Sri Nand baba नन्द बाबा जी यशोदा जी

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                      श्री नन्द जी महाराज 



श्रुतिमपरे स्मृतिमपरे भारतमपरे भजन्तु भवभीताः । अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परं ब्रह्म ॥

 वैसे तो नन्दबाबा नित्य - गोलोकधाममें सदा ही विराजमान रहते हैं । भगवान् श्रीकृष्णके नित्य सिद्ध पिता हैं । जब श्यामसुन्दरको पृथ्वीपर आना होता है , तब गोप , गोपियाँ , गायें और पूरा ब्रजमण्डल नन्दबाबाके साथ पहले ही पृथ्वीपर प्रकट हो जाता है । किंतु जब भी इस प्रकारके भगवान्के नित्यजन पृथ्वीपर पधारते हैं , कोई - न - कोई जीव जो सृष्टिमें उनका अंशरूप होता है , उनसे एक हो जाता है । इसलिये ऐसा भी वर्णन आता है कि पूर्वकल्पमें वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरादेवीने भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये बहुत कठिन तपस्या की । जब ब्रह्माजी उन्हें वरदान देकर तपस्यासे निवृत्त करनेके लिये उनके समीप आये , तब उन्होंने सृष्टिकर्तासे वरदान माँगा - ' जब विश्वेश्वर श्रीहरि धरापर प्रकट हों , तब हमारा उनमें पुत्रभाव हो । ' ब्रह्माजीके उसी वरदानके प्रभावसे द्रोण व्रजमें नन्द हुए और धरादेवी यशोदा हुईं ।                                                                                                   मथुरामें वृष्णिवंशमें सर्वगुणालंकृत राजा देवमीढ़जी हुए । इनके दो पत्नियाँ थीं- एक क्षत्रियकन्या और दूसरी वैश्यपुत्री । क्षत्रियकन्यासे इनके पुत्र हुए - शूरसेनजी इन्हीं शूरसेनजीके पुत्र वसुदेवजी वैश्यकन्यासे हुए - पर्जन्यजी । ये अपनी माताके कारण गोप - जातिके माने गये और मथुराके अन्तर्गत बृहद्वनमें- यमुनाजीके उस पार महावनमें इन्होंने अपना निवास बनाया । मथुरामण्डलकी गो - सम्पत्तिके ये प्रमुख अधिकारी हुए । इनके पुत्र हुए- उपनन्द , अभिनन्द , नन्द , सन्नन्द और नन्दन पिताके पश्चात् व्रजमण्डलके गोष्ठनायकों तथा भाइयोंकी सम्मतिसे योग्य होनेके कारण मझले भाई होनेपर भी नन्दजी व्रजेश्वर हुए । वसुदेवजी इनके भाई ही लगते थे ओर उनसे नन्दबाबाकी घनिष्ठ मित्रता थी । जब मधुराने कंसका अत्याचार बढ़ने लगा , तब वसुदेवजीने अपनी पत्नी रोहिणीको नन्दजीके यहाँ भेज दिया । गोकुलमें ही रोहिणीजीकी गोदमें बलरामजी पधारे । श्रीकृष्णचन्द्रको भी वसुदेवजी चुपचाप नन्दगृहमें रख आये । राम श्याम नन्दगृहमें लालित - पालित हुए । नन्दबाबा वात्सल्य रसके अधिदेवता हैं । उनके प्राण श्रीकृष्ण में हो बसते हैं । अपने श्यामके लिये ही वे उठते - बैठते , खाते - पीते , चलते - फिरते , प्राण धारण करते तथा दान धर्म , पूजा - पाठ आदि करते थे । कन्हैया प्रसन्न रहे , सकुशल रहे - बस , एकमात्र यही चिन्ता और यहाँ इच्छा उनमें थी ।

