श्रीहितहरिवंशजी गोस्वामी
राधा चरन प्रधान हृदय अति सुदृढ़ उपासी । कुंज केलि दंपती तहाँ की करत खवासी ॥ सर्बसु महाप्रसाद प्रसिध ताके अधिकारी । बिधि निषेध नहिं दास अननि उतकट ब्रत धारी ॥ ब्यास सुवन पथ अनुसरै सोइ भलें पहिचानिहै । ( श्री ) हरिबंस गुसाईं भजन की रीति सकृत कोउ जानिहै ॥
श्रीहितहरिवंश गोस्वामीजीकी भजनकी रीतिको कोई एक विरला ( श्रीदामोदरदासजी ' सेवकजी ' ) ही जान सकेगा । आपकी उपासना - पद्धतिमें श्रीराधाजीकी प्रधानता है । आप उन्हींके श्रीचरणोंकी हृदयमें अत्यन्त सुदृढ़ भावसे उपासना करते थे और कुंजक्रीड़ामें दम्पती श्रीश्यामाश्यामकी सखीरूपसे सेवा करते थे । आपके सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध है कि आप श्रीमहाप्रसादको सर्वस्व करके मानते थे । अपनी अनन्य निष्ठाके कारण आप सचमुच महाप्रसादके उत्तम अधिकारी थे । आपने श्रीश्यामाश्यामके सेवारूपी उत्कट व्रतको धारण किया था । अतः स्मृतिशास्त्रोक्त विधि - निषेधोंकी अपेक्षा नहीं रखते थे । श्रीव्यासमिश्रजीके पुत्र श्रीहितहरिवंश गोस्वामीद्वारा प्रवर्तित पथका जो अनुसरण करेंगे , वे ही अच्छी तरहसे आपके सिद्धान्तोंको जान सकेंगे ॥
श्रीहितहरिवंश गोस्वामीजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है
रसिकभक्तशिरोमणि गोस्वामी श्रीहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभुजीका जन्म मथुराके निकट बादग्राममें वि ० संवत् १५५ ९ वैशाख शुक्ला एकादशीको हुआ था । इनके पिताका नाम श्रीव्यासमिश्रजी और माताका श्रीतारादेवी था । व्यासमिश्रजी नौ भाई थे , जिनमें सबसे बड़े श्रीकेशवदासजी तो संन्यास ग्रहण कर चुके थे । उनके संन्यासाश्रमका नाम श्रीनृसिंहाश्रमजी था । शेष आठ भाइयोंके केवल यही एक व्यास - कुलदीपक थे , इसलिये ये सभीको प्राणोंसे बढ़कर प्रिय थे और इसीसे इनका लालन - पालन भी बड़े लाड़ - चावसे हुआ था । ये बड़े ही सुन्दर थे और शिशुकालमें ही ' राधा ' नामके बड़े प्रेमी थे ।
राधा ' ' सुनते ही थे बड़े जोरसे किलकारी मारकर हँसने लगते थे । कहते हैं कि छ : महीनेकी अवस्था ही इन्होंने पलनेपर पड़े हुए ' श्रीराधा - सुधानिधि ' स्तबका गान किया था , जिसे आपके ताल स्वामी श्रीनृसिंहाजीने लिपिबद्ध कर लिया था ।
श्रीप्रियादासजीने श्रीहितहरिवंशजीकी इस राधाभक्तिका वर्णन इस प्रकार किया है
हित जू की रीति कोऊ लाखन में एक जाने राधा ही प्रधान माने पाछे कृष्ण ध्याइये । निपट विकट भाव होत न सुभाव ऐसो उन ही की कृपा दृष्टि नेक क्यों हूँ पाइयै ।। विधि औ निषेध छेद डारे प्रान प्यारे हिये जिये निजदास निसिदिन वह गाइये । सुखद चरित्र सब रसिक विचित्र नीके जानत प्रसिद्ध कहा कहिकै सुनाइयै ।।
