Parmanand swami

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  परमानन्द स्वामी के चरित्र 



पौगँड बाल कैसोर गोपलीला सब गाई । अचरज कहा यह बात हुतौ पहिलौ जु सखाई ॥ 

रहत रोमांच रैन दिन । नैननि नीर प्रबाह गदगद गिरा उदार स्याम सोभा भीज्यो तन ॥

 सारंग छाप ताकी भई श्रवन सुनत आबेस देत । ब्रजबधू रीति कलिजुग बिषे परमानँद भयो प्रेम केत ॥

 द्वापरयुगको श्रीकृष्णानुरागिणी व्रजगोपियोंकी तरह इस कलियुगमें भी श्रीपरमानन्ददासजी प्रेमकी ध्वजा हुए । इन्होंने श्रीकृष्णकी पौगण्डावस्था , बाल्यावस्था एवं कैशोरावस्था आदिकी समस्त लीलाओंका पदोंमें गान किया । इस बातका आश्चर्य ही क्या है ? ये पहले ( द्वापरयुग ) - के श्रीकृष्णके तोक ( सखा ) ही तो हैं । इनके नेत्रोंसे रात - दिन प्रेमाश्रुओंका प्रवाह चलता रहता था और इनके शरीरमें सदा रोमांच बना रहता था । इनकी उदार वाणी सदैव प्रेमके कारण गद्गद बनी रहती थी , ये बड़े उदार थे तथा इनका भाव तन उदार श्रीश्यामसुन्दरकी शोभासे सराबोर रहता था । सारंग रागमें विशेष पद रचना करनेके कारण इनकी ' सारंग ' छाप पड़ गयी थी । इनके द्वारा रचे हुए पदोंको कानोंसे सुनते ही प्रेमावेश आ जाता है ॥ 