 जब गोकुलमें नाना प्रकारके उत्पात होने लगे , शकटका गिरना , यमलार्जुनका टूटना आदि घटनाएँ हुई , तब नन्दबाबा अपने पूरे समुदायके साथ वहाँसे बरसानेके पास नन्दगाँव चले गये । एक बार बाबाने एकादशीका व्रत किया था । रात्रि जागरण करके वे गोपोंके साथ हरि - कीर्तनमें लगे थे । कुछ अधिक रात्रि शेष थी , तभी प्रातःकाल समझकर वे स्नान करने यमुनाजीमें उतर गये । वरुणका एक दूत उन्हें पकड़कर वरुणजीके पास ले गया । व्रजवासी नन्दबाबाको न देखकर विलाप करने लगे । उसी समय श्रीकृष्णचन्द्र यमुनामें कूदकर वरुणलोक पहुँचे । जलके अधिदेवता वरुणने भगवान्‌का बड़ा आदर किया , ससम्मान पूजा की । बाबाको वहाँसे लेकर श्यामसुन्दर लौट आये । इसी प्रकार शिवरात्रिको अम्बिका वनकी यात्रामें रातको सोते समय जब बाबाको अजगरने आकर पकड़ लिया और गोपोंद्वारा जलती लकड़ियोंसे मारे जानेपर भी वह टस से मस नहीं हुआ , तब श्रीकृष्णचन्द्रने अपने चरणोंसे छूकर उसे सद्गति दी और बाबाको छुड़ाया

                अक्रूरजी व्रजमें आये । नन्दबाबा गोपोंके साथ राम - श्यामको लेकर मथुरा चले गये । मथुरा में श्रीकृष्णचन्द्र ने कंसको मारकर अपने नाना उग्रसेनको राजा बनाया । वसुदेव - देवकीको कारागारसे छुड़ाया । यह सब तो हुआ , किंतु राम - श्याम व्रज नहीं लौटे । वे मथुरा ही रह गये । नन्दबाबाको लौट आना पड़ा व्रज । जब उद्धवजी श्यामका सन्देश लेकर व्रज आये , तब बाबाने उनसे व्याकुल होकर पूछा - ' उद्धवजी ! क्या कभी श्यामसुन्दर हम सबको देखने यहाँ आयेंगे ? क्या हम उनके हँसते हुए कमल - मुखको एक बार देख सकेंगे ? हमारे लिये उन्होंने दावाग्निपान किया , कालियदमन किया , इन्द्रकी वर्षासे हमें बचाया , अजगरसे मेरी रक्षा की । अनेक संकटोंसे व्रजका परित्राण किया उन्होंने उनका पराक्रम , उनकी हँसी , उनका बोलना , उनका चलना , उनकी क्रीड़ा आदिका जब हम स्मरण करते हैं और जब हम उनके चरण - कमलोंसे अंकित पर्वत , पृथ्वी , वन एवं यमुना पुलिनको देखते हैं , तब अपने - आपको भूल जाते हैं । हमारी सब क्रियाएँ शिथिल पड़ जाती हैं ।

             श्री बलराम जी द्वारकासे एक बार व्रज आये और दो महीने वहाँ रहे । फिर सूर्यग्रहणके समय कुरुक्षेत्र में पूरा ब्रजमण्डल और द्वारका का समाज एकत्र हुआ । यहीं बाबाने अपने श्यामको फिर देखा । लौटनेपर तो व्रजमण्डल , उसके सभी दिव्य तरु , लता , पादप तक अन्तर्हित हो गये । जैसे नन्दबाबा गोप , गोपी , गौएँ तथा व्रजमण्डलके साथ नित्यलोकसे पृथ्वीपर प्रकट हुए थे , वैसे ही नित्यलोकको चले गये सबको साथ साथ लेकर। 


                माता श्री यशोदा जी 

            वसुश्रेष्ठ द्रोणने पद्मयोनि ब्रह्मासे यह प्रार्थना की- ' देव ! जब मैं पृथ्वीपर जन्म धारण करूँ तो विश्वेश्वर स्वयं भगवान् श्रीहरि श्रीकृष्णचन्द्रमें मेरी परम भक्ति हो । ' इस प्रार्थनाके समय द्रोणपत्नी धरा भी वहीं खड़ी थीं । धराने मुखसे कुछ नहीं कहा ; पर उनके अणु - अणुमें भी यही अभिलाषा थी , मन - ही - मन धरा भी पद्मयोनिसे यही माँग रही थीं । पद्मयोनिने कहा- ' तथास्तु ऐसा ही होगा । ' इसी वरके प्रतापसे धराने व्रजमण्डल के एक सुमुख नामक गोप * एवं उनकी पत्नी पाटला की कन्याके रूपमें भारतवर्ष में जन्म धारण किया उस समय जबकि स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अवतरणका समय हो चला था , श्वेतवाराहकल्पकी अट्ठाईसवीं चतुर्युगीके द्वापरका अन्त हो रहा था । पाटलाने अपनी कन्याका नाम यशोदा रखा । यशोदाका विवाह व्रजराज नन्दसे हुआ । ये नन्द पूर्वजन्ममें वही द्रोण नामक वसु थे , जिन्हें ब्रह्माने वर दिया था । 