इनके बालपनकी कुछ बातें बड़ी ही विलक्षण हैं जिनसे इनकी महत्ताका कुछ अनुमान होता है । एक दिन ये अपने कुछ साथी बालसखाओंके साथ बगीचे में खेल रहे थे । वहाँ इन्होंने दो गौर - श्याम बालकोंको श्रीराधा मोहनके रूपमें सुसज्जित किया फिर कुछ देर बाद दोनोंकि शृंगार बदलकर श्रीराधाको श्रीमोहन और श्रीमोहनको श्रीराधाके रूपमें परिणत कर दिया और इस प्रकार वेश - भूषा बदलनेका खेल खेलने लगे । प्रातः कालका समय था इनके पिता श्रीव्यासजी अपने सेव्य श्रीराधाकान्तजीका शृंगार करके मुग्ध होकर युगलछविके दर्शन कर रहे थे । उसी समय आकस्मिक परिवर्तन देखकर वे चौंक पड़े । उन्होंने श्रीविग्रहों में श्रीराधाके रूपमें श्रीकृष्णको और श्रीकृष्णके रूपमें राधाजीको देखा । सोचा , वृद्धावस्थाके कारण स्मृति नष्ट हो जाने से शृंगार भराने में भूल हो गयी है । क्षमा याचना करके उन्होंने शृंगारको सुधारा परंतु तुरंत ही अपने आप वह शृंगार भी बदलने लगा तब घबराकर व्यासजी बाहर निकले । सहसा उनकी दृष्टि बागकी ओर गयी , देखा- हरिवंश अपने सखाओंके साथ खेल - खेलमें वही स्वरूप परिवर्तन कर रहा है । उन्होंने सोचा इसकी सच्ची भावनाका ही यह फल है । निश्चय ही यह कोई असाधारण महापुरुष है । एक बार श्रीव्यासजीने अपने सेव्य श्रीठाकुरजीके सामने लड्डूका भोग रखा ; इतनेमें ही देखते हैं कि लड्डुओंके साथ फल - दलोंसे भरे बहुत से दोने थालमें रखे हैं । इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ उस दिनकी बात याद आ गयी पूजनके बाद इन्होंने बाहर जाकर देखा तो पता लगा कि हरिवंशजीने बगीचे में दो वृक्षों को पीले - पीले पुष्पोंकी मालाओंसे सजाकर युगल किशोरकी भावनासे उनके सामने फल - दलका भोग रखा है । इस घटनाका भी व्यासजीपर बड़ा प्रभाव पड़ा ।
एक बार श्रीहरिवंशजी खेल - ही- खेलमें बगीचेके पुराने सूखे कुएँमें सहसा कूद पड़े । इससे श्रीव्यासजी , माता तारादेवी और कुटुम्बके लोगोंको तो अपार दुःख हुआ ही , सारे नगरनिवासी व्याकुल हो उठे । व्यासजी तो शोकाकुल होकर कुएँमें कूदनेको तैयार हो गये । लोगोंने जबरदस्ती उन्हें पकड़कर रखा ।
कुछ ही क्षणोंके पश्चात् लोगोंने देखा , कुऍमें एक दिव्य प्रकाश फैल गया है और श्रीहरिवंशजी श्रीश्यामसुन्दरके मंजुल श्रीविग्रहको अपने नन्हे - नन्हे कोमल करकमलोंसे सम्हाले हुए अपने आप कुएँसे ऊपर उठते चले आ रहे हैं । इस प्रकार आप ऊपर पहुँच गये और पहुँचनेके साथ ही कुआँ निर्मल जलसे भर गया । माता - पिता तथा अन्य सब लोग आनन्द - सागरमें डुबकियाँ लगाने लगे । श्रीहरिवंशजी जिन भगवान् श्यामसुन्दरके मधुर मनोहर श्रीविग्रहको लेकर ऊपर आये थे , उस श्रीविग्राहकी