Kshem Gosain ji

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श्री क्षेम गुसाई जी महाराज 

      


                           के मंगलमय चरित्र 

रघुनंदन को दास प्रगट भूमंडल जाने । सर्बस सीताराम और कछु उर नहिं आनै ॥

 श्रीक्षेम गुसाईजीके सम्बन्ध में विशेष विवरण इस प्रकार है


 श्रीक्षेमदासजी श्रीगुरु रामदासजीके शिष्य थे , आपकी प्रभु श्रीसीतारामजीमें अनन्य भक्ति थी । एक बार आपको श्रीरामदर्शनकी प्रबल लालसा जगी , आप प्रभु - वियोगमें रात - दिन आँसू बहाते रहते । यहाँतक कि अन्न - जल भी छूट गया । यह देखकर श्रीहनुमान्जीको इनपर बड़ी दया आयी । उन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीसे इन्हें दर्शन देने की प्रार्थना की । श्रीहनुमानजीकी प्रार्थना और आपके प्रेमसे द्रवीभूत श्रीराघवेन्द्रसरकारने प्रकट होकर आपको दर्शन दिये और वरदान माँगनेको कहा । आपने प्रभुसे उनकी अनन्य भक्ति माँगी और सेवा करनेके लिये उनके आयुधद्वय धनुष - बाण माँगे । भगवान् श्रीराम वरदानस्वरूप इन्हें अपने धनुष - बाण देकर अन्तर्थान हो गये । उसी दिनसे आप प्रभुके धनुष - बाणकी आरती पूजा करते और उनका दर्शन करके अपने आराध्यके दर्शनका सुख पाते थे । एक बार चोर उन धनुष - बाणोंको चुरा ले गये । अब तो आपने उनके विरहमें अन्न - जलका ही परित्याग कर दिया । लोगोंने बहुत समझाया कि वैसे ही दूसरे धनुष - बाण बनवा दिये जायेंगे , आप भोजन कीजिये , परंतु आप तो उन आयुधोंको साक्षात् अपने इष्टदेव प्रभु श्रीरामजीका ही प्रतीक समझते थे तो भला दूसरे धनुष - बाणसे उनकी क्या समता । फलतः आपने किसीकी एक न सुनी और अन्न - जल ग्रहण करना स्वीकार न किया । आपके इस अनन्य अनुरागको देखकर भगवान्‌के परम दिव्य चिन्मय आयुध ( धनुष - बाण ) अपने - आप आकर इनके हृदयसे लग गये और इन्हें आश्वासन दिया कि अब कोई चोरीके भावसे यदि हमें स्पर्श करेगा तो हम पहाड़की तरह भारी हो जायेंगे । तब इन्होंने प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजाकर अन्न - जल ग्रहण किया ।

 एक बार आपके एक शिष्यने उन धनुष - बाणोंको चुराना चाहा , परंतु लाख कोशिश करनेपर भी वह उन्हें उठा नहीं सका । तब वह अपनी करनीपर बहुत लज्जित हुआ और प्रातःकाल आपके चरणों में प्रणामकर अपने हृदयको दुर्भावना और धनुषका चमत्कार सब इनसे निवेदन किया और क्षमा माँगी । आपने कहा कि तुम चोरीकी नीयतसे उन्हें उठाना चाहते थे , इसीलिये वे नहीं उठे , अब जाकर सद्भावपूर्वक उठाओ तो वे फूलको भाँति उठ जायेंगे । आपके कहनेपर शिष्यने सद्भावपूर्वक धनुषका स्पर्श किया और सचमुच वह फूलका हा भारत उठ गाया । 


 श्रीक्षेमगुसाईंजी महाराजकी श्रीसीतारामजीमें अनन्य निष्ठा थी ; किसी अन्य देवी - देवताकी सेवा पूजा क्या , उससे कोई सहायता लेना भी इन्हें स्वीकार नहीं था । आप प्रायः कहा करते थे 

