श्री श्रीभट्ट जी महाराज
के पावन चरित्र
मधुर भाव संमिलित ललित लीला सुबलित छबि । निरखत हरषत हृदै- प्रेम बरषत सुकलित कबि ॥ भव निस्तारन हेतु देत दृढ़ भक्ति सबनि नित । जासु सुजस ससि उदै हरत अति तम भ्रम श्रम चित ॥ आनंद कंद श्रीनंदसुत श्रीबृषभानुसुता भजन । श्रीभट्ट सुभट प्रगट्यो अघट रस रसिकन मन मोद घन ॥
महा अजय संसाररिपुको जीतनेमें महावीर श्रीभट्टजीने अपार उज्वल शृंगाररस पारावार प्रकट किया । आप अपनी सरस रचनाओंके द्वारा रसकी वर्षा करके रसिक महानुभावोंके मनको आनन्द प्रदान करनेके लिये मानो मेघके समान ( विश्व - व्योममें ) प्रकट हुए । आपके पदोंमें माधुर्यभावमयी तथा भक्तोंको सुख देनेवाली ललित लीलाओंसे सुष्ठु प्रकारेण संयुक्त श्रीप्रिया- प्रियतमकी मनोहारिणी छविका साक्षात् दर्शन होता है , जिसे देखते ही रसिकजनोंका हृदय हर्षित हो उठता है तथा हृदयमें प्रेमकी वर्षा - सी होने लगती है । आप ऐसे जगद्विदित कवि हुए । जीवोंको संसार - बन्धनसे मुक्त करनेके लिये अथवा संसार - सागरसे पार करनेके लिये आप अत्यन्त उदारतापूर्वक सबको अविचल अनपायिनी भक्ति प्रदान करते थे । आपका सुयशरूपी चन्द्रमा अपने अभ्युदयसे आज भी जीवोंके हृदय में स्थित अज्ञानरूपी अन्धकार , विपरीत ज्ञान एवं अनादिकालसे भवाटवीमें भटकनेसे संजात श्रमको दूर कर रहा है । आप सदा सर्वदा आनन्दकन्द श्रीनन्दनन्दन श्रीकृष्ण एवं श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकाजीके भजनमें निमग्न रहा करते थे ॥
श्री श्री भट्टजीके विषयमें कुछ विवरण इस प्रकार है
इसका एक विक्रमीय संवत्की सोलहवीं सदीके पूर्व वृन्दावनकी पवित्र भूमि मधुर भक्तिसे पूर्ण आप्लावित थी । इस समय ब्रजभाषाके महान् रसिक कवि श्रीभट्टने श्राराधा - कृष्णकी उपासनाद्वारा समाजको सरस और नवीन भति चेतनासे समलंकृतकर सगुण लीलाका प्रचार किया । श्रीभट्ट व्रज और मथुराकी ही सीमामें रहनेको परम सुख मानते थे । वे केशव काश्मीरीके अन्तरंग शिष्य थे । कहते हैं कि यवनोंके आतंकके कारण सनातन धर्म और आनन्दका साधन मानते थे । व्रजकी लताएं , कुंज , सरिता , हरीतिमा और मोहिनी छविको वे प्राणोंसे भी प्रिय शिथिलता आ जानेसे देशकी तत्कालीन दुरवस्था देखकर श्रीकेशव कश्मीरीजी आजीवन भक्त , भक्ति , भगवन और गुरुके ऐश्वर्य - प्रकाश एवं सिद्धान्त - सम्पादनमें ही लगे रहे । इसके लिये आपने अनेक ग्रन्थोंकी रचना एवं कई बार सम्पूर्ण भारतका भ्रमण किया । फलस्वरूप वैष्णवताका तो खूब प्रचार - प्रसार हुआ , परंतु ब्रजरसके यथेष्ट वर्णनकी आपकी लालसा शेष ही रह गयी । यद्यपि आपने अपने ग्रन्थोंमें प्रसंग आनेपर यत्र - तत्र सर्वत्र इस रसकी बड़ी मधुर विवेचना की है , परंतु स्वतन्त्रतया इस विषयपर कोई प्रतिपादक ग्रन्थ न लिख सके । कारण यह भी था कि आपको यह अन्देशा था कि यदि व्रज - प्रेमका वर्णन करनेमें मैं आत्मविभोर हो गया तो फिर उस प्रेम - प्रवाहसे बाहर निकलना मुश्किल हो जायगा । ऐसेमें सनातन धर्मके प्रचारका कार्य रुक जायेगा , अतः आपने स्वयं इस सम्बन्धमें कुछ न लिखकर अपने अन्तरंग शिष्य श्रीभट्टजीको प्रेरणाकर इस रसका प्रकाश कराया । वर्णन आया है कि श्री श्रीभट्टजी जब अत्यन्त तन्मय होकर व्रजलीलाका