श्री याज्ञवल्क्य जी महाराज
ये ब्रह्माजीके अवतार हैं । एक समयकी बात है कि ब्रह्माजी एक यज्ञ कर रहे थे । ब्रह्माजीकी पत्नी वित्रीजीको आने में देर हुई और शुभ मुहूर्त बीता जा रहा था । तब इन्द्रने एक गोपकन्याको लाकर कहा कि इसका पाणिग्रहणकर यज्ञ आरम्भ कीजिये । परंतु ब्राह्मणी न होनेके कारण उसको ब्रह्माने गौके मुखमें प्रविष्टकर योनिद्वारा निकालकर ब्राह्मणी बना लिया , क्योंकि ब्राह्मणका और गौका कुल शास्त्रमें एक माना गया है । फिर विधिवत् उसका पाणिग्रहणकर उन्होंने यज्ञारम्भ किया । यही गायत्री है । कुछ देरमें सावित्रीजी वहाँ पहुँची और ब्रह्माके साथ यज्ञमें दूसरी स्त्रीको बैठे देखकर उन्होंने ब्रह्माजीको शाप दिया कि तुम मनुष्यलोकमें जन्म लो और कामी हो जाओ । अपना सम्बन्ध ब्रह्मासे तोड़कर वे तपस्या करने चली गयीं । कालान्तरमें ब्रह्माजीने चारण ऋषिके यहाँ जन्म लिया और वहाँ उनका याज्ञवल्क्य नाम हुआ । तरुण होनेपर वे शापवशात् अत्यन्त कामी हुए , जिससे पिताने उनको घरसे निकाल दिया । पागल सरीखे भटकते हुए वे चमत्कारपुरमें शाकल्यऋषिके यहाँ पहुँचे और वहाँ उन्होंने वेदाध्ययन किया । एक समय आनत देशका राजा चातुर्मास्य व्रत करनेको वहाँ प्राप्त हुआ और उसने अपने पूजा - पाठके लिये शाकल्यको पुरोहित बनाया । शाकल्यऋषि नित्यप्रति अपने यहाँका एक विद्यार्थी पूजा - पाठ करनेको भेज देते थे ।
एक बार याज्ञवल्क्यजीकी बारी आयी । यह पूजा आदि करके जब मन्त्राक्षत लेकर आशीर्वाद देने गये तब वह राजा विषयमें आसक्त था , अतः उसने कहा कि ये लकड़ी जो पास ही पड़ी है , इसपर अक्षत डाल दो । याज्ञवल्क्यजी अपमान समझकर क्रोधमें आ , आशीर्वादके मन्त्राक्षत काष्ठपर छोड़कर चले गये , दक्षिणा भी नहीं ली । मन्त्राक्षत पड़ते ही काष्ठमें शाखा - पल्लव आदि हो गये । यह देखकर राजाको बहुत पश्चात्ताप हुआ कि यदि यह अक्षत मेरे शिरपर पड़ते तो मैं अजर - अमर हो जाता । दूसरे दिन राजाने शाकल्यजीको कहला भेजा कि आज भी उसी शिष्यको भेजिये । परंतु उन्होंने कहा कि उसने हमारा अपमान किया है , इसलिये हम नहीं जायेंगे । तब शाकल्यने कुछ दिन और विद्यार्थियोंको भेजा । राजा विद्यार्थियोंसे दूसरे काष्ठपर आशीर्वाद छुड़वा देता । परंतु किसीके मन्त्राक्षतसे काष्ठ हरा - भरा न हुआ । यह देखकर राजाने स्वयं जाकर आग्रह किया कि आप याज्ञवल्क्यको ही भेजें । परंतु इन्होंने साफ जवाब दे दिया । शाकल्यको इसपर क्रोध आ गया और उन्होंने कहा कि - एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद् दत्त्वा चानृणी भवेत् ॥ ( स्कन्दपुराण ) अर्थात् गुरु , जो शिष्यको एक भी अक्षर प्रदान करता है , पृथ्वीमें कोई ऐसा द्रव्य नहीं है जो शिष्य देकर उससे उऋण हो जाय
उत्तरमें याज्ञवल्क्यजीने कहा - ' गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । उत्पथे वर्तमानस्य परित्यागो विधीयते ॥
