Surdas ji _ सूरदासजी गर्व से कहो हम हिंदु है

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                    सूरदास जी के 

                 


                            लीला गाथा 


उक्ति चोज अनुप्रास बरन अस्थिति अति भारी । बचन प्रीति निर्बाह अर्थ अद्भुत तुकधारी ॥ प्रतिबिंबित दिबि दिष्टि हृदय हरि लीला भासी । जनम करम गुन रूप सबै रसना परकासी ॥ बिमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धेरै । सूर कबित सुनि कौन कबि जो नहिं सिर चालन करै ॥                             

       


श्रीसूरदासजीकी कविताको सुनकर ऐसा कौन कवि है , जो आनन्दमें भरकर सिर नहीं हिलाने लगता हो । इनकी कवितामें सुन्दर सरस उक्तियाँ , मधुर व्यंग्यपूर्ण उपहास ( सुभाषित , अनोखा भाव , रहस्य ) , अनूठे अनुप्रास और ललितवर्ण - मैत्री अत्यन्त प्रचुरताके साथ वर्तमान हैं । इनकी वाणीमें प्रेमका ओर - छोर निर्वाह देखा जाता है तथा कवितामें प्रयुक्त शब्दोंक सम्बन्धका पूर्णरूपेण निर्वाह पाया जाता है अर्थात् परस्पर मैत्रीयुक्त शब्दोंका प्रयोग किया गया है । पदोंमें अन्त्यानुप्रास बड़ा ही मनोरम है तथा प्रत्येक पदमें विलक्षण भावार्थ निहित है । दिव्यदृष्टि होनेसे इनके हृदयमें भगवान्की सम्पूर्ण लीलाएँ प्रतिबिम्बित होकर प्रकाशित होती थीं , अतः इन्होंने भगवान्के जन्म , कर्म , गुण- इन सबका अपनी रसना ( जिह्वा ) से बड़ा ही सरस वर्णन किया है । श्रीसूरदासजीद्वारा वर्णित भगवान्के जन्म , कर्म , रूप , गुणादिको प्रेमपूर्वक श्रवण करनेसे लोगोंकी बुद्धि निर्मल हो जाती है तथा निर्मल गुणोंसे युक्त हो जाती है अर्थात् उन्हें भी भगवान्‌की लीलाएँ भासने लगती हैं ॥  


              श्रीसूरदासजीके विषयमें कुछ विवरण इस प्रकार है 

सूरदासको किसी विशेषण या उपाधिसे समलंकृत करनेमें उनकी परमोत्कृष्ट भगवद्भक्ति , अत्यन्त विशिष्ट कवित्व - शक्ति और मौलिक अलौकिकताकी उपेक्षाकी आशंका उठ खड़ी होती है , सूरदास पूर्ण भगवद्भक्त थे , अलौकिक कवि थे , महामानव थे । महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यके शब्दोंमें वे ' भक्तिके सागर ' और श्रीगोसाईं विट्ठलनाथकी सम्मतिमें वे ' पुष्टिमार्गके जहाज ' थे । उनका सूरसागर काव्यामृतका असीम सागर है । वे महात्यागी , अनुपम विरागी और परम प्रेमी भक्त थे । भगवान्‌की लीला ही उनकी अपार , अचल और अक्षुण्ण सम्पत्ति थी । 


दिल्लीसे थोड़ी दूरपर सीही गाँवमें एक निर्धन ब्राह्मण  के घर संवत् १५३५ वि ० में वैशाख शुक्ल पंचमीको धरतीपर एक दिव्य ज्योति बालक सूरदासके रूपमें उतरी , चारों ओर शुभ्र प्रकाश फैल गया ; ऐसा लगता था कि कलिकालके प्रभावको कम करनेके लिये भगवती भागीरथीने अपना कायाकल्प किया है । समस्त गाँववाले और शिशुके माता - पिता आश्चर्यचकित हो गये । शिशुके नेत्र बन्द थे , घरमें ' सूर ' ने जन्म लिया । अन्धे बालकके प्रति उनके पिता उदासीन रहने लगे , घरके और लोग भी उनकी उपेक्षा ही करते थे । धीरे - धीरे उनके अलौकिक और पवित्र संस्कार जाग उठे , घरके प्रति उनके मनमें वैराग्यका भाव उदय हो गया , उन्होंने गाँवके बाहर एकान्त स्थानमें रहना निश्चय किया । सूर घरसे निकल पड़े , गाँवसे थोड़ी दूरपर एक रमणीय सरोवरके किनारे पीपलवृक्षके तले उन्होंने अपना निवास स्थिर किया । वे लोगोंको शकुन बताते थे और विचित्रता तो यह थी कि उनकी बतायी बातें सही उतरती थीं ।