बनै तो रघुबर ते बने के बिगर भरपूर तुलसी बने जो और ते ता बनिये में धूर ॥ 

एक बार श्रीहनुमानजीने इनकी अनन्यताकी परीक्षा लेनेके लिये एक अवधूतका वेश धारण किया और भैरवकी एक सुवर्ण प्रतिमा लेकर इनके पास आये और बोले - महाराजजी । आप इस प्रतिमाको रख लीजिये , जब आपको धनकी आवश्यकता हो तो इसके हाथ - पैर काट लीजियेगा और उन्हें विक्रय करके धनकी प्राप्ति कर लीजियेगा , इसके हाथ - पैर पुनः अपने - आप उत्पन्न हो जायेंगे । यह कहकर उन अवधूतवेशधारी श्रीहनुमान्‌जीने उस प्रतिमाका आपको चमत्कार भी दिखलाया । सोनेका वहाँ ढेर लग गया । अवधूतने कहा आप इसे रख लीजिये । इसपर आपने मना करते हुए कहा कि मुझे सोना या धनकी आवश्यकता होगी तो मैं अपने राघवेन्द्रसरकारसे माँग लूँगा , किसी यक्ष या भैरवमूर्तिसे मैं सुवर्णकी आशा क्यों करूँ ? अवधूतने कहा - रख लीजिये , आपकी कुटीमें किसी कोनेमें पड़ी रहेगी , आपने कहा - ' जब मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है , तो मैं ऐसी व्यर्थकी वस्तुओंका क्यों संग्रह करूँ ? ' अवधूतने कहा- ' इस मूर्तिसे प्राप्त धनसे आप सन्त - सेवा कर सकते हैं , आखिर सन्त सेवाके लिये भी तो धनकी आवश्यकता होती ही है ? ' इस प्रकार अवधूतद्वारा बार - बार तर्क करने और मूर्ति रखनेका आग्रह करनेसे आप उद्विग्न हो उठे और एक डण्डा लेकर यह कहते हुए मारने दौड़े कि तू कौन कपटी है , जो मुझे मेरी निष्ठासे डिगाना चाहता है ? भाग जा यहाँसे , नहीं तो मारकर कचूमर निकाल दूँगा ।


एक बार कुछ पाखण्डी लोग संन्यासीका वेष धारणकर आपके पास आये और आपसे धनकी माँग करने लगे । आपने कहा कि मैं तो अकिंचन साधु हूँ , मेरी कुटीमें आपकी आवश्यकताका जो कुछ हो , वह आप ले लीजिये , परंतु वे लोग हठपूर्वक इनको मारनेका उपक्रम करने लगे । यह देख इन्होंने श्रीहनुमान्जीका स्मरण किया । फिर क्या था । इनमें हनुमान्जीका आवेश आ गया और इन्होंने अकेले ही सबको मार भगाया । 


श्री विठ्ठल दास जी महाराज के पावन चरित्र 

 तिलक दाम सों प्रीति गुनहिं गुन अंतर धार्यो । भक्तन को उत्कर्ष जनम भरि रसन उचार्यो ॥

सरल हृदै संतोष जहाँ तहँ पर उपकारी । उत्सव में सुत दान कियौ क्रम दुसकर भारी ॥ हरि गोबिंद जै जै गुबिंद गिरा आनंददा । बिठलदास माथुर मुकुट भयो अमानी मानदा ॥

 श्रीविट्ठलदासजी मथुराके चतुर्वेदी ब्राह्मणोंमें सिरमौर हुए । आप स्वयं सर्वथा अभिमानशून्य रहते दूसरोंको सम्मान देते थे । वैष्णवताके प्रतीक ऊर्ध्वपुण्ड् तिलक , श्रीतुलसीकी कण्ठी - माला आदिसे आप अत्यन्त प्रेम करते थे तथा सबमें गुण - ही - गुण देखते थे एवं सबके अवगुणोंपर दृष्टिपात न करके सबके गुणोंको हृदयमें धारण करते थे । आपने जीवनभर भक्तोंकी ही महिमाका जिह्वासे गान किया । आप परम सरल हृदय तथा सन्तोषी थे एवं सदा सर्वत्र परोपकारमें रत रहा करते थे । आपने भगवान्‌के उत्सवमें पुत्रदानरूपी अत्यन्त महान् कर्म किया , जो औरोंके लिये असम्भव है । आपकी जिह्वासे सदा सर्वदा हरि गोबिंद जै जै गुबिंद ' का उच्चारण होता रहता था , जिसे सुनकर सबको परमानन्द प्राप्त होता . था ॥ 

