श्री अल्ह जी महाराज
के पावन चरित्र
श्रीअल्हजी महाराज परम वैष्णव सन्त श्रीअनन्तानन्दजी महाराजके कृपापात्र शिष्य थे । तीर्थयात्रा और भगवद्भक्तिके प्रचारार्थ आप प्रायः देश - देशान्तरमें भ्रमण किया करते थे । एक बार विचरण करते हुए आप ऐसे राज्यमें पहुँच गये , जहाँका राजा महानास्तिक और भगवद्विमुख था । सन्तों और वैष्णवोंके प्रति उसके मनमें अकारण ही द्वेष था । यदि कोई सन्त भूले - भटके उसके राज्यमें चले जाते तो वह उन्हें गुलेलसे मारता । वह दुष्ट राजा सन्तोंके तिलकको लक्ष्य करके गुलेल चलाता था , जिससे कितने ही सन्तोंके सिर और नेत्र फूट गये थे । यथा राजा तथा प्रजा । राजासे पहले उसके नगरके लोग ही किसी सन्तको देखकर उसको भाँति - भाँतिसे तिरस्कृत करते , फिर भगा देते । जब श्रीअल्हजी उस राज्यमें जाने लगे तो बहुतसे लोगोंने उनसे उस राजाकी दुष्टताका वर्णन करके वहाँ जानेसे मना किया । सन्त श्रीअल्हजीने कहा- भाइयो ! मैंने जीवनमें सन्त तो बहुत देखे हैं , परंतु नास्तिक कोई नहीं देखा । आज मेरे मनमें नास्तिकको देखनेका कौतूहल हो रहा है , अतः मैं वहाँ अवश्य जाऊँगा । आप लोग किसी प्रकारकी चिन्ता न करें , मंगलमय भगवान् सब मंगल ही करेंगे ।
यह कहकर श्रीअल्हजी उस राज्यमें चले गये और सुन्दर स्थान देखकर राजाके उद्यानमें ही जाकर रुक गये । उद्यानमें आमके वृक्ष थे और उनपर सुन्दर पके हुए फल सुशोभित हो रहे थे । श्रीअल्हजीने वही आसन लगाया और श्रीभगवान्की सेवा - पूजा करनेका निश्चय किया । एक माली दिखा तो भगवान्को भोग लगानेके लिये उससे आमके पके फल माँगे । प्रथम तो मालीने इन्हें बहुत फटकारा कि बिना अनुमतिके राजकीय उद्यान में कैसे चले आये ? पर इनका दृढ़ निश्चय देखकर कहा कि यदि बिना लाठी - डण्डा या पत्थर चलाये आम ले सको तो ले लो । वस्तुतः वह इस प्रकार कहकर इनका तिरस्कार ही कर रहा था , परंतु श्रीअल्हजीने उसके कथनको तनिक भी अन्यथा नहीं लिया , उन्होंने तो इस प्रकारके भूले - भटकोंको मार्ग दिखानेका व्रत ही ले रखा था ।
श्रीअल्हजी महाराज सिद्ध सन्त थे और उन सर्वसमर्थके आराधक थे , जो जड़को चेतन और चेतनको जड़ करते हैं , उन्हीं परमात्मा श्रीरघुनाथजीका ध्यान करके श्रीअल्हजीने आम्रवृक्षोंसे कहा- हे तरुवरो ! तुम तो परोपकारियों में श्रेष्ठ गिने जाते हो , तुम अपने पल्लव शाखा , फल - फूल आदि देकर लोकोपकार करते हो । जो तुमपर लाठी - डण्डे या पत्थरसे प्रहार करते हैं , उन्हें भी तुम मधुर फल ही देते हो , अतः आज मैं तुमसे भिक्षा माँगता हूँ , मेरे ठाकुरजीके भोगके लिये मुझे फल प्रदान करो ।
ऐसा कहकर श्रीअल्हजीने जैसे ही वृक्षोंकी ओर देखा उनकी डालियाँ स्वतः झुक आय , आपने आवश्यकतानुसार आम तोड़ लिये और उनसे श्रीठाकुरजीका भोग लगाया । इस अद्भुत घटनाको देखकर माली तो ठगा सा रह गया , फिर थोड़ी देर बाद जब उसे ज्ञान हुआ तो वह भागा - भागा राजाके पास गया और वहाँ सारी घटनाका वर्णन किया । सुनते ही राजा भी भागा - भागा श्रीअल्हजीके पास आया , उसे विश्वास हो गया कि ये कोई महापुरुष - सिद्ध सन्त है , चरणोंमें गिरकर वह अपने अपराधोंके लिये क्षमा प्रार्थना करने लगा । सन्तहृदय श्रीअल्हजी तो आये ही थे