Kabir das ji _संत श्री कबीर दास जी चरित्र

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              शंतसिररोमणि श्री कबीरदास जी महाराज के 

     प।वन चरित्र 




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बिमुख जो धर्म सोइ अधरम करि गायो । जोग जग्य ब्रत दान भजन बिनु तुच्छ दिखायो ॥ रमैनी हिंदू तुरक प्रमान सबदी साखी । पच्छपात नहिं बचन सबहि के हित की भाषी ॥ आरूढ़ दसा है जगत पर मुख देखी नाहिंन भनी । कबिर कानि राखी नहीं बरनाश्रम षटदरसनी ॥ 


 श्रीकबीरदासने भक्तिहीन षड्दर्शन एवं वर्णाश्रम धर्मको मान्यता नहीं दी । वे भक्तिसे विरुद्ध धर्मको अधर्म ही कहते थे । उन्होंने बिना भजनके योग , यज्ञ , व्रत और दान आदिको व्यर्थ सिद्ध किया । उन्होंने अपने बीजक रमैनी , शब्दी और साखियोंमें किसी मतविशेषका पक्षपात न करके सभीके कल्याण के लिये उपदेश दिया । हिन्दू मुसलमान सभीके लिये उनके वाक्य प्रमाण हैं । वे ज्ञान एवं पराभक्तिकी आनन्दमयी अवस्थामें सर्वदा स्थित रहते थे । श्रीकबीरदासजीने किसी के प्रभाव में आकर मुँहदेखी बात नहीं कहीं । वे जगत्के प्रपंचोंसे सर्वथा दूर रहे ॥

 सन्त श्रीकबीरदासजीका जीवन - चरित संक्षेपमें इस प्रकार है



 उच्च श्रेणीके भक्तोंमें कबीरजीका नाम बहुत आदर और श्रद्धाके साथ लिया जाता है । इनकी उत्पत्तिके सम्बन्ध में कई प्रकारकी किंवदन्तियाँ हैं । कहते हैं , जगद्गुरु रामानन्द स्वामीके आशीर्वादसे ये काशीकी एक विधवा ब्राह्मणीके गर्भसे उत्पन्न हुए । लज्जाके मारे वह नवजात शिशुको लहरताराके तालके पास फेंक आयी । नौरू नामका एक जुलाहा उस बालकको अपने घर उठा लाया , उसीने उस बालकको पाला - पोसा । यही बालक ' कबीर ' कहलाया । कुछ कबीरपन्थी महानुभावोंकी मान्यता है कि कबीरका आविर्भाव काशीके लहरतारा तालाब में कमलके एक अति मनोहर पुष्पके ऊपर बालकरूपमें हुआ था । एक प्राचीन ग्रन्थमें लिखा है कि किसी महान् योगीके औरस और प्रतीचि नामक देवांगनाके गर्भसे भक्तराज प्रह्लाद ही कबीरके रूपमें संवत् १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को प्रकट हुए थे । प्रतीचिने उन्हें कमलके पत्तेपर रखकर लहरतारा तालाब में तैरा दिया था और नीरू नीमा नामके जुलाहा- दम्पती जबतक आकर उस बालकको नहीं ले गये , तबतक प्रतीचि उनकी रक्षा करती रही । कुछ लोगोंका यह भी कथन है कि कबीर जन्मसे ही मुसलमान थे और सयाने होनेपर स्वामी रामानन्दके प्रभाव में आकर उन्होंने हिन्दूधर्मकी बातें जानीं । ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगाघाटकी सीढ़ियोंपर जा पड़े । वहींसे रामानन्दजी स्नान करने के लिये उतरा करते थे । रामानन्दजीका पैर कबीरके ऊपर पड़ गया । रामानन्दजी चट ' राम - राम ' बोले उठे । कबीरने इसे ही श्रीगुरुमुखसे प्राप्त दीक्षामन्त्र मान लिया और स्वामी रामानन्दजीको अपना गुरु कहने लगे । स्वयं कबीरके शब्द हैं '

 हम कासी में प्रगट भये रामानन्द चेताये । '

 मुसलमान कबीरपन्थियों की मान्यता है कि कबीरने प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फकीर शेख तकीसे दीक्षा ली थी । परंतु कबीरने शेख तकीका नाम उतने आदरसे नहीं लिया है , जितना स्वामी रामानन्दका । इसके सिवा कबीरने पीर पीताम्बरका नाम भी विशेष आदरसे लिया है । इन बातों से यही सिद्ध होता है कि कबीरने हिन्दू - मुसलमान भेदभाव मिटाकर हिन्दू - भक्तों तथा मुसलिम फकीरोंका सत्संग किया और उनसे जो कुछ भी तत्त्व प्राप्त हुआ , उसे हृदयंगम किया ।

जनश्रुतिके अनुसार कबीरके एक पुत्र और एक पुत्री थी । पुत्रका नाम था कमाल और पुत्रीका कमाली । इनकी स्त्रीका नाम ' लोई ' बतलाया जाता है । इस छोटे - से परिवारके पालनके लिये कबीरको अपने करघेपर कठिन परिश्रम करना पड़ता था । घरमें साधु - सन्तोंका जमघट रहता ही था । इसलिये कभी - कभी इन्हें फाकेमस्तीका मजा भी मिला करता था । कबीर ' पढ़े - लिखे ' नहीं थे । स्वयं उन्हींके शब्द हैं 

