महर्षी रिभु जी महाराज

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 Maharishi Ribhu ji Maharaj 


  महर्षि ऋभु सद्गुरु - मर्यादाकी रक्षाके लिये इन्होंने श्रद्धाभक्तिसे युक्त होकर अपने बड़े भाई सनत्सुजातकी शरण ली थी । महषि ऋभु ब्रह्माके मानस पुत्रोंमसे एक हैं । ये स्वभावसे ही ब्रह्मतत्त्वज्ञ तथा निवृत्तिपरायण भक्त है । तथापि उनसे सम्प्रदायगत मन्त्र , योग और ज्ञान प्राप्त करके ये सर्वदा सहज स्थितिमें ही रहने लगे । मल , विक्षपदया आवरणसे रहित होकर ये जहाँ - कहीं भी पड़े रहते । शरीरके अतिरिक्त इनकी कोई कुटी नहीं थी । यों ही विचरते हुए महर्षि ऋभु एक दिन पुलस्त्य ऋषिके आश्रमके समीप जा पहुॅचे । वहा पुलस्त्यका पुत्र निदाघ वेदाध्ययन कर रहा था । निदाघने आगे आकर नमस्कार किया । उसके अधिकारको देखकर महर्षि ऋभुको बड़ी दया आयी । उन्होंने कहा- ' इस जीवनका वास्तविक लाभ आत्मज्ञान प्राप्त करना है । यदि वेदोंको सम्पूर्णतः रट जाय और वस्तुतत्त्वका ज्ञान न हो तो वह किस कामका है ? निदाघ ! तुम आत्मज्ञानका सम्पादन करो । ' महर्षि ऋभुकी बात सुनकर उसकी जिज्ञासा जग गयी । उसने इन्हींकी शरण ली । अपने पिताका आश्रम छोड़कर वह उनके साथ भ्रमण करने लगा । उसकी सेवामें तन्मयता और त्याग देखकर महर्षिने उसे तत्त्वज्ञानका उपदेश किया । उपदेशके पश्चात् आज्ञा की कि ' निदाघ ! जाकर गृहस्थ - धर्मका अवलम्बन लो । मेरी आज्ञाका पालन करो । ' गुरुदेवकी आज्ञा पाकर निदाघ अपने पिताके पास आया । उन्होंने उसका विवाह कर दिया । इसके पश्चात् देविका नदीके तटपर वीरनगरके पास एक उपवनमें निदाघने अपना आश्रम बनाया और वहाँ वह अपनी पत्नीके साथ गार्हस्थ्यका पालन करने लगा । कर्मपरायण हो गया । बहुत दिनोंके बाद ऋभुको उसकी याद आयी । अपने अंगीकृत जनका कल्याण करनेके लिये वे वहाँ पहुँच गये । महापुरुष जिसे एक बार स्वीकार कर लेते हैं , उसे फिर कभी नहीं छोड़ते । वे बलिवैश्वदेवके समय निदाघके द्वारपर उपस्थित हुए । निदाघने उन्हें न पहचाननेपर भी गृहस्थ - धर्मानुसार अतिथिको भगवद्रूप समझकर उनकी रुचिके अनुसार भोजन कराया । अन्तमें उसने प्रश्न किया कि ' महाराज ! भोजनसे तृप्त हो गये क्या ? आप कहाँ रहते हैं ? कहाँसे आ रहे हैं ? और किधर पधारनेकी इच्छा है ? ' महर्षि ऋभुने अपने कृपालु स्वभावके कारण उपदेश करते हुए उत्तर दिया - ' ब्राह्मण ! भूख और प्यास प्राणोंको ही लगती है । मैं प्राण नहीं हूँ । जब भूख - प्यास मुझे लगती ही नहीं , तब तृप्ति - अतृप्ति क्या बताऊँ ? स्वस्थता और तृप्ति मनके ही धर्म हैं । आत्मा इनसे सर्वथा पृथक् है । रहने और आने - जानेके सम्बन्धमें जो पूछा , उसका उत्तर  सुनो । आत्मा आकाशकी भाँति सर्वगत है । उसका आना - जाना नहीं बनता । मैं न आता हूँ , न जाता हूँ और न किसी एक स्थानपर रहता ही हूँ । तृप्ति - अतृप्तिके हेतु ये सब रस आदि विषय परिवर्तनशील हैं । कभी अतृप्तिकर पदार्थ तृप्तिकर हो जाते हैं और कभी तृप्तिकर अतृप्तिकर हो जाते