श्रीविठ्ठलदाससुत श्री रंगीरायजी
विट्ठलदास जी के पुत्रका नाम रंगीराय था । श्रीराणासाहबकी एक पुत्री उनकी शिष्या थी । जब उसने सुना कि हमारे गुरुदेवजोको उनके पिताने न्यौछावरमें किसी नटिनी को दे दिया तो उसे बड़ा दुःख हुआ , उसने एकदम अन्न - जलका परित्याग कर दिया । राणासुताने उस नटिनीको संदेश कहलाया कि जितना धन चाहो उतना हमसे ले लो , परंतु मेरे श्रीगुरुदेवजीको मुझे वापस कर दो । उस नटिनीने उत्तरमें कहा कि द्रव्य की मुझे किंचिन्मात्र भी चाहना नहीं है , हाँ मैं रीझकर तो अपना तन - मन तथा सर्वस्व दे सकती हूँ । तब राणाकी पुत्रीने श्रीविठ्ठलदासजीसे पुनः समाज कराने की प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना मानकर श्री विठ्ठल दासजीने दुबारा समाज किया उसमें राणाकी पुत्रीने स्वयं भी नृत्य किया । उसके नृत्य पर रीझकर औरकी तो बात ही क्या स्वयं वह नटिनी भी न्यौछावरमें उसे बहुत सा द्रव्य देने लगी , परंतु उसने नहीं लिया । वह नटिनी श्रीरंगीरायजीका सुन्दर शृंगार करके उन्हें एक डोलेमें बिठाकर सभामें लायी और उन्हें श्रीठाकुरजीके द्वारपर ले जाकर न्यौछावर करके राणासुताको भेंट किया । जब राणासुताने उन्हें लेनेके लिये हाथ बढ़ाया तो उन्होंने कहा कि मैं तो मनमोहन श्रीकृष्णचन्द्र के न्यौछावर हो चुका हूँ , अतः तुम मुझे मत लो । परंतु प्रेमार्त उनकी शिष्या राणासुताने उन्हें ले ही लिया । इस प्रकार राणाकी पुत्रीका अभीष्ट सिद्ध तो हो गया , लेकिन दूसरे ही क्षण श्रीरंगीरायजीने अपना तन त्याग दिया । ऐसे श्रीरंगीरायजीको एवं उनकी - सी निष्ठाको कोई कहाँ पा सकता है ।
श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है
करें सेवा पूजा और काम नहिं दूजा जब फैलि गई भक्ति भये शिष्य बहु भायकै । बड़ोई समाज होत मानों सिंधु सोत आये विविध बधाये गुनी जन उठै गायकै ॥ आई एक नटी गुण रूप धन जटी वह गावै तान कटी चटपटी सी लगायकै । दिये पट भूषन लै भूख न मिटत किहूँ चहूँ दिसि हेरि पुत्र दियो अकुलायकै ॥
' रंगीराव ' नाम ताकी सिष्या एक राना सुता भयो दुःख भारी नेकु जलहूँ न पीजियै । कहि कै पठाई वासों चाहौ सोई धन लीजै मेरो प्रभु रूप मेरे नैननि कूँ दीजियै ॥ अव्य तौ न चाहाँ रीझि चाहाँ तन मन दियौ फेरिकै समाज कियौ विनती कौ कीजिये । जिते गुनी जन तिनै दियो अनगन दाम पाछे नृत्य कस्यौ आप देत सो न लीजियै ॥
ल्याई एक डोलामें बैठाय रंगीराय जू को सुन्दर सिंगार कही बार तेरी आइयै । कियाँ नृत्य भारी जो विभूति सो तौ वारि लिये भरि अंकवारी भेंट किये द्वार गाइयै ॥ ' मोहन न्यौछावर मैं भयौ मोहि लेहु मति ' लियौ उन शिष्य तन तज्यौ कहा पाइयै । की जू चरित्र बड़े रसिक विचित्रन को जो पै लाल मित्र कियौ चाहाँ हिये ल्याइयै ।।
श्रीनारायण भट्ट जी महाराज
गोप्य स्थल मथुरा मंडल जिते बाराह बखाने । ( ते ) किए नरायन प्रगट प्रसिध पृथ्वी में जाने । भक्ति सुधा को सिंधु सदा सतसंग समाजन । परम रसमय अनन्य कृष्ण लीला को भाजन ॥ ग्यान समारत पच्छ को नाहि न कोड खंडन बियो । ब्रजभूमि उपासक भट्ट सो रचि पचि हरि एकै कियो ॥