 श्रीविठ्ठलदासजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है मथुरापुरीके चतुर्वेदी ब्राह्मणोंमें दो ब्राह्मण भाई उदयपुरके राणाके पुरोहित थे । एक बार धनके बँटवारेको लेकर दोनों भाई आपसमें लड़कर मर गये । उन्हींमेंसे एकके पुत्र श्रीविठ्ठलदासजी थे । ये बचपन से ही भगवान्‌को हृदयमें बसाये हुए थे । एक दिन सभामें राणा साहबने कहा- पिताके मरनेके बाद वह ब्राह्मण कुमार कभी भी सभामें नहीं आता है , उसे शीघ्र बुला लाओ । राजकर्मचारियोंने आकर श्रीविठ्ठलदासजीसे कहा कि चलो , राणा साहब तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण कर देंगे । तब उन्होंने कहा कि भगवत्कृपासे मेरे सब मनोरथ पूर्ण हो गये हैं , अतः अब तो मैं एकमात्र भगवद्भजनको छोड़कर और कहीं आना - जाना नहीं चाहता । कर्मचारियोंने इनका सन्देश राजाको सुनाया । राजाने इन्हें पुनः यह कहकर बुलवाया और प्रार्थना की कि आज रात्रिमें भगवन्नाम संकीर्तनपूर्वक जागरण हमारे ही यहाँ हो । श्रीविठ्ठलदासजी साधुओंको साथ लेकर राणा साहबके यहाँ पहुँचे । इनके प्रेमकी परीक्षा करनेके लिये राणाने कुछ दुष्टोंके बहकावे में आकर जागरणके लिये महलकी तीसरी मंजिलकी छतपर बिछौना बिछवाया । सभी लोग प्रेमपूर्वक कीर्तन तथा नृत्य करने लगे । नाचते - गाते श्रीविठ्ठलदासजीको प्रेमावेश आया तो ये बेसुध होकर नृत्य करते हुए छतपरसे गिरकर नीचे पृथ्वीपर आ पड़े । यह देखकर राणाका मुँह एकदम उदास हो गया , वह दुष्टोंको गारी देने लगा कि इनके कहनेसे ही मैंने ऐसा किया और फलस्वरूप इतना महान् अनर्थ हो गया । साधुलोग श्रीविठ्ठलदासजीको गोदमें उठाकर घर ले आये । राणाने अपने अपराधके प्रायश्चित्त तथा इनकी वृद्ध माताकी जीविकाके निमित्त इनकी माताको बहुत - सा द्रव्य भेंटमें दिया तीन दिनतक इनका शरीर मूच्छित पड़ा रहा । तीन दिन बाद जब वैष्णवोंने आपको जगाया तो शरीरकी सुधि हुई , आप उठकर बैठ गये । भगवत्कृपासे किसी अंग मे चोट नहीं आयी थी । मूर्च्छा तो प्रेमजन्य थी । 

मूर्च्छा दूर होनेपर जब श्रीविठ्ठलदासजी उठे तो माताने सब हाल कह सुनाया । उसे सुनकर इन्हें असह्य दुःख हुआ , ये रात्रिमें घरसे निकल पड़े । घूमते - फिरते छठीकरा गाँवमें आकर श्रीगरुड़ गोविन्द भगवान्‌की सेवा - पूजा करने लगे और फिर वहीं रहने लगे ।

