Sri Diwakar ji श्री विट्ठलनाथ जी महाराज

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                श्री दिवाकर जी के पावन चरित्र 



 उपदेश नृपसिंह रहत नित आग्याकारी । पक्व बृछ ज्यों नाय संत पोषक उपकारी ॥ बानी भोलाराम सुहृद सबहिन पर छाया । भक्त चरन रज जाचि बिसद राघौ गुन गाया ॥ करमचंद कस्यप सदन बहुरि आय मनो बपु धरयो । अग्यान ध्वांत अंतहि करन द्वितिय दिवाकर अवतरयो ।। 


 जीवों के हृदयके अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये श्रीदिवाकर भक्तजी मानो दूसरे सूर्यके समान हुए । आपने बड़े - बड़े रजोगुणी , क्रूर प्रकृतिके राजा - महाराजाओं को उपदेश देकर भक्ति - पथपर आरूढ़ किया । ये सब सदा सर्वदा आपकी आज्ञाका पालन करनेमें तत्पर रहते थे । जिस प्रकार परिपक्व फलोंके भार वृक्ष नम्र हो जाते हैं , उसी प्रकार आप अपने सद्गुणों के कारण अत्यन्त विनयशील थे । बड़े ही सद्भावपूर्वक भगवत्प्रसादान्न एवं उपदेशामृतसे सन्तोंका पालन - पोषण करते थे तथा प्राणिमात्रके उपकारमें तत्पर रहते थे । आप बात - बातमें ' भोलाराम ' इस प्रकारका उच्चारण करते थे । सबके शुभचिन्तक तथा सबपर कृपा रखते थे । भक्तोंकी चरणरजको ही अपना सर्वस्व समझकर उसीकी कामना याचना करते थे । आपने आजीवन भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके परमोज्वल गुणोंका गान किया । आपके पिता श्रीकर्मचन्दजो मानो साक्षात् प्रजापति श्रीकश्यपजी थे , उनके घर मानो साक्षात् सूर्यभगवान् ही पुनः भक्त श्रीदिवाकरजीके रूपमें प्रकट हुए ॥ 


 श्रीदिवाकरजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है

 श्रीदिवाकरजीका जन्म राजस्थानके देवासा ग्राममें हुआ था । उनके पिता श्रीकर्मचन्द वैश्य परम भगवद्भक्त थे । श्रीदिवाकरजीको पितामही भी बड़ी उदारहृदया और साधु - सेवी थीं । इस प्रकार श्री दिवाकरजीमें भक्तिके संस्कार उनके रक्तमें ही विद्यमान थे । श्रीसीतारामजी आपके इष्ट और श्री अग्रदेवाचार्यजी आपके गुरु थे । आपके जन्मके बाद ही आपके पिता श्रीकर्मचन्दजीने गृहस्थाश्रमका परित्यागकर श्री अनन्तानन्दाचार्यजीसे विरक्त दीक्षा ले ली थी और अपना सारा जीवन भगवत् भागवत सेवामें ही बिताया । आपके यहाँ सन्तोंका आगमन प्रायः बना ही रहता था । श्रीदिवाकरजीमें श्रीसन्त - सेवाके प्रति बड़ी निष्ठा है । धीरे - धीरे आपके यहाँ सन्त - सेवाका कार्य तो बढ़ता गया , पर वाणिज्य व्यापारकी तरफ प्रवृत्ति घटती गयी ; फलस्वरूप अर्थाभाव हो गया । फिर भी दिवाकरजीकी उदारता और साधु - सेवामें कोई कमी नहीं आती थी । जब भी कभी घरमें सीधा सामग्रीका अभाव होता , आप अपनी गुदड़ी किसी वणिक्के यहाँ गिरवी रखकर सामान लाते और जब पैसोंकी व्यवस्था हो जाती , तो उसे छुड़ा लाते । एक बार आपके घरपर बीस सन्तोंकी एक मण्डली आ गयी । घरपर कुछ सीधा - सामान था नहीं , अतः आपने अपनी गुदड़ी एक वणिक्के यहाँ गिरवी रख दी और उससे खाद्य सामग्री लाकर सन्तोंका सत्कार किया । संयोगकी बात , इस बार पैसोंकी व्यवस्था न हो सकी और आप गुदड़ी छुड़ा न पाये । धीरे - धीरे समय बीतता गया , शीत ऋतु आ गयी , फिर कड़ाकेकी सर्दी पड़ने लगी । एक दिन आप सर्दीसे काँपते हुए वणिक्के यहाँ गये और उससे निवेदन किया कि मुझे शीत ऋतु भरके लिये गुदड़ी वापस कर दो , जैसे ही पैसेकी व्यवस्था होगी , मैं आपका कर्ज चुका दूँगा ; परंतु गुदड़ी वापस करनेकी कौन बात भी नहीं की । भगवदिच्छा समझ आप वापस लौट आये । रातमें कहे , वणिक्ने पैसेके बिना इनसे सीधे ठण्डके मारे नींद नहीं आ रही थी , तो आप थर - थर काँपते हुए बैठे - बैठे भगवन्नाम संकीर्तन करने लगे । भगवान्से भक्तका यह क्लेश देखा न गया । वे स्वयं एक रजाई लेकर आये और चुपचाप इन्हें ओढ़ा दिया । दूसरे दिन वणिक्ने जब इन्हें नयी रजाई ओढ़े देखा तो क्रोधमें भरकर बोला कि मेरे पैसे तो दिये नहीं और अपने लिये नयी रजाई बनवा ली । ऐसा कहकर उस निर्दयी वणिक्ने इनकी रजाई छीन ली । रातमें ये फिर घर - थर काँपते भगवन्नाम संकीर्तन करने लगे , ठण्डके कारण नींद तो आ नहीं रही थी । भगवान् फिर आये और एक नयी रजाई ओढ़ाकर चले गये । अगले दिन वणिक्ने इनके पास फिर नयी रजाई देखी तो वह आश्चर्यचकित हो गया । उसने जब ' रजाई कहाँसे आयी ? ' पूछा तो आपने सब सच - सच बता दिया । भगवत्कृपाका यह प्रत्यक्ष चमत्कार देखकर वणिक् बहुत लञ्जित हुआ और चरणों में गिरकर बार - बार क्षमा माँगी तथा उनकी गुदड़ी और रजाई लाकर वापस कर गया । धीरे - धीरे यह चर्चा पूरे गाँवमें फैल गयी । फिर क्या ! गाँववालोंने इनका खूब सम्मान किया और सभी लोग इनके शिष्य बन गये 


