Rajharshi Nimi ji _राजर्षि निमिजी महाराज

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                राजर्षि निमी जी महाराज 

और नौ योगीश्वर

 कबि हरि करभाजन भक्ती रत्नाकर भारी । अंतरिच्छ अरु चमस अननिता पधति उधारी ॥ प्रबुध प्रेम की रासि भूरिदा आबिरहोता । पिप्पल द्रुमिल प्रसिद्ध भवाब्धि पार के पोता ॥ जयंति नंदन जगत के त्रिबिध ताप आमय हरन । निमि अरु नव जोगेस्वरा पादत्रान की हौं सरन ॥ १३ ॥

 मैं राजा निमिजी और नौ योगीश्वरोंकी चरणपादुकाओंकी शरणमें हूँ । कवि , हरि और करभाजनजी भक्तिके अथाह समुद्र हैं । अन्तरिक्ष और चमसजी वैष्णव - उपासनामें अनन्यताकी परिपाटीको चलानेवाले हैं । प्रबुद्धजी प्रेमकी राशि हैं । आविर्होत्रजी ज्ञान और भक्तिके उदार दाता हैं । पिप्पलायनजी और दुमिलजी प्राणियोंको भवसागरसे पार करनेवाले प्रसिद्ध जहाज हैं । श्रीऋषभदेवजीकी पत्नी जयन्तीदेवीको आनन्दित करनेवाले उनके ये नौ पुत्र संसारके तीनों तापोंको तथा मानसिक रोगोंको हरनेवाले हैं ॥ १३ ॥ कवि , हरि , अन्तरिक्ष , प्रबुद्ध , पिप्पलायन , आविर्होत्र , दुमिल , चमस और करभाजन- ये नौ योगीश्वर हैं । ये भगवान् वासुदेवके अंशावतार श्रीऋषभदेवजीके पुत्र हैं । ये महाभागवत और भागवतधर्मके विज्ञाता हुए हैं । श्रीमद्भागवत महापुराणके एकादश स्कन्धके दूसरेसे पाँचवें अध्यायतक इनका मिथिलाधिपति राजर्षि निमिसे संवाद वर्णित है , जिसमें इन योगीश्वरोंने महाराज निमिके पूछनेपर उनसे क्रमशः भागवतधर्म , भगवद्भक्तका लक्षण , मायाका स्वरूप , उससे पार होनेका उपाय , परब्रह्म परमात्मा नारायणका स्वरूप , कर्मयोग , भगवान्‌के अवतार और उनकी लीलाएँ भक्तिहीन पुरुषोंकी गति और भगवान्‌की पूजा विधिका वर्णन किया । 

             श्री निमिजी और नव योगीश्वर संवाद 

 एक बारकी बात है - महाराज निमि बड़े - बड़े ऋषियोंके द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे । पूर्वोक्त नौ योगीश्वर  स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञमें जा पहुँचे । सूर्यके समान तेजस्वी , परमानुरागी इन नौ योगीश्वरोंको देखकर ब्राह्मण सबके सब स्वागतमें खड़े हो गये तथा उन्होंने प्रेम तथा आनन्दसे भरकर विधिपूर्वक इनकी पूजा की तत्पश्चात् श्रीनिमिजीने कहा 

 दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां दुर्लभ तत्रापि मन्ये क्षणभङ्गुरः । वैकुण्ठप्रियदर्शनम् ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।२।२ ९ ) 

अर्थात् भगवन् । जीवोंके लिये मनुष्य शरीरका प्राप्त होना दुर्लभ है । यदि यह प्राप्त भी हो जाता है । तो प्रतिक्षण मृत्युका भय सिरपर सवार रहता है ; क्योंकि यह क्षणभंगुर है । इसलिये अनिश्चित मनुष्य जीवनमें भगवान्‌के प्यारे और उनको प्यार करनेवाले भक्तजनोंका , सन्तोंका दर्शन तो और भी दुर्लभ है । हम आप यह जानना चाहते हैं कि जीवके परम कल्याणका स्वरूप क्या है और उसका साधन क्या है ? तथा कृपा करके भागवतधर्मोका भी वर्णन कीजिये ।

 श्रीनिमिके प्रश्नका अभिनन्दन करते हुए श्रीकविजी बोले

 मन्येऽकुतश्चिद् भयमच्युतस्य पादाम्बुजोपासनमन्त्र नित्यम् । उद्विग्नबुद्धेरसदात्मभावाद् विश्वात्मना निवर्तते भीः ॥ यत्र ( श्रीमद्भा ० ११।२।३३ )

