Maharishi Chyawan ji महर्षि च्यवन जी महाराज

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 ,                    महर्षि च्यवन जी महाराज 

भृगु लोकप्रजापति भगवान् ब्रह्माजीने वरुणके यज्ञमें एक पुत्र उत्पन्न किया , जिनका नाम भृगु था । ने पुलोमा नामवाली स्त्रीके साथ विधिवत् विवाह किया । पुलोमा जब गर्भवती थी तभी उन्हें एक प्रलोमा ला राक्षस सूकरका रूप बनाकर उठा ले गया । पुलोमा रोती जाती थी । तेज दौड़नेके कारण ऋषिपत्नीका गर्भ च्यवित हो गया , जिससे एक महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । उस पुत्रको देखते ही वह राक्षस उसके तेजसे भस्म हो गया । वे ही महर्षि च्यवन हुए । 

भृगुके पुत्र च्यवन बड़े ही तपस्वी , तेजस्वी और ब्रह्मनिरत हुए । वे सदा तपस्यामें ही लगे रहते थे । तपस्या करते - करते उनके ऊपर दीमक जम गयी थी और दीमकके एक टीलेके नीचे वे दब गये थे , केवल उनकी दो आँखें दिखायी देती थीं । एक दिन महाराज शर्याति अपनी सेनाके सहित वहाँ पहुँचे । सैनिकोंने जंगलमें डेरे डाल दिये , हाथी - घोड़े यथास्थान बाँधे गये और सैनिक इधर - उधर घूमने - फिरने लगे । महाराज शर्यातिकी पुत्री सुकन्या अपनी सखियोंसहित जंगलमें घूमने लगी । घूमते - घूमते उसने एक टीला देखा , वहाँपर वह वैसे ही विनोदके लिये बैठ गयी । उसे दो जुगनूकी तरह चमकती हुई आँखें उस दीमकके टीलेके नीचे दिखायी दीं । बाल्यकालकी चंचलताके कारण उसने उन दोनों आँखोंमें काँटा चुभो दिया । उनमेंसे रक्तकी धारा बह निकली । कन्या डर गयी और भागकर अपने डेरेमें आ गयी , उसने यह बात किसीसे कही नहीं । 

इधर राजाकी सेनामें एक अपूर्व ही दृश्य दिखायी देने लगा , राजाकी समस्त सेनाका मल - मूत्र बन्द हो गया । राजा , मन्त्री , सेवक , सैनिक , घोड़े , हाथी , रानी , राजपुत्री सभी दुखी हो गये । राजाको बड़ी चिन्ता हुई । उन्होंने सबसे पूछा- ' यहाँपर भगवान् भार्गव मुनि च्यवनका आश्रम है , तुम लोगोंने उनका कोई अनिष्ट तो नहीं किया है , किसीने उनके आश्रमपर जाकर अपवित्रता या अशिष्टता तो नहीं की है ? ' सभीने कहा ' महाराज ! हम तो उधर गये भी नहीं । तब डरते - डरते सुकन्याने कहा - ' अज्ञानवश एक अपराध मुझसे हो गया है- दीमकके ढेरमें दो जुगनू से चमक रहे थे , उनमें मैंने काँटा चुभो दिया , जिससे उनमेंसे रक्तकी धारा बह निकली ।

         महाराज सब समझ गये , वे पुरोहित और मन्त्रीके साथ बड़ी दीनतासे महर्षि च्यवनके आश्रमपर पहुँचे । उनकी विधिवत् पूजा की और अज्ञानमें अपनी कन्याके किये हुए अपराधकी क्षमा चाही । महाराजने हाथ जोड़कर कहा- ' भगवन् ! मेरी यह कन्या सरल है , सीधी है । इससे अनजानेमें यह अपराध बन गया , अब मुझे जो भी आज्ञा हो मैं उसका सहर्ष पालन करूँ । " 