हैं । अतः विषमस्वभाव पदार्थोंपर आस्था मत करो ; इनकी ओरसे दृष्टि मोड़कर त्रिगुण , व्यवस्था और समस्त अनात्म वस्तुओंसे ऊपर उठकर अपने - आपमें स्थिर हो जाओ । ये सब संसारी लोग मायाके चक्करमें पड़कर अपने स्वरूपको भूले हुए हैं । तुम इस मायापर विजय प्राप्त करो । ' महर्षि ऋभुके इन अमृतमय वचनोंको सुनकर निदाघ हुई , महर्षि चले गये । उनके चरणोंपर गिर पड़े । फिर उन्होंने बतलाया कि ' मैं तुम्हारा गुरु ऋभु हूँ । ' निदाघको बड़ी प्रसन्नता ना बहुत दिनोंके पश्चात् फिर महर्षि ऋभु वहाँ पधारे । संयोगवश उस दिन वीरपुरनरेशकी सवारी निकल रही थी । सड़क बड़ी भीड़ थी । निदाघ एक ओर खड़े होकर भीड़ हट जानेकी प्रतीक्षा कर रहे थे । इतनेमें ही महर्षिने इनके पास आकर पूछा - ' यह भीड़ कैसी है ? ' निदाघने उत्तर दिया- ' राजाकी सवारी निकलनेके कारण भीड़ है । ' उन्होंने पूछा - ' तुम तो जानकार जान पड़ते हो । मुझे बताओ इनमें कौन राजा है और कौन दूसरे लोग हैं ? ' निदाघने कहा- ' जो इस पर्वतके समान ऊँचे हाथीपर सवार हैं , वे राजा हैं । उनके अतिरिक्त दूसरे लोग हैं । ' ऋभुने पूछा- ' महाराज ! मुझे हाथी और राजाका ऐसा लक्षण बताओ कि मैं समझ सकूँ कि ऊपर क्या है ? नीचे क्या है ? ' यह प्रश्न सुनकर निदाघ झपटकर उनपर सवार हो गये और कहा- ' देखो , मैं राजाकी भाँति ऊपर हूँ । तुम हाथीके समान नीचे हो । अब समझ जाओ राजा और हाथी कौन हैं । ' महर्षि ऋभुने बड़ी शान्तिसे कहा- ' यदि तुम राजा और मैं हाथीकी भाँति स्थित हूँ तो बताओ तुम कौन हो और मैं कौन हूँ ? ' यह बात सुनते ही निदाघ उनके चरणोंपर गिर पड़े , वह हाथ जोड़कर कहने लगे - ' प्रभो ! आप अवश्य ही मेरे गुरुदेव ऋभु हैं । आपके समान अद्वैतसंस्कार संस्कृतचित्त और किसीका नहीं है । आप अवश्य अवश्य मेरे गुरुदेव हैं , मैंने अनजानमें बड़ा अपराध किया । संत स्वभावतः क्षमाशील होते हैं । आप कृपया मुझे क्षमा करें । ' ऋभुने हँसते हुए कहा ' कौन किसका अपराध करता है ? यदि एक वृक्षकी दो शाखाएँ परस्पर रगड़ खायँ तो उनमें किसका अपराध है ? मैंने तुम्हें पहले व्यतिरेक मार्गसे आत्माका उपदेश किया था । उसे तुम भूल गये । अब अन्वय मार्गसे किया है । इसपर परिनिष्ठित हो जाओ । यदि इन दोनों मार्गोंपर विचार करोगे तो संसारमें रहकर भी तुम इससे अलिप्त रहोगे । ' निदाघने उनकी बड़ी स्तुति की । वे स्वच्छन्दतया चले गये । ऋभुकी इस क्षमाशीलताको सुनकर सनकादि गुरुओंको बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने ब्रह्माके सामने इनकी महिमा गायी और इनका नाम क्षमाका एक अक्षर लेकर ऋभुक्ष रख दिया । तबसे साम्प्रदायिक लोग इन्हें ऋभुक्षानन्दके नामसे स्मरण करते हैं । इनकी कृपासे निदाघ आत्मनिष्ठ हो गये । 