' मसि कागद छूयो नहीं , कलम गही नहिं हाथ ।

 ' 

कबीरकी वाणीका संग्रह ' बीजक ' के नामसे प्रसिद्ध है । इसके तीन भाग हैं- रमैनी , सबद और साखी । भाषा खिचड़ी है- पंजाबी , राजस्थानी , खड़ी बोली , अवधी , पूरबी , व्रजभाषा आदि कई बोलियोंका पँचमेल है । श्रीकबीरदासजी सिद्ध सन्त थे , इनके चमत्कारोंके अनेक प्रसंग आज भी जन - सामान्यमें प्रचलित हैं , परंतु इनका उद्देश्य सिद्धिका चमत्कार प्रदर्शन नहीं , अपितु सन्त - भगवन्तकी महिमाका ख्यापन और भगवद्भक्तिका प्रचार - प्रसार था । 


      कहते हैं कि एक बार प्रयागमें कुम्भके अवसरपर श्रीकबीरदासजी भी वहाँ गये थे तथा तत्कालीन यवन सुलतान भी मुसलमान फकीर शेख तकीको लेकर गया हुआ था । एक दिन वह श्रीत्रिवेणीजीके किनारे खड़ा था , श्रीकबीरदासजी भी स्नान करनेके लिये वहाँ आये थे । उसी समय एक मृत बालकका शव बहता चला आ रहा था । शेख तकीने सुलतानको दिखाकर कहा- हुजूर ! देखिये कैसा सुन्दर बालक है , दुनियाँसे चल बसा सुलतानने श्रीकबीरदासजीकी ओर संकेत करते हुए शेख तकीसे कहा- ये साहबसे मिले हैं , चाहें तो जिन्दा कर सकते हैं । कबीरदासजीको लगा कि यह सुलतान अपनी सल्तनतके नशेमें मेरी भक्ति , प्रभुके प्रति श्रद्धा और विश्वासको चुनौती दे रहा है और एक मुसलमान फकीरके सम्मुख मेरी हँसी उड़ा रहा है , अतः उन्होंने उसको पुकारकर कहा- ' ऐ बालक ! तू कहाँ जा रहा है , आ मेरे पास । ' इतना कहते ही वह बालक जीवित हो गया और लौटकर कबीरदासजीके पास आकर उनके चरणों में प्रणाम किया । इस अद्भुत चमत्कारको देखकर बरबस ही सुलतानके मुखसे निकल पड़ा - कमाल है । इसपर श्रीकबीरदासजीने उस बालकका नाम ही कमाल रख दिया और उसे अपना पुत्र बना लिया । इसी प्रकारकी कथा कमालीके विषयमें भी प्रसिद्ध है , वह एक राजकन्या थी । छोटी अवस्थामें ही उसकी मृत्यु हो गयी थी । राजाने अपने कुलकी प्रथाके अनुसार उसे पृथ्वीमें समाधि दे दी । फिर उसे पता चला कि श्रीकबीरदासजी परम सिद्ध सन्त हैं और वे मरे हुएको भी जिन्दा कर देनेमें समर्थ हैं , तबतक कमालके जीवित हो जानेकी घटना सर्वविदित हो चुकी थी । अतः राजाने श्रीकबीरदासजीको बुलवाया । राजाकी प्रार्थनापर श्रीकबीरदासजीने यह कहकर पुकारा कि बेटी ! तुम्हारे पिता बुला रहे हैं , जीवित होकर चली आ । परंतु वह नहीं जीवित हुई । तब श्रीकबीरजीने पुनः कहा कि अच्छा बेटी ! तुम्हारे पिता कबीर बुला रहे हैं , जीवित होकर चली आ इतना कहते ही वह समाधिमेंसे जीवित निकलकर बाहर आ गयी । राजा - रानी बहुत प्रसन्न हुए वे प्रेमपूर्वक उसे गोदमें लेकर घर ले जाने लगे । तब उस राजकन्याने कहा कि मैं जिस पिताके नामपर जीवित हुई हूँ , उन्हींके साथ जाऊँगी । राजा - रानीने भी उसे श्रीकबीरदासजीके ही चरणों में डाल दिया । 



