Raidas ji श्री रेदास जी महाराज

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श्रीरैदासजी के  दासी महाराज

 के पावन चरित्र 



श्री रैदास के जीवन चरित्र का वर्णन करना तो संभव ही नही है । इनका विस्तृत जीवन चरित्र का उल्लेख भी कहीं कहीं संतो के मुख से सूनी जाती है । रैदास को सन्तशिरोमणि कहा जाता है । मै धीरे धीरे इनके जीवन लीला के प्रत्येक चरित्र का संकलन करने की कोशिश कर रहा हूं। यथा उपलब्घ जानकारी का आनंद ले ।आपके पास भी यदि कोई जानकारी हो तो सेयर करें, इसमे शामिल कर दिया जाएगा। 

 सदाचार श्रुति सास्त्र बचन अबिरुद्ध उचारयो । नीर खीर बिबरन्न परम हंसनि उर धारयो । भगवत कृपा प्रसाद परम गति इहि तन पाई । राजसिंहासन बैठि ग्याति परतीति दिखाई ॥ बरनाश्रम अभिमान तजि पद रज बंदहिं जासु की । संदेह ग्रंथि खंडन निपुन बानि बिमल रैदास की ॥  सन्तशिरोमणि श्रीरैदासजीकी निर्मल वाणी सन्देहकी ग्रन्थियोंको खोलनेमें पूर्ण समर्थ है । श्रीरैदासजीने जो भी कहा है , वह सदाचार ( स्मृति ) वेद - शास्त्रों के अनुकूल ही है । उन्होंने नीर - क्षीर अर्थात् सत् और असत्का विवरण करनेवाला परमहंसोंका भाव अपने हृदयमें धारण किया तथा सार असारका निर्णय करनेवाली उनकी वाणीको परमहंसोंने अपने हृदयमें धारण किया । आपने अपने इसी मर्त्य शरीरसे भगवान्‌की कृपा और परम श्रेष्ठ गति प्राप्त की । राजसिंहासनपर बैठकर अपने शरीरमें सोनेका यज्ञोपवीत दिखाकर अपने पूर्वजन्मकी ब्राह्मण जातिका विश्वास लोगोंको दिलाया । महान् पुरुषोंने अपने ऊँचे वर्ण एवं आश्रमके अभिमानको छोड़कर जिनकी चरण - धूलिकी वन्दना की , उन श्रीरैदासजीकी वाणी शंकाओंको खण्डन करनेमें अति ही चतुर है ॥ सन्त श्रीरैदासजीका संक्षेपमें परिचय इस प्रकार है