श्रीइक्ष्वाकुजी परम पुरुष परमात्माने जब सृष्टिकी इच्छा की तो सर्वप्रथम उनकी नाभिसे एक सुवर्णमय कमलकोश प्रकट हुआ , उसीमें चतुर्मुख ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ । ब्रह्माजीके मनसे मरीचि और मरीचिके पुत्र कश्यप हुए । उनकी पत्नी अदितिसे विवस्वान् ( सूर्य ) का जन्म हुआ । विवस्वान्‌की संज्ञा नामक पत्नीसे श्राद्धदेव मनुका जन्म हुआ । परम मनस्वी राजा श्राद्धदेव मनुने अपनी पत्नी श्रद्धाके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न किये , जिनमें सबसे ज्येष्ठ इक्ष्वाकुजी थे । कहीं - कहीं मनुजीकी नासिकासे इक्ष्वाकुका प्रादुर्भाव होना पाया जाता  है । यथा - क्षुवतस्तु मनोर्जज्ञे इक्ष्वाकुर्ब्राणतः सुतः ॥ ( भा ० ) श्रीइक्ष्वाकुजी अयोध्याके प्रथम राजा हुए यथा- तमिक्ष्वाकुमयोध्यायां राजानं विद्धि पूर्वकम् ॥ ( वाल्मीकीय रामायण ) महाराजा इक्ष्वाकुजी बड़े ही प्रजावत्सल राजा हुए । श्रीमद्भागवतमें वर्णन है कि श्रीपरीक्षित्जीकी जन्म कुण्डलीका वर्णन करते हुए ज्योतिषियोंने सर्वप्रथम यही कहा है कि पार्थ प्रजाविता साक्षादिक्ष्वाकुरिव मानवः ॥ ( भा ० ) अर्थात् धर्मराज यह बालक मनुपुत्र इक्ष्वाकुके समान अपनी प्रजाका पालन करेगा । महाभारतके युद्धमें भगवान् श्रीकृष्णने गीता - ज्ञानका अनादित्व वर्णन करते हुए श्रीइक्ष्वाकुजीका स्मरण किया है । यथा विवस्वते योगं इम विवस्वान्मनवे प्रोक्तवानहमव्ययम् । मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ प्राह अर्थात् श्रीभगवान् बोले मैंने इस अविनाशी ज्ञानयोगको सूर्यसे कहा था , सूर्यने अपने पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकुसे कहा । इस प्रकार श्रीइक्ष्वाकुजी महाराज गीताज्ञानके आचार्य सिद्ध होते हैं । रीवांनरेश महाराज श्रीरघुराजसिंहजीने स्वरचित श्रीरामरसिकावली भक्तमालमें श्रीइक्ष्वाकुजीकी लीलाभिनय निष्ठाका एक सरस प्रसंग वर्णन किया है । वे लिखते हैं कि जयते महिपाल इक्ष्वाकु भये हरि लीला रचें शिशुसंगन में । सतिभाव बिलोकि के तासु हरी कह्यो मांगु रेंगे रति रङ्गन में ॥ रघुराज को जस खेलत हैं तुमहू तस खेलो उमङ्गन में मुसकाइ कह्यो हरि तेरेइ वंश में खेलिहीं आंध के अङ्गन में ॥ इसी वरदानके फलस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीरामने इसी वंशमें अवतार ग्रहण किया था । यथा इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः ॥ एक बार महाराज इक्ष्वाकु तीर्थयात्रा करते हुए श्रीजापकमुनिके आश्रमपर पहुँचे । मुनिने राजाको अर्थ , पाद्य और आसन देकर कुशल - मंगल पूछनेके बाद इस प्रकार कहा - महाराज ! आपका स्वागत है । मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपकी क्या सेवा करूँ ? यह आप मुझे बतायें । राजाने कहा- विप्रवर ! मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप स्वधर्ममें स्थित ब्राह्मण हैं , अतः मैं आपको कुछ धन देना चाहता हूँ । ब्राह्मणने कहा- नरेश्वर ! आप उन ब्राह्मणोंको दान करें , जो प्रवृत्तिमार्गमें हों । मैं तो प्रतिग्रहसे निवृत्त ब्राह्मण हूँ । अतः आपसे दान नहीं ले सकता । हाँ , आपको जो अभीष्ट हो , वह कहें ; मैं अपने तपोबलसे पूर्ण कर दूंगा । इक्ष्वाकुजी बोले क्षत्रियोंको