                इनके सम्बन्धमें इसी प्रकारकी एक और कथा प्रसिद्ध है ।

 एक बार बलख बुखाराके बादशाहका पुत्र मर गया । उसे किसीसे ज्ञात हुआ कि भारतमें अनेक बड़े - बड़े सिद्ध फकीर हैं , जो मृत व्यक्तिको भी जिन्दा कर देते हैं । अतः उसने अपने पुत्रको जीवित करानेके लिये अपने वजीरको किसी सन्तको लानेके लिये भारत भेजा । वह समय भक्तिकाल था , ऐसे अनेक सिद्ध सन्त थे , जो मुर्देको भी जिन्दा करनेमें सक्षम थे , परंतु मुसलिम राष्ट्रमें जानेको कोई तैयार नहीं हुआ । अन्तमें वजीर श्रीकबीरदासजीके पास आया और उनसे प्रार्थना की । कबीरदासजी तैयार गये । वजीर इन्हें बड़े आदरके साथ बलख बुखारा ले गया । वहाँ भी इनका बड़ा आदर - सत्कार हुआ और इन्हें उस स्थानपर ले जाया गया , जहाँ शहजादेका शव रखा हुआथा । बादशाह , वजीर और दरबारके दूसरे बड़े ओहदेदार भी वहाँ हाजिर थे । कबीरदासजीने शहजादेके शवको सम्बोधित करते हुए कहा - उठ , बादशाहके हुक्मसे ; परंतु वह शव वैसे - का - वैसा ही पड़ा रहा । कबीरदासजीने फिर कहा - उठ खुदाके हुक्मसे । फिर भी शव नहीं उठा तो कबीरने कहा- ठठ , मेरे हुक्मसे । उनके इतना कहते ही वह बालक तुरंत जीवित होकर उठ बैठा । इस प्रकार श्रीकबीरदासजीने अनेक अद्भुत कर्म किये , जो उनके जैसे सिद्ध सन्तद्वारा ही सम्भव थे ।

 बुढ़ापेमें कबीर के लिये काशीमें रहना लोगोंने दूभर कर दिया था । यश और कीर्तिकी उनपर वृष्टि - सी होने लगी । कबीर इससे तंग आकर मगहर चले आये । ११ ९ वर्षकी अवस्थामें मगहरमें ही उन्होंने शरीर छोड़ा । 

सन्त- शिरोमणि कबीरका नाम उनकी सरलता और साधुताके लिये संसारमें सदा अमर रहेगा । उनकी कुछ साखियोंकी बानगी लीजिये

 ऐसा कोई ना मिला सत नाम  का मीत । तन मन सौंपे मिरग ज्यौं , सुन बधिक का गीत ॥ 

 सत्त नाम सुखके माथे सिल पर , जो नाम हृदय से जाय । बलिहारी वा दुःख की , ( जो ) पल पल नाम रटाय ॥ 

तन थिर , मन थिर , बचन थिर , सुरत निरत थिर होय । कह कबीर इस पलक को , कलप न पावै कोय ॥ 

माली आवत देखि कै , कलियाँ करें पुकारि । फूली फूली चुनि लिये , काल्हि हमारी बारि ॥ 

सोऔं तो सुपिने मिलै जाग तो मन माहिं । लोचन राता , सुधि हरी , बिछुरत कबहूँ नाहिं । हँस हँस कंतन पाइया , जिन पाया तिन रोय हाँसी खेले पिठ मिलैं तो कौन दुहागिनि होय ॥ 

चूड़ी पटक पलँग से , चोली लावाँ आगि जा कारन यह तन धरा , ना सूती गल लागि ॥ 

सब रग ताँत , रखाव तन , बिरह बजावै नित्त । और न कोई सुनि सकै , कै साईं , के चित्त ॥ 

कबीर प्याला प्रेमका , अन्तर लिया लगाय । रोम - रोम में रमि रहा , और अमल क्या खाय ॥ 

कबीरदासजीसे सम्बन्धित कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं 

            श्रीरामानन्दजीका शिष्य बननेकी घटना


 श्रीकबीरदासजीकी बुद्धि अत्यन्त गम्भीर थी और उनका हृदय प्रेमाभक्तिसे सर्वथा परिपूर्ण एवं अति सरस था । उन्होंने भक्तिभावको अपनाकर जाति - पाँतिमें विवाद समझकर उसे बिलकुल त्याग दिया था । इसी समय एक दिन आकाशवाणी हुई कि अपने शरीरमें तिलक रमाओ , आचार्य श्रीरामानन्दको अपना गुरु बनाओ , गलेमें तुलसीमाला धारण करो । ' यह सुनकर कबीरदासने कहा कि मैं उनसे मन्त्र - दीक्षा कैसे लूँगा , वे मुझे म्लेच्छ मानकर मेरा मुख भी नहीं देखना चाहेंगे , पुनः आकाशवाणीने कहा- वे गंगा स्नान करने जाते हैं , उस समय मार्गमें अपनेको उनके चरणों में डाल देना । नित्य प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्तमें ध्यानमग्न - प्रेमावेशसे आप गंगा स्नान करने जाते थे । श्रीकबीरदासजी गंगाघाटकी सीढ़ीपर लेट गये । यथासमय श्रीस्वामीजी पधारे । उनका श्रीचरण कबीरजीके सिरपर पड़ गया । सहसा उनके मुखसे निकला - राम ! राम ! कहो । श्रीकबीरदासजीने राम - नामको मन्त्र - दीक्षाके रूप में ग्रहण कर लिया । इस प्रकार आप श्रीस्वामीजीके शिष्य बनकर घरको चले आये ।