      भगवान्‌की नित्य लीलामें भी एक यशोदा हैं । वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी नित्य माता हैं । वात्सल्यरसकी घनीभूत मूर्ति ये यशोदारानी सदा भगवान्‌को वात्सल्यरसका आस्वादन कराया करती हैं । जब भगवान् के अवतरणका समय हुआ तो इन चिदानन्दमयी , वात्सल्यरसमयी यशोदाका भी इन यशोदा ( पूर्वजन्मकी धरा ) में ही आवेश हो गया । पाटलापुत्री यशोदा नित्ययशोदासे मिलकर एकमेक हो गयीं तथा इन्हीं यशोदाके पुत्रके रूपमें आनन्दकन्द परब्रह्म पुरुषोत्तम स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र अवतीर्ण हुए ।

            जब भगवान् अवतीर्ण हुए थे , उस समय यशोदाकी आयु ढल चुकी थी । अतः जब पुत्र हुआ तो फिर आनन्दका कहना ही क्या है। 

 सुखत धानन कौ ज्यों पान्यो , यों पायौ या पन मे 

  यशोदाको पुत्र हुआ है , इस आनन्दमें सारा ब्रजपुर निमग्न हो गया । 

 छठे दिन यशोदाने अपने पुत्रकी छठी पूजी । इसके दूसरे दिनसे ही मानो यशोदा - वात्सल्य - सिन्धुका मन्थन आरम्भ हो गया , मानो स्वयं जगदीश्वर अपनी जननीका हृदय मथते हुए राशि - राशि भावरत्न निकाल निकालकर बिखेरने लगे , बतलाने लगे , घोषणा करने लगे - ' जगत्की देवियो । देखो , यदि तुममेंसे कोई मुझ परब्रह्म पुरुषोत्तमको अपना पुत्र बनाना चाहो तो मैं पुत्र भी बन सकता हूँ पर पुत्र बनाकर मुझे कैसे प्यार किया जाता है , वात्सल्यभावसे मेरा भजन कैसे होता है - इसकी तुम्हें शिक्षा लेनी पड़ेगी । इसीलिये इन सर्वधा अनमोल रत्नोंको निकालकर मैं जगत्‌में छोड़ दे रहा हूँ , ये ही तुम्हारे आदर्श होंगे ; इन्हें पिरोकर अपने हृदयका हार बना लेना । हृदय आलोकित हो जायगा ; उस आलोकमें आगे बढ़कर पुत्ररूपसे मुझे पा लोगी , अनन्तकालके लिये सुखी हो जाओगी । ' अस्तु 

कंस प्रेरित पूतना यशोदानन्दनको मारने आयी । अपना विषपूरित स्तन यशोदानन्दनके मुखमें दे दिया , किंतु यशोदानन्दन विषमय दूधके साथ ही पूतनाके प्राणोंको भी पी गये शरीर छोड़ते समय श्रीकृष्णचन्द्रको लेकर ही पूतना मधुपुरीकी ओर दौड़ी । आह ! उस क्षण यशोदाके प्राण भी मानो पूतनाके पीछे - पीछे दौड़ चले । यशोदाके प्राण तभी लौटे , तभी उनमें जीवनका संचार हुआ , जब पुत्रको लाकर गोपसुन्दरियोंने उनके वक्षःस्थलपर रखा । यशोदाने स्नेहवश उस समय परमात्मा श्रीकृष्णपर गो - पुच्छ फिराकर उनकी मंगल कामना की । 

    क्रमशः यशोदानन्दन बढ़ रहे थे । एवं उसी क्रमसे मैयाका आनन्द भी प्रतिक्षण बढ़ रहा था । यशोदा मैया पुत्रको देख - देखकर फूली न समाती थीं ।

 जसुमति फूली फूली डोलति । अति आनंद रहत सगरो दिन हसि हसि सब सों बोलति ॥ रस सों अपने मनको भायो । मंगल गाय उठति अति  बिकसित कहति देख व्रजसुंदरि कैसो लगत सुहायो ।