वर्णन करने लगे तो उस प्रवाहमें आपने श्रीयुगलकिशोरकी कुंजक्रीड़ाके सौ शतक रच डाले और सबको ले जाकर श्रीगुरुदेवजीके करकमलोंमें अर्पित कर दिया । श्रीकेशव कश्मीरीजीने जब उन पदोंको देखा तो विचार किया कि इन्होंने तो प्रेमावेशमें शृंगाररसकी परम गोपनीयसे भी गोपनीय लीलाओंको एकदम प्रकट कर दिया है । भला , इस कराल कलिकालमें इस रसके ऐसे अधिकारी कहाँ हैं , जो यथावत् इसको समझ सकें । अतः आपने सबका सब श्रीयमुनाजीको भेंट कर दिया और कहा कि श्रीयमुनाजी जो कृपा करके प्रसादरूपमें दें , वही प्रकाशित किया जाय । श्रीयमुनाजीने सौ पदोंको छोड़कर शेष सबको स्वयंमें आत्मसात् कर लिया । वे ही सौ पद ' श्रीयुगलशतक ' के नामसे प्रसिद्ध हैं ।
एक बार वे भगवती कलिन्दनन्दिनीके परम पवित्र तटपर विचरण कर रहे थे , उन्होंने नीरव और नितान्त शान्त निकुंजॉकी ओर दृष्टि डाली , भगवान्की लीला - माधुरीका रस नयनोंमें उमड़ आया । आकाशमें काली घटाएँ छा गयी , यमुनाकी लहरोंका यौवन चंचल हो उठा , वंशीवटपर नित्य रास करनेवाले राधारमणकी वंशीस्वर - लहरीने उनकी चित्तवृत्तिपर पूरा - पूरा अधिकार कर लिया । वे नन्दनन्दन और श्रीराधारानीकी रसमयी छविपर सर्वस्व समर्पण करनेके लिये विकल हो उठे । सरस्वतीने उनके कण्ठदेशमें करवट ली । ' सरस समीरकी मन्द - मन्द गति ' उनकी दिव्य संगीत - सुधासे आलोकित हो उठी ।
भगवान्से विरह - दुःख अब और न सहा गया , उनकी इच्छापूर्तिके लिये वे श्रीरासेश्वरीजीके सहित प्रकट हो गये । श्रीभट्टने देखा कि कुंजमें कदम्बके नीचे कोटि - कन्दर्प- लावण्य - युक्त रास - विहारी अपनी प्रियतमा राधारानीके स्कन्धदेशपर कोमल कर - स्पर्शका सौन्दर्य बिखेर रहे हैं ; यमुनाकी स्वच्छ धाराएँ उनके चरण चूमनेके लिये कूलकी मर्यादा तोड़ देना चाहती हैं , पर बालुकाकी सेनाएँ उन्हें विवश कर देती हैं के वे आगे न बढ़ें । श्रीभट्टने अपना जीवन सफल माना , उन्होंने भगवान्की दिव्य और कृपामयी झाँकीको काव्यरूप देकर अपने सौभाग्यकी सराहना की । रोम - रोम पुलकित हो उठा , मल्हाररागका भाग्य जाग उठा
स्यामा स्कुंस्या कुंज तर ठाढ़े, जतन कियो कछु मैं ना । श्रीभट उमड़ि घटा चहुँ दिसि तें घिरि आई जल सेना ॥
‘ बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद ' की कान्तिमयी इच्छा पूर्ति ही उनकी अतुल सम्पत्ति थी । भगवान्का रस - रूप ही भवबन्धनसे निवृत्त होनेका कल्याणमय विधान था । श्रीभट्टके पदों मे भगवान्के रसरूपका चिन्तन अधिकतासे हो सका है । उनकी रसोपासना और भक्ति - पद्धतिसे प्रभावित होकर अन्य रसोपासकों और कवियोंने श्रीराधाकृष्णकी निकुंज - लीला - माधुरीके स्तवन और गानसे भक्तिसाहित्यकी श्रीवृद्धिमें जो योग दिया है , वह सर्वथा स्तुत्य है । श्रीभट्ट रस- साहित्यके मर्मज्ञ और भक्त कवि थे ।
श्री हरिव्यास देवजी महाराज
खेचरि नर की सिष्य निपट अचरज यह आवै । बिदित बात संसार संत मुख कीरति गावै ॥ बैरागिन के बूंद रहत सँग स्याम सनेही । ज्यों जोगेस्वर मध्य मनो सोभित बैदेही ॥ श्रीभट्ट चरन रज परस तें सकल सृष्टि जाकों नई । हरि ब्यास तेज हरि भजन बल देबी कों दीच्छा दई ॥