श्रीपरमानन्ददासजीका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है

 श्रीपरमानन्ददासजी भगवान्‌की लीलाके मर्मज्ञ , अनुभवी कवि और कीर्तनकार थे । वे अष्टछापके प्रमुख कवियोंमेंसे एक थे । उन्होंने आजीवन भगवान्की लीला गायी । श्रीमद्वल्लभाचार्यजीकी उनपर बड़ी कृपा रहती थी । वे उनका बड़ा सम्मान करते थे । उनका पद - संग्रह ' परमानन्दसागर ' के नामसे विख्यात है , उनकी रचनाएँ अत्यन्त सरस और भावपूर्ण हैं । लीलागायक कवियोंमें उन्हें गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है । परमानन्ददासजीका जन्म सं ० १५५० वि ० में मार्गशीर्ष शुक्ल ७ को हुआ था । वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे , कन्नौजके रहनेवाले थे । जिस दिन वे पैदा हुए , उसी दिन एक धनी व्यक्तिने उनके पिता को बहुत धन दिया । दानके फलस्वरूप घरमें परमानन्द छा गया , पिताने बालकका नाम परमानन्द रखा । उनका बाल्यावस्था सुखपूर्वक व्यतीत हुई , बचपनसे ही उनके स्वभावमें त्याग और उदारताका बाहुल्य था । उनके पिता साधारण श्रेणीके व्यक्ति थे , दान आदिसे ही जीविका चलाते थे । एक समय कन्नौज अकाल हाकिमने दण्डरूपमें उनके पिताका सारा धन छीन लिया । वे कंगाल हो गये । परमानन्द पूर्णरूप से युवा हो परमानन्द उनसे कहा करते थे कि आप मेरे विवाहकी चिन्ता न करें , मुझे विवाह ही नहीं करना है ।  अभीतक उनका विवाह नहीं हुआ था । पिताको सदा उनके विवाहकी चिन्ता बनी रहती थी और कुछ आय हो , उससे परिवारवालोंका पालन करें , साधु - सेवा और अतिथि सत्कार करें । " पर पिताको द्रव्योपार्जनकी धुन सवार थी , वे घरसे निकल पड़े । देश - विदेशमें घूमने लगे । इधर परमानन्द भगवान्के गुण कीर्तन , लीला - गान और साधु - समागममें अपने दिन बिताने लगे । वे युवावस्थामें ही अच्छे कवि और कीर्तनकारके रूपमें प्रसिद्ध हो गये । लोग उन्हें परमानन्द स्वामी कहने लगे । छब्बीस सालकी अवस्थातक वे कन्नौजमें रहे , उसके बाद वे प्रयाग चले आये । स्वामी परमानन्दकी कुटीमें अनेकानेक साधु - सन्त सत्संग के लिये आने लगे । उनकी विरक्ति बढ़ती गयी और काव्य तथा संगीतमें वे पूर्णरूपसे निपुण हो गये । स्वामी परमानन्द एकादशीकी रात्रिको जागरण करते थे , भगवान्‌की लीलाओंका कीर्तन करते थे । प्रयागमें भगवती कालिन्दीके दूसरे तटपर दिग्विजयी महाप्रभु वल्लभाचार्यका अड़ैलमें निवास स्थान था । महाप्रभुका जलघरिया कपूर परमानन्द स्वामीके जागरण - उत्सवमें सम्मिलित हुआ करता था । एक दिन एकादशीको रातको स्वामी परमानन्द कीर्तन कर रहे थे । कपूर चल पड़ा ; यमुनामें नाव नहीं थी , वह तैरकर इस पार आ गया । परमानन्द स्वामीने देखा कि उसकी गोदमें एक श्यामवर्णका शिशु बैठा है ; उसके सिर पर मयूरपिच्छका मुकुट है , नयन कमलके समान प्रफुल्लित हैं , अधरोंपर अमृतकी ज्योत्स्ना लहरा रही है , गलेमें वनमाला है , पीताम्बरमें उसका शरीर अत्यन्त मनमोहक सा लग रहा है । परमानन्दके दिव्य संस्कार जाग उठे , उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि भक्तकी माधुर्यमयी गोदमें भगवान् श्यामसुन्दर ही उनका कीर्तन सुन रहे हैं । उत्सव समाप्त हो गया । स्वप्नमें उन्हें श्रीवल्लभाचार्यके दर्शनकी प्रेरणा मिली । वे दूसरे दिन उनसे मिलनेके लिये चल पड़े मिलनेपर आचार्यप्रवरने उनसे भगवान्का यश वर्णन करनेको कहा । परमानन्दजीने विरहका पद गाया 

जिय की साथ जु जियहि रही री । बहुरि गुपाल देखि नहिं पाए बिलपत कुंज अहीरी ॥ 

इक दिन सो जु सखी यहि मारग बेचन जात दही री । प्रीति के लिएँ दान मिस मोहन मेरी बाँह गही री ॥ 

बिनु देखें छिनु जात कलप सम बिरहा अनल  दही री ।। परमानंद  स्वामी बिनु दरसन नैनन नदी बही री। ।

 उन्होंने आचार्यको बाललीलाके अनेक पद सुनाये । आचार्यने उन्हें ब्रह्म - सम्बन्ध दिया । परमानन्द  स्वामी से दास बन गए। 

 संo1582 वि.  वे महाप्रभु के साथ व्रज गए।  उन्होने इस यात्रामें आचार्यको अपने पूर्व निवासस्थान कन्नौज मे ठहराया था । आचार्य उनके मूख से हरि तेरी लीला की सुधि आवे'पद सुनकर तीन दिन तक मूर्छित रहे। 