           श्री रैदसजी के जन्म की कथा


  आचार्य श्रीस्वामी रामानन्दजीका एक ब्रह्मचारी शिष्य था । वह नित्य आटेकी चुटकी ब्राह्मणोंके यहां से जो मांगकर लाता था । उसीसे ठाकुरजीका भोग लगता था और साधु - सेवा होती थी । मार्गमें एक बनियेकी दूकान थी ।वह बनिया प्रायः नित्य ही ब्रह्मचारीजीसे कहता था कि आप मेरा सीधा - सामान भी स्वीकार करो । इस प्रकार | उसने दस - बीस बार कहा , परंतु नियमके विरुद्ध उस बनियेसे सामान लेना ब्रह्मचारीजीने स्वीकार नहीं किया । एक दिन बड़े जोरकी वर्षा हो रही थी , चुटकी माँगकर लाना सम्भव नहीं था । अतः उस बनियेसे ब्रह्मचारी ने जो आवश्यक था सीधा - सामान ले लिया । जब श्रीआचार्यने ठाकुरजीको भोग लगाया तो उस दिन प्रभु भोग आरोगते  हुए ध्यान मे नही आए । तब उन्होंने ब्रह्मचारीसे पूछा- कहो , आज भिक्षा कहाँ - कहाँसे लाये हो ? उसने  उत्तर दिया- एक बनियेसे । श्रीस्वामीजीने कहा- जाओ , पता लगाओ । पूछनेसे मालूम पड़ा कि बनियेने किसी निम्नवर्ण की प्रेरणास अन्न दिया है । वस्तुतः काशी मे रघु नामक एक चर्मकार था । पूछने पर किसी सज्जनने उससे कहा था कि तुम्हारी भिक्षा स्वामी श्रीरामानन्दाचार्यजी स्वीकार कर लें तो निश्चय ही तुम्हें सन्तान - लाभ हो सकता विश्वासपूर्वक पुत्रकी कामनासे उसने ही बनियाके माध्यमसे स्वामीजीके पासतक भिक्षा पहुँचायी थी । वस्तुस्थिति ज्ञात होनेपर अपने ब्रह्मचारी शिष्यको श्रीस्वामीजीने बड़ा भारी शाप दिया कि तूने मेरी बात नहीं मानी , निम्नवर्ण की भिक्षा ली , अतः जाकर उसी घरमें जन्म लो । वही दूसरे जन्ममें श्रीरैदास भक्त हुए ।  अतः माता अपने बालक रैदासको दूध पिलाना चाहती थी , पर बालक रैदास दूध पीनेकी कौन कहे , इन्हें माताका भी अच्छा नहीं लगता था ; क्योंकि गुरुदेवको उत्तम सेवाके प्रतापसे इन्हें पूर्वजन्मकी सब बातें याद थीं । इसी समय श्रीस्वामीजीके लिये आकाशवाणी हुई कि आपके शापसे आपके शिष्यका जन्म रघु चमारके घर में हुआ है और वह दूध नहीं पी रहा है , उसपर कृपा कीजिये । दयावश श्रीस्वामीजी शीघ्र ही स्वयं चलकर वहाँ आये । बालकके दूध न पीनेसे पिता - माता बड़े दुखी थे । स्वामीजीको देखते ही वे दौड़कर इनके चरणोंमें लिपट गये और प्रार्थना करने लगे कि कोई उपाय करके बालकको बचाइये । तब स्वामीजीने बालकको दीक्षा देकर शिष्य बनाया और दूध पीनेकी आज्ञा दी । बालकके सब पाप दूर हो गये और वह दूध पीने लगा । श्रीरैदासजी आचार्यको ईश्वरके समान जान - मानकर मनमें पछताने लगे कि मैं बिलकुल ही अज्ञानी और अपराधी था , पर स्वामीजीने मेरे अपराधोंको भुलाकर इतनी कृपा की कि स्वयं पधारे । श्रीरैदासजीके जन्म सम्बन्धी इस घटनाका वर्णन 


श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार किया रामानन्द जू कौ शिष्य ब्रह्मचारी रहे एक गहे वृत्ति चूटकीकी कहे तासों बानियों करो अंगीकार सीधो कहि दस बीस बार बरघे प्रबल धार तामें वापि आनियों ॥ भोगको लगावै प्रभु ध्यान नहिं आवै अरे कैसे करि ल्यावै जाइ पूछि नीच मानियों दियो शाप भारी बात सुनी न हमारी घटि कुलमें उतारी देह सोई याकों जानियों ॥ माता दूध प्यावे याकों छुयोऊ न भावे सुधि आवे सब पाछिली सुसेवाको प्रताप है । भई नभ बानी रामानन्द मन जानी बड़ो दण्ड दियो मानीं बेगि आये चल्यो आप है ॥ दुखी पिता माता देखि धाय लपटाय पाय कीजिये उपाय कियो शिष्य गयो पाप है । स्तन पान कियो जियो लियो उन ईस जानि निपट अजानि फेरि भूले भयो ताप है ॥ (

