( १२ ) श्रीधर्म राज जी महाराज
भगवान् सूर्यकी पत्नी
संज्ञासे आपका प्रादुर्भाव हुआ है । आप कल्पान्ततक संयमनीपुरीमें रहकर जीवोंको उनके कर्मानुसार शुभाशुभ फलका विधान करते रहते हैं । ये पुण्यात्मा लोगोंको धर्मराज रूपमें बड़े सौम्य और पापात्मा जीवोंको यमराजके रूपमें भयंकर दीखते हैं । script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-8514171401735406" crossorigin="anonymous"> यमेवैष जैसे अशुद्ध सोनेको शुद्ध करनेके लिये अग्निमें तपाते हैं , वैसे ही आप कृपावश जीवोंको दण्ड देकर , उन्हें शुद्धकर भगवद्भजनके योग्य बनाते हैं । भगवान्के मंगलमय नामकी महिमाका वर्णन करते हुए श्रीधर्मराजजी अपने दूतोंसे कहते हैं कि -नामोच्चारणमाहात्म्यं अजामिलोऽपि हरेः पश्यत येनैव पुत्रकाः । मृत्युपाशादमुच्यत ॥ एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां संकीर्तनं भगवतो गुणकर्मनाम्नाम् । विकुश्य पुत्रमघवान् यदजामिलोऽपि नारायणेति म्रियमाण इयाय मुक्तिम् ॥ ( श्रीमद्भा०६।३।२३-२४ )
अर्थात् प्रिय दूतो ! भगवान्के नामोच्चारणकी महिमा तो देखो , अजामिल - जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करनेमात्रसे मृत्युपाशसे छुटकारा पा गया । भगवान्के गुण , लीला और नामोंका भली - भाँति कीर्तन | मनुष्योंके पापोंका सर्वथा विनाश कर दे , यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है , क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिलने मरनेके समय चंचलचित्तसे अपने पुत्रका नाम ' नारायण ' उच्चारण किया , इस नामाभासमात्रसे ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये , मुक्तिकी प्राप्ति भी हो गयी ।
पुनश्च - ते देवसिद्धपरिगीतपवित्रगाथा ये साधवः समदृशो भगवत्प्रपन्नाः । तान् नोपसीदत हरेर्गदयाभिगुप्तान् नैषां वयं न च वयः प्रभवाम दण्डे । ( श्रीमद्भा ० ६।३।२७ )
अर्थात् जो समदर्शी साधु भगवान्को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उनपर निर्भर हैं , बड़े - बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रोंका प्रेमसे गान करते रहते हैं । मेरे दूतो ! भगवान्की गदा उनकी सर्वदा रक्षा करती रहती है । उनके पास तुम लोग कभी भूलकर भी मत जाना । उन्हें दण्ड देनेकी सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् कालमें ही ।
जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् । कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान् ॥ ( श्रीमद्भा ०६।३।२ ९ )
अर्थात् जिनकी जीभ भगवान्के गुणों और नामोंका उच्चारण नहीं करती , जिनका चित्त उनके चरणारविन्दौका चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्णके चरणों में नहीं झुकता दन भगवत्सेवाविमुख पाापियोंको ही मेरे पास लाया करो ।
कठोपनिषद्में उद्दालकमुनिके पुत्र नचिकेता और यमराजका प्रसंग आता है । जिसमें श्रीयमराजजी आत्म तत्वके सम्बन्ध में की गयी नचिकेताकी जिज्ञासाका समाधान करते हुए कहते हैं कि -
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नतरेषाम् ॥
अर्थात् जो नित्योंका भी नित्य है , चेतनोंका भी चेतन है और अकेला ही इन अनेक जीवोंकी कामनाओंका विधान करता है , उस अपने अन्दर रहनेवाले पुरुषोत्तमको ज्ञानी निरन्तर देखते रहते हैं , उन्हींको सदा अटल रहनेवाली शान्ति प्राप्त होती है , दूसरोंको नहीं । नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूः स्वाम् ॥ अर्थात् यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचनसे न बुद्धिसे और न बहुत सुननेसे ही प्राप्त होता है । जिसको यह स्वीकार कर लेता है , उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ; क्योंकि यह परमात्मा उसके लिये अपने यथार्थ स्वरूपको प्रकट कर देता है ।