अर्थात जो गुरु अभिमानी हो , कार्य - अकार्य ( क्या करना उचित है , क्या नहीं ) को नहीं जानता हो , ऐसा दुराचारी , चाहे वह गुरु ही क्यों न हो , उसका परित्याग कर देना चाहिये । तुमः हमारे गुरु नहीं , हम तुम्हें छोड़कर जाते हैं । यह सुनकर शाकल्यने अपनी विद्या लौटा देनेको कहा और अभिमन्त्रित जल दिया कि इसे पीकर वमन कर दो । याज्ञवल्क्यजीने वैसा ही किया । अन्नके साथ वह सब विद्या उगल दी । विद्या निकल जानेसे वे मूढबुद्धि हो गये । तब उन्होंने हाटकेश्वरमें जाकर सूर्यकी बारह मूर्तियाँ स्थापित करके सूर्यकी उपासना की । बहुत काल बीतनेपर सूर्यदेव प्रकट हुए और वर माँगने को कहा । याज्ञवल्क्यजीने प्रार्थना की कि मुझे चारों वेद सांगोपांग पढ़ा दीजिये । सूर्यने कृपा करके इन्हें वह मन्त्र बतलाया जिससे वे सूक्ष्म रूप धारण कर सकें और कहा कि तुम सूक्ष्म शरीरसे मेरे रथके घोड़ेके कानमें बैठ जाओ , मेरी कृपासे तुम्हें ताप न लगेगा । मैं वेद पढ़ाऊँगा , तुम बैठे - बैठे सुनना । इस प्रकार याज्ञवल्क्यने सूर्यसे सांगोपांग चारों वेद पढ़ा । (
श्रीमद्भागवत मे इनकी कथा इस प्रकार है - याज्ञवल्क्यजीने ऋग्वेदसंहिता वाष्कलमुनिसे और वाष्कलने पैलसे सुनी । पैलने श्रीव्यासजीसे पड़ी थी । इसी प्रकार यजुर्वेदसंहिता व्यासजीने अपने शिष्य वैशम्पायनजीसे कही , वैशम्पायनजोसे याज्ञवल्क्यने पढ़ी थी । एक बार वैशम्पायनजीको ब्रह्महत्या लगी । हत्या लगनेका प्रसंग इस प्रकारसे है कि एक बार समस्त ऋषियोंने किसी विषयके सम्बन्धमें विचार करनेके लिये सुमेरुपर्वतपर एक सभा करने का निश्चय किया । उसमें यह नियम किया कि जो ऋषि उस सभामें सम्मिलित नहीं होगा , उसको सात दिनके लिये ब्रह्महत्या लगेगी । उस दिन वैशम्पायनजीके पिताका श्राद्ध था , इसलिये वे अपनी नित्य क्रियाके लिये अँधेरेमें ही उठकर स्नानको जाने लगे तो एक बालकपर उनका पैर पड़ा और वह मर गया । इस बालहत्याके शोकसे वे सभामें न जा सके । इस प्रकार एक तो उन्हें बालहत्या लगी , दूसरे ब्रह्महत्या । इन्हीं दोनों हत्याओं के निवारणार्थ वैशम्पायन जीने अपने सब शिष्योंसे प्रायश्चित्त करने को कहा । तब उनके शिष्य चरकावध्वर्युने हत्या दूर करनेवाले व्रतका आचरण किया ।
उस समय याज्ञवल्क्यजीने गुरु श्रीवैशम्पायनजीसे कहा- भगवन् ! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं । इनके व्रत - पालनसे लाभ ही कितना है ? मैं अकेला ही आपके प्रायश्चित्त के लिये बहुत ही कठिन तप करूँगा । यह सुनकर वैशम्पायनजी रुष्ट होकर बोले मुझे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले ऐसे शिष्यसे कोई प्रयोजन नहीं है । तुमने अबतक मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है , उसका शीघ्रसे शीघ्र त्याग कर दो और यहाँसे शीघ्र चले जाओ । याज्ञवल्क्यजीने यजुः श्रुतियोंको वमन कर दिया और वहाँसे चल दिये । उन वमनरूपसे पड़े हुए यजुर्वेदके अत्यन्त सुरम्य मन्त्रों को देखकर अन्यान्य मुनियोंने लोलुपतावश तीतरका रूप धरकर उन्हें ग्रहण कर लिया । तीतररूप इसलिये धारण कर लिये कि ब्राह्मणरूपसे वमनको कैसे निगलेंगे ? यही कारण है कि वह अत्यन्त मनोहर यजुःशाखा तैत्तिरीय शाखा कहलायी । तत्पश्चात् याज्ञवल्क्यने वैशम्पायन भी जिनको न जानते हाँ , ऐसी यजुः श्रुतियोंकी प्राप्तिके लिये सूर्यभगवान्की आराधना की । इनकी उपासनासे प्रसन्न होकर भगवान् सूर्यने अश्वरूप धारणकर उनकी कामनानुसार उन्हें वैसी ही यजुः श्रुतियाँ प्रदान कीं । वही वाजसनेय शाखाके नामसे प्रसिद्ध है । वाजसनेयी संहिताके आचार्य होनेसे इनका नाम वाजसनेय भी हुआ ।