श्रीहरिव्यासजीने भगवद्भजनके तेज और बलसे देवीको भी मन्त्रोपदेश दिया था । अपनी दिव्यगतिसे आकाशमें विचरण करनेवाली देवी मनुष्यकी शिष्या बनीं , यह सुनकर नितान्त ही आश्चर्य होता है , किंतु यह सत्य है , सारे संसारमें यह बात प्रसिद्ध है एवं सन्तजन श्रीमुख से श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजीकी इस कीर्तिका गान करते हैं । परम स्नेही श्रीसर्वेश्वरभगवान्का डोला एवं संसारसे वैराग्यपूर्वक भगवान् श्रीश्यामसुन्दरके श्रीचरण कमलोंमें अनुराग करनेवाले विरक्त महात्माओंका समूह सदा ही आपके साथ बना रहता था । विरक्तोंके बीचमें आपकी ऐसी शोभा होती थी , जैसे नौ योगेश्वरोंके बीच श्रीविदेहराज जनक शोभा पाते थे । अपने सद्गुरुदेव श्रीभट्टदेवाचार्यजीके श्रीचरणकमलरजके स्पर्श के प्रतापसे श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजीके सम्मुख समस्त सृष्टिके लोग सिर झुकाते थे ॥
श्रीहरिव्यासदेवजीके विषय में विवरण इस प्रकार है
श्रीनिम्बार्क सम्प्रदायमें परम वैष्णव आचार्य श्रीहरिव्यासदेवजी बहुत ऊँचे सन्त हो गये हैं । आपका जन्म गौड़ ब्राह्मणकुलमें हुआ था । आपने श्रीभट्टजीसे दीक्षा ली थी । पहली बार जब आप दीक्षाके लिये श्रीगुरुचरणोंमें गये , उस समय श्रीभट्टजी गोवर्धनमें वास कर रहे थे और युगलसरकार श्रीप्रिया - प्रीतमको गोदमें बिठाकर लाड़ लड़ा रहे थे । श्रीभट्टजीने पूछा - ' हरिव्यास ! हमारे अंगमें कौन विराजते हैं ? ' हरिव्यासजी बोले , ' महाराज ! कोई नहीं । ' इसपर श्रीभट्टजीने कहा - ' अभी तुम शिष्य होनेयोग्य नहीं हो , अभी बारह वर्षतक श्रीगोवर्धनकी परिक्रमा करो । ' गुरु - आज्ञा प्राप्तकर आपने बारह वर्षतक परिक्रमा की । तत्पश्चात् फिर गुरुसमीप आये । गुरुदेवने फिर वही प्रश्न किया और इसपर उन्होंने वही पुराना उत्तर दिया । पुनः बारह वर्ष श्रीगोवर्धनकी परिक्रमा करनेकी आज्ञा हुई । आज्ञा शिरोधार्यकर श्रीहरिव्यासदेवने पुनः बारह वर्षतक परिक्रमा की । तदुपरान्त गुरु - आश्रममें आये और आचार्यकी गोदमें प्रिया - प्रियतमको देखकर कृतकृत्य हो चरणोंमें लोट गये । अब इन्हें योग्य जान आचार्यने दीक्षा दी ।
गुरुदेव श्री भट्टजीके आज्ञानुसार आपने ' युगलशतक ' पर संस्कृतमें भाष्य लिखा । स्वामीजीने संस्कृतमें कई मूलग्रन्थ भी लिखे । इनमें ' प्रसन्नभाष्य ' मुख्य है । ' दशश्लोकी ' के अन्यान्य भाष्यों से इसमें विशेषता यह है कि बदके तत्त्वनिरूपणके अतिरिक्त उपासनापर काफी जोर दिया गया है । व्रजभाषामें ' युगल - शतक ' नामक पुस्तकमें आपके सौ दोहे और सौ गेय ' पद ' संगृहीत हैं , जो मिठासमें अपना जोड़ नहीं रखते । ऊपर दोहेमें जो बात संक्षेपमें कही है , वही नीचे ' पद में विस्तारसे कही गयी है । इस सम्प्रदायमें ' युगलशतक ' पहली ही हिन्दी
रचना है , शायद इसीसे इसे आदिवाणी कहते हैं और ये ही सर्वप्रथम उत्तरभारतीय सम्प्रदायाचार्य है । इनमें पहले के सभी आचार्य शायद दाक्षिणात्य थे स्वामीजी इस सम्प्रदायमें उस शाखाके प्रवर्तक है , जिसे ' रसिकसम्प्रदाय ' कहते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण के शृंगारी रूपकी उपासना ही इनका सर्वस्त्र है । श्रीहरियादेवजीका इतना प्रभाव हुआ कि श्रीनिम्बार्कसम्प्रदायकी इस शाखाके सन्तोंको तबसे लोग ' हरिव्यासी ' ही कहने लगे । वैष्णवों के चारों सम्प्रदायोंमें इस सम्प्रदायके सन्त अब भी ' हरिव्यासी ' ही कहलाते हैं ।
