Swami Sri Haridas ji _ गर्व से कहो हम हिंदु है

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 स्वामी हरिदास जी के पावन चरित्र 




गान जुगल नाम सों नेम जपत नित कुंजबिहारी । अवलोकत रहैं केलि सखी सख के अधिकारी ॥ कला गंधर्ब स्याम स्यामा को तोषै । उत्तम भोग लगाय मार मरकट तिमि पोषे ॥ नृपति द्वार ठाढ़े रहैं दरसन आसा जास की । आसधीर उद्योत कर रसिक छाप हरिदास की ॥

 श्रीस्वामी हरिदासजी श्रीआशुधीरजीके सुयशको जगमें प्रकाशित करनेवाले हुए । आप वैष्णव समाजमें ' श्रीरसिकजी ' इस नामसे विख्यात थे । आपका श्रीकुंजविहारिणी- बिहारी श्रीश्यामाश्याम प्रियाप्रियतम - युगलके नामके प्रति बड़ा नेम - प्रेम था । आप निरन्तर प्रेमपूर्वक श्रीयुगलनामका जप किया करते थे तथा नित्य श्रीप्रिया प्रियतमकी केलि - विलास - लीलाका दर्शन करते रहते थे । आप सखी - सुखके परम अधिकारी थे तथा संगीत विद्यामें ऐसे निपुण थे कि आपके समक्ष गन्धर्व भी एक कलामात्र प्रतीत होते थे । अपने रसमय संगीतसे आप श्रीश्यामाश्यामको सदा रिझाते थे । आप अपने परमाराध्य श्रीश्यामाश्यामको परमोत्तम भोग अर्पित करते थे और सन्तसे अवशिष्ट भोग - प्रसादद्वारा मयूर , बन्दर एवं मछलियोंका भी पोषण करते थे । बड़े - बड़े राजा महाराजा आपके दर्शनोंकी आशामें कुंजद्वारपर खड़े रहते थे ॥ 

 स्वामी श्रीहरिदासजी महाराजके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है लगभग पाँच सौ साल पहलेकी बात है , वृन्दावनसे आधे कोसकी दूरीपर राजपुर गाँवमें सं ० १५३७ वि ० के लगभग स्वामी हरिदासजीका जन्म हुआ । उनके पिताका नाम गंगाधर और माताका चित्रादेवी था । वे ब्राह्मण थे । बाल्यावस्थासे ही उन्हें भगवान्‌की लीलाके अनुकरणके प्रति प्रेम था और वे खेलमें भी विहारीजीकी सेवायुक्त क्रीड़ामें ही तत्पर रहते थे । माता - पिता भगवान्‌के सीधे - सादे भक्त थे , हरिदासके चरित्र - विकासपर उनके सम्पर्क एवं संग तथा शिक्षा - दीक्षा और रीति - नीतिका विशेष प्रभाव पड़ा । हरिदासका मन घर गृहस्थीमें बहुत ही कम लगता था , वे उपवनोंमें , सर - सरिताके तटपर और एकान्त स्थानोंमें विचरण किया करते थे । एक दिन अवसर पाकर पचीस वर्षको अवस्थामें एक विरक्त वैष्णवकी तरह वे घरसे अचानक निकल पड़े । वे घरसे सीधे वृन्दावन आये , अपने उपास्यदेवता विहारीजीके दर्शन किये और उन्हींके शरणागत होकर निधिवनमें रहने लगे । आशुधीरजी उनके दीक्षा- गुरु थे । धीरे - धीरे उनके त्याग , निस्पृहता , रसोपासना और संगीतदक्षताकी प्रसिद्धि चारों ओर भक्त , सन्त तथा संगीतज्ञ मण्डलीमें व्याप्त हो गयी और उनके शिष्योंकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ने लगी । 


भावावेशमें सदा उनकी सहज समाधि - सी लगी रहती थी । प्रिया - प्रियतम श्रीराधा - कृष्णके सौन्दर्य और माधुर्यके महासागरमें वे रात - दिन डूबे रहते थे । उनका वही अचल धन था । उन्होंने बड़ी सरलतासे भगवान्का स्तवन करते हुए कहा - ' हरि ! तुम जिस तरह हमें रखना चाहते हो , उसी तरह रहनेमें हमें सन्तोष है । ' उनका पूर्ण विश्वास था कि सब कुछ विहारी - विहारिनिजीकी कृपासे ही होता है । हरिदास निम्बार्क सम्प्रदायके सन्त आशुधीरजीके शिष्य थे । स्वामी हरिदासजीकी उपासना सखीभावकी थी और भक्ति शृंगारमूलक रासेश्वरकी सौन्दर्य - निष्ठाकी प्रतीक थी । उनके सिद्धान्तसे भोक्ता केवल भगवान् हैं और समस्त चराचर उनका भोग्य है । उनकी कुटीके सामने दर्शनके लिये बड़े - बड़े राजा - महाराजाओंकी भीड़ लगी रहती थी , पर उन्होंने कभी किसीकी मुँहदेखी नहीं की । करका करवा ही उनका एकमात्र सामान था । 