एक दिन एक जमींदारकी गाय खो गयी । सूरने उसका ठीक - ठीक पता बता दिया जमींदार उनके चमत्कारसे बहुत प्रभावित हुआ , उसने उनके लिये एक झोपड़ी बनवा दी । सूरका यश दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा । सुदूर गाँवोंसे लोग उनके पास शकुन पूछनेके लिये अधिकाधिक संख्यामें आने लगे । उनकी मान - प्रतिष्ठा और वैभवमें नित्यप्रति वृद्धि होने लगी । सूरदासकी अवस्था इस समय अठारह सालकी थी । उन्होंने विचार किया कि जिस माया - मोहसे उपराम होनेके लिये मैंने घर छोड़ा , वह तो पीछा ही करता आ रहा है । भगवान्के भजनमें विघ्न होते देखकर सूरने उस स्थानको छोड़ दिया । उनको अपना यश तो बढ़ाना नहीं था , वे तो भगवान्‌के भजन और ध्यान में रस लेते थे । वे मथुरा आये , उनका मन वहाँ नहीं लगा । उन्होंने गऊघाटपर रहनेका विचार किया । गऊघाट जानेके कुछ दिन पूर्व वे रेणुकाक्षेत्र में भी रहे , रेणुका ( रुनकता ) में उन्हें सन्तों और महात्माओंका सत्संग मिला ; पर उस पवित्र स्थानमें उन्हें एकान्तका अभाव बहुत खटकता था । रुनकतासे तीन मील दूर पश्चिमकी ओर यमुनातटपर गऊघाटमें आकर वे काव्य और संगीतशास्त्रका अभ्यास करने लगे । सूरदासकी एक महात्माके रूपमें ख्याति चारों ओर फैलने लगी । 


पुष्टिसम्प्रदायके आदि आचार्य महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य अपने निवास स्थान अड़ैलसे ब्रजयात्रा के लिये संवत् १५६० वि ० में निकल पड़े । उनकी गम्भीर विद्वत्ता , शास्त्रज्ञान और दिग्विजयकी कहानी उत्तर भारतके धार्मिक पुरुषोंके कानों में पड़ चुकी थी । महाप्रभुने विश्रामके लिये गऊघाटपर ही अस्थायी निवास घोषित किया । सूरदासने वल्लभाचार्यके दर्शनकी उत्कट इच्छा प्रकट की , आचार्य भी उनसे मिलना चाहते थे । पूर्वजन्मके शुद्ध तथा परम पवित्र संस्कारोंसे अनुप्राणित होकर सूरने आचार्यके दर्शनके लिये पैर आगे बढ़ा दिये , वे चल पड़े । उन्होंने दूरसे ही चरण - वन्दना की , हृदय चरण धूलि - स्पर्शके लिये आकुल हो उठा । आचार्यने उन्हें आदरपूर्वक अपने पास बैठा लिया , उनके पवित्र संस्पर्शसे सूरके अंग - अंग भगवद्भक्तिकी रसामृतलहरीमें निमग्न हो गये । सूरने विनयके पद सुनाये , भक्तने भगवान्‌के सामने अपने आपको पतितोंका नायक घोषितकर उनकी कृपा प्राप्त करना चाहा था- यही उस पदका अभिप्राय था । आचार्यने कहा , ' तुम सूर होकर इस तरह क्यों घिघियाते हो ? भगवान्‌का यश सुनाओ , उनकी लीलाका वर्णन करो । ' सूर आचार्यचरणके इस आदेशसे बहुत प्रोत्साहित हुए । उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा कि ' मैं भगवान्‌की लीलाका रहस्य नहीं जानता । ' आचार्य श्रीमद्भागवतकी स्वरचित सुबोधिनी टीका सुनायी , उन्हें भगवान्‌की लीलाका रस मिला , वे लीला सम्बन्धी पद गाने लगे । आचार्यने उन्हें दीक्षा दी । वे तीन दिनोंतक गऊघाटपर रहकर गोकुल चले आये , सूरदास उनके साथ थे । गोकुलमें सूरदास नवनीतप्रियका नित्य दर्शन करके लीलाके सरस पद रचकर उन्हें सुनाने लगे । आचार्य वल्लभके भागवत - पारायणके अनुरूप ही सूरदास लीलाविषयक पद गाते थे । आचार्यके साथ सूरदासजी गोकुलसे गोवर्धन चले आये , उन्होंने श्रीनाथजीका पूजन किया और सदाके लिये उन्हींकी चरण - शरणमें जीवन बितानेका शुभ संकल्प कर लिया । श्रीनाथजीके प्रति उनकी अपूर्व भक्ति थी , आचार्यकी कृपासे वे प्रधान कीर्तनकार नियुक्त हुए । 