उसका उद्धार करने , उन्होंने कहा- राजन् ! लोग व्यर्थ ही आपको नास्तिक कहते हैं , आप तो मुझे बड़े ही भक्त जान पड़ते हैं । राजाने कहा- प्रभो ! मैं तो सचमुच बहुत पापी हूँ , यह तो आपके दर्शनका ही प्रभाव है कि मेरे - जैसे भगवद्विमुखके हृदयमें भक्तिका संचार हो गया । कृपा करके मेरा उद्धार कीजिये । श्रीअल्हजीने कहा- ' राजन् ! भक्तिभावका ही सावधान होकर आश्रय लीजिये । ' श्रीअल्हजीने उस राजा और राज्यको अपने सदुपदेशोंसे परम धार्मिक बना दिया । इस प्रकार प्रभुकृपासे सन्तजन इस कलियुगमें भी अद्भुत कर्म करते हैं ।
श्रीअल्जीके इस चरितका श्रीप्रियादासजीने अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है
चले जात अल्ह मग लाग बाग दीठि परयो करि अनुराग हरि सेवा विसतारियै । पकि रहे आम मांगे माली पास भोग लिये कह्यो लीजै कही झुकि आई सब डारियै ॥ चल्यौ दौरि राजा जहाँ जायकै सुनाई बात गात भई प्रीति आषुतट पांय धारियै । आवत ही लोटि गयो मैं तो जू सनाथ भयो , देवो लै प्रसाद भक्ति भाव ही सँभारियै ॥
श्री वारमुखीजी के भगवद उपासना
गणिका थीं श्रीवारमुखोजी । लोक और वेद - दोनोंसे गर्हित था उनका कर्म , परंतु प्रभुकी कृपा कब किसपर हो जाय , कब किसके किस जन्मका पुण्य उदय हो जाय यह पता नहीं होता ।श्रीवारमुखीजी भी यह नहीं जानती थीं कि आज मेरे किस सौभाग्यका उदय हुआ है । एक वेश्याके द्वारपर साधु कहीं ऐसा न हो कि मेरा परिचय पाकर महात्मा लोग चले जायें । दक्षिण देशकी उस गणिकाने नगरसे लौटकर देखा कि उसके द्वारके सम्मुख पीपलके पेड़के नीचेके चबूतरेपर वैष्णव सन्तोंने आसन कर रखा है । धूनी जल रही है । छत्ता गाड़कर उसके नीचे ठाकुरजीका सिंहासन लगा दिया गया है । साधुओंमें कोई चन्दन घिस रहा है , कोई पार्षद ( पूजापात्र ) मल रहा है और कोई तिलक कर रहा है । वेश्याने सोचा कि ' मैं इनका आतिथ्य करनेयोग्य तो हूँ नहीं , मेरा अन्न भला साधु कैसे ग्रहण करेंगे । ' वह भीतर गयी । एक चाँदीकी थालीमें जितनी स्वर्ण मुद्राएँ आ सक , उसने लाकर ठाकुरजीके सामने थोड़ी दूरीपर रख दिया । '
मैया तू कौन है ? ' एक साधुने पूछा इतना द्रव्य श्रद्धासे अनजान स्त्रीका निवेदन करना कम आश्चर्यजनक नहीं था । ' आप और चाहे जो पूछें , परंतु मेरा परिचय न पूछें । उसने मुख नीचा करके प्रार्थना की । ' साधुसे भयकी क्या बात है ? ' महात्माने आग्रह किया । ' मैं महानीच हूँ । मेरे पापोंका कोई हिसाब नहीं । सम्भवतः मुझे देखकर नरकके जीव भी घृणा करेंगे । पाप ही मेरा जीवन है । शरीरको बेचकर मेरी जीविका चलती है । रोते हुए उसने कहा । ' ले जा अपना थाल ! साधु वेश्याओंका धन नहीं लिया करते । ' एक साधुने झिड़क दिया । ' महाराज । मेरी जैसी महापापिनीसे नरक या नारकीय जीवतक घृणा कर सकते हैं , किंतु गंगा , गोदावरी आदि पुण्यतोया नदियाँ तो घृणा नहीं करतीं । मैं नित्य गोदामाताकी पवित्र धारामें डुबकी लगाती हूँ । उन्होंने कभी मेरा तिरस्कार नहीं किया सुना है कि साधु गंगा - गोदावरी आदि नदियोंसे भी अधिक पवित्र होते हैं । सन्त तो सुरसरिको भी पवित्र कर देते हैं । आप यदि मुझसे घृणा करेंगे तो फिर कौन पतितोंका उद्धार करेगा । मेरा दुर्भाग्य । ' उसने अत्यन्त दुःखित होकर थाल उठा लिया । ‘ भैया । श्रीरंगनाथके लिये मुकुट बनवा दे , मण्डलीमें जो सबसे वृद्ध थे , उन्होंने कहा । गणिकाकी भक्तिभरी वाणीने उन्हें द्रवित कर दिया था ।