                     रैदासजी का प्रेम 

श्रीरैदासजी महान् सन्त थे , ये भगवान्‌के भक्तोंसे बड़ा प्रेम करते थे । सन्त - सेवामें धनका सदुपयोग करते थे । इनका यह आचरण पिताजीको अच्छा न लगा । अतः उन्होंने इन्हें अलग कर दिया और घरके पीछेकी जमीन रहनेके लिये दे दी । यद्यपि घरमें बहुत सा धन - माल था , पर उसमेंसे पिताजीने अलग करते समय एक कण भी नहीं दिया । इससे रैदासजी और उनकी स्त्रीको बड़ा सुख हुआ , इन लोगोंको भगवान्पर पूर्ण भरोसा था । रैदासजी जूतियोंको गाँठते थे , पक्का चमड़ा लाकर जूते बनाते थे । साधु - सन्तोंको पहनाते थे । अपनी इस सेवाको प्रकट न करके गुप्त ही रखते थे । आपने एक छप्पर डालकर उसमें भगवान्को सेवाके योग्य स्थान बनाया । उसीमें सन्तजन भी निवास करते थे । पर स्वयं आप खुलेमें ही रहते थे । मजदूरीसे प्राप्त धनको आप अतिथियों में बाँटकर खाते थे । ऐसी दैनिक जीवनचर्यासे आप रहते थे । 


.         एक दिन स्वयं भगवान् भक्तका वेष बनाकर श्रीरैदासजीके यहाँ पधारे और श्रीरैदासजीको पारसमणि देते हुए कहा कि ' इसे सँभालकर रखना । ' श्रीरैदासजीने कहा- मेरे धन तो श्रीरामजी हैं । इस पत्थरसे मेरा काम नहीं चलेगा । मैं धन - सम्पत्तिको नहीं चाहता हूँ । मैं तो यह चाहता हूँ कि सन्त - भगवन्तकी सेवामें अपना यह शरीर भी न्यौछावर कर दूँ । सन्त - भगवान्ने पारसका प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाने के लिये उसे लोहेकी राँपीसे छुवा दिया , वह सोनेकी हो गयी । फिर पारस देकर श्रीरैदासजीसे बोले कि आप कृपा करके इसे रख लो और आवश्यकता पड़नेपर इसे निकाल लेना । तब श्रीरैदासजीने कहा- यदि आप नहीं मानते हो तो इसे ठाकुरजीके छप्परमें रख दो , जब इच्छा हो , तब निकाल ले जाना । 


.                 साधुवेषधारी भगवान् श्यामसुन्दर तेरह मास बीत जाने के बाद फिर श्रीरैदासजीके यहाँ आये और बड़े प्रेमसे बोले- कहिये , रैदासजी पारसका प्रयोग करके क्या सेवा की ? श्रीरैदासजी बोले- जहाँ आप रख गये थे , वहाँ ही रखा होगा । आप उसे ले लीजिये । श्रीरैदासजीकी ऐसी बात सुनकर पारसको लेकर वे चले गये । अब इसके बाद भगवान्ने जो नयी लीला रची , उसे सुनिये- प्रातः काल जब श्रीरैदासजी ठाकुर सेवा करने जाते तो नित्य पाँच मुहरें वहाँ मिलतीं । बिच्छूकी तरह उन्हें चिमटेसे पकड़कर रैदासजी नित्य गंगामें डाल आते । अब तो रैदासजीको ठाकुरजीकी सेवासे भी भय लगने लगा । तब भगवान्ने स्वप्नमें श्रीरैदासजीसे कहा- तुम अपना हठ छोड़ दो और मैं जैसा चाहता हूँ , वैसा करो ।


.       अन्तमें श्रीरैदासजीने भगवान्‌की बात ( आज्ञा ) मान ली । नित्य प्राप्त मुहरोंसे नयी जगह लेकर विशाल सन्त निवास और भगवान्का भव्य मन्दिर बनवाया । उसमें दिन - रात सेवा और भजन - कीर्तनसे ऐसा लगता था कि श्रीभक्तिदेवी यहीं रम गयी हैं ।