 च्यवनमुनि बोले - ' राजन् ! यह अपराध अज्ञानमें ही हुआ सही ; किंतु मैं वृद्ध हूँ , आँखें भी मेरी फूट गर्यो , अतः तुम इस कन्याको ही मेरी सेवाके लिये छोड़ जाओ । ' महाराजने इसे सहर्ष स्वीकार किया । सुकन्याने भी बड़ी प्रसन्नतासे इसको स्वीकार किया । सुकन्याका विवाह विधिवत् च्यवनमुनिके साथ कर दिया गया । सुकन्या अपने पतिकी सेवामें रह गयी । राजा उसे समझाकर अपनी राजधानीको चले गये । च्यवन मुनिका स्वभाव कुछ कड़ा था , किंतु साध्वी सुकन्या दिन - रात सेवा करके उन्हें सदा सन्तुष्ट रखती थी । एक बार देवताओंके वैद्य अश्विनीकुमार भगवान् च्यवनके आश्रमपर आये । च्यवनमुनिने उनका विधिवत् सत्कार किया । ऋषिके आतिथ्यको स्वीकार करके अश्विनीकुमारोंने कहा- ' ब्रह्मन् । हम आपका क्या उपकार करें  ?

च्यवनमुनिने कहा- ' देवताओ ! तुम सब कुछ कर सकते हो । तुम मेरी इस वृद्धावस्थाको मेट दो और मुझे युवावस्था प्रदान करों , इसके बदले मैं तुम्हें यज्ञमें भाग दिलाऊँगा । अभीतक तुम्हें यज्ञोंमें भाग नहीं मिलता है ।

 अश्विनीकुमारोंने ऋषिकी आज्ञा मानकर एक सरोवरका निर्माण किया और बोले - ' आप इसमें स्नान किजिए। 

ऋषि उसमेंसे स्नान करके ज्यों ही निकले , तब सुकन्याने क्या देखा कि बिल्कुल एक ही आकार -प्रकारके तीन देवतुल्य युवा पुरुष उससे निकले । असल में अश्विनीकुमारीने सुकन्याके पातिव्रत्यकी परीक्षा लेने के लिये ही अपने भी वैसे ही रूप बना लिये थे । तब सुकन्याने अश्विनीकुमारोंकी बहुत प्रार्थना की कि मेरे पतिको अलग कर दीजिये । सुकन्याकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर अश्विनीकुमार अन्तर्धान हो गये और सुकन्या अपने परम सुन्दर रूपवान् पतिके साथ सुखपूर्वक रहने लगी । 

च्यवन ऋषि की वृद्धावस्था जाती रही , उन्हें आँखें फिरसे मिल गयीं , उनका तपस्यासे क्षीण जर्जर शरीर एकदम बदल गया वे परम सुन्दर रूपवान् युवा बन गये । एक दिन राजा अपनी कन्याको देखने आये । पहले तो वे ऋषिको न पहचानकर कन्यापर कुछ नाराज हुए । जब उन्होंने सब वृत्तान्त सुना तो कन्यापर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने ऋषी की चरणवन्दना की कि आपके उपकार के प्रभावसे हमारा वंश पावन हुआ उन व्यव ऋषिके पुत्र प्रमति हुए और प्रमतिके रुरु रुरू के शुनक हुए । ये सब भृगुवंश में उत्पन्न होनेसे भार्गव कहलाये । 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL Mishra 
Bhupalmishra35620@gmail.com 

                      सौभरि 

दया की भगवान सौभरि वेद ऋषि हैं । इनके चरित्र वेदों , पुराणों और उपनिषदोमं सर्वत्र मिलते है । ' ' नामसे एक संहिता भी है । ये वृन्दावन के निकट कालिन्दीके तटपर रमणक नामक द्वीप रहते थे , जो नरख नाम से प्रसिद्ध है । ये यमुनाजीके जलमें डूबकर हजारों वर्षातक उपस्या करते रहे । एक मछली पकड़ने के लिये जाल डाला । मछलियोंके साथ जाल में स्वयं भी फैस आयेाहन समझा कोई बड़ा भारी मलय फैस गया है । उन्होंने ऊपर खींचा तो मालूम हुआ गये है तुम हमें तोहम्मत कहाँ थी , ऋषिके आग्रह करनेपर बह से है , उल्का जा सकता है ? हुआ है , एकउनके स्थान समीप मलियोको खा रहे हैं । एक बड़ा के नेप बदलेगें देकर ऋषिको कर दिया क्रमश 

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