अजामिलकी कथा
बि नंद श्रीप्रियादासजीने अजामिलकी कथा संक्षेपमें निम्न दो कवितों में वर्णित की है धरयौ पितु मातु नाम अजामेल साँचो भयो भयौ अजामेल तिया छूटी शुभजात की । कियो मदपान सो सयान गहि दूरि डार्यो गार्यौ तनु वाहि सों जो कीन्हों लैकै पातकी ॥ करि परिहास काहू दुष्ट ने पठाये साधु आये घर देखि बुद्धि आई गई सातकी । सेवा करि सावधान सन्तन रिझाय लियो नारायण नाम धरो गर्भ बाल बातकी ॥ २३ ॥ आइ गयो काल मोह जाल में लपटि रह्यो महा विकराल यम दूत सो दिखाइये । वोही सुत नारायण नाम जो कृपाके दियो लियो सो पुकारि सुर आरत सुनाइये ॥ सुनत ही पार्षद आये वाही ठौर दौर तोरि डारे पास कयौ धर्म समुझाइये । हारे लै बिडारे जाइ पति पै पुकारे कही सुनो बजमारे मति जावो हरि गाइये ॥ २४ ॥
कवित्तोंमें वर्णित अजामिलकी कथाका भाव इस प्रकार है -
कन्नौज के आचारच्युत एवं जातिच्युत ब्राह्मण अजामिलने कुलटा दासीको पत्नी बना लिया था । न्याय ल अन्यायसे जैसे भी धन मिले , वैसे प्राप्त करना और उस दासीको सन्तुष्ट करना ही उसका काम हो गया था । माता - पिताकी सेवा और अपनी विवाहिता साध्वी पत्नीका पालन भी कर्तव्य है , यह बात उसे सर्वथा नही भूल चुकी थी ।
उस कुलटा दासीसे अजामिलके कई सन्तानें हुई । पहलेका किया पुण्य सहायक हुआ , किसी सत्पुरुषका पार उपदेश काम कर गया । अपने सबसे छोटे पुत्रका नाम अजामिलने ' नारायण ' रखा । बुढ़ापेकी अन्तिम संतानपर पिताका अपार मोह होता है । अजामिलके प्राण जैसे उस छोटे बालकमें ही बसते थे । इसी मोहग्रस्त दशामें मृत्युकी घड़ी आ गयी । यमराजके भयंकर दूत हाथोंमें पाश लिये आ धमके और अजामिलके सूक्ष्मशरीरको उन्होंने बाँध गई लिया । उन विकराल दूतोंको देखते ही भयसे व्याकुल अजामिलने पासमें खेलते हुए अपने पुत्रको कातर स्वर में पुकारा - ' नारायण ! नारायण ।
' नारायण ! script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-8514171401735406" crossorigin="anonymous"> ' एक मरणासन्न प्राणीकी यह कातर पुकार सुनी भगवत्पार्षदोंने और वे दौड़ पड़े । यमदूतोंका पाश उन्होंने छिन्न भिन्न कर दिया ।
बेचारे यमदूत हक्के - बक्के देखते रह गये । उनका ऐसा अपमान कहीं नहीं हुआ था । साहस करके वे भगवत्पार्षदोंसे बोले- ' आपलोग कौन हैं ? हम तो धर्मराजके सेवक हैं । उनकी आज्ञासे पापीको उनके समक्ष ले जाते हैं । आप हमें अपने कर्तव्यपालनसे क्यों रोकते हैं ? ' भगवत्पार्षदोंने फटकार दिया — ' तुम धर्मराजके सेवक सही हो , किंतु तुम्हें धर्मका ज्ञान ही नहीं है । जानकर या अनजानमें ही जिसने ' भगवान् नारायण ' का नाम ले लिया , वह पापी रहा कहाँ ! इस पुरुषने पुत्रके बहाने सही , नाम तो नारायण प्रभुका लिया है ; फिर इसके पाप रहे कहाँ ? तुम एक निष्पापको कष्ट देने की धृष्टता मत करो ! यमदूत क्या करते , वे अजामिलको छोड़कर यमलोक आ गये और अपने स्वामीके सम्मुख हाथ जोड़कर सारा वृत्तान्त निवेदित किया ।
दूतों की बात सुनकर यमराज बोले- ' सेवको ! तुमलोग केवल उसी पापी जीवको लेने जाया करो , जिसकी जीभसे कभी किसी प्रकार भगवन्नाम न निकला हो , जिसने कभी भगवत्कथा न सुनी हो , जिसके पैर कभी भगवान्के पावन लीलास्थलोंमें न गये हों अथवा जिसके हाथोंने कभी भगवान्के श्रीविग्रहकी पूजा न की हो ।