 श्रीकबीरदासजीने वही किया जैसा कि आकाशवाणीने कहा था अर्थात् अपने शरीरपर रामानन्दीय ( द्वादश ) तिलक लगाया और गलेमें तुलसी कण्ठी पहन ली । अपने लड़केका साधुवेष देखकर एवं उसे रात - दिन राम नाम जपते देखकर माताने इसे बड़ा उत्पात माना और बड़ा हल्ला मचाने लगी कि मेरे लड़केको किसीने हिन्दू बाबाजी बना दिया । धीरे - धीरे यह बात श्रीरामानन्दजीके पासतक पहुँच गयी , फिर किसीने आकर यह भी बताया कि जब कोई उससे पूछता है कि तुम किसके शिष्य बन गये हो ? तब वह आपका ही नाम लेता है । यह सुनकर श्रीस्वामीजीने आज्ञा दी कि ' उसे पकड़कर मेरे पास ले आओ । ' आज्ञानुसार लोग कबीरदासजीको बुला लाये । परदेके पीछे बैठकर श्रीस्वामीजीने पूछा - हमने तुमको कब शिष्य बनाया ? तब श्रीकबीरदासजीने गंगाघाटकीसब घटना स्मरण करायी और बोले- श्रीरामनाम ही महामन्त्र है । यह बात सभी शास्त्रों में लिखी है । वही प्रदानकर आपने मुझे शिष्य बनाया । यह सुनकर श्रीस्वामीजी अति प्रसन्न हुए और परदा खोलकर बाहर आये तथा कबीरदासजीको छातीसे लगाकर बोले - वत्स ! तुम्हारा सिद्धान्त सत्य है । श्रीरामनामको ही हृदयमें धारण करो । 


श्रीप्रियादासजी कबीरदासजीद्वारा श्रीरामानन्दजीको गुरु बनानेकी घटनाका इस प्रकार वर्णन करते हैं- 


 अति ही गम्भीर मति सरस कबीर हियो लियो भक्ति भाव जाति पाँति सब टारियै । भई नभ बानी देह तिलक रमानी करौ करो गुरु रामानन्द गरें माल धारियै ॥ देखें नहिं मुख मेरो मानिकै मलेछ मोंको ' जात न्हान गंगा कही मग तन डारियै । रजनी के शेष में आवेश सों चलत आप पर पग राम कहै मन्त्र सो विचारियै ॥ 

 कीनी वही बात माला तिलक बनाय गात मानि उतपात माता सोर कियो भारियै । पहुँची पुकार रामानन्दजू कै पास आनि कही कोऊ पूछे तुम नाम लै उचारियै ॥ ल्यावौ जू पकरि वाको कब हम शिष्य कियो ? ल्याये करि परदा में पूछी कहि डारियै । राम नाम मन्त्र यही लिखो सब तन्त्रनि में खोलि पट मिले सांचो मत उर धारियै ॥ 

श्रीकबीरदासजीकी दिनचर्या और उनका भगवद्भाव



 श्रीकबीरदासजी जीवन निर्वाहके लिये ताने - बानेसे कपड़ा बुनते थे , किंतु उनके हृदयमें श्रीरामजीका नामरूप मँडराया करता था । वे कपड़ा उतना ही बुनते थे , जितनेसे परिवारका खर्च चल जाय । एक बार बाजारमें कपड़ा बेचनेके लिये आप खड़े थे कि एक साधु आपके पास आकर बोला कि मुझे कपड़ा दीजिये , मेरे पास पहननेके लिये कुछ नहीं है । तब आप उसे आधा थान फाड़कर देने लगे । तो उसने कहा- इस आधे थानसे मेरा काम नहीं चलेगा । श्रीकबीरदासजीने कहा- यदि पूरा थान लेनेका निश्चय आपने अपने मनमें किया है तो लीजिये , यह पूरा थान ही लीजिये ।


 श्रीकबीरदासके घरपर उनकी स्त्री लोई , माता नीमा , पुत्र कमाल और पुत्री कमाली- ये सभी रास्ता देख रहे थे । घरमें भोजन - सामग्रीका अभाव था , अतः सभी भूखे थे । कपड़ा बेचकर मूल धनसे सूत और मुनाफेसे सामान खरीदकर आता था । उसीसे निर्वाह होता था । दूसरे दिनके लिये कुछ बचता हो न था । श्रीकबीरदासजीने विचार किया कि घरमें सभी भूखे होंगे । खाली हाथ चलकर क्या करूँ । वे बाजारमें ही इधर - उधर कहीं छिप गये । घरको क्या लेकर आते ? पूरा थान - का - थान तो दान कर चुके थे । भगवान् घट - घट वासी हैं , श्रीकबीरदासके सच्चे भक्तिभावको जानकर और घरके लोगोंको दुखी देखकर वे व्यापारी केशव बनजारेका रूप धारणकर बैलोंके ऊपर बहुत सा आवश्यक सामान लादकर लाये । सब सामान उन्होंने कबीरदासजीके घरमें रख दिया और कहा- यह सामान सुविधाके लिये है । इससे आरामसे निर्वाह करो । 


