महाराज ययाति (यदुवंश के उत्पति की कथा)

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                   राजर्षि ययाति 

 पुत्र राजा नहुषके यति , script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-8514171401735406"      crossorigin="anonymous">

ययाति संयाति , आयाति , वियाति और कृति नामक छः महाबलविक्रमशाली हुए । यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की , इसलिये ययाति ही राजा हुए । ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था । देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाको पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु , अनु और पूरुको उत्पन्न किया ।

 ययातिको शुक्राचार्यजीके शापसे युवावस्था में ही बुढ़ापेने घेर लिया था , किंतु उनकी विषय - कामना शान्त नहीं हुई थी , उन्होंने पुत्रोंसे वृद्धावस्था लेकर उनकी युवावस्थाको ग्रहण करना चाहा , किंतु प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया । अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा- ' यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है । ' ऐसा कहकर पूरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहणकर उन्हें अपनो युवावस्था दे दी । 

राजा ययातिने पूरुकी युवावस्था लेकर समयानुसार प्राप्त हुए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहके अनुसार धर्मपूर्वक भोगा और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया । फिर शर्मिष्ठा और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए ' मैं कामनाओंका अन्त कर दूंगा'- ऐसा सोचते सोचते वे क्षुब्धचित्त हो गये , अन्तमें उन्होंने इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट किया '

 भोगोंकी तृष्णा उनके भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती , बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती है । सम्पूर्ण पृथ्वीमें जितने भी धान्य , यव , सुवर्ण , पशु और स्त्रियाँ हैं , वे सब एक मनुष्यके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं , इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये । जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता , उस समय उस समदर्शीके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं । दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती , बुद्धिमान् पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है । अवस्थाके जीर्ण होनेपर केश और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं ; किंतु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी जीर्ण नहीं होतीं । बड़े दुःखका विषय है , विषयों में आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्र वर्ष बीत गया , फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती है । अतः अब मैं इसे छोड़कर अपने चित्तको भगवान्‌में ही स्थिरकर निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर वनमें विचरूंगा । ' ऐसा कहकर राजा ययातिने पूरुसे अपनी वृद्धावस्था वापस लेकर उसकी युवावस्था लौटा दी । स्वयं वनको चले गये । 

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                श्रीयदुजी 

ये राजा ययातिके प्रथम पुत्र थे , जो देवयानीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे । ये यादववंशके प्रवर्तक राजा हुए । इन्हींक वंशमें स्वयं भगवान् श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव हुआ था । ये बड़े धर्मज्ञ तथा धर्मशील थे । यथा अवधूतं द्विजं कञ्चिच्चरन्तमकुतोभयम् । कविं निरीक्ष्य तरुणं यदुः पप्रच्छ धर्मवित् ॥ ( श्रीमद्भा ० ११।७।२५ ) तथा- यदोश्च धर्मशीलस्य । यहाँ यदि कोई शंका करे कि इन्होंने तो पिता ययातिकी आज्ञाका उल्लंघन कर दिया था जो कि अधर्म है । फिर इन्हें धर्मवित् या धर्मशील कैसे कहा गया ? इसका समाधान यह है कि इन्होंने मुख्य धर्म भगवद्भक्तिको प्राधान्य देकर सामान्य धर्म पित्राज्ञापालनको अस्वीकार  किया था , अतः अधर्म नहीं है । वास्तविक धर्म तो भगवद्भक्ति ही है । यथा - धर्मो मद्भक्तिकृत्प्रोक्तो और पिताकी आज्ञा मानकर जरावस्थाको स्वीकार करनेसे भगवद्भजनमें बाधा पड़ती । जरावस्था साधनोपयोगी नहीं कही गयी है । 