गोवर्धन आनेपर सूरने अपना स्थायी निवास चन्द्रसरोवरके सन्निकट परासोलीमें स्थिर किया । वे वहाँसे प्रतिदिन श्रीनाथजीके मन्दिर जाते थे और नये - नये पद रचकर उन्हें बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे समर्पित करते थे । धीरे - धीरे व्रजके अन्य सिद्ध महात्मा और पुष्टिमार्गक भक्त कवि नन्ददास , कुम्भनदास , गोविन्ददास आदिसे उनका सम्पर्क बढ़ने लगा । भगवद्भक्तिकी कल्पलताको शीतल छायामें बैठकर उन्होंने सूरसागर जैसे विशाल ग्रन्थकी रचना कर डाली । आचार्य वल्लभके लीलाप्रवेशके बाद गोसाई विट्ठलने अष्टछापकी स्थापना की । जिसमें वे प्रमुख कवि घोषित हुए । कभी - कभी परासोलीसे वे नवनीतप्रियके दर्शनके लिये गोकुल भी जाया करते थे


 एक बार संगीत सम्राट् तानसेन अकबरके सामने सूरदासका एक अत्यन्त सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे । बादशाह पदकी सरसतापर मुग्ध हो गये । उन्होंने सूरदाससे स्वयं मिलनेकी इच्छा प्रकट की । उस समय आवश्यक राजकार्यसे मथुरा भी जाना था । वे तानसेनके साथ सूरदाससे संवत् १६२३ वि ० में मिले । उनकी सहृदयता और अनुनय - विनयसे प्रसन्न होकर सूरदासने पद गाया , जिसका अभिप्राय यह था कि ' है मन ! तुम माधवसे प्रीति करो । ' अकबरने परीक्षा ली , उन्होंने अपना यश गानेको कहा सूर तो राधा - चरण चारण चक्रवर्ती श्रीकृष्णके गायक थे , वे गाने लगे

 नाहिन रह्यौ हिय महँ ठौर नंदनंदन अछत कैसें आनिए उर और ॥

 अकबर उनकी निःस्पृहतापर मौन हो गये । भक्त सूरके मनमें सिवा श्रीकृष्णके दूसरा रह ही किस तरह पाता । उनका जीवन तो रासेश्वर , लीलाधाम श्रीनिकुंजनायकके प्रेममार्गपर नीलाम हो चुका था । सूरदास एक बार नवनीतप्रियके मन्दिर गोकुल गये , वे उनके शृंगारका ज्यों - का - त्यों वर्णन कर दिया करते थे । गोसाईं विट्ठलनाथके पुत्र गिरधरजीने गोकुलनाथके कहनेसे उस दिन सूरदासकी परीक्षा ली । उन्होंने भगवान्‌का अद्भुत शृंगार किया , वस्त्रके स्थानपर मोतियोंकी मालाएँ पहनायीं । सूरने शृंगारका अपने दिव्य चक्षुसे देखकर वर्णन किया वे गाने लगे 

देखे री हरि नंगम नंगा |  जलसुत भूषन अंग बिराजत , बसन हीन छबि उठत तरंगा ॥ अंग अंग प्रति अमित माधुरी , निरखि लजित रति कोटि अनंगा । किलकत दधिसुत मुख ले मन भरि , सूर हँसत ब्रज जुवतिन संगा ॥ 


भक्तकी परीक्षा पूरी हो गयी , भगवान्ने अन्धे महाकविकी प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखी , वे भक्तके हृदय कमलपर नाचने लगे , महागायककी संगीत - माधुरीसे रासरसोन्मत्त नन्दनन्दन प्रमत्त हो उठे , कितना मधुर वर्णन था उनके स्वरूपका !