तीन दिन बाद भी जब श्रीकबीरदासजी लौटकर घर नहीं आये , तब दो - चार आदमी गये और ढूँढ़कर उन्हें लिवा लाये । घर आकर कबीरदासजीने सब बात सुनी कि एक व्यापारी बहुत - सा सामान लाकर डाल गया , तो उन्होंने जान लिया कि मेरे कष्टको देखकर स्वयं भगवान्को कष्ट हुआ , तभी उन्होंने सामान पहुँचानेका कष्ट उठाया । विचारकर कि श्रीराम रघुवीरने मुझपर अत्यन्त कृपा की , आप परमानन्दमें मग्न हो गये । उसी समय भक्तोंकी भीड़को बुलाकर श्रीकबीरदासजीने सारा सामान लुटा दिया । ताना - बाना , कपड़ा बुनना सब आपने छोड़ दिया । हृदयमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी । यह सुनकर ब्राह्मणोंका धैर्य छूट गया , वे क्रोधित होकर दौड़ते हुए कबीरदासजीके यहाँ आये और बोले- क्यों रे जुलाहे ! तूने इतना धन पाया और हमलोगोंको नहीं बुलाया ।

शूद्रोंको बुलाकर सब धन उन्हें दे दिया । या तो हमें भी धन दो , नहीं तो यहाँसे बाहर भाग जाओ । श्रीकबीरदासजोने कहा- अब मेरे घरमें तो कुछ भी नहीं है , आपलोग घरमें घुसकर देख लीजिये । यदि आप नहीं मानते हैं तो यहीं बैठें , मैं मण्डीमें जाता हूँ , कुछ मिलेगा तो लाकर दे दूंगा । यह कहकर श्रीकबीरदासजीने बड़ी कठिनाईसे अपना पीछा छुड़ाया और मण्डीमें जाकर छिप गये । इस प्रकार उन्होंने संकटको टाला । इसी समय भगवान् श्रीकबीरदासजीका रूप धारण करके आये और बहुत सा धन लाये । उन्होंने आदरपूर्वक ब्राह्मणोंको धन देकर उनका समाधान किया । वे लोग धन लेकर बड़े सुखी हुए । इस प्रकार भगवान्ने अपने भक्तकी उज्ज्वल कीर्तिको सम्पूर्ण जगत्‌में प्रकाशित किया । 


श्रीप्रियादासजीने कबीरदासजीकी आजीविका और भगवद्भक्तिका वर्णन अपने कवित्तोंमें इस प्रकार किया है-

 बीनै तानौ बानौ हिये राम मडरानौ कहि कैसें कै बखानों वह रीति कछु न्यारियै । उतनोई करें जामैं तन निरवाह होय भोय गई औरै बात भक्ति लागी प्यारियै ॥ ठाढ़े मण्डी मांझ पट बेचन लै जन कोऊ आयो मोकों देहु देह मेरी है उघारियै । लग्यौ देन आघो फारि आधे सों न काम होत दियो सब लियौ जोपें यहै उर धारियै ॥ 

तियासुत मात मग देखें भूखे आवै कब ? दबि रहे हाटनि में ल्यावैं कहा धाम कौं । सांचो भक्तिभाव जानि निपट सुजान वे तौ कृपाके निधान गृह शोच परयो श्याम कौँ । बालद लै धाये दिन तीन यों बिताये जब आये घर डारि दई दई हाँ आराम कौं । माता करै सोर कोऊ हाकिम मरोरि बाँधे डारो बिन जानै सुत लेत नहीं दाम कौँ ॥ 

 गये जन दोय चार ढूंढ़ि कै लिवाय ल्याये आये घर सुनी बात जानी प्रभु पीर कौं । रहे सुख पाय कृपा करी रघुराय दई छिन मैं लुटाय सब बोलि भक्त भीर कौं ॥ दियो छोड़ि तानौ बानौ सुख सरसानौ हिये किये रोष धाये सुनि विप्र तजि धीर कौं । क्यों रे तूं जुलाहे धन पाये न बुलाये हमें , शूद्रनिकों दियो जावो कहें यों कबीर कौं ॥ 

 क्यों जू उठि जाऊँ ? कछु चोरी धन ल्याऊँ निज हरिगुन गाऊँ कोऊ राह मैं न मारी है । उनिकों लै मान कियो याहि मैं अमान भयौ दयौ जोपै जाय हमें तौ ही तौ जियारी है । घरमें तौ नाहीं मण्डी जाहि तुम रहौ बैठे नीठिकै छुटायो पैड़ौ छिपे व्याधि टारी है । आये प्रभु आप द्रव्य ल्याये समाधान कियो लियो सुख होय भक्त कीरति उजारी है ॥ 