 उसी समय उरप्रेरक रघुवंशविभूषणने ब्राह्मणोंके हृदयोंमें प्रेरणा की कि ' रैदासकी सेवाका विरोध करो , उसे बन्द करा दो । ' तब बहुत से ब्राह्मणोंने एकत्र होकर राजाके आगे भरी सभामें श्रीरैदासजीको गालियाँ देते हुए पुकार की , उनपर आरोप लगाया कि वे शूद्र होकर पूजा करते हैं । यह अन्याय है , इसे रोका जाय , अन्यथा आपका राज्य नष्ट हो जायगा । तब राजाने श्रीरैदासजीको बुलवाया तथा उनका चमत्कार देखकर न्याय किया और रैदासजीको सेवाका अधिकार प्रदान किया । 


.                        सन्त श्रीरदासजीकी उपर्युक्त जीवनचर्याका श्रीप्रियादासजी अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते -


बङेई  रैदास हरि दासनि सों प्रीति करी पिता न सुहाई दई ठौर पिछवारहीं । हुतो धन माल कन दियो हू न हाल तिया पति सुख जाल अहो किये जब न्यारहीं ॥ गाठ पगदासी कहूँ बात न प्रकासी ल्यायें खाल करें जूती साधु सन्त को सँभारहीं । डारी एक छानि कियो सेवाको सुस्थान रहें चौंड़े आप जानि बाँटि पावें यहि धारहीं ॥ सहे अति कष्ट अंग हिये सुख सील रंग आए हरि प्यारे लियो भक्त भेष धारि कै कियो बहुमान खान पान सो प्रसन्न है के दोनों कह्यो पारस है राखियो सँभारि के ॥ मेरे धन राम कछु पाथर न सरै काम दाम मैं न चाहीँ चाहीँ डारौं तन वारि कै । रांपी एक सोनो कियो दियो करि कृपा राखो राखो यहु छानि मांझ लैहो जु निकारि कै ॥

श्रीरदासजी आये फिरि श्याम मास तेरह बितीत भये प्रीति करि बोले कहो पारसकी रीति की । वाही ठौर लीजै मेरो मन न पतीजै अब चाहो सोई कीजै मैं तो पावत हाँ भीति को ।। लै कै उठि गये नये कौतुक सो सुनो पावैं सेवत मुहर पाँच नित ही प्रतीति कौ सेवा हू करत डर लाग्यो निसि कह्यो हरि छोड़ो अर आपनी औ राखो मेरी जीति कौ ॥ 

 मानि लई बात नई ठौर ले बनाय चाय सन्तनि बसाय हरि मन्दिर चिनायो है । विविध वितान तान गनौं जो प्रमान होइ भोड़ गई भक्ति पुरी जग जस गायो है । दरसन आवैं लोग नाना विधि राग भोग रोग भयो विप्रनि काँ तन सय छायो है । बड़ेई खिलारी वे रहे हैं छानि डारि करी घर पै अँटारी फेरि द्विजन सिखायो है ॥ 

प्रीति रस रास सों रैदास हरि सेवत हैं घरमें दुराय लोक रंजनादि टारी है । प्रेरि दिये हृदै जाय द्विजनि पुकारि करी भरी सभा नृप आगे कह्यो मुख गारी है ॥ जनकौं बुलाय समझाय न्याय प्रभु सौंपि कीनों जग जस साधु लीला मनुहारी है । जिते प्रतिकूल मैं तो माने अनुकूल याते सन्तनि प्रभाव मनि कोठरी की तारी है ॥ 


