बाली जी महाराज सुखदेव ञी महाराज भारत वर्ष के गौरवपूर्ण इतिहास

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बलिजी महाराज 

 जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्यधनादिभिः। 

यद् यस्य न भवेत्सम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः ॥

 प्रह्लादजीके पुत्र विरोचन और विरोचनजीके पुत्र लोकविख्यात दानिशिरोमणि महाराज बलि हुए । दैत्य कुलमें उत्पन्न होनेपर भी ये अपने पितामहके समान भगवद्भक्त , दानियोंमें अग्रणी और प्रातः स्मरणीय चिरजीवियोंमें गिने जाते हैं । इन्होंने अपने पराक्रमसे दैत्य , दानव , मनुष्य और देवताओंतकको जीत लिया । ये तीनों लोकोंके एकमात्र स्वामी थे । इन्द्र स्वर्गलोकके सिंहासनसे उतार दिये गये , सर्वत्र महाराज बलिका ही राज्य था । ये बड़े ब्रह्मण्य , धर्मात्मा और साधुसेवी थे । देवताओंने भगवान्से प्रार्थना की । देवताओंकी माता अदितिने एक घोर व्रत किया , उससे सन्तुष्ट होकर भगवान्ने अदितिको वरदान दिया कि ' मैं तुम्हारे यहाँ पुत्ररूपमें उत्पन्न हूँगा । तभी मैं तुम्हारे पुत्रोंका संकट दूर करूंगा । '

 कालान्तरमें भगवान्ने अदितिके यहाँ अवतार धारण किया । भगवान्‌का यह मंगलविग्रह बहुत छोटा था , इससे आप वामन कहलाये और इन्द्रके छोटे भाई होनेसे आपकी ' उपेन्द्र ' संज्ञा हुई । सब देवता प्रसन्न हुए कि हमारा गया हुआ ऐश्वर्य फिर प्राप्त होगा ।

 महाराज बलि तीनों लोकोंके स्वामी बनकर निश्चिन्त हो यज्ञ कर रहे थे । वामनभगवान् ब्रह्मचारीका वेष धारण करके महाराज बलिके यज्ञमण्डपमें गये । बलिने वामन ब्रह्मचारीका शास्त्रविधिसे पूजन किया , अर्घ्य पाद्य देकर गोदानके अनन्तर महाराजने कहा - ' आप सुपात्र ब्रह्मचारी हैं , मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ ; आपको जो भी अच्छा लगे वह माँग लीजिये । आपके माँगनेपर मैं सब कुछ दे सकता हूँ , निःसंकोच होकर आप माँगें । मेरे यहाँसे कोई ब्राह्मण विमुख होकर नहीं जाता । "

   वामनभगवान् बोले- ' मुझे किसी चीजकी जरूरत नहीं , मैं तो आपसे केवल तीन पग पृथ्वी चाहता हूँ , जिसपर मैं बैठ सकूँ । अधिककी मुझे इच्छा नहीं है बलिने बहुत समझाया कि ' कल्पवृक्षके नीचे आकर भी आप एक दिनका अन्न ही चाहते हैं । मैं त्रिलोकीका स्वामी हूँ , कुछ और माँगिये । ' राजाके बहुत कहनेपर भी वामनभगवान्ने कुछ नहीं माँगा । वे तीन पग पृथ्वीपर ही अड़े रहे । अन्तमें राजाने कहा - ' अच्छा दूँगा । ' इसपर बलिके कुलगुरु भगवान् शुक्राचार्यने उन्हें समझाया कि- ' ये वामनवेषधारी साक्षात् भगवान् हैं , तीन पगमें तीनों लोकोंको नाप लेंगे । तुझे श्रीहीन बना देंगे । ऐसे दानसे क्या लाभ ! तुम कह दो कि मैं नहीं दूँगा ।

 " बलिने कहा - ' प्रथम तो किसी बातको कहकर फिर पलट जाना बड़ा पाप है , इसके अतिरिक्त मान लिया ये ब्राह्मण न होकर साक्षात् भगवान् ही हैं , तब तो और भी उत्तम है । मैं भगवान्‌की प्रसन्नता के लिये हो यज्ञ कर रहा हूँ , यदि साक्षात् भगवान् मेरी वस्तुको ग्रहण करने आ गये हैं तो मेरा अहोभाग्य है । जो कह दिया है उसे में अवश्य करूंगा । 