शोभाश्री अतुलनीय थी । उसके एक - एक अंगसे मानो सौन्दर्य - माधुर्यका निर्झर बह रहा था । सब लोग उसका दर्शन करके निहाल हो गये । तदनन्तर श्रीठाकुरजीको राजमहलमें लाया गया और बड़े समारोहसे उनकी प्रतिष्ठा की गयी । श्रीहरिवंशजीने उनका परम रसमय नामकरण किया- श्रीनवरंगीलालजी । अब श्रीहरिवंशजी निरन्तर अपने श्रीनवरंगीलालजीकोपूजा - सेवा मे निमग्न रहने लगे । इस समय इनकी अवस्था पाँच वर्षकी थी ।
इसके कुछ ही दिनों बाद इनकी अतुलनीय प्रेममयी सेवासे विमुग्ध होकर साक्षात रासेश्वरी नित्य निकुंजेश्वरी वृषभानुनन्दनी राधिकाजी ने दर्शन दिये , अपनी रस भावनापूर्ण सेवा पद्धतिका उपदेश किया और मंत्रदान करके इन्हे शिष्य रूप मे स्वीकार किया
आठ वर्ष की अवस्थामें आपका उपनयनसंस्कार हुआ और सोलह वर्षकी अवस्था आपका विवाह हो गया । पिता माता के गोलोकवासी हो जाने के बाद आप सब कुछ तयागकर श्रीवृन्दावन लिये विदा हो गये । श्रीनवरंगीलालजीकी सेवा भी आपने अपने पुत्रों को सौंप दी । देववनसे आप चिड़यावल आये यहाँ आत्मदेव नामक एक भक्त ब्राह्मणके घर ठाकुरजी श्रीराधावल्लभजी विराजमान थे । आत्मदेवजीको स्वप्नादेश हुआ कि तुम्हारी जो दोनों पुत्रियाँ ( श्रीकृष्णदास और मनोहरी ) हैं , उनका हितहरिवंश जी से विवाह कर दो और दहेजरूपमें मुझे दे देना । यदि ये विवाह के लिये न मानें तो उन्हें मेरी आज्ञा बता देना तब ये प्रस्तुत हो जायेंगे । आत्मदेवजीने ऐसा ही किया और उसीके अनुसार श्रीराधावल्लभजी महाराजको हरिवंशजी वृन्दावन ले आये ।
आये घर त्यागि राग बाड्यौ प्रिया प्रियतमसों विप्र बड़भाग हरि आज्ञा दई जानिये । तेरी उभै सुता ब्याह देवी लेवी नाम मेरो इनको जो बस सो प्रसंस जग मानिये ॥ ताही द्वार सेवा विस्तार निज भक्तनकी अगतिन गति सो प्रसिद्ध पहिचानिये । मानि प्रिय बात गहगह्यौ सुख लह्यौ सब की कैसे जात यह मत मन आनियै ।।
वृन्दावनमें मदन - टेर नामक स्थान में श्रीराधावल्लभजीने प्रथम निवास किया । इसके पश्चात् इन्होंने भ्रमण करके श्रीवृन्दावनके दर्शन किये और प्राचीन एवं गुप्त सेवाकुंज , रासमण्डल , वंशीवट एवं मानसरोवर नामक चार पुण्यस्थलों को प्रकट किया तदनन्तर आप सेवाकुंजके समीप ही कुटियोंमें रहने लगे तथा श्रीराधावल्लभजीका प्रथम प्रतिष्ठा उत्सव इसी स्थानपर हुआ । श्रीराधावल्लभजीकी आज्ञासे श्रीहितहरिवंशजीने श्रीश्यामाश्याम युगल सरकारकी निकुंजलीलाका क्रिया और काव्यद्वारा प्रचार - प्रसार किया ।
श्रीप्रियादासजी श्रीराधावल्लभ प्रभुद्वारा दी गयी हितहरिवंशजीको आज्ञाका वर्णन अपने कवित्तमें इस प्रकार करते हैं