अतः इन्होंने पिताकी आज्ञाको नहीं माना । पुनः परम पिता परमात्माकी सेवामें दत्तचित्त यदुने यदि लौकिक पिताके वचनको नहीं माना तो कोई दोष नहीं । सामान्य धर्मसे विशेष धर्म श्रेष्ठ है । पुनः राजा ययातिके आज्ञापालनमें यदुको महान् अनौचित्य यह दिखायी पड़ा कि मुझ पुत्रकी युवावस्थासे माताके साथ भोग - विलास करना चाहते हैं , जो कि सर्वथा धर्मके प्रतिकूल है । पुनः हरिवंशपुराणमें वर्णन आता है कि श्रीयदुजीने किसी ब्राह्मणको उनके अनिर्दिष्ट कार्यकी पूर्तिका वचन दे दिया था । जरावस्थाके अंगीकार करनेपर वह कार्य सम्पादन असम्भव हो जाता , इसलिये भी पिताकी आज्ञा नहीं मानी । इसमें यदुनीको Fa ब्रह्मण्यता प्रदर्शित होती है । पुनः यदि श्रीयदुजीने पिताकी एक आज्ञा नहीं मानी तो उसके प्रायश्चित्तके लिये क सम्पूर्ण जीवन धर्माचरणमें बिताया और इनकी धर्मशीलताका परम प्रमाण तो यह है कि स्वयं भगवान्ने इनके कुलमें जन्म लिया । श्रीयदुजी महाराज भगवान् दत्तात्रेयजीसे ज्ञान प्राप्तकर जीवन्मुक्त हो गये थे । 


             श्रीगुह निषादजी

 वह ये भगवान् श्रीरामजीके अत्यन्त प्रिय सखा थे । जातिके निषाद एवं श्रृंगवेरपुरके राजा थे । शिवपुराणमें इनके पूर्वजन्मका प्रसंग प्राप्त होता है । कथा इस प्रकारसे है- एक जंगलमें गुरुद्रुह नामका एक भील रहता था । जीवोंकी हिंसा करना उसका सहज कर्म बन गया था । उसीसे वह परिवारका पालन - पोषण करता था । महाशिवरात्रिका दिन था , वह प्रातःकाल ही शिकारकी टोहमें घरसे निकल कर पड़ा , परंतु दैवयोगसे उस दिन उसे कुछ नहीं मिला । सन्ध्या हो गयी । घरके लोग भूखे बाट देखने सम होंगे , अतः अवश्यमेव कुछ लेकर ही लौटना चाहिये । यह विचारकर वह भील एक जलाशय के समीपके बेलके वृक्षपर चढ़ गया । उसके नीचे एक शिवलिंग था । रात्रिके प्रथम प्रहरमें एक हरिणी जल पीनेके लिये जलाशयपर आयी । भील हर्षित होकर अपना धनुष - बाण सँभालने लगा । इसीमें उसके शरीरके हिलनेसे कन्धेपर लटकती हुई जलभरी तूंबीसे कुछ जल छलककर श्रीशिवलिंगपर जा पड़ा तथा धनुष - बाणके संचालनसे बिल्वपत्र भी टूटकर शिवलिंगपर जा पड़ा । इस अचानक सम्पादित हुए सुकृतसे उस भीलका बहुत - सा पाप तत्काल नष्ट हो गया । 