 अर्थात् राजन् ! भक्तजनोंके हृदयसे कभी दूर न होनेवाले अच्युतभगवान्‌के चरणोंकी नित्य - निरन्तर उपासना ही इस संसारमें परम कल्याण - आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है । ऐसा मेरा निश्चित मत है , देह - गेहादि तुच्छ एवं असत् पदार्थों में अहंता एवं ममता हो जानेके कारण जिनकी चित्तवृत्ति उद्विग्न हो रही है , उनका भय भी इस उपासनाका अनुष्ठान करनेपर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है । कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्धयात्मना वानुसृतस्वभावात् । यद् यत् सकल परस्मै नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ करोति ( श्रीमद्भा ० ११ ।२।३६ )

 अर्थात् कल्याणकामी पुरुष शरीरसे , वाणीसे , मनसे , इन्द्रियोंसे , बुद्धिसे , अहंकारसे , अनेक जन्मों अथवा एक जन्मकी आदतोंसे स्वभाववश जो - जो करे , वह सब परमपुरुष भगवान् नारायणके लिये ही है - इस भावसे उन्हें समर्पण कर दे

 । शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेर्जन्मानि कर्माणि च यानि लोके । गीतानि नामानि तदर्थकानि गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥ ( श्रीमद्भा ० ११ । २ । ३ ९ ) 

अर्थात् संसारमें भगवान्‌के जन्मकी और लीलाकी बहुत सी मंगलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं , उनको सुनते रहना चाहिये । उन गुणों और लीलाओंका स्मरण दिलानेवाले भगवान्‌के बहुतसे नाम भी प्रसिद्ध हैं । लाज - संकोच छोड़कर उनका गान भी करते रहना चाहिये तथा सर्वत्र आसक्तिशून्य होकर विचरण करते रहना चाहिये ।

 खं वायुमग्निं सलिलं महीञ्च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् । सरित्समुद्रांश्च हरे : शरीरं यत् किंच भूतं प्रणमेदनन्यः ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।२।४१ ) 

अर्थात् राजन् ! यह आकाश , वायु , अग्नि , जल , पृथ्वी , ग्रह - नक्षत्र , प्राणी , दिशाएँ , वृक्ष - वनस्पति , नदी , समुद्र - सब के सब भगवान्‌के शरीर हैं । सभी रूपोंमें स्वयं भगवान् प्रकट हैं - ऐसा समझकर अनन्य भक्त प्राणि - मात्रको प्रणाम करता है ।

 भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः । यथाश्नतः स्युस्तुष्टि : पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥ प्रपद्यमानस्य ( श्रीमद्भा ० ११ ।२।४२ ) 

अर्थात् जैसे भोजन करनेवालेको प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टि , पुष्टि और क्षुधानिवृत्ति- ये तीनों एक साथ हो जाते हैं , वैसे ही जो मनुष्य भगवान्‌की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है , उसे भजनके प्रत्येक क्षणमें भगवान्‌के प्रति प्रेम , अपने प्रेमास्पद प्रभुके स्वरूपका अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओंमें वैराग्य - इन तीनोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है ।  भगवद्भक्कों के सम्बन्ध में जिज्ञासा करनेपर श्रीहरिने कहा सर्वभूतेषु यः पश्येद् भूतानि भगवत्यात्मन्येष भगवद्‌भावमात्मनः । भागवतोत्तमः ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।२।४७५ ) अर्थात् आत्मस्वरूप भगवान् समसा प्राणियों में आत्मारूपसे- नियत्तारूपसे स्थित हैं और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान्‌में स्थित हैं । इस प्रकारका जिसका अनुभव है , उसे उत्तम भागवत समझना चाहिये । व त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठस्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् न चलति भगवत्पदारविन्दाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः ॥ 9 ( श्रीमद्भा ० ११।२।५३ ) अर्थात् बड़े - बड़े देवता और ऋषि - मुनि भी अपने अन्तःकरणको भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं- भगवान्के ऐसे चरण कमलोंसे आधे क्षण , आधे पलके लिये भी जो नहीं हटता , निरन्तर उन चरणोंकी सन्निधि और सेवामें संलग्न रहता है ; यहाँतक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवनकी राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृतिका तार नहीं तोड़ता है , उस राज्यलक्ष्मीकी ओर ध्यान नहीं देता , वही पुरुष वास्तवमें भगवद्भक्त वैष्णवोंमें अग्रगण्य है । श्रीनिमिजीकी जिज्ञासापर श्रीकरभाजनजीने चारों युगोंके ध्येय स्वरूपोंका वर्णन करते हुए कलियुगमें भगवन्नाम संकीर्तनको सर्वश्रेष्ठ और सर्वसुलभ साधन बताया है । यही कारण है कि सतयुग , त्रेता और द्वापरकी प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुगमें हो । आपका कथन है कि कलियुग में भगवत्परायणभक्त बहुत होंगे । यथा कृतादिषु प्रजा कलौ खलु राजन् कलाविच्छन्ति भविष्यन्ति सम्भवम् । नारायणपरायणाः ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।५।३८ ) भगवच्छरणागतिकी महिमा वर्णन करते हुए श्रीकरभाजनजी कहते हैं कि

 देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां न किङ्करो नायमृणी च सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य राजन् । कर्तम् ॥ ( श्रीमद्भा ० ११/५/४१ ) 

अर्थात् राजन् ! जो मनुष्य ' यह करना बाकी है , वह करना आवश्यक है'- इत्यादि कर्म - वासनाओंका अथवा भेद - बुद्धिका परित्याग करके सर्वात्मभावसे शरणागतवत्सल , प्रेमके वरदानी भगवान् मुकुन्दकी शरण में आ गया है , वह देवताओं , ऋषियों , पितरों , प्राणियों , कुटुम्बियों और अतिथियों के ऋणसे उऋण हो जाता है । वह किसीके अधीन , किसीका सेवक , किसीके बन्धनमें नहीं रहता । 

श्रीअन्तरिक्षजीने मायाका विशद विवेचन किया है । दृश्यमान जगत्‌की उत्पत्ति , स्थिति , प्रलय मायाक ही कार्य हैं । यथा - ' एषा माया भगवतः सर्गस्थित्यन्तकारिणी ॥ ' मायासे मोहित होकर ईश्वरांश , चेतन , अमल , अविनाशी , सहज सुखराशि जीव अनेक प्रकारकी कामनाओंसे युक्त होकर अनेकों कर्म , अकर्म , विकर्म करता है और उनके अनुसार शुभकर्मका फल सुख और अशुभ कर्मका फल दुःख भोगता है और विविध योनियोंमें जन्म लेकर इस संसारमें भटकने लगता है । यथा- '

 कर्माणि कर्मभिः कुर्वन् सनिमित्तानि  देहभृत् तत्तत् कर्मफलं गृह्णन् भ्रमतीह सुखेतरम् ॥ 

' श्री चमसजीने विमुख जीवोंका अध : पतन वर्णन करते हुए उन्हें साधु पुरुषों की दयाका पात्र बताया है , यथा

 द्विषन्तः स्वात्मानं मृतके परकायेषु सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहा : हरिमीश्वरम् । पतन्त्यधः ॥ ( श्रीमद्भा ० ११/५/१५ )

 अर्थात् यह शरीर मृतक शरीर है , इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं । जो लोग इस शरीरसे तो प्रेमकी गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरोंमें रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान्से द्वेष करते हैं , उन मूर्खोका अध : पतन निश्चित है । 

' तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ' 

अर्थात् वे आप जैसे साधु पुरुषोंकी दबाके पात्र हैं । भगवान्‌की दुरत्यया मायासे पार पानेके लिये उपाय - निरूपण करते हुए श्रीप्रबुद्धजी कहते हैं कि 

तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम् । शाब्दे परे च निष्णातं भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् ब्रह्मण्युपशमा अयम् ॥ गुर्वात्मदैवतः । हरिः ।। अमाययानुवृत्त्या वैस्तुष्येदात्माऽऽत्मदो श्रा ० ११।३।२१-२२ )

 अर्थात् इसलिये जो परम कल्याणका जिज्ञासु हो , उसे गुरुदेवकी शरण लेनी चाहिये । गुरुदेव ऐसे हों , जो शब्दब्रह्म - वेदोंके पारदर्शी विद्वान् हों , जिससे वे आश्रितको ठीक - ठीक समझा सकें तथा साथ ही परब्रह्ममें परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों , ताकि अपने अनुभवके द्वारा प्राप्त हुई रहस्यकी बातों को बता सकें । उनका चित्त शान्त हो , विशेष व्यावहारिक प्रपंचमें प्रवृत्त न हो जिज्ञासुको चाहिये कि गुरुको ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने । उनकी निष्कपट भावसे सेवा करे और उनके पास रहकर भागवत धर्मकी- भगवान्‌को प्राप्त करानेवाले भक्ति - भावके साधनोंकी क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे । इन्हीं साधनों से सर्वात्मा और भक्तोंको अपने आत्माका दान करनेवाले भगवान् प्रसन्न होते हैं । सन्त - सद्गुरुसमाश्रित साधकको चाहिये कि वह स्वयं राशि राशि पापोंको नष्ट करनेवाले भगवान् श्रीहरिके महामंगलमय नामोंका स्मरण करे और एक - दूसरेको स्मरण कराये । इस प्रकार साधन- भक्तिका अनुष्ठान करते - करते प्रेम - भक्तिका उदय हो जाता है , जिससे शरीर में निरन्तर प्रेमके अष्टसात्विक भाव रोमांच आदि बने ही रहते हैं । यथा 