 सूरदासजी त्यागी , विरक्त और प्रेमी भक्त थे । श्रीवल्लभाचार्य के सिद्धान्तों के पूर्ण ज्ञाता थे । उनकी मानसिक भगवत्सेवा सिद्ध थी । वे महाभागवत थे । उन्होंने अपने उपास्य श्रीराधारानी और श्रीकृष्णके यश वर्णनको ही श्रेय मार्ग समझा । गोपी - प्रेमकी ध्वजा हिन्दी काव्य - साहित्यमें फहरानेमें वे अग्रगण्य स्वीकार किये जाते हैं ।


 उन्होंने पचासी सालकी अवस्थामें गोलोक प्राप्त किया । एक दिन अन्तिम समय निकट जानकर सूरदास श्रीनाथजीकी केवल मंगला आरतीमें गये । वे नित्य श्रीनाथजीकी प्रत्येक झाँकीमें जाते थे । गोसाईं विट्ठलनाथ शृंगार - झाँकीमें उन्हें अनुपस्थित देखकर आश्चर्यचकित हो गये । उन्होंने श्यामसुन्दरकी ओर देखा , प्रभुने अपने परम भक्तका पद नहीं सुना था , सूरदासजी उन्हें नित्य पद सुनाया करते थे । कुम्भनदास , गोविन्ददास आदि चिन्तित हो उठे । गोसाईंजीने करुण स्वरसे कहा- आज पुष्टिमार्गका जहाज जानेवाला है । जिसको जो कुछ लेना हो , वह ले ले । ' उन्होंने भक्तमण्डलीको परासोली भेज दिया और राजभोग समर्पितकर वे कुम्भनदास , गोविन्ददास और चतुर्भुजदास आदिके साथ स्वयं गये । इधर सूरकी दशा विचित्र थी , परासोली आकर उन्होंने श्रीनाथजीकी ध्वजाको नमस्कार किया । उसीकी ओर मुख करके चबूतरेपर लेटकर सोचने लगे कि यह काया पूर्णरूपसे हरिकी सेवामें नहीं प्रयुक्त हो सकी । वे अपने दैन्य और विवशताका स्मरण करने लगे । समस्त लौकिक चिन्ताओंसे मन हटाकर उन्होंने श्रीनाथजी और गोसाईंजीका ध्यान किया । गोसाईंजी आ पहुँचे , आते ही उन्होंने सूरदासका कर अपने हाथमें ले लिया । महाकविने उनकी चरण - वन्दना की । सूरने कहा कि ' मैं तो आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था । वे पद गाने लगे


 खंजन नैन रूप माते । 

अतिसय चारु चपल अनियारे , पल पिंजरा नः समाते ।

चलि चलि जात निकट स्त्रवननि के , उलटि पलटि ताटंक फैदाते । 

सूरदास अंजन गुन अटके , नतरु अबहिं उड़ि जाते ॥

 अन्त समयमें उनका ध्यान युगलस्वरूप श्रीराधामनमोहनमें लगा हुआ था । श्रीविठ्ठलनाथके यह पूछनेपर कि ' चित्तवृत्ति कहाँ है ? ' उन्होंने कहा कि ' मैं राधारानीकी वन्दना करता हूँ , जिनसे नन्दनन्दन प्रेम करते हैं । ' चतुर्भुजदासने कहा कि आपने असंख्य पदोंकी रचना की , पर श्रीमहाप्रभुका यश आपने नहीं वर्णन किया ? ' सूरकी गुरु - निष्ठा बोल उठी कि ' मैं तो उन्हें साक्षात् भगवान्का रूप समझता हूँ , गुरु और भगवान्में तनिक भी अन्तर नहीं है । मैंने तो आदिसे अन्ततक उन्हींका यश गाया है । ' उनकी रसनाने गुरु - स्तवन किया 


। भरोसो दृढ इन चरननि केरो । श्रीवल्लभ नख छटा विनु सब जग माझ अंधेरो। 

साधन नाहि और या कलि में जासों होय निबेरो । 

सूर कहा कहै द्विविधि आँधरो बिना मोल को चेरो ॥

 चतुर्भुजदासकी विशेष प्रार्थनापर उन्होंने उपस्थित भगवदीयोंको पुष्टिमार्ग के मुख्य सिद्धान्त संक्षेप मे सुनाये । ।उन्होने कहा कि गोपी जनो के भाव से भावित भगवान के भजन से पुष्टिमार्ग के रस का अनुभव होता है । इस मार्गमें केवल प्रेमकी ही मर्यादा है । ' सूरदासने श्रीराधाकृष्णकी रसमयी छविका ध्यान किया और वे सदाके लिये ध्यानस्थ हो गये ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

bhupalmishra35620@gmail.com 

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