           श्री विट्ठलनाथ जी के पावन चरित्र 

 राग भोग नित बिबिध रहत परिचर्या तत्पर । सय्या भूषन बसन रचित रचना अपने कर ॥ वह गोकुल वह नंदसदन दीछित को सोहै । प्रगट बिभव जहँ घोष देखि सुरपति मन मोहै ॥ बल्लभ सुत बल भजन के कलिजुग में द्वापर कियो । बिठलनाथ ब्रजराज ज्यों लाल लड़ाय कै सुख लियो ॥

 गोसाई श्रीविठ्ठलनाथजीने व्रजेश्वर श्रीनन्दबाबाकी ही तरह श्रीबालकृष्णभगवान्‌को वात्सल्य भावसे अत्यन्त लाड़ - प्यार करके परम सुख प्राप्त किया । आप नित्य प्रति श्रीठाकुरजीकी सेवामें अनेक प्रकारके सामयिक पदोंका गायन एवं उत्तमोत्तम नैवेद्य समर्पणपूर्वक अष्टयाम सेवामें ही तल्लीन रहते थे । आप अपने हाथसे ही श्रीठाकुरजीका वस्त्राभूषणोंसे शृंगार करते थे एवं शयनके लिये शय्या सजाते थे अर्थात् समस्त सेवा स्वयं ही करते थे । द्वापर युगमें श्रीगोकुल एवं श्रीनन्दबाबाके महलकी जो शोभा थी , वह शोभा दाक्षिणात्य दीक्षितब्राह्मण श्रीविठ्ठलनाथजीके समयमें भी श्रीगोकुल एवं उनके भवनकी थी । जिस प्रकार द्वापरयुगमें श्रीगोकुलके गोपोंका ऐश्वर्य देखकर देवराज इन्द्र मोहित हो जाते थे , उसी प्रकारका वैभव श्रीविठ्ठलनाथजीके समयमें भी श्रीगोकुलमें था । सारांश यह है कि श्रीमद्वल्लभाचार्यजीके पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजीने भगवद्भजनके बलसे कलियुगमें भी द्वापर कर दिया था ॥ 