 कभी पालनेपर पुत्रको सुलाकर आनन्दमें निमग्न होती रहतीं 

पलना स्याम झुलावति जननी । सूरदास अति अनुराग परस्पर गावति , प्रफुलित गमन होति नँद - घरनी ॥ उमगि उमँगि प्रभु भुजा पसारत , हरषि जसोमति अंकम भरनी । प्रभु मुदित जसोदा , पूरन भई पुरातन करनी ॥

 इस प्रकार जननी का प्यार पाकर श्रीकृष्णचन्द्र तो आज इक्यासी दिनके हो गये , पर जननीको ऐसा लगता था मानों कुछ देर पहले ही मैंने अपने पुत्रका यह सलोना मुख देखा है । आज वे अपने पुत्रको एक विशाल शकटके नीचे पलनेपर सुला आयी थीं । इसी समय कंस प्रेरित उत्कच नामक दैत्य आया , उस गाड़ी में प्रविष्ट हो गया , शकटको यशोदानन्दनपर गिराकर वह उनको पीस डालना चाहता था । पर इससे पूर्व ही यशोदानन्दन ने अपने पैरसे शकटको उलट दिया , शकटासुर के संसरण का अन्त कर दिया । इधर जब जननी ने शकट - पतन का भयंकर शब्द सुना तो ये सोच बैठीं कि मेरा लाल तो अब जीवित रहा नहीं । बस , ढाढ़  मारकर एक बार चीत्कार कर उठीं और फिर सर्वथा प्राणशून्य - सी होकर गिर पड़ीं । बड़ी कठिनतासे गोप सुन्दरियाँ उनकी मूर्च्छा तोड़नेमें सफल हुई । उन्होंने आँखें खोलकर अपने पुत्रको देखा , देखकर रोती हुई ही अपनेको धिक्कार देने लगीं

 बालो मे नवनीततश्च मृदुलस्त्रैमासिको ऽस्यान्तिके हा कष्टं शकटस्य भूमिपतनाद् भङ्गोऽयमाकस्मिकः । तच्छ्रुत्वपिन मे गतं यदसुभिस्तेनास्मि वज्राधिका धिड्मे वत्सलतामहो सुविदितं मातेति नामैव मे ॥ 

' हाय रे हाय ! मेरा यह नीलमणि नवनीतसे भी अधिक सुकोमल है , केवल तीन महीनेका है और इसके निकट शकट हठात् भूमिपर गिरकर टूट गया । यह बात सुनकर भी मेरे प्राण न निकले , मैं उन्हीं प्राणोंको लेकर अभीतक जीवित हूँ तो यही सत्य है कि मैं वज्रसे भी अधिक कठोर हूँ । मैं कहलानेमात्रको माता हूँ , मेरे ऐसे मातृत्वको , मातृवत्सलताको धिक्कार है । 

          यशोदारानी कभी तो प्रार्थना करतीं- हे विधाता ! मेरा वह दिन कब आयेगा , जब मैं अपने लालको घुटरूँ चलते देखूँगी , दूधकी दंतुलिया देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे , इसकी तोतली बोली सुनकर कानोंमें अमृत बहेगा

 नंद घरनि आनंदभरी सुत स्याम खिलावै । कबहिं घुटुरुवनि चलहिंगे , कहि विधिहि मनावै ॥ कबहिं दंतुलि द्वै दूध की देखौँ इन नैननि । कबहिं कमल मुख बोलिहँ , सुनिहाँ उन बैननि ॥ चूमति कर पग अधर भ्रू , लटकति लट चूमति । कहा बरनि सूरज करै , कहँ पावे सो मति ॥

 - तथा कभी श्रीकृष्णचन्द्रसे ही निहोरा करने जातीं

 नान्हरिया गोपाल लाल , तू बेगि बड़ौ किन होहि । इहिं मुख मधुर वचन हँसि कैधौं जननि कहै कब मोहि ॥

 जननीका मनोरथ पूर्ण करते हुए क्रमशः श्रीकृष्णचन्द्र बोलने भी लगे , घुटरूँ भी चलने लगे और फिर खड़े होकर भी चलने लगे । इतनेमें वर्ष पूरा हो गया , यशोदारानीने अपने पुत्रकी प्रथम वर्षगाँठ मनायी । इसी समय कंसने तृणावर्त दैत्यको भेजा । वह आया और यशोदाके नीलमणिको उड़ाकर आकाशमें चला गया । यशोदा मृतवत्सा गौकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ीं '

 भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौः ।

 ' इस बार जननीके जीवनकी आशा किसीको न थी , पर जब श्रीकृष्णचन्द्र तृणावर्तको चूर्ण - विचूर्णकर लौटे , गोपियाँ उन्हें दैत्यके छिन्न - भिन्न शरीरपरसे उठा लायीं , तो तत्क्षण यशोदाके प्राण भी लौट आये ।

शिशुमुपसद्य यशोदा दनुजहतं द्राक् चिचेत लीनापि । वर्षाजलमुपलभ्य   प्राणिति जातिर्यथेन्द्रगोपाणाम् ॥

           दैत्यके द्वारा अपहृत शिशुको पाकर महाप्रयाण ( मृत्यु ) में लीन होनेपर भी यशोदा उसी क्षण वैसे ही चैतन्य हो गयीं , जैसे वर्षाका जल पाकर इन्द्रगोप ( बीरबहूटी ) कीटकी भाँति जीवित हो जाती है । 

' यशोदा एवं श्रीकृष्णचन्द्रमें होड़ लगी रहती थी । यशोदाका वात्सल्य उमड़ता , उसे देखकर उससे सौगुने परिमाणमें श्रीकृष्णचन्द्रका लीलामाधुर्य प्रकाशित होता ; फिर इस लीलामाधुरीको देखकर सहस्रगुनी मात्रामें शोदाका भावतरंगित हो उठता इन भावलहरियोंसे पुलकर पुनः श्रीकृष्णचनी लोलाकिरणे वनती , क्षणभर पूर्व जो थो , उससे लगुणित परिमाणमें चमक उठती - इस क्रमसे बढ़कर द अन्न , असोग , अपार बन गया था । उसमें सूची हुई पशोदा और सब कुछ भूल गयी थी , केवल बोलि हो उनके मंत्रों नाचते रहते थे । कब दिन हुआ कम रात्रि आयी , यशोदाको यह भी किसीके बतानेर ही भान होता था । उनको क्षणभरके लिये समाधिसे जगाने के लिये हो मानो यशोदानन्दतिका क्षणको लोला को श्रीकृष्णने मिट्टी खायी है , यह सुनकर यशोदा उनका मुख खुलाकर मिट्टी ढूँढ़ने गय और उनके मुखमें सारा विश्व अवस्थित देखा , देखकर एक बार तो काॅप उठी-

पर्ती देखे चा अरु अचर सिंधु कापन सरि सरिवरदेख्य भानि अकास सूर खेचा ससि गिरिधर ॥ देखे काल सजीव लोक जसुदा मंदादिक । देखे सुर अरु असुर पवन पंगण तपसाधिक | भनि ' मान ' अमित ब्रह्मांड लखि देखि अनल तोखन तपतु मुख सूखि बचतु भवत नहीं , महरि गातु घर पर कॅपतु ॥ 

किंतु इतनेमें हो श्रीकृष्णचन्द्रकी वैष्णवी मायाका विस्तार हुआ , यशोदा- वात्सल्यसागर में एक लहर उठी . वह यशोदाके इस विश्वदर्शनकी स्मृतितकको बहा ले गयी , नीलमणिको गोद में लेकर यशोदा अपने प्यारसे उन्हें स्नान कराने लगी-

 अंक में लगाइ नंद अनंद मा ई । स्थान गूढ भूलि गौ , भयो सुपुत्र प्रेम आई ॥

 देखि बाल लाल काँ फैसी सु मोह फाँस आई ।।

सीस सुघिं भूमि चारू दूध दै हिये अभाइ ।

 यशोदा भूली रहती थीं । पर दिन तो पूरे होते ही थे । यशोदाके अनजान हो उनके पुत्रकी दूसरी वर्षगाँठ भी आ पहुंची । फिर देखते देखते हो उनके गोलमणि दो वर्ष दो महीने के हो गये । पर अब नीलमणि ऐसे . इतने चंचल हो गये थे कि मशोदाको एक क्षण भी चैन नहीं गोपियोंके घर जाकर तो न जाने कितने दहीके भाँडफोड़ हो आया करते थे , एक दिन मैयाका वह दही भी फोड़ दिया , जो उनके कुलमें वर्षोंसे सुरक्षित चला आ रहा था । जननीने डराने के उद्देश्य से श्रीकृष्णचन्द्रको उखलमें बाँधा । सारा विश्व अनन्त काल तक यशोदा को इस चेष्टापर बलिहार जायगा