आचार्यप्रवरके साथ सर्वप्रथम गोकुल आये । कुछ दिन रहकर वे उन्हींके साथ वहाँसे गोवर्धन चले आये । वे सदाके लिये गोवर्धनमें ही रह गये । सुरभी - कुण्डपर श्यामतमाल वृक्षके नीचे उन्होंने अपना स्थायी निवास स्थिर किया । वे नित्य श्रीनाथजीका दर्शन करने जाते थे । कभी - कभी नवनीतप्रियके दर्शनके लिये गोकुल भी जाया करते थे । सं ० १६०२ वि ० में गोसाइँ विट्ठलनाथजीने उनको ' अष्टछाप में सम्मिलित कर लिया । वे उच्चकोटिके कवि और भक्त थे । भगवान्के लीला - गानमें उन्हें बड़ा रस मिलता था । एक बार विट्ठलनाथजीके साथ जन्माष्टमीको वे गोकुल आये । नवनीतप्रियके सामने उन्होंने पद - गान किया ; वे पद गाते - गाते सुध - बुध भूल गये । ताल - स्वरका उन्हें कुछ भी पता नहीं रहा । उसी अवस्थामें वे गोवर्धन लाये गये । मूर्च्छा समाप्त होनेप अपनी कुटीमें आये , उन्होंने बोलना छोड़ दिया । गोसाईजीने उनके शरीरपर हाथ फेरा परमानन्ददासने नयनों प्रेमाश्रु भरकर कहा कि ' प्रेमपात्र तो केवल नन्द - नन्दन हैं । भक्त तो सुख और दुःख दोनोंमें उन्हींकी कृपा सहारे जीते रहते हैं । ' सं ० १६४१ वि ० में भाद्रपद कृष्ण नवमीको उन्होंने गोलोक प्राप्त किया । वे उस समय सुरभी - कुण्ड ही थे । मध्याहनका समय था । गोसाईं विट्ठलनाथ उनके अन्तसमयमें उपस्थित थे । परमानन्दका युगलस्वरूपकी माधुरीमें संलग्न था । उन्होंने गोसाईंजीके सामने निवेदन किया

 राधे बैठी तिलक सँवारति । 

 मृगनैनी कुसुमायुध कर धरि नंद सुवनको रूप बिचारति। ।दर्पण हाथ सिंगार बनावति। बासर जुग सम टारति। 

अंतर प्रीत स्याम सुन्दर सो हरि संग केलि सँभारति। ।

वासर गत रजनी व्रज आवत मिलत गोबर्धन प्यारी। ।

परमानन्द स्वामी के संग  मुदित भई ब्रजनारी ॥

 इस प्रकार श्रीराधाकृष्णकी रूप - सुधाका चिन्तन करते हुए उन्होंने अपनी गोलोक यात्रा सम्पन्न की ।

             श्री केशव भट्ट जी महाराज 

कस्मीरी की छाप पाप तापनि जग मंडन । दृढ़ हरि भक्ति कुठार आन धर्म बिटप बिहंडन ॥ 

मथुरा मध्य मलेछ बाद करि बरबट जीते । काजी अजित अनेक देखि परचे भयभीते ॥ 

बिदित बात संसार सब संत साखि नाहिन दुरी । केसौभट नर मुकुट मनि जिन की प्रभुता बिस्तरी ॥

  श्रीकेशवजी मनुष्योंमें मुकदमण हुए , जिनकी महामहिमा सारे संसार में फैल गयी । आपके नाम के साथ ' काश्मीरी ' यह विशेषण अतिप्रसिद्ध हो गया था । आप पापों एवं पापरूप लोगोंको ताप देनेवाले तथा जगत्के आभूषणस्वरूप थे । आप परम सुश्रीहरिकरूपी कुठारसे पाखण्डी वृक्षोंका समूलोच्छेद करनेवाले हुए । आपने मधुरापुरीमें बननों के बढ़ते हुए आतंकको देखकर उनसे वाद - विवादकर उन परम उदण्ड भवनोको बलपूर्वक हराया । अनेकों अजेय काजी आपको सिद्धिका चमत्कार देखकर एकदम भयभीत हो गये । आपका उपर्युक्त सुयश सारे संसारमें प्रसिद्ध है , सबसन्त इसके साक्षी है ॥

 श्री केशव भट्ट जी के विषय में संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

 आपका जन्म काश्मीरी ब्राह्मणकुलमें बारहवीं शताब्दीके लगभग हुआ माना जाता है । कुछ इतिहास वेताओंका कथन है कि काशीमें श्रीरामानन्दजी और नदियामें श्रीचैतन्यदेवजीसे आपका सत्संग हुआ था ।