भक्तमाल के टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराजने इस घटनाका अपने कवितोंमें इस प्रकार वर्णन किया भाई उभै माथुर सुराना के पुरोहित है , लरि मरे आपस में जियो एक जाम है । ताको सुत विठ्ठल सुदास सुखरासि हिये लिए बैस थोरी भयो बड़ी सेवै स्याम है । बोल्यो नृप सभा मध्य ' आवत न विप्र सुत छिन लेके आयी ' कहीं कहया पूरी काम है । फेरिक बुलायी ' करी जागरन याही ठौर ' , काहू समझाया ' गाव नाचे प्रमधाम है ' ॥ 

गए संग साधुनि लै बिनै रंग रंगे सब राना उठि आदर दै नीके पथराये हैं । किये जा बिछौना तीनि छत्तनिके ऊपर लै नाचि गाय आये प्रेम गिरे नीचे आये है । राजा मुख भयो सेत दुष्टनि को गारी देत सन्त भरि अंक लेत घर मथि ल्याये हैं । भूप बहु भेंट करी देह वाही भाँति परी पाछे सुधि भई दिन तीसरे जगाये है ॥ 

 उठे जय मायने जनाय सब बात कही सही नहीं जात निसि निकसे विचारिक । आये यों छठीकरा में गरुड़ गोविन्दसेवा करत मगन हिये रहत निहारिकै ॥ राजाके जे लोग सु तो बृंद्धि करि रहे बैठि तिया मात आई करे रुदन पुकारिकै किये लै उपाय रही किती हा हा खाय ये ती रहे मँडराय तब बसी मन हारिक ।। 

छठीकरा ( गरुड़ गोविन्द ) - निवासकालमें एक बार इनका शरीर दुखी हो गया । इनके शारीरिक काटको देखकर भगवान् श्रीगरुड़ गोविन्दजीने स्वप्न में आदेश दिया कि तुम मथुरा चले जाओ । भगवान्ने तीन दिन लगातार इस प्रकारका स्वप्नादेश दिया । तब ये माता और पत्नीको लेकर मथुरा चले आये , जहाँपर इनकी जाति - बिरादरीके लोग रहते थे । परंतु इन्होंने देखा तो वहाँ कुछ और ही रंग छा रहा था । हाँ , एक बढ़ई अवश्य ऐसा था , जो सदा साधु - संगकी अभिलाषा करता था । उसकी सज्जनताको देखकर ये उसीके घर रहने लगे ।

श्रीप्रियादासजी महाराजने श्रीविठ्ठलदासजीके प्रति बढ़ईके दिव्य भावका इस प्रकार वर्णन किया है 

देख्यो जब कष्ट तन प्रभू जू स्वपन दियी ' जावी मधुपुरी ' ऐसे तीन बार भाषियै । आये जहाँ जाति पाँति छाये कछु और रंग देख्यो एक खाती साधु संग अभिलाखियै ॥ तिया रहे गर्भवती सती मति सोचरती खोदि भूमि पाई प्रतिमा सुधन राखियै । खातीको बुलाय कही , ' लही , यहु लेहु तुम ' उन पाँय परि कह्यौ रूप मुख चाखियै ॥ 

 अब श्रीविठ्ठलदासजी सदा भगवान्की सेवा पूजामें लगे रहते थे । धीरे - धीरे जब आपकी भक्ति चारों ओर फैल गयी तो बहुत से लोग प्रेमपूर्वक आकर आपके शिष्य बन गये । आपके यहाँ रसिकजनों तथा गुणी गायकजनाँका बहुत बड़ा समाज एकत्रित होता था । एक बार ऐसे ही समाजके अवसरपर गुणीजनोंने बधाईके विविध पद गाये । सब लोग आनन्दसे झूम रहे थे । इस बीच वहाँ रूप - गुण - धनसे जटित एक नटी आयी और भगवान्के सामने नृत्य - गान करने लगी । जब वह विविध मूर्च्छनाओंकि साथ कटीली तानसे सबके हृदय में प्रेमकी चटपटी सी उत्पन्न करती हुई गाने लगी तो उसके कौशलपर रीझकर श्रीविठ्ठलदासजीने प्रेमसे व्याकुल होकर अपने पुत्रको ही भगवान्‌के ऊपर न्यौछावर करके उस नटीको दे दिया

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma 

bhupalmishra35620@gmail.com 

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