एक बार एक भक्तने स्वामीजीको अत्यन्त मूल्यवान् इत्र भेंट किया । वे भगवती यमुनाकी रेतीमें बैठे हुए थे । वसन्त ऋतुका यौवन अपनी पराकाष्ठापर था । वृन्दावनके मन्दिरोंमें धमारकी धूम थी । रसिक हरिदासका मन डोल उठा । उनके प्राणप्रिय रासविहारी और उनकी रासेश्वरी श्रीराधारानीकी कृपादृष्टिको मनोरम दिव्यता उनके नयनोंमें समा गयी , वृन्दावनकी चिन्मयताकी आरसीमें अपने उपास्यकी झाँकी करके वे ध्यानस्थ हो गये । उन्हें तनिक भी बाह्य ज्ञान नहीं था , वे मानस - जगत्‌की सीमामें भगवदीय कान्तिका दर्शन करने लगे । भगवान् राधारमण रंगोत्सवमें प्रमत्त होकर राधारानीके अंग - अंगको करमें कनक- पिचकारी लेकर सराबोर कर रहे थे । ललिता , विशाखा आदि रासेश्वरीकी ओरसे नन्दनन्दनपर गुलाल और अबीर फेंक रही थीं , यमुना - जल रंगसे लाल हो चला था , बालुकाओंमें गुलाल और बुक्केके कण चमक रहे थे । भगवान् होली खेल रहे थे । हरिदासके प्राणोंमें रंगीन चेतनाएँ लहराने लगीं । नन्दनन्दनके हाथकी पिचकारी छूट हो तो गयी , हरिदासके तन - मन भगवान्‌के रंगमें शीतल हो गये , उनका अन्तर्देश गहगहे रंगमें सराबोर था । भगवान्ने भक्तको ललकारा । हरिदासने भगवान्‌के पीताम्बरपर इत्रकी शीशी उड़ेल दी । इत्रकी शीशी जिसने भेंट की थी , वह तो उनके इस चरित्रसे आश्चर्यचकित हो गया । जिस वस्तुको उसने इतने प्रेमसे प्रदान किया था , उसे उन्होंने रेतीमें छिड़ककर अपार आनन्दका अनुभव किया । रसिक हरिदासकी आँखें खुलीं , उन्होंने उस व्यक्तिकी मानसिक वेदनाकी बात जान ली और शिष्योंके साथ श्रीबिहारीजीके दर्शनके लिये भेजा । उस व्यक्तिने विहारीजीका वस्त्र इत्रसे सराबोर देखा और देखा , पूरा मन्दिर विलक्षण सुगन्धसे परिपूर्ण था । वह बहुत लज्जित हुआ ; पर भगवान्ने उसकी परम प्यारी भेंट स्वीकार कर ली , यह सोचकर उसने अपने सौभाग्यकी सराहना की ।


एक बार एक धनी तथा कुलीन व्यक्तिने हरिदाससे दीक्षित होनेकी इच्छा प्रकट की और उन्हें पारस भेंटस्वरूप दिया । हरिदासने पारसको पत्थर कहकर यमुनाजीमें फेंक दिया और उसे शिष्य बना लिया । 

श्रीप्रियादासजी महाराज इन घटनाओंका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं-

 स्वामी हरिदास रसरासको बखान सकै रसिकता छाप जोई जाप मधि पाइयै । ल्यायौ कोऊ चोवा वाकौ अति मन भोवा वामै , डारयौ लै पुलिन यह खोवा हिये आइयै ॥ जानिकै सुजान कही लै दिखावौ लाल प्यारे , नैसुकु उधारे पट सुगंध बुड़ाइयै । पारस पषान करि जल डरवाय दियौ कियौ तब शिष्य ऐसे नाना विधि गाइयै ॥ 

अपने दरबारी गायक भक्तवर तानसेनसे एक बार सम्राट् अकबरने पूछा था - ' क्या तुमसे बढ़कर भी कोई गानेवाले व्यक्ति हैं ? ' तानसेनने विनम्रतापूर्वक स्वामी हरिदासजीका नाम लिया । अकबरने उन्हें राजसभामें आमन्त्रित करना चाहा पर तानसेनने निवेदन किया कि वे कहीं आते - जाते नहीं । निधिवन जानेका निश्चय हुआ । हरिदासजी तानसेनके संगीतगुरु थे , उनके सामने जानेमें तानसेनके लिये कुछ भी अड़चन नहीं थी । रही अकबरकी बात , सो उन्होंने वेष बदलकर एक साधारण नागरिकके रूपमें उनका दर्शन किया । तानसेनने जान - बूझकर एक गीत गलत रागमें गाया । स्वामी हरिदासने उसे परिमार्जित और शुद्ध करके कोकिलकण्ठसे जब अलाप भरना आरम्भ किया , तब सम्राट् अकबरने संगीतकी दिव्यताका अनुभव किया । तानसेनने कहा – ' स्वामीजी सम्राटोंके सम्राट् भगवान् श्रीकृष्णके गायक हैं । ' स्वामी हरिदासजी निम्बार्क सम्प्रदायके अन्तर्गत ' टट्टी - संस्थान के संस्थापक थे । संवत् १६३२ वि ० तक वे निधिवनमें विद्यमान थे । वृन्दावनकी नित्य नवीन भगवल्लीलामयी चिन्मयताके सौन्दर्य में उनकी रसोपासनाने विशेष अभिवृद्धि की ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma 

Bhupalmishra108.blogspot.com 

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