      जिन बांध्यो सूर असुर नाग मुनि प्रगल कर्म की डोरी सोइ अविधि हा जसुमति हठि बांध्यो सकत न छोरी ॥

 इस बंधन को निमित बनाकर यशोदाके मोलमणिने दो अर्जुनको जइसे उखाड़ दिया । फिर तो वनवासी यशोदानन्दनको रक्षाके लिये अतिशय व्याकुल हो गये । पूतनासे , शकटसे , तृणावतंसे , वृक्षसे इतनी बार तो नारायणने बीलमणिको बचा लिया , अब आगे यहाँ इस गोकुलमें तो एक क्षण भी नहीं रहना चाहिये ।गोपो ने परामर्श करके निश्चय कर लिया - बस , इसी क्षण वृन्दावन चले जाना है । यही हुआ , यशोदा अपने नीलमणि को लेकर वृदावन चली आई। 

 वृन्दावन आनेके पश्चात् श्रीकृष्णचन्द्र की अनेकों भुवन लीलाओंका प्रकाश हुआ । उन्हें गोपबालकोंके मुखसे सुन - सुनकर तथा कुछको अपनी आँखोसे देखकर यशोदा कभी तो आनन्दमें निमग्न हो जाती , कभी पुत्रकी रक्षा के लिये उनके प्राण व्याकुल हो उठते ।

 श्रीकृष्णचन्द्रका तीसरा वर्ष अभी पूरा नहीं हुआ था , फिर भी वे बछड़ा चराने बनमें जाने लगे । बनमें वत्सासुर - वकासुर आदिको मारा । जब इन घटनाओंका विवरण जननी सुनती थीं तो पुत्रके अनिष्टकी आशंका से उनके प्राण छटपट करने लगते । पाँचवें वर्षकी शुक्लाष्टमी से श्रीकृष्णचन्द्रका गोचारण आरम्भ हुआ तथा इसी वर्ष ग्रीष्मके समय उनकी कालियदमन - लीला हुई । कालियके बन्धनमें पुत्रको बँधा देखकर यशोदाकी जो दशा हुई थी , उसे चित्रित करनेकी क्षमता किसीमें नहीं । छठे वर्ष में जैसी जैसी विविध मनोहारिणी गोष्ठक्रीडा श्रीकृष्णचन्द्रने की , उसे सुन - सुन यशोदाको कितना सुख हुआ था , इसे भी वर्णन करनेकी शक्ति किसीमें नहीं । सातवें वर्ष धेनुकवधकी घटना हुई , आठवें वर्ष गोवर्धनधारणकी लीला हुई , नवम वर्ष में सुदर्शनका उद्धार हुआ , दसवें वर्ष अनेकों आनन्दमयी बालक्रीड़ाएँ हुई , ग्यारहवें वर्ष अरिष्टवध हुआ , बारहवें वर्षके गौण फाल्गुनमासकी द्वादशीको केशी दैत्यका उद्धार हुआ । इन - इन अवसरोंपर यशोदाके हृदयमें हर्ष अथवा दुःखकी जो धाराएँ फूट निकलती थीं , उनमें यशोदा स्वयं तो डूब ही जातीं , सारे ब्रजको भी निमग्न कर देती थीं । इस प्रकार ग्यारह वर्ष छः महीने यशोदारानीके भवनको श्रीकृष्णचन्द्र आलोकित करते रहे , किंतु अब यह आलोक मधुपुरी जानेवाला था । श्रीकृष्णचन्द्रको मधुपुरी ले जानेके लिये अक्रूर आ ही गये । वही फाल्गुन द्वादशीकी सन्ध्या थी , अक्रूरने आकर यशोदाके हृदयपर मानो अतिक्रूर वज्र गिरा दिया । सारी रात ब्रजेश्वर ब्रजरानी यशोदाको समझाते रहे , पर यशोदा किसी प्रकार भी सहमत नहीं हो रही थीं , किसी हालत में पुत्रको कंसकी रंगशाला देख आनेकी अनुमति नहीं देती थीं । आखिर योगमायाने मायाका विस्तार किया , यशोदा भ्रान्त हो गयीं अनुमति तो उन्होंने फिर भी नहीं दी , पर अबतक जो विरोध कर रही थीं , वह न करके आँसू ढालने लगीं । विदा होते समय यशोदारानीकी जो करुण दशा थी , उसे देखकर कौन नहीं रो पड़ा । आह !