इतनेमें हरिणीकी दृष्टि व्याधपर गयी । वह उसके अभिप्रायको समझकर बोली - व्याध ! मैं अपने बच्चोंको अपनी बहनको अथवा स्वामीको सौंपकर अभी आती हूँ , फिर तुम मुझे मारकर अपनी उदरपूर्ति कर लेना । मैं शपथपूर्वक कहती हूँ , मेरे वचनोंका विश्वास करो । अकस्मात् सम्पन्न शिर्वाचनके पुण्य प्रभाव व्याधने दया करके उस हरिणीको छोड़ दिया । थोड़ी देर बाद उसी हरिणीकी बहन दूसरी हरिणी वहीं ज पीनेके लिये आयी । उसके वधका उद्योग करते समय पुनः पूर्ववत् जल और बिल्वदल शिवलिंगपर जा गिरा । इस हरिणीने भी व्याधसे पहली हरिणीके समान ही वार्ता की । व्याधने इसे भी छोड़ दिया । इतनेमें एक हृष्ट - पुष्ट हरिण जलाशयकी ओर आता दिखायी पड़ा । पुनः उसके भी वधोद्योगमें सहज शिवार्चन सम्पन्न TE हो गया । वधका अभिप्राय समझकर हिरणने भी यह निवेदन किया कि मैं अभी - अभी अपने बच्चोंको उनको माताके हाथों सौंपकर आता हूँ । व्याध यद्यपि स्वयं बहुत भूखा था , परिवारके लोग अत्यन्त क्षुधार्त होकर उसके आनेकी बाट देख रहे थे , परंतु श्रीशिवजीकी कृपासे उसके समस्त पाप नष्ट हो गये थे , हृदय शुद्ध हो गया था । शिवरात्रिके दिन उसने जो अनायास व्रत एवं शिवार्चन कर लिया था , उसके फलस्वरूप उसे  आशुतोष और औढरदानी शिवको कृपा प्राप्त हो गयी थी । व्याधने दयापरवश हो मृगको भी छोड़ दिया । निवास - स्थानपर पहुँचनेपर जब मृग और दोनों मृगियाँ मिलों तो परस्पर विचार - विमर्शकर उन्होंने यही निर्णय किया कि हम सब लोग मिलकर व्याधके पास चलें , क्योंकि सबने सत्यकी सौगन्ध खायी है । माता पिताको जाते देख बच्चे भी साथ लग गये । इस मृगसमूहको देखकर व्याधको बड़ा ही हर्ष हुआ और धनुषपर बाण - सन्धान करनेका उपक्रम करने लगा । पुनः जल और बिल्वदल शिवलिंगपर गिरे । उस व्याधके पाप तो पहलेके ही पूजनके प्रभावसे नष्ट हो गये थे । इस बार तो उसे दयाके साथ विवेक भी प्राप्त हो गया । व्याधको सहसा बड़ी ही आत्मग्लानि हुई कि ये पशु होकर भी कितने परमार्थनिष्ठ हैं और मैं मनुष्य होकर भी परमार्थकी कौन कहे , स्वार्थसे भी विमुख रहा । उचित रीतिसे मैं उदरपूर्ति करनेमें भी असमर्थ रहा । धन्य हैं ये मृग और मेरे जीवनको बार - बार धिक्कार है । इस प्रकार ज्ञानसम्पन्न होनेपर व्याधने अपने बाणोंको रोक लिया और कहा— श्रेष्ठ मृगो ! तुम धन्य हो , तुम्हारा कल्याण हो , तुम जाओ । व्याधके ऐसा कहनेपर भगवान् शिवजीने तत्काल प्रकट होकर अपने दिव्य स्वरूपका दर्शन कराया और प्रसन्न होकर सुदुर्लभा भक्तिका वरदान देकर बोले - व्याध ! एक दिन निश्चय ही भगवान् श्रीराम तुम्हारे घर आयेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे । वे मृग भी शिवजीका दर्शनकर दिव्यरूप धारणकर दिव्य शिवलोकको चले गये और वह भील भी कालान्तरमें श्रृंगवेरपुरका राजा निषादराज गुह हुआ , जिसकी श्रीरामजीमें अविचल प्रीति थी । तभी तो कहा गया है— सिव सेवा कर फल सुत सोई । अविरल भगति राम पद होई ॥ निषादराज गुह और श्रीरामजीके प्रथम मिलनकी बड़ी मधुर कथा सन्त - महानुभाव इस प्रकार वर्णन करते हैं - निषादराजके पितासे और चक्रवर्ती महाराजाधिराज श्रीदशरथजीसे बड़ी मित्रता थी । वे समय समयपर श्रीअयोध्या आया करते थे । जिस समय श्रीदशरथजीके यहाँ प्रभुका प्रादुर्भाव हुआ , उस समय वे अत्यन्त वृद्ध हो चुके थे । लालको बधाई लेकर तो वे स्वयं आये थे और चारों कुमारोंका दर्शनकर परम सुख पाये थे । परंतु एक तो स्वयं जराग्रस्त थे , दूसरे बालक गुह नित्य अयोध्याके लिये मचलता रहता था । और जबसे उसने श्रीरामकी शोभाका वर्णन सुना था , तबसे तो वह श्रीअयोध्या जाकर भ्राताओंसहित श्रीरामका दर्शन करनेके लिये विशेष उत्कण्ठित रहने लगा था । आज - कल करते - करते पाँच वर्ष बीत गये । गुह अब कुछ बड़ा भी हो गया था और उधर राजकुमार भी अवधकी गलियोंमें विविध विनोद करते हुए विहरने लगे , तब एक दिन वृद्ध पिताने गुहको श्रीअयोध्या जानेकी आज्ञा दी । गुहके हर्षका पारावार नहीं रहा । भेंटके लिये वन्य कन्द - मूल , फल तथा चारों राजकुमारोंके लिये चार जोड़ी रुरुनामक मृगके चर्मसे बनी हुई सुन्दर पनहियाँ बगलमें दबाये हुए गुरु श्रीअयोध्याको चल पड़े , हृदयमें अनेकानेक मधुर भावनाओंको सँजोये पिताजीके द्वारा सुने हुए राजकुमारोंके सौन्दर्य - माधुर्यका अनुचिन्तन करते हुए गुह श्रीअवध में आ पहुँचा । 