उपासना करनेवाला पुराण ही बनाया प्रभाव से वे सभी तो यह हो गये थे भी सखा भक्त भगवाने बहुत परिक्षम करके एक ( रासी कोस ) के जितने का वर्णन किया गया है , ल उन सभी तीर्थको प्रकट और सिद्धा तथा दो है और सारी पृथ्वी लोग जानते हैं आप भक्तिरसामृत के समुद्र सन्तोंके समाज में विराजमान होकरसोग किया करते थे आप परम रसज्ञ , अनन्य निष्ठावान् तथा श्रीकृष्णको धारण करनेके लिये उत्तम पात्र एवं निचलीलाके पात्र थे । शुष्कज्ञान तथा फोरे करके स्थापना करनेवाला आपके समान दूसरा कोई नहीं हुआ ॥
श्रीनारायणभट्टजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है
श्रीनारायणभट्टजीका जन्म दक्षिण भारतके मदुरानगरमें वैशाख शु ० १४. सं ० १५८८ वि ० को हुआ था । आपके पिताका नाम श्रीभास्करभट्ट और माताका नाम यशोमति था । यथासमय उपनयन संस्कार होनेके बाद आपने अपने पितृव्य श्रीशंकरभट्टजीसे वेद - वेदान्त आदि शास्त्रोंका अध्ययन करना प्रारम्भ किया और बारह वर्षकी अवस्थामें ही उसे पूर्ण कर लिया । भगवान् श्रीराधा - माधव और ब्रज - वृन्दावनके प्रति अनुरागपूर्ण भक्तिभाव आपमें बचपनसे ही था ।
एक दिन आप श्रीगोदावरीजीमें स्नान करके स्तोत्रपाठ करते हुए युगलसरकारका ध्यान कर रहे थे । उसी समय प्रिया प्रियतम श्रीराधा - माधवजीने प्रकट होकर आपको दर्शन दिया और उपासना- रहस्योपदेशके साथ - साथ यह आदेश दिया कि तुम शीघ्र ही ब्रज जाकर मेरी लीलास्थलियोंका प्रकाश करो । यह कहकर श्रीभगवान्ने आपको अपना ' लाडिलेय ' नामक बालस्वरूपवाला श्रीविग्रह प्रदान किया और कहा कि इसकी सेवा - पूजासे तुमको व्रजलीलाके रहस्योंका बोध हो जायगा । इस अलौकिक घटनाके उपरान्त आप ब्रजमें निवास करने और लुप्त तीर्थोंका प्राकट्य करनेके लिये घरसे चल दिये और ढाई वर्षतक तीर्थाटन करके वि ० सं ० १६०२ में आप व्रज पहुँचे । श्रीव्रजधाम पहुँचनेपर सर्वप्रथम आप श्रीगोवर्धनके समीपस्थ श्रीराधा कुण्ड गये , जहाँ चैतन्यमतानुयायी श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीने इन्हें अपने सम्प्रदायमें आत्मसात् किया । इस प्रकार श्रीनारायण भट्टजीने श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीजीसे सम्प्रदाय के सिद्धान्तों एवं उपासना - रहस्यका अध्ययन किया । तदुपरान्त आपने भगवान्की आज्ञाका स्मरणकर व्रजके लुप्त तीर्थोंका उद्धार करनेका निश्चय किया । सर्वप्रथम आपने श्रीराधाकुण्ड और श्यामकुण्डको प्रकट करानेकी योजना बनायी ; परंतु उस समय कोई आपकी बातका विश्वास ही नहीं कर रहा था । तब आपने एक स्थानपर दस हाथकी गहराईतक धरतीका उत्खनन कराया तो वहाँ दहीसे भरे एक मृण्मय पात्रकी प्राप्ति हुई और टूटी सीढ़ियाँ भी दिखीं , जिससे लोगोंको आपकी बातका विश्वास हो गया । फिर तो आप सम्पूर्ण व्रजमण्डलमें घूम - घूमकर तीर्थोंको प्रकटित कराने लगे । व्रजवासी भी इसमें आपको पूर्ण सहयोग देते थे । उस समय अकबर दिल्लीका बादशाह था , वह भी आपके कार्योंसे अत्यन्त प्रभावित हुआ , अतः उसने अपने कोषाध्यक्ष राजा टोडरमलको आपकी सेवामें भेजा । श्रीटोडरमलजीके द्वारा सेवाकी प्रार्थना