एक बार दिग्विजयनिमित्त पर्यटन करते हुए आप नवद्वीपमें आये । वहाँका विद्ववर्ग आपसे भयभीत हो गया । तब श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु अपने शिष्यवर्गको साथ लेकर श्रीगंगाजीके परम सुखद पुलिनपर जाकर बैठ गये और बालकोंको पढ़ाते हुए शास्त्रचर्चा करने लगे । उसी समय टहलते हुए श्रीकेशवभट्टजी भी आकर आपके समीप बैठ गये । तब श्रीमहाप्रभुजी अत्यन्त नम्रतापूर्वक बोले- सारे संसारमें आपका सुयश छा रहा है , अतः मेरे मनमें यह अभिलाषा हो रही है कि मैं भी आपके श्रीमुखसे कुछ शास्त्रसम्बन्धी वार्ता सुन् । 

   श्रीकृष्णचैतन्यके इन वचनोंको सुनकर श्रीकेशवभट्टजी बोले कि तुम तो अभी बालक हो और बालकोंके साथ पढ़ते हो , परंतु बातें बड़ोंकी तरह बहुत बड़ी - बड़ी करते हो । परंतु तुम्हारी नम्रता - सुशीलता आदि देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ , अतः तुम्हारा जो भी सुननेका आग्रह हो , वह कहो , हम वही सुनायेंगे । श्रीमहाप्रभुजीने कहा- आप श्रीगंगाजीका स्वरूप वर्णन करिये । तब श्रीकेशवभट्टजीने तत्काल स्वरचित नवीन सौ श्लोक धाराप्रवाह कह सुनाये । उन्हें सुनकर श्रीमहाप्रभुजीकी बुद्धि भाव - विभोर हो गयी । तत्पश्चात् उन्हीं सौ श्लोकोंमेंसे एक श्लोक कण्ठस्थ करके श्रीमहाप्रभुजीने भी श्रीकेशवभट्टजीको सुनाया और निवेदन किया कि इस श्लोककी व्याख्या एवं दोष और गुणोंका भी वर्णन करिये । सुनकर श्रीकेशवभट्टजीने कहा कि भला मेरी रचनामें दोष कहाँ ? श्रीमहाप्रभुजीने कहा- काव्य - रचनामें दोषका लेश रहना स्वाभाविक ही है । यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं इसके दोष गुण कह सुनाऊँ । तब आपने कहा- अच्छा , तुम्ही कहो । तब श्रीमहाप्रभुजीने उस श्लोककी गुण - दोषमयी एक नवीन व्याख्या कर दी । श्रीकेशवभट्टजीने कहा- अच्छा , अब हम प्रातः काल तुमसे फिर मिलेंगे और इसपर अपना विचार व्यक्त करेंगे । ऐसा कहकर आप अपने निवास स्थानपर चले आये और एकान्तमें श्रीसरस्वतीजीका ध्यान किया । श्रीसरस्वतीजी तत्काल एक बालिकाके रूपमें इनके सम्मुख आ उपस्थित हुई । आपने उपालम्भभरे स्वरमें कहा कि सारे संसारको जितवा करके आपने एक बालकसे मुझे हरा दिया ।

  श्रीसरस्वतीजीने कहा- वे बालक नहीं हैं , वे तो साक्षात् लोकपालक भगवान् हैं और मेरे स्वामी हैं । भला मेरी सामर्थ्य ही कितनी है , जो मैं उनके सम्मुख खड़ी होकर वाद - विवाद कर सकूँ ! श्रीसरस्वतीजीकी यह सुखस्रोतमयी वाणी सुनकर श्रीकेशवभट्टजी मनमें बड़े हर्षित हुए और वाद - विवादके भावका परित्याग करके श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभुजीके पास आये तथा बहुत प्रकारसे विनय - प्रार्थना की । तब श्रीमहाप्रभुजीने कृपापूर्वक कहा कि वाद - विवादके प्रपंचको छोड़कर फलस्वरूपा भक्तिका रसास्वादन कीजिये , अब आजसे किसीको भूलकर भी नहीं हराइये । श्रीकेशवभट्टजीने श्रीमहाप्रभुजीकी यह बात हृदयमें धारण कर ली और शास्त्रार्थ तथा दिग्विजय छोड़कर एकान्तिक भक्ति - सुखमें निमग्न रहने लगे ।