मनमें विचार आया प्रथम श्रीसरयू - स्नान कर लूँ , फिर दरबारमें चलूँ । अतः श्रीसरयूतटपर उपहारकी पोटली रखकर स्नान करने लगा । तबतक क्या देखते हैं कि चार बालक उपहार पोटली खोल रहे हैं । बालक बड़े सुघर थे , देखते ही मन मोह गया । अतः ऊपरसे तो उन्हें मना करते हैं , परंतु भीतरसे यह हो रहा है कि खोल लो , ले लो , पहन लो , मैं तो आपके लिये ही लाया हूँ । हुआ भी ऐसा ही । गुह मना करते ही रहे बालकोंने पोटली खोल ली , पनहियाँ पहन लीं और केलेके फल लेकर खाते हुए सरजूतटरवर लगे । गुह नाराज भी हो रहा था और प्रसन्न भी स्नानकर बाहर निकला । वस्त्र बदलकर बालकोंके समीप पहुँचा , कुछ रीझसे , कुछ खीझसे पूछा- आप लोग किसके बालक हैं ? आप लोगोंको मालूम नहीं , मैं यह उपहार चक्रवर्ती महाराज कुमारोंके लिये लाया था । बालक मधुर मुस्कानपूर्वक बोल पड़े ओहो तो हमारे लिये हो था गुहने पूछा- तो क्या महाराज श्रीदशरथजीके राजकुमार आप हो ? बालको उत्तर देनेके पूर्व ही गुहका हृदय बोल पड़ा - गुह सचमुच महाराज श्रोदशरथ राजकुमार हो है । तुम्हारे परमाराध्य प्रिय सखा ये ही हैं । तुम्हारे जीवनधन , प्राण- सर्वस्व यही है । 

गुहके हृदयके कथनका ही समर्थन बालकोंने भी किया । वे बोले - सखा । महाराजकुमार हम हो है । गुहको आँखें सजल हो गर्यो , हाथ जुट गये , शीश शुक गया , चरणोपर गिरनेके पूर्व ही राजकुमारोंने हाथों थाम लिया । श्रीराम - लक्ष्मणने दाहिना हाथ पकड़ लिया , श्रीभरत शत्रुघ्नने बायाँ हाथ पकड़ा और लिख ले चले अपने मित्रको महलको ओर गुह गद्गद है कृपाको विचारकर श्रीचक्रवर्तीजी चकित है , प्रेमको देखकर राजकुमारोंने पिताजीको प्रणाम किया , गुहने भी साबुनयन , पुलकितन , विलवाणी जोड़कर अभिवादन किया । श्रीरामललाने अपने नये सखाका परिचय दिया , श्रीदशरथजीने जैसे अपने पुत्रोंको हृदयसे लगाया , वैसे ही गुहको भी हृदयसे लगा लिया । श्रीदशरथजीने देखा- राम बड़े प्रसन्न हैं अपने इस सखासे और सखाने भी तन - मन - प्राण न्यौछावर कर दिया है उनके ऊपर महाराजने रोक लिया गुहको श्रीअयोध्यामें , बहाना यह बनाया कि तुम यहाँ रहकर मेरे पुत्रोंको धनुर्विद्याका अभ्यास कराते रहो , बनमें शिकार खेलना सिखाया करो । गुहके लिये तो मानो- ' जनम रेक जनु पारस पावा।'सत्योपाख्यान ग्रन्थ विस्तारसे राजकुमारोंका गुहके साथ वन - क्रीड़ाका प्रसंग वर्णन किया गया है । यथा -