' इसपर क्रुद्ध होकर गुरुने उन्हें शाप दिया , तो भी वे अपने निश्चयसे विचलित नहीं हुए । वामनरूपधारी वे भगवान् तो थे ही । उन्होंने एक पगमें पृथ्वी और दूसरेमें स्वर्ग नाप लिया , तीसरेके बदलेमें बलिको बाँध लिया । बलि तनिक भी विचलित नहीं हुए । उनके सैनिक तथा जातिवाले तो क्रुद्ध भी हुए , किंतु बलिने  सबको समझाते हुए भगवान्से कहा- ' ब्रह्मन् ! दातव्य वस्तुसे वस्तुका दाता बड़ा होता है , अतः तीसरे पैर में आप मेरे शरीरको ले लीजिये । " 

महाराज बलिके ऐसे अपूर्व त्यागको देखने ब्रह्मादि समस्त देवता वहाँ आ गये । ब्रह्माजीने भगवान्से पूछा - ' भगवन् ! शुभ कार्यका फल तो शुभ ही होना चाहिये । इसने यज्ञ किया , दान दिया , फिर भी यह बाँधा क्यों गया ? ' इसपर भगवान्ने कहा- ' ब्रह्मन् । जिसपर मैं कृपा करता हूँ , उसका पहले तो मैं धन हर लेता हूँ , पीछे चाहे उसे सम्पूर्ण सम्पत्ति सौंप दूँ । यह तो मेरी कृपा है । बलि मेरा परम भक्त है , इसकी दुर्गति कभी न होगी । देवताओंके भी ऐश्वर्यसे दुर्लभ मैं इसे पातालका ऐश्वर्य दूँगा । एक बार इसकी इन्द्र बननेकी इच्छा हुई थी , उसे पूरा करके मैं इसे अपने धाममें ले जाऊँगा । '

 महाराज बलिके त्याग और धैर्यको देखकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और बोले - ' राजन् ! तुम जो चाहो वह वरदान मुझसे माँग लो । ' 

बलिने कहा- ' भगवन् ! मुझे सांसारिक वस्तुओंकी तो आवश्यकता है नहीं , मैं तो आपको चाहता हूँ । आप सदा मेरे द्वारपर रहें , यही मेरी इच्छा है ।

 ' भगवान् हँसे और सोचने लगे - ' हम समझते थे हमने इसे बाँधा है । किंतु इसने उलटे हमहीको बाँध लिया । ' भगवान् तो सदा अपने भक्तोंकी प्रेमरज्जुमें बँधे ही हुए हैं । उन्होंने कहा- ' आजसे मैं सदा तुम्हारे द्वारपर द्वारपाल बनकर रहूँगा । ' 

भगवान्‌का आशीर्वाद पाकर बलि प्रसन्नतापूर्वक सुतललोकमें चले गये , गदापाणि भगवान् आजतक उनके दरवाजेपर एकरूपसे द्वारपाल बने हुए खड़े हैं । यह है भगवान्‌की भक्तवत्सलताका नमूना और यह है भक्तोंके सर्वस्वत्यागका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण !

 ( ११ ) श्रीशुकदेवजी

 शुकदेवजी महर्षि वेदव्यासके पुत्र हैं । इनकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें अनेकों प्रकारकी कथाएँ मिलती हैं । महर्षि वेदव्यासने यह संकल्प करके कि पृथ्वी , जल , वायु और आकाशकी भाँति धैर्यशाली तथा तेजस्वी पुत्र प्राप्त हो , गौरी - शंकरकी विहारस्थली सुमेरुशृंगपर घोर तपस्या की । उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर शिवजीने वैसा ही पुत्र होनेका वर दिया । यद्यपि भगवान्के अवतार श्रीकृष्णद्वैपायनकी इच्छा और दृष्टिमात्रसे कई महापुरुषोंका जन्म हो सकता था और हुआ है तथापि अपने ज्ञान तथा सदाचारके धारण करनेयोग्य संतान उत्पन्न करनेके लिये और संसारमें किस प्रकारसे संतानकी सृष्टि करनी चाहिये - यह बात बतानेके लिये ही उन्होंने तपस्या की होगी । शुकदेवकी महिमाका वर्णन करते समय इतना स्मरण हो जाना कि वे वेदव्यासके तपस्याजनित पुत्र हैं , उनके महत्त्वकी असीमता सामने ला देता है ।