 कबीरदासजीके जीवनके कुछ चमत्कार ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करके भगवान्ने ब्राह्मणका रूप धारण किया और वहाँ पहुँचे , जहाँ श्रीकबीरदासजी छिपकर बैठे थे । भगवान्ने श्रीकबीरदासजीसे कहा- तू यहाँपर पड़ा हुआ , भूखों क्यों मरता है ? श्रीकबीरदासजीके घरपर जा । जो भी कोई वहाँ जाता है , उसे वे ढाई सेर अन्न देते हैं , इसलिये अब तू देर मत कर , वहीं चला जा , जल्दीसे जा । श्रीकबीरदासजी घरको आये और सब समाचार देख सुनकर प्रेमानन्दमें पूर्णरूपसे मग्न हो गये । भगवान्के द्वारा किये गये नये - नये कौतुकोंसे तथा वैभवकी वृद्धिसे परम अकिंचन भक्त श्रीकबीरदासजीका धैर्य कैसे रहे । बढ़ती हुई प्रतिष्ठाको घटानेके लिये श्रीकबीरदासने भी नये नये कौतुकोंकी रचना प्रारम्भ कर दी । एक दिन आपने एक वेश्याको अपने साथमें ले लिया । उस समय ऐसा मालूम होता था कि भजन - भावको छोड़कर ये उसीके रंगमें रँग गये हैं । परंतु सच्ची बात तो यह थी कि मुझे कुमार्गी समझकर लोग मेरे पास न आयें , मेरे भजनमें बाधा न हो । श्रीकबीरदासजीको एक वेश्याके साथ देखकर सन्तजन डर गये कि-

 

श्रीकबीरदासजी यदि मायासे मोहितहो सकते हैं तो हम - सरीखे साधारण लोग कैसे बचेंगे और दुष्टोंके मनमें बड़ा भारी सुख हुआ । वे कहने लगे , हम तो कहते ही थे कि यह ढोंगी है , हमारी बात सच निकली । श्रीकबीरदासजीने जब सन्त और असन्तोंके ऐसे भाव जाने , तब वे वेश्याको साथ लिये हुए वहाँ पहुँचे , जहाँ काशीके राजाकी सभा लगी हुई थी । राजाने शिष्य होते हुए भी इनका कुछ भी सम्मान नहीं किया । फिर भी ये वहाँ बैठ गये और मानसी भावसे श्रीजगन्नाथ भगवान्‌का ध्यान करने लगे । थोड़ी देर बाद इन्होंने उठकर वहीं अपने पात्रसे जल गिरा दिया । यह देखकर राजाके मनमें कुछ चिन्ता हुई और उसने पूछा- आपने यह क्या किया , जल क्यों गिराया ? श्रीकबीरदासजीने कहा श्रीजगन्नाथपुरीमें श्रीजगन्नाथजीका रसोइया भोगका थाल मन्दिरमें लिये जा रहा था , उसका पैर जलनेवाला था , इसलिये आगको बुझाकर मैंने उसकी रक्षा की है । यह सुनकर सभीको बड़ा आश्चर्य हुआ । राजाने इसकी जाँचके लिये आदमी भेजे । उन्होंने लौटकर समाचार दिया कि श्रीकबीरदासजीकी बात सत्य है - बिलकुल सत्य है । 


राजाने मनमें अपना अपराध मानकर रानीसे कहा- श्रीकबीरदासजीकी वह बात तो सत्य निकली । राजसभामें कृपा करके पधारे , मैंने उनका अपमान किया , इसलिये मेरे मनमें बड़ा भारी दुःख है । इस अपराधसे बचनेके लिये मैं कौन - सा उपाय करूँ ? रानीने कहा कि उन्हींकी शरण में जानेसे काम बनेगा । तब राजाने घासका एक बड़ा भारी बोझ सिरपर रख लिया और गलेमें कुल्हाड़ी बाँध ली । इस प्रकार भावमें भीगा हुआ राजा रानीको साथमें लेकर श्रीकबीरदासजीकी शरणमें चला । राजा - रानीने लोक - लज्जाका सर्वथा परित्याग कर दिया था । दोनों बाजारसे होकर निकले । हमने बड़ा अनुचित कार्य किया है ऐसा सोच - सोचकर उनके शरीर क्षण प्रतिक्षण क्षीण हो रहे थे । श्रीकबीरदासजीने दूरसे राजाको आते देखा तो अत्यन्त व्याकुल हो गये । वे उठकर राजाके पास आये और उन्होंने घासका बोझ उतरवा दिया , गलेसे कुल्हाड़ी खुलवा दी । राजा - रानीके भावसे श्रीकबीरदासजी अत्यन्त सन्तुष्ट हो गये । मैं तुम्हारे ऊपर रुष्ट नहीं हूँ , ऐसा कहते हुए उन्होंने उपदेश देकर उन्हें आनन्दित किया । 



श्रीकबीरदासजीके इन चरित्रोंका श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है ब्राह्मनको रूप धरि आये छिपि बैठे जहाँ काहे को मरत भौन जावौ जू कबीर के । कोक जाय द्वार ताहिं देत हैं अढ़ाई सेर बेर जिनि लावौ चले जावौ यों बहीर के ॥ आये घर माँझ देखि निपट मगन भये नये नये कौतुक ये कैसे रहें धीर के । बारमुखी लई संग मानौ वाही रंग रंगे जानौ यह बात करी डर अति भीर के ॥ 