 गोस्वामी श्रीविठ्ठलनाथजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है


 गोसाई श्रीविठ्ठलनाथजीकी महिमाका बखान असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । वे श्रीवल्लभाचार्य महाराजके पुष्टि सिद्धान्तोंके भाष्यकार थे । उनकी कीर्तिसुधाके अपार पारावारमें अष्टछापके महाकवि सूरदास , कुम्भनदास आदिने राजरानी भक्तिका अभिषेक करके भागवत धर्मकी जो विजयिनी पताका फहरायी , वह अनन्तकालतक व्रजक्षेत्र में लहराकर स्वर्गको पृथ्वीपर उतर आनेके लिये चुनौती देती रहेगी । श्रीविठ्ठलनाथके जीवनकालमें भक्ति रसमयी हो उठी , श्रीकृष्ण प्रेमसे सर्वथा सराबोर हो उठी । उन्होंने महाप्रभु वल्लभाचार्यकी प्रेमलक्षणा भक्तिकी आयु दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ा दी । अष्टछापके कवियोंने उनके प्रति जो अगाध श्रद्धाभक्ति अपनी रचनाओं में प्रकट की है , वह उनकी परमोत्कृष्ट भगवदीयताकी परिचायिका , है । श्रीविठ्ठलनाथ महाप्रभु वल्लभके शुद्धाद्वैतदर्शनके भक्तिप्रतीक थे । 


     श्रीगोसाई विट्ठलनाथ महाप्रभु वल्लभके द्वितीय पुत्र थे । उनके प्रकट होनेपर केवल तैलंगकुल ही नहीं पवित्र हुआ , अपितु समस्त भारतदेश पवित्र और कृतार्थ हो गया । उनका जन्म संवत् १५७२ वि ० में काशी के निकट चरणाट ( चुनार ) में हुआ । उनके पिता श्रीवल्लभ नवजात शिशुको अपने पूर्व निवासस्थान अड़ैल ले आये और वहाँ उन्होंने उनके आवश्यक संस्कार कराये । भाग्यशाली विट्ठलके प्राकट्यपर महाकवि सूरने मंगलगीत गाया था । गोकुलमें नन्दमहोत्सव मनाया गया था । कलियुगके जीवोंके उद्धार और सन्तोंके प्रतिपालनके लिये ही उनका जन्म हुआ था । संवत् १५८० वि ० में अड़ैलमें उनका यज्ञोपवीत हुआ । अपने पिताकी तरह वे भी गृहस्थ थे , उन्होंने दो विवाह किये थे , पहली पत्नीका नाम रुक्मिणी और दूसरीका पद्मावती

था । उनके जीवनका अधिकांश गोवर्धन और गोकुलमें व्यतीत हुआ । अपने पिताद्वारा निर्धारित भगवानकी आठ झाँकियोंके अनुरूप विधिवत् सेवा करके भक्तिरसामृतका आस्वादन करनेको ही उन्होंने श्रेयमार्ग स्वीकार किया ।

 संवत् १५८७ वि ० में श्रीवल्लभके गोलोक - प्रयाणके बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र श्रीगोपीनाथजी उत्तराधिकारी हुए । थोड़े ही समयके बाद उनका भी लीलाप्रवेश हो गया । गोपीनाथजीकी विधवाने अपने पुत्र श्रीपुरुषोत्तमका पक्ष लिया । कृष्णदास अधिकारीने भी उन्हींका साथ देकर श्रीविठ्ठलनाथका ड्योढ़ी - दर्शन बन्द कर दिया । वे श्रीनाथजीके विरहमें सहिष्णुतापूर्वक अपने दिन बिताने लगे । ये परासोली चले गये और वहाँसे श्रीनाथजीके मन्दिरके झरोखेकी ओर देखा करते थे । उनकी पताकाको नित्य नमस्कार कर लिया करते थे । परासोलीमें रहते समय उन्होंने श्रीनाथजीके वियोगमें जो रचना की , वह ' विज्ञप्ति ' नामसे प्रसिद्ध है । जब उनके पुत्र गिरिधरजीने मधुराके हाकिमसे शिकायत करके कृष्णदास अधिकारीको कैद करवा दिया , तब गोसाईंजीने अन्न - जलका त्याग कर दिया । कृष्णदासके मुक्त होनेपर ही उन्होंने भोजन किया । इस सहानुभूतिका कृष्णदासपर बड़ा प्रभाव पड़ा । उन्होंने गोसाईंजीसे क्षमा माँगी और उनके उत्तराधिकारको मान्यता दी ।

