढ़ानेवाले , आगमें जलानेवाले , पहाड़से गिरानेवाले , समुद्रमें फेंकनेवाले मनुष्योंसे , डँसनेवाले सर्पोंसे , पैरोंतले रौंदनेवाले हाथियोंसे यदि मेरे मनमें कुछ भी द्वेष न हो , मैं सबको अपना आत्मा और मित्र ही मानता हो , किसीके भी अनिष्टकी जरा भी मेरी इच्छा न हो तो ये मेरे दोनों गुरु जी उठें ।
' प्रह्लादकी प्रार्थनासे शण्डामर्क जी उठे और प्रह्लादको आशीर्वाद देने लगे , क्षमाशील प्रह्लादकी महिमा अनन्त कालके लिये सुप्रतिष्ठित हो गयी ! सन्तकी यही तो विशेषता है , वह बुरा करनेवालेका भी भला करता है ।
उमा संत क इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
जब किसी तरह भी ये न मरे तब तो इनके पिताको बड़ा क्रोध आया । एक खम्भेसे बाँधकर हाथमें खड्ग लेकर वह इन्हें मारनेको तैयार हुआ और बोला - ' अब बता , तेरे भगवान् कहाँ हैं ? ' प्रह्लादने निर्भीकतासे कहा - ' भगवान् सर्वत्र हैं , मुझमें , तुममें , खड्ग और खम्भेमें- सर्वत्र वे श्रीहरि व्याप्त हैं । ' हिरण्यकशिपुने कहा- ' तब फिर इस खम्भेमें क्यों नहीं दीखते ? ' इतना कहना था कि भगवान् आधे मनुष्य और आधे सिंहके रूपमें उस खम्भेमेंसे प्रकट हुए । उस अद्भुत नृसिंहरूपको देखकर हिरण्यकशिपु डर गया , भगवान्ने जल्दीसे उसे घुटनोंपर रखकर उसका पेट फाड़ दिया । सब देवता प्रसन्न हुए । सभीने भगवान्की स्तुति की । भगवान्ने प्रेमपूर्वक प्रह्लादको गोदमें बिठाया , उसे खूब प्यार किया और वरदान माँगनेको कहा । प्रह्लादने कहा- ' प्रभो ! मेरे पिताने आपसे वैर किया था , इनकी दुर्गति न हो । ' भगवान् हँसे और बोले ' भैया , जिस कुलमें तुम्हारे - जैसे भगवद्भक्त हुए हैं , उस कुलकी सात पीढ़ी पहली , सात आगेकी और सात मातृपक्षकी , इस प्रकार इक्कीस पीढ़ियाँ तो स्वतः तर गयीं । तुम्हारे पिता भी तर गये । ' अन्तमें प्रह्लादने भगवान्में अहेतुकी भक्तिका वरदान माँगा । भगवान् ऐसा वरदान देकर और प्रह्लादका राजतिलक करके अन्तर्धान हो गये । प्रह्लाद बहुत कालतक असुरोंके सिंहासनपर राज्य करते रहे । अन्तमें अपने पुत्र विरोचनको राज्य देकर वे भगवान्की भक्तिमें तल्लीन हो गये । इसीलिये प्रह्लाद प्रातःस्मरणीय भक्तोंमें सर्वप्रथम स्मरण किये जाते हैं ।
( ८ ) श्रीजनकजी
निमिवंशमें जितने भी राजा हुए सभी ' जनक ' कहलाते थे , ब्रह्मज्ञानी होनेसे इन सबोंकी विदेहसंज्ञा भी थी । किंतु जनकके नामसे अधिक प्रसिद्ध सीताजीके पिता ही हुए हैं । उनका यथार्थ नाम सीरध्वज था । ' सीरध्वज ' नामका एक कारण है । ' सीर ' कहते हैं हलकी नोकको एक बार मिथिला देशमें बड़ा अकाल पड़ा , विद्वानोंने निर्णय किया कि महाराज जनक स्वयं हलसे जमीन जोतकर यज्ञ करें तो वर्षा हो । महाराज यज्ञके लिये जमीन जोत रहे थे कि हलकी नोक लगनेसे पृथ्वीमेंसे एक कन्या निकल आयी । वही जगज्जननी महारानी सीताजी हुई । महाराज जनक उन्हें अपने घर ले आये और उन्हींको अपनी सगी पुत्री मानकर लालन - पालन करने लगे ।
ये पूर्ण ब्रह्मज्ञानी थे , ' मैं मेरे ' के चक्रसे सर्वथा छूटे हुए थे । वे सदा ब्रह्मरूपमें स्थित रहते हुए ही प्रजापालनका कार्य समुचित रूपसे करते रहते थे । बड़े - बड़े ऋषि - महर्षि इनके पास ज्ञान चर्चा करने आते थे ।
ये शिवजीके बड़े भक्त थे । शिवजीने अपना माहेश्वर धनुष इन्हें धरोहरके रूपमें दे दिया था , वह इनके घरमें रखा था और उसकी पूजा होती थी । कहते हैं एक बार घरको लीपते समय श्रीजानकीजीने एक हाथ से उस प्रलयंकारी विशाल धनुषको उठा लिया और जमीनको लीपकर उसे फिर ज्यों - का - त्यों वहाँ रख दिया । उसी समय महाराजने प्रतिज्ञा की कि जो कोई हमारे इस माहेश्वर धनुषको उठा लेगा , उसीके साथ मैं सीताजीका विवाह करूंगा ।