एक दिन वे अरणिमन्थन कर रहे थे । उसी समय घृताची अप्सरा वहाँ आ गयी । संयोग ही ऐसा था , यों कहें कि यही बात होनेवाली थी , उनका वीर्य अरणिमें ही गिर पड़ा । उसीसे शुकदेवका जन्म हुआ । उनके शरीरसे निर्धूम अग्निकी भाँति निर्मल ज्योति फैल रही थी । वे उस समय बारह वर्षके बालककी भाँति है । स्त्रीरूप धारण करके गंगाजी वहाँ आयीं , बालकको उन्होंने स्नान कराया । आकाशसे काला मृगचर्म और दण्ड आया । गन्धर्व , अप्सरा , विद्याधर आदि गाने , बजाने और नाचने लगे । देवताओंने पुष्पवर्षा की । नारा संसार आनन्दमग्न हो गया । भगवान् शंकर और पार्वतीने स्वयं पधारकर उसी समय उनका उपनयन संस्कार कराया । उसी समय सारे वेद , उपनिषद् , इतिहास आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें उपस्थित हुए । अब वे ब्रह्मचारी होकर तपस्या करने लगे । उनकी प्रवृत्ति धर्म , अर्थ और कामकी ओर न थी ; वा केवल  मोक्षका ही विचार करते रहते थे ।

 उन्होंने एक दिन अपने पिता व्यासदेवके पास आकर बड़ी नम्रताके साथ मोक्षके सम्बन्ध में बहुत से प्रश्न किये । उत्तरमें व्यासदेवने बड़े ही वैराग्यपूर्ण उपदेश दिये । यथा 

' बेटा ! धर्मका सेवन करो । यम - नियम तथा दैवी सम्पत्तियोंका आश्रय लो । यह शरीर पानीके बुलबुले के समान है । आज है तो कल नहीं । क्या पता किस समय इसका नाश हो जाय । इसमें आसक्त होकर अपने कर्तव्यको नहीं भूलना चाहिये । दिन बीते जा रहे हैं । क्षण - क्षण आयु छीज रही है । एक - एक पलकी गिनती की जा रही है । तुम्हारे शत्रु सावधान हैं । तुम्हें नष्ट कर डालनेका मौका ढूँढ़ रहे हैं । अभी - अभी इस संसारकी ओरसे अपना मुँह मोड़ लो । अपने जीवनकी गति उस ओर कर दो , जहाँ इनकी पहुँच नहीं है । 

' ' संसारमें वे ही महात्मा सुखी हैं , जिन्होंने वैदिकमार्गपर चलकर धर्मका सेवन करके परमतत्त्वकी उपलब्धि की है । उनकी सेवा करो और वास्तविक शान्ति प्राप्त करनेका उपाय जानकर उसपर आरूढ़ हो जाओ । दुष्टोंकी संगति कभी मत करो । वे पतनके गड्ढेमें ढकेल देते हैं । वीरताके साथ काम - क्रोधादि शत्रुओं से बचो और धीरताके साथ आगे बढ़ो । तुम्हें कोई तुम्हारे मार्गसे विचलित नहीं कर सकता । परमात्मा तुम्हारा सहायक है । वह तुम्हारी शुभेच्छा और सचाईको जानता है ।

 ' ' बेटा ! मैं तुम्हारा अधिकार जानता हूँ । तुम तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये मिथिलाके नरपति जनकके पास जाओ । वे तुम्हारे सन्देहको दूरकर स्वरूपबोध करा देंगे । तुम जिज्ञासु हो , बड़ी नम्रताके साथ उनके पास जाना परीक्षाका भाव मत रखना । घमण्ड मत करना । उनकी आज्ञाका पालन करना । मानुषमार्गसे पैदल तितिक्षा करते हुए ही जाना उचित है । 