याचनाका अभ्यास नहीं होता । यदि कभी ऐसा प्रसंग प्राप्त होता है तो हम लोग तो यही कहना जानते हैं कि ' युद्ध दो । ' ब्राह्मणने कहा - नरेश्वर ! जैसे आप अपने धर्मसे सन्तुष्ट हैं , उसी तरह हम भी अपने धर्मसे सन्तुष्ट हैं । हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है , अतः आपको जो अच्छा लगे , वही कीजिये । महाराज इक्ष्वाकुने इन उदारचेता ब्राह्मण मुनिसे इनके समस्त जप - साधनका फल माँगा । मुनिने सहर्ष संकल्प कर दिया । तत्पश्चात् राजा इक्ष्वाकुने अपने समस्त पुण्योंका फल जापक मुनिको समर्पित कर दिया और कहा हमारा और आपका सारा पुण्य हम दोनोंके लिये समान हो और हम साथ - साथ उसका उपभोग करें । जापक मुनिने इनका अनुरोध स्वीकार कर लिया । फिर तो वे दोनों एक - दूसरेका उपकार करते हुए एक साथ हो गये । वे एक ही साथ मनको विषयोंकी ओरसे हटाकर मनसहित प्राण , अपान , उदान , समान और व्यान इन पाँचों प्राणवायुओंको सुषुम्णामार्गद्वारा मूर्धामें स्थापित करके समाधिमें स्थित हो गये । तत्पश्चात् दोनों   ही ब्रह्मरन्ध्रका भेदन करके दिव्यरूप धारण करके ब्रह्मलोकको गये और सभी देवताओंके देखते - देखते श्रीब्रह्माजीके मुखारविन्दमें प्रविष्ट हो गये । श्रीऐलजी ( पुरुरवा ) वैवस्वत मनुके पुत्र न था । उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठजीने इन्हें संतानप्राप्ति कराने के लिये मित्रावरुणदेवका यज्ञ कराया । मनु - पत्नी श्रद्धा , जिसने यज्ञकी दीक्षा ली थी , उसने होताके पास जाकर प्रणामपूर्वक कन्याके लिये प्रार्थना की । फलतः होताने आहुति छोड़ते समय एकाग्रचित्त हो कन्याका संकल्प करके आहुति छोड़ी । होताके इस व्यतिक्रमसे मनुके पुत्रके स्थानपर इला नामकी कन्या पैदा हुई । उसे देखकर मनुजी प्रसन्न नहीं हुए । उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजीसे पूछा कि यह विपरीत फल कैसे हुआ ? तब वसिष्ठजीने ध्यान करके देखा तो सब बात विदित हो गयी । तत्पश्चात् राजासे समस्त वृत्तान्त कहकर वे बोले कि अब हम अपने ब्रह्मतेजसे आपकी कामना पूर्ण करेंगे । ऐसा निश्चय करके ब्रह्मर्षि वसिष्ठजीने उस इला नामकी कन्याको ही पुरुष बना देनेके लिये पुरुषोत्तम भगवान् नारायणकी स्तुति की , सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने सन्तुष्ट होकर इन्हें मुँहमाँगा वर दिया , जिसके प्रभावसे वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी । एक बार शिकार खेलते हुए ससमाज राजा सुद्युम्न सुमेरु पर्वतकी तलहटीके एक गिरिजाशंकर - विहार बनमें पहुँच गये । वहाँ प्रवेश करते ही ( शिवजीके पूर्वशापवश कि इस वनमें जो आयेगा , वह स्त्री हो जायगा ) सब स्त्री हो गये । इसलिये वे पुनः इला नामकी कन्या बने हुए अपने अनुचरोंके साथ एक वनसे दूसरे वनमें विचरने लगे । उसी समय चन्द्रमा पुत्र बुध , जो समीपके ही एक वनमें तपस्या कर रहे थे , स्त्रीरूपधारी मुद्युम्नको देखकर मोहित हो गये और इधर इन्होंने भी कामोपम चन्द्रकुमार बुधको