 यात्रामङ्गलसम्पदं न कुरुते व्यप्रा वात्सल्यौपविकञ्च भोपनयते तदात्वोचितां धूलीजालमसौ पाथेयमुद्धान्तधीः । विलोचनजलैर्जम्बालयन्ती पर गोविन्दं परिरभ्य नन्दगृहिणी नीरन्धमाक्रन्दति ॥

 व्यग्र हुई यशोदा यात्राके समय करनेयोग्य मंगलकार्य भी नहीं कर रही हैं । इतनी भ्रान्तचित्त हो गयी हैं कि अपने वात्सल्यके उपयुक्त पुत्रको कोई पाथेय ( राहखर्च ) तक नहीं दे रही हैं , देना भूल गयी हैं । श्रीकृष्णचन्द्रको हृदयसे लगाकर निरन्तर रो रहीं है , उनके अजल अनुप्रवाहसे भूमि पंकिल हो रही है । 

रघ श्रीकृष्णचन्द्रको लेकर चल पड़ा । रथचक्रों ( पहियों ) के चिह्न भूमिपर अंकित होने लगे , मानो  धरारूपिणी यशोदाके छिदे हुए हृदयको पृथ्वीदेवी व्यक्त कर रही थीं । 

श्रीकृष्णचन्द्र के विरहमें जननी यशोदाकी क्या दशा हुई , इसे यथार्थ वर्णन करनेकी सामर्थ्य सरस्वती में भी नहीं । यशोदामैया वास्तवमें विक्षिप्त हो गयीं । जहाँ श्रीकृष्णचन्द्र रघपर बैठे थे , वहाँ प्रतिदिन चली आतीं । उन्हें दीखता अभी - अभी मेरे नीलमणिको अक्रूर लिये जा रहे हैं । वे चीत्कार कर उठतीं — ' अरे क्या ब्रजमें कोई नहीं , जो मेरे जाते हुए नीलमणिको रोक ले , पकड़ ले । वह देखो , रथ बढ़ा जा रहा है , मेरे प्राण लिये जा रहा है , मैं दौड़ नहीं पा रही हूँ , कोई दौड़कर मेरे नीलमणिको पकड़ लो , भैया । ' देवकीको अनेकों सन्देश भेजतीं । उन सन्देशोंमें एक यह भी था कभी जड़ - चेतन , पशु - पक्षी , मनुष्य - जो कोई भी दृष्टिके सामने आ जाता , उसीसे वसुदेवपत्नी देवकी को अनेको संदेश भेजती ।उन संदेशों मे यह भी था -

संदेसो देवकी सों कहियो । कहि ह्रीं तो धाय तुम्हारे सुत की , मया करत नित रहियो । जदपि टेव तुम जानत उन की , तक मोहि प्रातहि आवै । रोटी भावै । जाये । उठत तुम्हारे सुत कों माखन तेल उबटनो अरु तातो जल देखत ही भजि जोइ जोइ माँगत , सोइ सोइ देती क्रम क्रम करि करि हावै ॥ सूर पथिक सुनि मोहि रैन दिन बढ्यो रहत ठर सोच । मेरो लड़तो हैहै सकोच ॥ 

किसी पथिकने यशोदाका यह सन्देश श्रीकृष्णचन्द्रसे जाकर कह भी दिया सान्त्वना देने के लिये श्रीकृष्णचन्द्रने उद्धवको भेजा । उद्धव आये ; पर जननीके आँसू पोंछ नहीं सके । अलक मोहन करत यशोदारानीका हृदय तो तब शीतल हुआ , जब वे कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्णचन्द्रसे मिलीं । राम - श्यामको हृदय लगाकर , गोदमें बैठाकर उन्होंने नव - जीवन पाया । कुरुक्षेत्र से जब यशोदारानी लौटीं तो उन्हें ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके नीलमणि उनके साथ हो वृन्दावन लौट आये । यशोदाका उजड़ा हुआ संसार फिरसे बस गया ।

        श्रीकृष्णचन्द्र अपनी लीला समेटनेवाले थे । इसीलिये अपनी जननी यशोदाको भी पहलेसे भेज दिया । जब वृषभानुनन्दिनी गोलोकविहारिणी श्रीराधाकिशोरीको वे विदा करने लगे तो गोलोकके उसी दिव्यातिदिय विमानपर जननीको भी बिठाया तथा राधाकिशोरीके साथ ही यशोदा अन्तर्धान हो गयीं , गोलोकमें पधार गई।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 

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