श्रीतुलसीकृत रामायणमें जनकजीका चरित्र बहुत ही संक्षिप्तरूपमें वर्णित हुआ है , किंतु जितना चरित्र उनका अंकित हुआ है , वह इतना सुन्दर है कि उसमें गाम्भीर्य , तेज , विद्वत्ता , ज्ञान , प्रेम आदि गुणोंका सम्मिश्रण हुआ है । उसमें परस्पर भिन्न गुणोंका ऐसा सामंजस्य है कि देखते ही बनता है ।
महर्षि विश्वामित्रजीके साथ श्रीराम लखन मिथिलापुरी पधारे हैं , सुनते ही महाराज जनक उनका सत्कार करने मन्त्री और पुरोहितोंके साथ आते हैं ; आकर वे विधिवत् ऋषिकी पूजा करते हैं , कुशल - क्षेम पूछते हैं । ऋषिने राम - लखनको पुष्प लेने भेज दिया था , इसी अवसरपर वे अनूप भूपकिशोर आ जाते हैं । अहा , उन्हें देखकर ज्ञानशिरोमणि महाराज जनककी क्या दशा हो जाती है—
मूरति मधुर मनोहर देखी । भयठ विदेहु विदेहु बिसेषी ॥
मन प्रेममें मगन है , शरीरकी सुध - बुध नहीं , बहुत चेष्टा करके महाराज जनकने अपनेको सँभाला और अपने मनका भाव ऋषि विश्वामित्रके सम्मुख प्रकट करते हुए कहा
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा उभय द्वेष धरि की सोइ आवा ॥ सहज बिरागरूप मनु मोरा थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥ इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥
तब विश्वामित्रजीने इशारेसे राजाके अनुमानका समर्थन करके फिर श्रीरामका संकेत पाकर कहा
रघुकुल मनि दसरथ के जाए मम हित लागि नरेस पठाए ॥
जब किसी राजासे धनुष टस से मस नहीं हुआ , तब महाराज जनकने सब राजाओंको सम्बोधन करके कहा
अब जनि कोठ माखै भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥ तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न विधि वैदेहि विवाहू ॥ सुकतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअरि कुआरि रहउ का करके ॥
यह बात लक्ष्मणजीको बुरी लगी । उन्होंने बड़े जोरोंसे महाराज जनककी इस बातका विरोध किया । वृद्ध ब्रह्मज्ञानी राजर्षिको बालक लक्ष्मणजी ने डाँट दिया ।
कही जनक जसि अनुचित बानी । विद्यमान रघुकुलमनि जानी ॥
लक्ष्मणजी बहुत कुछ कह गये । किंतु जनकजीकी गम्भीरता भंग नहीं हुई , उन्होंने न लक्ष्मणजीकी बातों का बुरा ही माना , न खण्डन ही किया ।
श्रीरामजीने धनुष तोड़ दिया । इसे सुनकर परशुरामजी आये । वे बहुत उछले - कूदे , बड़ी - बड़ी बातें कहीं ; किंतु जनकजी एकदम तटस्थ ही बने रहे । वे समझते थे कि जिन्होंने इतने बड़े शिवधनुषको तोड़ दिया वे स्वयं इनसे समझ - बूझ लेंगे , हमें बीचमें पड़नेकी क्या जरूरत है ।
जब श्रीरामजी वनको जाते हैं और भरतजी उन्हें मनानेके लिये चित्रकूट पहुँचते हैं तो वहाँ भी जनकजीके दर्शन होते हैं । उस समयकी उनकी गम्भीरता श्लाघनीय है । वे स्पष्ट यह भी नहीं कह सकते कि श्रीरामजी अयोध्या लौट जायँ ; क्योंकि लोग कहेंगे जनकजीने जामाताका पक्ष लिया और भरतके प्रेमको देखकर वे यह भी नहीं कह सकते कि भरतजीकी बात न मानी जाय । अतः अपनी रानीसे भरतजीकी बहुत बड़ाई करते - करते अन्तमें उन्होंने यही कहा—
देवि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ॥
इससे उनके बीचमें न बोलना ही उचित है , वे जो कुछ करेंगे , वही ठीक होगा । अपनी पुत्री सीताको वनवासी वेषमें देखकर महाराजके हृदयकी जो दशा हुई , वह अवर्णनीय है । इस स्थलपर उसका वर्णन असम्भव है । क्या उनका वह मोह था ? कवि कहते हैं , नहीं , कदापि नहीं मोह मगन मति नहिं बिदेह की महिमा सिय रघुबर सनेह की ॥ जहाँ ' सिय - रघुबर ' का ' सनेह ' है , वहाँ मोह रह ही कैसे सकता है । ब्रह्मज्ञानी जनकजीके हृदय में यह प्रेम निरन्तर रहता था !
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
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