चितौङगढ की महारानी द्वारा 

इनका शिष्य बनना 


 चित्तौड़ नगरमें झाली नामकी एक रानी रहती थी । किसी गुरुसे उसने कानमें मन्त्र नहीं लिया था । वह काशी आयी और श्रीरैदासजीके सुयशको सुनकर एवं दर्शनमात्रसे सद्गुरुबुद्धि आनेपर उनकी शिष्या हो गयी । उसके साथ बहुत से ब्राह्मण थे , यह समाचार सुनते ही द्वेषवश उनके शरीरमें आग सी लग गयी । वे सब लोगोंकी भीड़को लेकर राजाके पास गये और कहा- रैदासको दीक्षा देनेका अधिकार नहीं है , उन्होंने अनधिकार चेष्टा की है । आप न्याय करें । तब राजाने रैदासजीको बुलवाया और भगवान्‌की मूर्तिको सिंहासनपर विराजमान कराकर कहा - ' बुलानेसे भगवान् जिसके पास चले जायेंगे , वही उनकी सेवाका तथा उनके मन्त्रको देनेका अधिकारी समझा जायगा । ' ब्राह्मणोंने सस्वर वेदपाठ करके भगवान्‌का आवाहन किया , किंतु भगवान् उनके पास नहीं गये । पश्चात् श्रीरैदासजीने ' पतित पावन नाम आज प्रकट कीजै ' यह पद गाया । तब भगवान् श्रीरैदासजीकी गोदीमें आकर विराजमान हो गये ।

 झाली रानीके बुलानेपर श्रीरैदासजी चित्तौड़को पधारे । रानीने बड़ा भारी स्वागत किया और बहुत साधन तथा वस्त्र न्यौछावर किये । साधुओंके विशाल भण्डारे हुए । यह सुनकर बहुत से ब्राह्मण भी पधारे । उन्होंने भण्डारेमें भोजन करना स्वीकार नहीं किया , इसलिये इन्हें सीधा - सामान दिया गया । ब्राह्मणोंने रसोई की और जब भोजन करनेके लिये बैठे तो उन्हें पंक्तिमें दो - दो ब्राह्मणोंके बीचमें एक रैदास बैठे दिखायी पड़े । यह चमत्कार देखकर उनकी आँखें खुल गयीं । तब वे दीनवाणीसे अपराध क्षमा करनेकी प्रार्थना करने लगे । लाखों ब्राह्मण भी उनके शिष्य हो गये । 


श्रीरैदासजीने अपने शरीरकी त्वचाको चीरकर सोनेका यज्ञोपवीत सबको दिखाया । इससे सबको विश्वास हो गया कि ' ये दिव्य पुरुष हैं ' । रानी झालीके श्रीरैदासजीकी शिष्या बननेकी घटनाका वर्णन करते हुए श्रीप्रियादासजी कहते हैं 


बसत चित्तौर मांझ रानी एक झाली नाम नाम बिन कान खाली आनि शिष्य भई है । संग हुते विप्र सुनि छिप्र तन आगि लागि भागी मति नृप आगे भीर सब गई है । वैसेहि सिंहासन पै आनि कै विराजे प्रभु पढ़े वेद बानी पै न आये यह नई है । पतित पावन नाम कीजिये प्रकट आजु गायो पद गोद आइ बैठे भक्ति लई है ॥

 गई घर झाली पुनि बोलिकै पठाये अहो जैसे प्रतिपाली अब तैसे प्रतिपारियै । आपुहू पधारे उन बहु धन पट वारे विप्र सुनि पांव धारे सीधो दै निवारियै ॥

इन संतो के चरित्र का प्रचार-प्रसार करना ही जीवन का उद्देश्य है ।

कोई पढे या न पढे स्वयं तो पढ़ने का अवसर प्राप्त हो रहा है । और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि भारतवर्ष को जानने के लिए समझने के लिए इन संतो के चरित्र का आश्रय लेना ही पङेगा। 

अन्य देश और भारत मे कितना अंतर है । यह आप संत चरित्र के माध्यम से ही ज्ञात कर सकते।  इन्ही संत चरित्र के माध्यम से धर्मांतरण को भी रोका जा सकता है । हिन्दु धर्म के अस्तित्व की रक्षा के लिए भी इन चरित्रों का अध्ययन अध्यापन, प्रचार-प्रसार करना चाहिए।  क्रमशः

 भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म कर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 



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