करनेपर आपने कहा कि यदि आपका विशेष प्रेम है तो मैंने जिन जिन तीर्थोको प्रकट किया है , उनका स्वरूपानुरूप आप निर्माण करा दीजिये । टोडरमलजीने सहर्ष आज्ञा स्वीकार की और तीर्थोंका सुन्दर ढंगसे निर्माण करा दिया । आपने श्रीबरसाने ग्राममें श्रीश्रीजी ' और ऊँचे गाँवमें श्रीरेवतीरमण बलभद्रजी ' के विग्रहोंका प्राकट्य किया था । इन विग्रहों की सेवा पूजा आप स्वयं किया करते थे । आपने बारह वर्षतक श्रीराधाकुण्डपर तथा शेष जीवन ऊँचेगाँवमें निवास करते हुए व्यतीत किया और श्रीवामन जयन्तीको गोलोक प्रस्थान कर गये ।
आपके द्वारा किये गये कतिपय महत्त्वपूर्ण कार्योंका विवरण इस प्रकार है ( १ ) मथुरा - मण्डलके गोप्य तीर्थोंका उद्धार , ( २ ) व्रजके वन - उपवन , तीर्थों , देवी - देवताओंकी महिमा तथा भगवान् श्रीकृष्णकी भक्तिके प्रचारार्थ महान् ग्रन्थोंका प्रणयन , ( ३ ) रासलीला - अनुकरणका सर्वप्रथम प्राकट्य , रास - प्रचार तथा रास - मण्डली का निर्माण , ( ४ ) वन - यात्रा तथा ब्रज - यात्राका प्रारम्भ , ( ५ ) श्रीरेवतीरमण बलदेव और लाडलीस्वरूपकी प्रतिष्ठा और ( ६ ) कीर्तनपद्धतिमें ' समाज ' का आयोजन । आपने अनेक ग्रन्थोंका प्रणयन भी किया , जिनमें कुछ इस प्रकार हैं ( १ ) ब्रजदीपिका , ( २ ) ब्रजभक्तिविलास , ( ३ ) ब्रजप्रदीपिका , ( ४ ) ब्रजोत्सवचन्द्रिका , ( ५ )ज ब्रजमहोदधि , ( ६ ) ब्रजोत्सवाहादिनी , ( ७ ) बृहत्वजगुणोत्सव , ( ८ ) ब्रजप्रकाश , ( ९ ) भक्तभूषणसन्दर्भ , ( १० ) भक्तिविवेक , ( ११ ) भक्तिरसतरंगिणी , ( १२ ) साधनदीपिका , ( १३ ) रसिकाहादिनी टीका , ( १४ ) प्रेमांकुर नाटक , ( १५ ) लाडिलेयाष्टक , ( १६ ) धर्मप्रवर्तिनी , ( १७ ) सिद्धान्तचूडामणि , ( १८ ) नीतिश्लोकानि , ( १ ९ ) बजरत्नदीपिका , ( २० ) भक्तिरहस्य , ( २१ ) राधाविनोदकाव्यस्य टीका एक बार आप मधुरामें विराजमान थे । माघका महीना था , बहुतसे लोग तीर्थराज प्रयागमें श्रीत्रिवेणीस्नानको जा रहे थे । आपने उन लोगोंसे कहा कि चलो , मैं दिखाऊँ , श्रीत्रिवेणीजी तो ब्रजमें ही हैं । फिर आप सब लोग अन्यत्र कहाँ जा रहे हैं ? तब लोगोंने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि ' व्रजमें त्रिवेणी कहाँ है ? ' आपने कहा- ' ऊँचे गाँवमें । ' फिर आप सबको साथ लिवा लाये एवं भूमि खोदकर श्रीत्रिवेणीजीके तीन स्रोत सबको प्रत्यक्ष दिखा दिये ।
श्रीप्रियादासजीने इन घटनाओंका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है
भट्ट श्रीनारायन जू भये व्रजपारायन जायँ जाही ग्राम तहाँ व्रत करि ध्याये हैं । बोलिकै सुनावँ इहां अमुकौ स्वरूप है जू लीला कुण्ड धाम स्याम प्रगट दिखाये हैं । ठौर ठौर रासकै विलास लै प्रकास किये जिये यों रसिक जन कोटि सुख पाये हैं । मधुराते कही चलौ बेनी पूछ बेनी कहाँ ऊँचे गाँव आप खोदि स्रोत लै लखाये हैं ॥
श्रीब्रजबल्लभ भट्ट जी महाराज
नृत्य गान गुन निपुन रास में रस बरषावत । अब लीला ललितादि बलित दंपतिहि रिझावत ॥ अति उदार निस्तार सुजस ब्रज मंडल राजत । महा महोत्सव करत बहुत सबही सुख साजत ॥ श्रीनारायन भट्ट प्रभु परम प्रीति रस बस किए । ब्रजबल्लभ बल्लभ परम दुर्लभ सुख नैननि दिए ॥