पति बनाना चाहा । फिर तो दोनोंमें परस्पर प्रेम हो गया । परिणामस्वरूप बुधने उनसे पुरूरवा नामक पुत्र उत्पन्न किया । कुछ काल बाद सुद्युम्नने श्रीसद्गुरुदेव वसिष्ठजीका स्मरण किया । वे आये और राजकुमारकी दशा देखकर उन्हें दया आ गयी । उन्होंने सुघुम्नको पुनः पुरुष बना देनेके लिये भगवान् शंकरकी आराधना की । श्रीशिवजीने अपना शाप और वसिष्ठजीकी विनय - दोनोंकी रक्षा करते हुए यह वर दिया कि यह एक महीनेतक पुरुष एवं एक महीनेतक स्त्री रहेंगे । बुध - पुत्र पुरूरवा ही इलाके गर्भसे उत्पन्न होनेसे ऐल कहे गये । स्वर्गकी सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी एक दिन इन्द्रकी सभामें देवर्षि नारदजीके मुखसे पुरूरवाके रूप , गुण , शोल - स्वभाव , शौर्य - वीर्य , बल - पराक्रमको सुनकर मोहित होकर स्वर्गसे पुरूरवाके पास चली आयी । उवंशीको मर्त्यलोकमें जानेका मित्रावरुणका शाप भी था । अतः उसने पुरूरवाके साथ विहार करते हुए सापकी अवधि बितानेका निश्चय किया । इधर देवांगना उर्वशीको देखकर राजा पुरूरवा भी धैर्य खो बैठे । परिणामस्वरूप दोनोंमें स्नेह - सम्बन्ध हो गया । शापकी अवधिपर्यन्त पुरूरवाके साथ विहार करती हुई उर्वशी अवधि बीतनेपर बिना किसी शील - संकोचके इन्हें छोड़कर स्वर्ग चली गयी । उसके चले जानेपर पहले तो परम यशस्वी सम्राट् पुरूरवा विरहसे अत्यन्त व्याकुल हो गये । परंतु पीछे शोक हट जानेपर उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और तब उनके हृदयसे जो उद्गार निकला है , वह परमार्थ - पथके पथिकोंके लिये बड़े ही महत्त्वका है । यथा — अपने वास्तविक कल्याणको समझनेवाले विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्त्रियों एवं स्त्रीलम्पट पुरुषोंका संग न करे । विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे ही मनमें विकार होता है , अन्यथा विकारका कोई अवसर ही नहीं है । जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है , उसके लिये मनमें विकार नहीं होता । जो लोग विषयोंके साथ इन्द्रियोंका संयोग नहीं होने देते , उनका मन अपने - आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है ; अतः मन , वाणी और श्रवण आदि इन्द्रियोंसे स्त्रियों और स्त्रीलम्पटोंका संग कभी नहीं करना चाहिये । 

मुझ जैसे सांसारिक लोगोंकी तो बात ही क्या , बड़े - बड़े विद्वानोंके लिये भी अपनी इन्द्रियों और मंत्र विश्वसनीय नहीं हैं । राजराजेश्वर पुरुषवाके मनमें जब इस प्रकार उदगार उठने लगे

, तब उन्होंने उर्वशीका मनसे परि कर दिया । अब ज्ञानोदय होनेसे उनके मनका मोह जाता रहा और उन्होंने अपने हृदयसे ही आत्मस्वरूप श्रीकृष्णका साक्षात्कार कर लिया और भावमें स्थित हो गये । महाभारत अनुशासनपर्वमें इनका प्रातः स्मरणय राजर्पियोंके रूप में स्मरण किया गया है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL MISHRA 
Sanatan vedic dharma karma 
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