पिताकी आज्ञा शिरोधार्य करके शुकदेवजी महाराज कई वर्षमें अनेकों प्रकारके कष्ट सहन करते हुए मिथिलामें पहुँचे । द्वारपालोंने इन्हें अन्दर जानेसे रोक दिया । परंतु उनकी जाज्वल्यमान ज्योतिको देखकर और तिरस्कारकी दशामें भी पूर्ववत् प्रसन्न देखकर एकने उनके पास आकर बड़ी अभ्यर्थना की । वह उन्हें बड़े सत्कारसे अन्दर ले गया । मन्त्रीने उन्हें एक ऐसे स्थानपर ठहराया , जहाँ भोगकी अनेकों वस्तुएँ थीं । उनकी सेवामें बहुत सी सुन्दर स्त्रियाँ लगा दीं , परंतु वे विचलित नहीं हुए । सुख - दुःख , शीत - उष्णमें एक से रहनेवाले शुकको यह सब देखकर कुछ भी हर्ष - शोक नहीं हुआ । ब्रह्मचिन्तनमें संलग्न रहकर उन्होंने इसी प्रकार वह दिन और रात्रि बिता दी । 

दूसरे दिन प्रातः काल जनकने आकर उनकी विधिवत् पूजा - अर्चा की । कुशल - मंगलके पश्चात् शुकदेवने अपने आनेका प्रयोजन बतलाया और प्रश्न किया । जनकने उनके अधिकारकी प्रशंसा करके कहा ' बिना ज्ञानके मोक्ष नहीं होता और बिना गुरुसम्बन्धके ज्ञान नहीं होता । इस भवसागरसे पार करनेके लिये गुरु ही कर्णधार है । ज्ञानसे ही कृतकृत्यता प्राप्त होती है । फिर तो सभी मार्ग स्वयं समाप्त हो जाते हैं । लोकमर्यादा और कर्ममर्यादाका उच्छेद न हो , इसीके लिये वर्णाश्रमधर्मका सेवन आवश्यक कहा गया है । इनके आश्रयसे क्रमशः आगे बढ़ते चलें तो अन्तमें पाप - पुण्यसे परेकी गति प्राप्त हो जाती है । अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये वर्णाश्रमधर्मकी बड़ी आवश्यकता है । जिसे ब्रह्मचर्य - आश्रममें ही तत्त्वकी उपलब्धि हो जाय उसे और आश्रमका कोई प्रयोजन नहीं है । तामसिकता और राजसिकता छोड़कर सात्त्विकताका आश्रय लेना चाहिये । धीरे - धीरे बहिर्मुखताका त्याग करके अन्तर्मुखताका सम्पादन करना हो साधनाका सच्चा स्वरूप है । जो पुरुष सब प्राणियोंमें अपने आत्मा और अपने आत्मामें समस्त प्राणियोंका दर्शन करते हैं , वे पाप - पुण्यसे निर्लेप हो जाते हैं । ' जिसे किसीका भय नहीं है , जो किसीको भय नहीं पहुँचाता , जिसे न राग है और न द्वेष है , वही ब्रह्मसम्पन्न होता है । जब जीव मन , वाणी और कर्मसे किसीका अनिष्ट नहीं करता ; काम , क्रोध , ईर्ष्या , असूया आदि मनोमलोंको त्याग देता है , दुःख - सुख , हानि - लाभ , जीवन - मरण , शीत उष्ण , निन्दा - स्तुति आदि द्वन्द्वोंमें समान दृष्टि रखने लगता है , तब ब्रह्मसम्पन्न हो जाता है। 

शुकदेव ! ये सभी बातें तथा अन्यान्य समस्त सद्गुण तुममें प्रत्यक्ष दीख रहे हैं । मैं जानता हूँ कि तुम्हें समस्त ज्ञातव्य बातोंका ज्ञान है । तुम विषयोंके परे पहुँच चुके हो । तुम्हें विज्ञान प्राप्त है । तुम्हारी बुद्धि स्थिर है तुम ब्रह्ममें स्थित हो , तुम स्वयं ब्रह्म हो । और क्या कहूँ ? ' जनकका उपदेश सुनकर शुकदेवको बड़ा आनन्द हुआ । उनसे विदा होकर वे हिमालयपर अपने पिता व्यासजीके आश्रमपर लौट आये ।