एक बार श्रीहरिव्यासदेवजी साथ में संतोंकी जमात लिये हुए विचरते विचरते ' बटथावल ' नामक ग्राम पहुँचे । वहाँ एक बागमें जल - चलका सब सुपास देखकर आप बड़े प्रसन्न हुए , और उस बागमें ही उतरकर स्नान , भजन , पूजन आदि नित्यकृत्य करके रसोई करने का विचार किया । उस बागमें ही एक देवीका मन्दिर था । उसी समय किसीने देवी की प्रसन्नता के लिये एक बकरेको लाकर देवीके सम्मुख वध किया । यह चीभत्स दृश्य देखकर किसीने जलतक नहीं पिया सब संत भूखे ही रह गये । दिन बीता , रात्रि आ गयी । उपवासपूर्वक श्रीहरिस्मरणये भक्तिका तेज तो बढ़ा , पर भागवतापराधके कारण देवी प्रतिमाका तेज नष्ट हो गया , अतः देवी भक्तके तेजसे एकदम अभिभूत हो गयीं । उन्होंने घबड़ाकर तुरंत नवीन देह धारणकर आकर आपका एवं सब संतोका दर्शन किया और अत्यन्त नम्रतापूर्वक बोलीं- आपलोग रसोई बनाइये । भूखे क्यों बैठे हैं ? आपने उत्तर दिया- अब रसोई कौन करे ? पहले करनेका विचार तो था , परंतु यहाँ की स्थिति देखकर मनकी और ही दशा हो गयी । देवीने कहा- जिसके निमित्तसे आपलोगोंको ऐसी खिन्नता प्राप्त हुई , वह देवी मैं ही हूँ । आज मैंने भक्तिका तेज देखा , अतः अब कृपा करके मुझे भी भक्तिका दान दीजिये और अपनी शिष्या बना लीजिये ।
देवीकी प्रार्थना सुनकर श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजीने उन्हें शिष्या बनाया । मन्त्रोपदेश श्रवण करनेके उपरान्त देवीजी अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक नगरको दौड़ी गई और वहाँ जाकर जो उस नगरका प्रमुख था , उसको खाटसमेत भूमिपर पटक दिया । तत्पश्चात् उसकी छातीपर चढ़कर सूक्ष्मरूपसे उसकी जिह्वापर बैठकर उसके ही मुखसे कहने लग कि मैं तो श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजीकी शिष्या हो गयी हूँ । तुमलोग भी शीघ्र उनका शिष्यत्व ग्रहण करो । यदि तुमलोग उनका शिष्यत्व नहीं स्वीकार करोगे तो मैं अभी - अभी सबको मार डालूँगी देवीका उग्र आदेश सुनकर वे परम हिंसक भी डरकर सब के सब आकर आपके शिष्य हो गये । एक दिन एक चाण्डाल आपकी शरण में आया और सद्गतिके लिये प्रार्थना की आपने उसे भी भक्तिरसका अधिकारी बनाया ।
श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका वर्णन अपने कवित्तोंमें इस प्रकार किया है
चटथावल गाँव बाग देखि अनुराग भयौ लयौ नित्त नेम करि चाहँ पाक कीजिये । देवीको स्थान काहू बकरा ले मारयौ आनि देखत गलानि इहाँ पानी नहिं पीजिये ॥
भूख निसि भई भक्ति तेज मिड़ गई नई देह धरि लई आय लखि पति भीजिये । ' करौ जू रसोई ' ' कौन करै कछु और भई ' ' सोई मोकों दीजै दान शिष्य करि लीजिये ' ।।
करी देवी शिष्य सुनि नगरको सटकी यो पटकी ले खाट जाकी बड़ी सरदार है । चढ़ी मुख बोलै हौं तो भई हरिव्यासदासी जौ न दास होहु तौ पै अभी डारौं मार है ।
आये सब भृत्य भए मानौ नए तन लए गए दुःख पाप ताप किए भय पार है । कोक दिन रहे नाना भोग सुख लहे एक श्रद्धाकै स्वपच आयो पायौ भक्तिसार है ।।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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