एक बार श्रीरामजीने अनुज और सखाओंसे कहा कि आज वनमें जो प्रथम शिकार सामने आयेगा , उसपर शर - सन्धान मैं करूंगा । यदि दूसरा कोई वार करेगा तो मैं उसे पिताजोसे कहकर दण्ड दिलाऊँगा । सब लोग सजग हो गये । संयोगकी बात , वनमें पहुँचते ही एक सिंह सामने आ डटा । लोग जहाँके तहाँ खड़े हो गये । श्रीराम शर - सन्धानमें बिलम्ब कर रहे थे , सिंह ऊपर टूटने ही वाला था , अनुज एवं अन्य सखा श्रीरामाज्ञाका पालन करते हुए अपने स्थानपर थे , गुहने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया , जो भी दण्ड मिले मैं सह लूँगा , परंतु मेरी आँखके सामने सिंहके द्वारा कोई अनिष्ट मुझे सह्य नहीं । इन्होंने तत्काल एक सांग चलायो । निशाना सही बैठा , सिंह मारा गया । श्रीरामके हृदयमें भक्तवत्सलता उमड़ रही थी , अन्य सशंक हो रहे थे कि इन्होंने श्रीरामको आज्ञाका उल्लंघन किया , पता नहीं कौन - सा दण्ड मिलेगा ? निषादगुह परम प्रसन्न हो रहा था अपने मित्रको सकुशल देखकर लोग वन - विहारकर घर लौट आये । सबने देखा- श्रीरामके श्रीमुखसे गुहका गुणगान सुनकर श्रीचक्रवर्ती महाराजाधिराज श्रीदशरथजी अपने हाथका आभूषण गुहके हाथमें पहना रहे हैं , हृदयसे लगा रहे हैं तथा तुरंत ही श्रृंगवेरपुरके राजा होनेकी घोषणा कर देते हैं । यथा एक बार शिकार को राम गये वन में तब आय के सिंह अड़ा । भरतादिक संग सखा सकुचे सुनि के रघुनाथ के सौह बढ़ा ॥ समया पर सेवक ढीठ न जानि निषाद झपट्ट के सांग जड़ा । श्रृंगवेर को राज बकस्स दिये पहिराय दियो निज हाथ कड़ा ॥ भगवान् श्रीराम जब वन जाते समय शृंगवेरपुर आये तो उस समय निषादराज गुह ही वहाँका राजा था । अपने मित्रको वनवासीके रूपमें देखकर उसे बहुत कष्ट हुआ और उसने हाथ जोड़कर विनय की कि आप इस शृंगवेरपुरका राज्य करें और यहीं रहें , परंतु श्रीरामने उसे माता - पिताकी आज्ञा बताकर अपने वनवासका निश्चय बताया । इस प्रकार निषादराज गुह भगवान् श्रीरामका सच्चा मित्र और भक्त था । श्रीरामके प्रति उसकी इतनी निष्ठा थी कि भरतको सेनासहित आते देखकर वह उनसे युद्धके लिये तैयार हो गया , परंतु जब उसे भरतजी के आन्तरिक भावका पता चला तो उनका श्रीराम जैसा ही स्वागत किया । धन्य है निषादराज गुह और धन्य है उसकी सख्यभक्ति ! श्रीप्रियादासजीने निषादराज गुहकी उपर्युक्त प्रेममयी भक्तिका निम्न कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है भीलन को राजा गुह राम अभिराम प्रीति भयो वनवास मिल्यो मारग में आइकै । करौ यह राज जू विराजि सुख दीजै मोको बोले चैन साज तज्यों आज्ञा पितु पाइकै ॥ दारुण वियोग अकुलात दृग अश्रुपात पीछे लोहू जात वह सबै कौन गाइकै । रहे नैन मूँदि रघुनाथ बिन देखौँ कहा ? अहा प्रेम रीति मेरे हिये रही छाइ कै ॥ १५ ॥ वनवासकी लीला समाप्त करके चौदह वर्षोंके बाद पुष्पक विमानपर बैठकर जब श्रीरघुनाथजी आये , तब आपके साथी भीलोंने कहा कि प्रभु पधारे हैं , उनका दर्शन कीजिये , पर श्रीनिषादराजको विश्वास नहीं हो रहा था । वे वियोगसे व्याकुल होते हुए बोले- मैं फिरसे श्रीरामको पाऊँ , ऐसा मेरा भाग्य कहाँ ? इतनेमें श्रीरामचन्द्रजी आ गये और प्रेमसे मिलकर बोले कि मैं आ गया , मुझे देखिये । निषादराजने भगवान्के श्रीअंगको स्पर्श करके पहचाना और प्रभुसे लिपट गये । स्पर्श प्राप्तकर दिव्य सुखसागरमें डूब गये । उनके गये प्राण मानो पुनः आ गये ।

 निषादराजने अपनेको परम सौभाग्यशाली माना । श्रीप्रियादासजी इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं 

चौदह वरष पीछे आये रघुनाथ नाथ साथ के जे भील कहैं आए प्रभु देखिये । बोल्यो ' अब पाऊँ कहाँ ? ' होति न प्रतीति क्यों हूँ प्रीति करि मिले राम कहि मोको पेखिये ॥ परसि पिछाने लपटाने सुख सागर समाने प्राण पाये मानो भाग भाल लेखिये । प्रेम की जू बात क्यों हूँ बानी में समात नाहिं अति अकुलात कहाँ कैसे कै विशेखिये ॥

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
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