 इनकी उत्पत्तिकी एक ऐसी कथा भी है कि व्यासकी एक वटिका नामकी पत्नी थीं । उन्होंने व्यासदेवकी अनुमतिसे पुत्रप्राप्तिके लिये बड़ी तपस्या की । उससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने वर दिया कि तुम्हें एक बड़ा तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा । समयपर गर्भस्थिति हुई , परंतु बारह वर्ष हो गये प्रसव नहीं हुआ । वह गर्भस्थ शिशु बातचीत भी करता था । इतना ही नहीं , उसने गर्भमें ही वेद , उपनिषद् , दर्शन , इतिहास , पुराण आदिका सम्यक् ज्ञान भी प्राप्त कर लिया । अब व्यासदेवने बालकसे बड़ी प्रार्थना की कि गर्भसे बाहर निकल आओ , परंतु उसने यह कहकर गर्भसे बाहर आना अस्वीकार कर दिया कि ' मैंने अबतक अनेक योनियोंमें जन्म ग्रहण किया है । बहुत भटक चुका हूँ । अब बाहर न निकलकर यहीं भजन करनेका विचार है । ' व्यासदेवने कहा- ' तुम नरकरूप इस गर्भसे बाहर आ जाओ । तुम मायाके चक्करमें न पड़ोगे । योगका आश्रय लो । भगवान्का भजन करो । तुम्हारा मुख देखकर मैं भी पितृऋणसे मुक्त हो जाऊँगा । अन्यथा तुम्हारी माँ मर जायगी । ' माँके मरनेकी बात सुनकर शुकदेवको दया आ गयी । उनका कोमल हृदय पिघल उठा । उन्होंने कहा - ' यदि श्रीकृष्ण आकर आपकी बातोंका समर्थन करें तो मैं निकल सकता हूँ । ' इसी बहाने उन्होंने जन्मके समय ही अपने पास श्रीकृष्णको बुला लिया । व्यासकी प्रार्थनासे श्रीकृष्णने आकर कहा कि ' गर्भसे निकल आओ । मैं इस बातका साक्षी हूँ कि माया तुमपर प्रभावी नहीं होगी । ' वे गर्भसे निकल आये । उस समय उनकी अवस्था बारह वर्षकी थी । जन्मते ही श्रीकृष्ण , माँ और पिताको नमस्कार करके उन्होंने जंगलकी यात्रा की । उनके श्यामवर्णके सुगठित , सुकुमार और सुन्दर शरीरको देखकर व्यासदेव मोहित हो गये । उन्होंने बड़ी चेष्टा की , बहुत समझाया कि तुम मेरे पास ही रहो , परंतु शुकदेवने एक न मानी । उस समयका पिता - पुत्र - संवाद स्कन्दपुराणकी एक अमूल्य वस्तु है । प्रत्येक विरक्तको उसका मनन करना चाहिये । अन्ततः वे विरक्त होकर चले ही गये । 

एक अन्य कथा इस प्रकार आती है कि एक समय पार्वतीने जिज्ञासा की कि ' प्रभो ! आप मुझे श्रीकृष्णसम्बन्धी कथा सुनायें ; क्योंकि आप उन्हींका स्मरण - चिन्तन निरन्तर किया करते हैं । ' महादेवने कहा - ' बड़ी गोपनीय बात है । देख लो , कोई दूसरा तो नहीं है ? ' पार्वतीने देखकर कह दिया- ' यहाँ कोई दूसरा नहीं है । ' वहाँ एक तोतेका सड़ा हुआ अण्डा अवश्य पड़ा था ; परंतु वह मर गया था , इससे पार्वतीने उसकी चर्चा ही नहीं की । महादेवने कहा - ' अच्छा ! हुँकारी भरती जाना । ' वे कहने लगे । दशम स्कन्धतक तो वे सुनती गयीं और स्वीकारोक्ति ( ओम् ) का उच्चारण भी करती गयीं । परंतु अन्तमें उन्हें नींद आ गयी । अबतक वह तोतेका अण्डा भागवतकथामृतका पान करके जीवित हो उठा था । पार्वतीको निद्रित देखकर उसने हुँकारी भरनी शुरू की । अन्तमें जब पार्वतीकी नींदका पता चला तब महादेवने उस शुकका पीछा किया । वह भागकर व्यासदेवके आश्रमपर आया और उनके मुखमें घुस गया । महादेवके लौटनेपर फिर यही  शुक व्यासदेवके अयोनिज पुत्रके रूपमें प्रकट हुए । गुप्त इस प्रकार अनेकों कथाएँ आती हैं । ये सभी सत्य हैं , स्वयं व्यासदेवकी लिखी हैं और कल्पभेदसे सम्भव भी हैं । उनका जीवन विरक्तिमय था । वे निर्गुणमें पूर्णतः परिनिष्ठित थे । व्यासजीसे अलग ही विचरते रहते थे । गाँवों में केवल गौ दुहनेके समय जाते और उतने ही समयतक वहाँ रहते । अपनेको सर्वदा रखते । व्यासजीकी इच्छा थी कि ये मेरे पास आते और मेरे जीवनकी परमनिधि भागवतसंहिताका अध्ययन करते । परंतु वे मिलते ही न थे । व्यासदेवने भागवतका एक अत्युत्तम श्लोक * अपने विद्यार्थियोंको रटा दिया था । वे उसका गायन करते हुए जंगलोंमें समिधा लाने जाया करते थे । एक दिन उसे शुकदेवने भी सुना । श्रीकृष्णकी लीलाने उन्हें खींच ही लिया । वे निर्गुणनिष्ठ होनेपर भी भगवान्के गुणोंमें रम गये । उन्होंने अठारह हजार श्लोकोंका अध्ययन किया । अब वे मन - ही - मन उन्हें गुनगुनाते हुए विचरने लगे । इसी परमहंससंहिताका सप्ताह उन्होंने महाराज परीक्षितको सुनाया था । 