श्रीब्रजबल्लभजी सभीको अत्यन्त प्यारे थे , क्योंकि आपने सभीके नेत्रोंको रासलीलाका परम दुर्लभ सुख प्रदान किया । आप नृत्य - गानादि गुणोंमें बड़े प्रवीण थे । रासलीलामें आप अपने कौशलसे रसकी वर्षा करते थे प्राणियोंका और श्रीललितादि सखियोंके सहित दम्पती श्रीयुगलकिशोरको रिझाया करते थे । आप स्वभावसे बड़े उदार तथा निस्तार करनेवाले थे । आपका सुयश सम्पूर्ण व्रजमण्डलमें व्याप्त तथा शोभायमान है । आप बहुत - से महोत्सव करते थे , जिसमें सभीको परम सुख मिलता था । आपने श्रीस्वामी नारायण भट्टजीको अपने प्रेमरससे वशमें कर लिया था ॥
श्रीब्रजवल्लभभट्टजीके विषय में विशेष विवरण इस प्रकार है
भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त श्रीब्रजबल्लभजी भट्ट श्रीनारायण भट्टजीके समकालीन सन्त थे । आपने श्रीनारायण भट्टजीके रास - प्रचार कार्यमें अपूर्व सहयोग किया । एक बार आप रासलीलाके प्रसंगमें श्रीललिता सखीका स्वरूप धारणकर श्रीप्रिया - प्रियतमको रिझाने के लिये राधा - माधव युगलसरकारके गुणोंका गान करते हुए रसमय नृत्य कर रहे थे , अचानक आपके पेटमें असहा पीड़ा होने लगी , रंगमें भंग हो गया । आप रासमण्डलसे शृंगारघरमें चले आये और ' हा कृष्ण ' , ' हा कृष्ण ' पुकारते हुए पीड़ासे व्याकुल होकर लेट गये । आपको अपने पेट दर्दसे अधिक पीड़ा इस बातसे थी कि मैं श्रीप्रिया प्रियतमकी यथोचित सेवा नहीं कर सका । सर्वान्तर्यामी भक्तवत्सल भगवान्ने उनके अन्तर्मनकी बात जान ली और तत्काल आपका वेष धारणकर रासमण्डलमें विराजमान श्रीराधा - कृष्णस्वरूपके आगे पूर्ववत् नृत्य करने लगे । उस समय रासमण्डलमें ऐसा आनन्द छाया कि सभी लोग चित्रलिखितसे हो गये , सबका शरीर पुलकायमान हो गया तथा सबके नेत्र प्रेमाश्रुओंसे छलछला उठे । उधर एक सेवक श्रीब्रजबल्लभजीको दवा देकर रासमण्डलमें आया तो देखा कि वे यहाँ नृत्य कर रहे हैं । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ , वह पुनः शृंगारघरमें आया तो देखा श्रीब्रजवल्लभजी पीड़ासे कराह रहे हैं और ' हा कृष्ण ' , ' हा कृष्ण ' पुकार रहे हैं । यहाँसे जब वह पुनः रासमण्डलमें गया तो देखा कि वहाँ तो ब्रजबल्लभजी प्रेमोल्लासमें आनन्दमग्न हो नृत्य कर रहे हैं । दोनों जगह वह आपको देखकर आश्चर्यचकित हो गया , सहसा तो उसे अपनी आँखोंपर विश्वास ही नहीं हो रहा था , फिर वह शृंगारघरमें आया और आपसे रासमण्डलमें हो रहे अद्भुत नृत्यका समाचार बताया । आपने किसी प्रकार पौड़ाको दबाकर धैर्य धारण किया और रासमण्डलमें आये और वहाँका दृश्य देखा तो आपकी भी आँखें फटीकी फटी रह गयीं , परंतु इस रहस्यको समझनेमें आपको देर न लगी कि स्वयं प्रभु ही मेरा रूप धारणकर नृत्य कर रहे हैं । प्रभुकी इस कृपावत्सलताको देख आप आनन्दाधिक्यमें मूर्च्छित हो गये । दूसरे दिन जब चैतन्य हुए तो आपने इस रहस्यका उद्घाटन किया ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
Sanatan vedic dharma
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