जिसकी भेंट सन्त नहीं लेते , उसकी रंगनाथ तो क्या लेंगे । साधु तो भगवान्से भी अधिक दयालु होते हैं । वे तो उन सर्वेशसे भी अधिक पतितोंपर कृपा करते हैं । जिसका तिरस्कार साधुओंने ही कर दिया , उसके लिए भगवानसे क्या आशा रही।वह रोती हुई जा रही थी।
मैया, उपहार न लेना होता तो मुकुट बनानेका आदेश न देता । वृद्ध साधुने स्पष्ट समझाया । वह द्रव्य साधुओंने स्वीकार कर लिया । तीन लाख रुपयोंसे वेश्याने एक सुन्दर रत्नजटित मुकुट बनवाया और उसे लेकर वह श्रीरंग पहुँची ।
' ' मैं अपवित्र हूँ , मेरा मन्दिरमें जाना उचित नहीं ! आप मुकुट भगवान्को चढ़ा दें ! ' भला , श्रीरंगनाथके पुजारीजी यह वेश्याका आग्रह कैसे मान लें । उन्हें तो स्वप्नमें भगवान्ने स्पष्ट आदेश दिया था कि वे उसी वेश्याके हाथसे मुकुट धारण करेंगे । विवश होकर वह मुकुट लेकर गयी । दोनों हाथों में मुकुट उठाकर नृत्य करते हुए वह आगे बढ़ी । आज भगवान्के शृंगारमें मस्तकपर मुकुट नहीं था । सिंहासन ऊँचा था । मूर्तिके मस्तकतक वेश्याका हाथ पहुँच नहीं सकता था ।
उसने मुकुट उठाया । सबने देखा कि श्रीरंगनाथके श्रीविग्रहने मस्तक झुका दिया है । वेश्याने मुकुट उठाकर रख दिया । मूर्ति पूर्ववत् हो गयी । मन्दिरके प्रांगण में ही , भगवान्की इस असीम कृपाका अनुभव करके उनके दर्शन करते हुए ही उसने शरीर छोड़ दिया ।
भगवान्की भक्तवत्सलताकी इस घटनाका श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है
वेश्याको प्रसंग सुनौ अति रसरंग भयो भन्यो घर धन अहो ऐपै कौन काम कौ । चले मग जात जन ठौर स्वच्छ आई मन छाई भूमि आसन सो लोभ नहीं दाम कौ ॥ निकसी झमकि द्वार हंससे निहारि सब कौन भाग जागे भेद नहीं मेरे नाम कौ । मुहरनि पात्र भरि लै महन्त आगे धरयो ढरयो दृग नीर कही भोग करौ श्याम कौ ॥ पूछी तुम कौन काके भौनमें जनम लियो ? कियो सुनि मौन महाचिन्ता चित्त धरी है । ' खोलिकै निसंक कहौ संका जिनि मानौ मन ' कही ' वारमुखी ' ऐपै पांय आय परी है ॥ भरो है भण्डार धन करो अंगीकार अजू करिये विचार जो पै तो पै यह मरी है । एक है उपाय हाथ रंगनाथजू को अहौ कीजिये मुकुट जामें जाति मति हरी है ॥ हू न छूए जाको रंगनाथ कैसे लेत ? देत हम हाथ तो कौ रहें इह कीजियै । कियोई बनाय सब घर कौ लगाय धन बनि ठनि चली थार मधि धरि लीजियै ॥ सन्त आज्ञा पाइकै निसंक गई मन्दिरमें फिरी यौं ससंक धिक् तिया धर्म भीजियै । बोले आप याकों ल्याय आप पहिराय जाय , दियौ पहिराय नयौ सीस मति रीझियै ॥
इस कराल कलिकाल मे मनुष्य अनेकों प्रकार से कुत्सित विचार से ग्रसित होकर धर्म से विमुख हो रहे है । लेकिन यही उचित समय है ।धर्म को धारण करने का । क्योकि अभी तो भावना मात्र पवित्र कर लेने से ही चरम फल की प्राप्ति हो जाति है । न यज्ञ, न तप, न दान, न दया, न शौच न सत्य सिर्फ नाम का आश्रय लेने से ही कृपा का पात्र हो जाता है ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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