एक बार मोक्षवित् जनकके पिता देवरातजीने यज्ञ किया । अध्वर्युकर्ममें जो प्रायश्चित्त आदि रहता है , उसे वैशम्पायनजी करा रहे थे । उसके करनेमें कुछ त्रुटि हो जानेसे यज्ञमें कुछ न्यूनता मालूम पड़ी । उस समय याज्ञवल्क्यजीने वैशम्पायनजीको टोका । तब जनक तथा वैशम्पायन दोनोंने इनसे प्रार्थना की कि उसकी पूर्ति करा दें । याज्ञवल्क्यजीने अपने वेदोंसे उस त्रुटिकी पूर्ति करायी । यज्ञ समाप्त होनेपर देवरातजीने जब वैशम्पायनको दक्षिणा दी तब याज्ञवल्क्यजीने उसका विरोध किया और कहा कि यह सब दक्षिणा हमको मिलनी चाहिये न कि वैशम्पायन को ; क्योंकि यज्ञकी पूर्ति तो हमने अपने वेदोंसे करायी है , अन्तमें महर्षि देवलने वह दक्षिणा दोनोंमें आधी - आधी बँटवा दी । याज्ञवल्क्यजीने उनके कहनेसे स्वीकार कर लिया । एक बार देवरातजीके पुत्र मोक्षवित् राजा जनकने ब्रह्मनिष्ठ ऋषियोंका समाज एकत्र किया और एक सहस्र सवत्सा गौओंको समलंकृतकर यह प्रतिज्ञा की कि जो ऋषि ब्रह्मनिष्ठ हो , वह हमारे प्रश्नोंका उत्तर दे और इन गौओंको ले जाय । सब ऋषि सोचने लगे कि ब्रह्मनिष्ठ तो हम सभी हैं , तब दूसरोंका अपमान करके हममें से कोई एक इन गायोंको कैसे ले जाय , इतनेमें याज्ञवल्क्यजी आये और उन्होंने यह कहते हुए कि मैं ब्रह्मनिष्ठ हूँ , अपने शिष्योंको आज्ञा दी कि इन गौओंको आश्रमपर ले जाओ । मैं इनके प्रश्नोंका उत्तर दूंगा । इसपर अन्य सब ब्रह्मनिष्ठ ऋषि बिगड़ गये । तब इन्होंने सबको परास्त किया । राजा जनक याज्ञवल्क्यजीके शिष्य हो गये ।
श्रीतुलसीदासजीने भी इन्हें परम विवेकी कहा है । यथा- '
जागबलिक मुनि परम बिबेकी । '
सूर्यभगवान्से समस्त वेद - ज्ञान प्राप्त होने के बाद लोग आपसे बड़े उत्कट प्रश्न किया करते थे । आपने सूर्यभगवान् से शिकायत की , तब उन्होंने वर दिया कि जो कोई तुमसे अतिप्रश्न करेगा तथा तुमसे वाद - विवाद करके तुम्हारे निश्चित किये यथार्थ सिद्धान्तपर भी वितण्डावाद करेगा , उसका सिर फट जायगा । वर्णन आया है कि शाकल्यऋषिने याज्ञवल्क्यजीका उपहास किया तो उनका सिर फट गया था । तभीसे सब लोग इनसे प्रश्न करने में डरने लगे । इन्होंने श्रीकाकभुशुण्डिजीसे श्रीरामचरित श्रवण किया है और महर्षि भरद्वाजको सुनाया है । यथा-
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥
इस प्रकार पृथ्वीपर श्री राम कथा के प्रचार-प्रसार प्रसार मे इनका अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान है।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
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