राधिका वल्लभलाल आज्ञा सो रसाल दई सेवा मो प्रकास औ विलास कुंज धामकौ । सोई विसतार सुखसार दृग रूप पियौ दियौ रसिकनि जिन लियौ पच्छ बामकौ ॥ निसि दिन गान रस माधुरी कौ पान उर अन्तर सिहान एक काम स्यामास्यामकौ । गुन सो अनूप कहि कैसे कै सरूप कहै लहै मन मोद जैसे और नहीं नामकौ ॥
स्वामी श्रीहरिदासजीसे आपका अभिन्न प्रेमका सम्बन्ध था और ओरछेके राजपुरोहित एवं गुरु प्रसिद्ध भक्त श्रीहरिरामजी व्यासने भी आकर श्रीहिताचार्य प्रभुजीसे ही दीक्षा ग्रहण की थी । ' श्रीवृन्दावन महिमामृतम् ' के निर्माता महाप्रभु श्रीचैतन्यके प्रसिद्ध भक्त स्वामी श्रीप्रबोधानन्दजीकी भी आपके प्रति बड़ी निष्ठा और प्रीति थी । श्रीभगवान्को सेवामें किस प्रकार अपनेको लगाये रखना चाहिये और कैसे अपने हाथों सारी सेवा करनी चाहिये , इसकी शिक्षा श्रीहितहरिवंश प्रभुजीके जीवनकी एक घटनासे बहुत सुन्दर मिलती है । श्रीहितहरिवंशजी एक दिन मानसरोवरपर अपने कोमल करकमलोंसे सूखी लकड़ियाँ तोड़ रहे थे । इसी समय आपके प्रिय शिष्य दीवान श्रीनाहरमलजी दर्शनार्थ वहाँ आ पहुँचे । नाहरमलजीने प्रभुको लकड़ियाँ तोड़ते देख दुखी होकर कहा- ' प्रभो ! आप स्वयं लकड़ी तोड़नेका इतना बड़ा कष्ट क्यों उठा रहे हैं , यह काम तो किसी कहारसे भी कराया जा सकता है । यदि ऐसा ही है तो फिर हम सेवकोंका तो जीवन ही व्यर्थ है । '
नाहरमलके आन्तरिक प्रेमसे तो प्रभुका मन प्रसन्न था , परंतु सेवाकी महत्ता बतलाने के लिये उन्होंने कठोर स्वरमें कहा- ' नाहरमल तुम जैसे राजसी पुरुषोंको धनका बड़ा मद रहता है , तभी तो तुम श्रीठाकुरजीकी सेवा कहारोंके द्वारा करवाने की बात कहते हो । तुम्हारी इस भेद - बुद्धिसे मुझे बड़ा कष्ट हुआ । ' कहते हैं कि श्रीहितहरिवंश प्रभुजीने उनको अपने पास आनेतकसे रोक दिया । आखिर जब नाहरमलजीने दुखी होकर अनशन किया- पूरे तीन दिन बीत गये , तब वे कृपा करके नाहरमलजीके पास गये और प्रेमपूर्ण शब्दोंमें बोले- ' भैया ! प्रभुसेवाका स्वरूप बड़ा विलक्षण है । प्रभुसेवामें हेयोपादेय बुद्धि करनेसे जीवका अकल्याण हो जाता है । ऐसा विरोधी भाव मनमें नहीं लाना चाहिये । प्रभु - सेवा ही जीवका एकमात्र धर्म है । मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । तुम अन्न - जल ग्रहण करो । ' यों कहकर उन्होंने स्वयं अपने हाथोंसे प्रसाद दिया और भरपेट भोजन कराया ।
श्रीहितहरिवंशजी महाराज राधावल्लभ - सम्प्रदायके मेरुदण्ड हैं , इन्हें श्रीकृष्णकी वंशीका अवतार माना जाता है । अड़तालीस वर्षोतक इस धराधामको पावन करनेके पश्चात् सं ० १६० ९ वि ० की शारदीय पूर्णिमाके दिन आपने निकुंजलीलामें प्रवेश किया ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
Sanatan vedic dharma
Bhupalmishra35620@gmail.com