 श्रीप्रियादासजीने श्रीकेशवभट्ट और श्रीचैतन्यमहाप्रभुके इस संवादका इस प्रकार वर्णन किया है

 करि दिगबिजै सब पण्डित हराय दिये लिये बड़े बड़े जीति भीति उपजाई है । फिरत चौडोल चढ़े गज बाजि लोग संग प्रतिभा कौ रंग आए नदिया प्रभाई है ॥

 डरे द्विज भारी महाप्रभु बिचारी तब लीला बिस्तारी गंगा तीर सुखदाई है । बैठे ढिंग आय बोले नम्रता जनाय रह्यो जग जसु छाय नेकु सुनै मन भाई है ॥

     लरिकान संग पढ़ौ बातें बड़ी बड़ी गढ़ौ ऐपै रढ़ौ कहौ सोई सीलता पै रीझियै । ' गंगा कौ सरूप कहौ ' ' चाहौ दृग आगे सोई ' नये सौ श्लोक किये सुनि मति भीजियै ॥

 तामैं एककण्ठ करि पढ़िकै सुनायौ अहो बड़ो अभिलाष याकी व्याख्या करि दीजियै । अचरज भारी भयो कैसे तुम सीखि लयो ? दयौ लै प्रभाव , तुम्हें ताने दयो जीजियै ॥

      दूषन और भूषन हूँ कीजिये बखान याके सुनि दुखमानि कही दोष कहाँ पाइयै । कविता प्रबन्ध मध्य रहै खोटि गंध अहो आज्ञा मोको देउ कह्यो कहिकै सुनाइयै ॥

व्याख्या करि दई नई औगुन सुगुन मई आए निजधाम भोर मिले समुझाइये । सरस्वती ध्यान कियौ आई तत्काल बाल बाल पै हरायो सब जग जितवाइयै ॥

 बोली सरस्वती मेरे ईस भगवान वे ती मान मेरौ किती सन्मुख बतराइये । भयौ दरसन तुम्हें मन परसत होत सुनि सुख सोत बानी आए प्रभु पाइयै ।। 

बिनै बहु करी करी कृपा आप बोले अजू भक्तिफल लीजै काहू भूलि न हराइये । हिये धरि लई भीर भार छोड़ि दई पुनि नई यह भई सुनि दुष्ट मरवाइये ।। 

 आपके समयमें दिल्लीका बादशाह अलाउद्दीन खिलजी था , उसके उग्र स्वभावसे हिन्दू प्रजा ऊब उठी थी । उसने घोषणा की कि सारे हिन्दू - मन्दिर तोड़ दिये जायें । उस समय मथुराके सूबेदारके आदेशानुसार एक फ़कीरने लाल दरवाजेपर एक यन्त्र टाँगा , जिसके प्रभावसे जो भी हिन्दू उस दरवाजेसे निकलता , वह मुसलमान बन जाता और दूसरे लोग जबरन उसे अपने धर्ममें शामिल कर लेते । इस महान् विपत्तिसे बचनेके लिये सभी व्रजवासी श्रीभट्टजीके पास पहुँचे । श्रीआचार्यदेव स्वयं शिष्यसमूहको साथ ले उस स्थानपर गये और यन्त्रको तोड़कर धर्मकी रक्षा की ।

 श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है 

आपु काश्मीर सुनी बसत विश्रान्त तीर तुरक समूह द्वार जन्त्र इक धारिये । सहज सुभाय कोऊ निकसत आय ताको पकरत जाय ताके सुन्नत निहारियै ॥

 संग लै हजार शिष्य भरे भक्ति रंग महा अरे वही ठौर बोले नीच पट टारियै । क्रोध भरि झारे आय सूबा पै पुकारे वे तौ देखि सबै हारे मारे जल बोरि डारियै ।। 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

bhupalmishra35620@gmail.com 

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