इन भागवतवक्ता परमभागवत शुकदेवके पास प्रायः बड़े - बड़े ऋषि आया करते थे । नारदीयपुराणमें सनत्कुमारके और महाभारतमें नारदके आनेकी चर्चा आयी है । उनके आनेपर शुकदेव बड़े प्रेमसे उनकी करते और उनसे प्रश्न करके तत्त्वकी बात सुनते । एक बार इन्द्रने इनकी तपस्या और त्याग देखकर रम्भा आदि अप्सराओंको विघ्न करनेके लिये भेजा ।  उस समय शुकदेव इस प्रकार समाधिमग्न हो गये कि उन्हें पता ही न चला कि यहाँ अप्सरा , वसन्त , काम आदि विघ्न करने आये हैं । बहुत समय बाद समाधि खुलने पर रम्भाने बड़ी चेष्टा की , बहुत फुसलाया , परंतु वे विचलित न हुए । वह लजाकर चली गयी । स्थूल शरीरके कारण होनेवाले विक्षेपोंका विचार करके उन्होंने ब्रह्म होकर ही रहनेका निश्चय किया । उस समय त्रिलोकोके सभी प्राणियोंने उनकी पूजा की व्यासदेव पुत्रका यह विचार सुनकर शोकाकुल हो उनके पीछे - पीछे दौड़े । शुकदेवने पहले ही आज्ञा कर रखी थी , इसलिये वृक्षोंने व्यासदेवको समझानेकी बहुत कुछ चेष्टा की ; पर वे आगे बढ़ते ही गये । एक सरोवरमें कुछ अप्सराएँ स्नान कर रही थीं , वे शुकदेवके सामने ज्यों - की त्यों खड़ी रहीं किंतु व्यासजीको देखकर वस्त्र पहनने लगीं । इसपर व्यासजीने पूछा कि शुकदेवको देखकर तो तुम स्नान करती ही रह गयीं , मुझे देखकर क्यों निकल आयीं ? अप्सराओंने बताया कि - ' अभी तुम्हारी दृष्टिमें स्त्री - पुरुषका भेद है , परंतु तुम्हारे पुत्र शुकदेवको नहीं है । ' यह सुनकर व्यासजी पुत्रकी महिमा से प्रसन्न और अपनी कमजोरीसे लज्जित हो गये । उनके शोकको देखकर स्वयं महादेवजीने पधारकर उन्हें दे समझाया कि – ' मैंने प्रसन्न होकर तुम्हें ऐसा महत्त्वशाली पुत्र दिया । उसे परमगति प्राप्त हुई है । उसकी कीर्ति अक्षय होगी । ' यह कहकर महादेवने उन्हें एक छायाशुक दिया । व्यासदेवने उन्हीं छायाशुककोलेकर सन्तोष किया और अब भी वे निरन्तर अपने पुत्रको देखा करते हैं । 

शुकदेव ब्रह्मभूत हो गये हों या छायाशुकके रूपमें विद्यमान हों , कम - से - कम यह बात अधिकार के साथ कही जा सकती है कि वे अब भी हैं और अधिकारी पुरुषोंको दर्शन देकर उपदेश भी करते हैं । कहीं - कहीं इनकी एक पीवरी नामकी स्त्री और कृष्ण , गौरप्रभ आदि संतानोंका भी वर्णन आता है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 
BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 

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