 सन्त देखि डरे सुख भयोई असन्तनिके तब तौ विचार मन माँझ और आयो है । बैठी नृपसभा जहाँ गये पै न मान कियौ कियौ एक चोज उठि जल ढरकायो है ॥ राजा जिय शोच परयो करयो कहा ? कह्यो तब जगन्नाथ पण्डा पाँव जरत बचायो है । सुनि अचरज भरे नृपने पठाये नर ल्याये सुधि कही अजू साँच ही सुनायो है ॥ 


कही राजा रानी सों जुबात साँची भई आँच लागी हिये अब कहो कहा कीजिये । ' चले ही बनत ' चले सीस तृण बोझ भारी गरेसों कुल्हारी बाँधि तिया संग भीजियै ॥ निकसे बाजार है कै डारि दई लोकलाज कियो मैं अकाज छिन छिन तन छीजिये । दूर ते कबीर देखि है गये अधीर महा आये उठि आगे कह्यौ डारि मत रीझियै ॥ 


             कबीरदासजी और बादशाह सिकन्दर लोदी


 श्रीकबीरदासजीकी बढ़ती हुई महिमाको देखकर ब्राह्मणोंके हृदयमें ईर्ष्या पैदा हो गयी । उस समय भारतका तत्कालीन बादशाह सिकन्दर लोदी काशी आया हुआ था । भक्तिविमुख ब्राह्मणोंने श्रीकबीरदासजीकी माताको भी अपने पक्षमें कर लिया और इकट्ठे होकर सिकन्दर लोदीके दरबारमें गये । सबोंने पुकार की कि इस कबीरदासने सारे गाँवको दुखी कर रखा है । मुसलमान होकर हिन्दू बाबाजी बन गया है , किसी धर्मको न मानकर ढोंग फैलातारहता है । बादशाहने तुरंत आज्ञा दे दी कि उसे अभी पकड़कर मेरे पास ले आओ , मैं उसे देखूँगा कि वह कैसा मक्कार है । बादशाहकी आज्ञा पाकर सिपाहीलोग श्रीकबीरदासजीको ले आये और बादशाहके सामने खड़ा कर दिया । तब किसी काजीने श्रीकबीरदासजीसे कहा- ये बादशाह सलामत हैं , इन्हें सलाम करो । इन्होंने उत्तर दिया कि हम श्रीरामके अतिरिक्त दूसरे किसीको सलाम करना जानते ही नहीं हैं । 


श्रीकबीरदासजीकी बातें सुनकर बादशाहने इन्हें लोहेकी जंजीरोंसे बँधवाकर गंगाजीकी धारामें डुबा दिया । परंतु ये जीवित ही रहे , लोहेकी जंजीरें न जाने कहाँ गयीं । ये गंगाजीकी धारसे निकलकर तटपर खड़े हो गये । पश्चात् बादशाहकी आज्ञासे बहुत सी लकड़ियों में इन्हें दबाकर आग लगा दी गयी । उस समय नया आश्चर्य हुआ , सभी लकड़ियाँ जलकर भस्म हो गयीं और इनका शरीर इस प्रकार चमकने लगा , जिसे देखकर तपे हुए सोनेकी चमक भी लज्जित हो जाय । जब यह उपाय भी व्यर्थ हो गया तो एक मतवाला हाथी लाकर उसे उनके ऊपर झपटाया गया । परंतु लाख प्रयत्न करनेपर भी हाथी श्रीकबीरदासजीके पास नहीं आया । बड़ी जोरसे चिंघाड़कर वह दूर भाग जाता था । इनके समीपमें हाथीके न आनेका कारण यह था कि स्वयं श्रीरामजी सिंहका रूप धारणकर श्रीकबीरदासजीके आगे बैठे थे । 


बादशाह सिकन्दर लोदीने श्रीकबीरदासजीका ऐसा अद्भुत प्रभाव देखा तो वह सिंहासनसे कूदकर इनके चरणोंमें गिर पड़ा और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा कि ' अब आप कृपा करके ईश्वरके कोपसे मुझे बचा लीजिये । ' श्रीकबीरदासजीने कहा - ' अब कभी भी किसी साधु - सन्तके ऊपर ऐसा गजब न करना । ' बादशाहने कहा - ' प्रभो ! गाँव , देश तथा अनेक सुख - सुविधाके सभी सामान जो - जो आप चाहें , वह सब मैं आपको दूंगा । ' तब आपने उत्तर दिया- हम तो केवल श्रीरामजीको चाहते हैं और उन्हींको अष्ट - प्रहर जपते हैं । दूसरे किसी धनसे हमें कुछ भी प्रयोजन नहीं है , इस प्रकार बादशाहसे सम्मानित होकर आप अपने घर आये । 