- स्मरन्तः स्मारयन्तश्च मिथोऽयौघहरे हरिम् । भक्त्या संजातया भक्त्या विभ्रत्युत्पुलको तनुम् ॥ 

जो इस प्रकार भागवतधर्मोकी शिक्षा ग्रहण करता है , उसे उनके द्वारा प्रेमलक्षणा - भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान् नारायणके पारायण होकर उस मायाको अनायास ही पार हो जाता है , जिसके पंजेसे निकलना बहुत ही कठिन है । श्रीनिमिजीके कर्मयोगके सम्बन्ध में जिज्ञासा करनेपर श्रीआवित्रजीने भगवत्सेवा पूजारूप कर्मको परम कल्याणदायक बताया है । यथा

- य परात्मनः । निर्जिहीषुः आशु विधिनोपचरेद् हृदयग्रन्थि तन्त्रोक्न देव W केशवम् ॥ ( १२२ ९ ४७ ) 

अर्थात् जो पुरुष चाहता है कि शीघ्रमे शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्माकी हृदयान्थि ( मैं और मेरेको   कल्पित गाँठ ) खुल जाय , उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियोंसे नाराधना करे । आराधना - विधिका संकेत करते हुए कहते हैं कि भगवान्की तो 

 साङ्गोपाङ्ग सपादो तां मुर्ति स्वमन्त्रतः।पाद्यार्थ्याचमनीयाद्यैः गन्धमाल्याक्षतस्त्रग्भिधूपदीपोपहारकैः सम्पूज्य विधिवत् स्तवैः  द स्तुत्वा नमेद्धरिम् ॥ 

 अर्थात् अपने - अपने उपास्यदेवके विग्रहकी हृदयादि अंग , आयुधादि उपांग और पार्षदोंके सहित नूलमन्त्रद्वारा पाद्य , अर्घ्य , आचमन , मधुपर्क , स्नान , वस्त्र , आभूषण , गन्ध , पुष्प , अक्षत ( तिलकालंकार में अन्यथा नहीं- ' नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं ' )

 अर्थात् दधि - अक्षतके तिलक , माला , धूप , दीप और नैवेद्य आदिसे विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान् श्रीहरिको नमस्कार करे । ऐसा करनेसे वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । यथा -

 ' अचिरान्मुच्यते हि सः ॥ ' ( श्रीमद्भा ० ११ | ३/५५ )

 श्रीपिप्पलायनजीने भगवत्स्वरूपका निरूपण करते हुए भगवद्भक्तिका बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया । यथा

 यांब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या चेतोमलानि विधमेद् गुणकर्मजानि । तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं साक्षाद् यथामलदृशोः सवितृप्रकाशः ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।३।४० )

 अर्थात् जब भगवान् कमलनाभके चरणकमलोंको प्राप्त करनेकी इच्छासे तीव्र भक्ति की जाती है , तब वह भक्ति ही अग्निकी भाँति गुण और कर्मोंसे उत्पन्न हुए चित्तके सारे मलोंको जला डालती है । जब चित्त शुद्ध हो जाता है , तब आत्मतत्त्वका साक्षात्कार हो जाता है - जैसे नेत्रोंके निर्विकार होनेसे सूर्यके प्रकाशकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ।

 श्रीदुमिलजीने श्रीनिमिजीके पूछनेपर भगवान्के विविध अवतारोंका वर्णन किया है । आपका कहना है कि — भगवान् अनन्त हैं । उनके गुण भी अनन्त हैं । जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणोंको गिन लूँगा , वह मूर्ख है , बालक है । यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वीके धूलिकणोंको गिन ले , परंतु समस्त शक्तियोंके आश्रय भगवान्के अनन्त गुणोंका कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता है । यथा

 यो वा अनन्तस्य गुणानन्ताननुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः । रजांसि भूमेर्गणयेत् कथंचित् कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।४।२

BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 


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