श्रीकबीरदासजीकी विजयसे वे विरोधी ब्राह्मणलोग अत्यन्त लज्जित हुए । साधुओंसे शाप दिलाकर इन्हें परास्त करनेके विचारसे उन्होंने अपने मे से चार ब्राह्मणोंके सुन्दर वैरागी साधुओंके से वेष बनाये । उन चारोंको चारों दिशाओंमें भेज दिया । वे लोग दूर - दूरतक गाँवों में साधुओंके स्थानों और नामोंको पूछ - पूछकर सब जगह सबको न्यौता दे आये कि अमुक दिन श्रीकबीरदासजीके यहाँ भण्डारा है , वस्त्र और दक्षिणाका भी प्रबन्ध है , आप पधारें । भण्डारा सुनकर अगणित साधु - सन्त श्रीकबीरदासजीके यहाँ आये । तब आप घरसे अलग कहीं दूर जाकर छिप गये । अपने भक्तकी प्रतिष्ठा रखनेके लिये भगवान् स्वयं श्रीकबीरदासजीका रूप धारण करके आ गये और भण्डारेका प्रबन्ध करने लगे । बड़ी - बड़ी पंगतें बैठ गयीं । अब कबीरदासजी भी आकर इन्हींमें मिल गये । भगवान्ने खिला - पिलाकर और दान - सम्मानसे सभी साधु - सन्तोंको तथा श्रीकबीरदासजीको भी अच्छी प्रकारसे प्रसन्न किया ।


 उक्त घटनाओंका वर्णन श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार किया है-

 देखि कै प्रभाव फेरि उपन्यौ अभाव द्विज आयौ बादशाह सो सिकन्दर सुनाँव है । विमख समूह संग माता हूं मिलाय लई जाय कै पुकारे जू दुखायो सब गाँव है ॥ 

ल्यायो रे पकर वाके देखौं मैं मकर कैसो अकर मिटाऊँ गाढ़े जकर तनाँव है । आनि ठाढ़े किये काजी कहत सलाम करौ जानै न सलाम जानै राम गाढ़े पाँव है ॥

बाँधिकै जंजीर गंगानीर मांझ बोरि दिये जिये तीर ठाढ़े कहें जन्त्र मन्त्र आवहीं । लकरीन मांझ डारि अगिनि प्रजारि दई नई मानो भई देह कंचन लजावहीं ॥ 

विफल उपाय भये तऊ नहीं आय नये तब मतवारो हाथी आनि कै झुकावहीं । आवत न ढिग औ चिघारि हारि भाजि जाय आप आगे सिंह रूप बैठे सो भगावहीं 

देख्यो बादशाह भाव कूदि परे गहे पाँव देखि करामात मात भये सब लोग हैं । प्रभु पै बचाय लीजै हमें न गजब कीजै दीजै जोई चाहाँ गाँव देस नाना भोग हैं । चाहँ एक राम जाकौं जपै आठो याम और दामसों न काम जामैं भरे कोटि रोग हैं । आये घर जीत साधु मिले करि प्रीति जिन्हें हरिकी प्रतीति वेई गायबेके जोग हैं ॥ 


 होयके खिसाने द्विज निज चारि विप्रनके मूड़न मुड़ायो भेष सुन्दर बनाये हैं । दूर - दूर गांवनिमें नांवनिकौ पूंछि पूंछि नाम लै कबीरजूक झूठे न्यौति आये हैं । आये सब साधु सुनि ए तौ दूरि गये किहूं चहूँ दिसि सन्तनके फिर हरि धाये हैं । इनहींको रूपधरि न्यारी न्यारी ठौर बैठे ऐऊ मिलि गये नीके पोषिकै रिझाये हैं ॥


  भगवान्‌का कबीरदासजीको दर्शन देना 


श्रीकबीरदासजीको मोहित करनेके लिये स्वर्गलोकसे एक अप्सरा सुन्दर वेश - भूषा बनाकर आयी । लेकिन इनके हृदयमें दृढ़ भक्तिभावको देखकर वह वापस चली गयी क्योंकि उसकी लाग नहीं लगी ।

 श्रीकबीरदासजीके सम्मुख आकर भगवान्ने अपना चतुर्भुज रूप प्रकट कर दिया । उसका दर्शन करके इनके नेत्र सफल हो गये । ऐसे परम सौभाग्यशाली सन्त श्रीकबीरदासजी थे । भगवान्ने अपना करकमल इनके मस्तक पर रख कर कहा तुम्हारी बुद्धि मेरे नाम - रूपादिमें पग गयी है । अपनी इच्छानुसार  जबतक चाहो , इस मर्त्यलोकमें रहो और मेरे गुणोंका गान करो । उसके बाद अपने इस शरीरके सहित मेरे परमधाम वैकुण्ठ में चले आना मगहरमें जाकर आपने भगवद्भक्तिका प्रताप दिखाया । भक्तिका प्रचार किया । अन्त समयमें आपने बहुत से पुष्प मँगाये , उन्हें बिछाकर लेट गये और भगवान्से जा मिले । 


इस घटनाका भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराजने इस प्रकार वर्णन किया है -


आई अपछरा छरिबे के लिए वेस किए हिये देखि गाढ़े फिरि गई नहीं लागी है । 

चतुर्भुज रूप प्रभु आनिकै प्रगट कियौ लियो फल नैननि कौं बड़ौ बड़ भागी है । ।

सीस धेरै हाथ तन साथ मेरे धाम आवौ गावौ गुण रहो जौलौं तेरी मति पागी है । 

मगह में जाय भक्ति भावको दिखाय बहु फूलनि मँगाय पौढ़ि मिल्यौ हरि रागी है ॥

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 



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