 श्रीविठ्ठलनाथजीने पुष्टिमार्गके विकास और प्रगतिमें बड़ा योग दिया । उन्होंने श्रीकृष्णकी भक्तिप्राप्ति में अपनी कलाकारिता , काव्यमर्मज्ञता , संगीतनिपुणता और चित्रकारिताका सदुपयोग करके असंख्य जीवोंको भवसागरके पार उतार दिया । भगवद्भक्ति तो उनकी सहज सिद्ध सम्पत्ति थी । महाकवि सूर , नन्ददास , कुम्भनदास , परमानन्ददास , चतुर्भुजदास , छीतस्वामी , गोविन्ददास , कृष्णदासकी कविताको अष्टछापकी पवित्र गद्दीपर प्रतिष्ठितकर उन्होंने भक्तिका रसराजत्व सिद्ध किया । अष्टछाप उनकी कीर्तिकी अमर लता है । बादशाह अकबर और उनके सभासदस्य मानसिंह , बीरबल आदि उनका बड़ा सम्मान करते थे । राजा आसकरण , महारानी दुर्गावती तथा अन्य भगवदीय जीवोंने उनके यशकी गंगामें अपना परलोक बना लिया । अकबरने गोकुल और गोवर्धनकी भूमि उन्हें निःशुल्क दे दी थी । श्रीगोसाईं विट्ठलनाथने गुजरातकी भी यात्रा की थी , उस क्षेत्र में भागवत धर्मका प्रचार किया था । उनके २५२ वैष्णव शिष्य बहुत ही प्रसिद्ध हैं । वास्तवमें वे मंगलरूप निधान थे । नन्ददास आदि काव्य - महारथियोंने एक स्वरसे उनकी चरणधूलिकी अलौकिकताका बखान किया है ।


 संवत् १६४२ वि ० में गोवर्धनकी एक कन्दरामें प्रवेशकर उन्होंने अपनी जीवन लीला समाप्त की । गोसाईं विट्ठलनाथका जीवन चरित्र भगवान् श्रीकृष्णके लीला - सौन्दर्यका दर्शन - बोध है । उनका भगवान् श्रीकृष्णके प्रति वात्सल्यपूर्ण पुत्रभाव और श्रीश्रीजीके प्रति पुत्रवधूभाव था । भगवान् और श्रीश्रीजी भी उनके भावकी रक्षा करते हुए वैसी ही लीला करते थे ।

 एक बार आप अपने बालरूप ठाकुरजीकी सेवा कर रहे थे , अचानक ठाकुरजीको एक बन्दर दिखायी दे गया और वे डरकर आपकी गोदमें छिप गये । यह देखकर आपको बड़ी शंका हुई कि एक छोटे से बन्दरको देखकर जब ये डर गये तो त्रेतायुगमें पर्वताकार वानर - भालुओंको साथ लेकर इन्होंने रावण - कुम्भकर्णादि भयंकर राक्षसोंसे युद्ध कैसे किया होगा ? आपके सन्देहको देखकर ठाकुरजीने आपको स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा- गुसाईंजी ! आप तो मुझे अपना छोटा - सा पुत्र मानते हैं , सो छोटा बालक तो बन्दरको देखकर डर जाता ही है और वह उस समय यदि अपने माता या पिताके पास होता है तो उनकी गोदमें छिप जाता है , बालककी इस क्रियासे उन्हें आनन्द भी आता है , अतः उसी आनन्दकी अनुभूति करानेके लिये मैं आपकी गोदमें छिप गया था । रही त्रेतायुगकी बात तो उस समय ऋषि - मुनियोंने मुझे साक्षात् ईश्वर समझा था , मेरा वह रूप असुर संहारक था , अतः मैंने उस समय वैसी लीला की थी । ठाकुरजीकी इस कृपापर आप गद्गद हो गये ।


 श्री श्रीजीकी भी आपपर इसी प्रकारकी कृपा थी । एक बार आपके घर एक चूड़ी पहनानेवाली आयी । आपके सात पुत्र और सात पुत्रवधुएँ थीं , अतः आपने कहा कि सभी वधुओंको चूड़ी पहना दो और पैसे मुझसे ले लेना । आपका श्रीठाकुरजीमें पुत्रभाव था , अतः श्रीश्रीजी भी अपने आपको आपकी पुत्रवधू ही मानती थीं ।इसलिये जब आपको सातों पुत्रवधुओंने चूड़ी पहन ली तो श्रीराधिकाजीने चूड़ी पहनने के लिये चुड़िहारिसके सामने अपने कर - कमल बढ़ा दिये । सौन्दर्य के सारे उपमान मिलकर भी जिन हाथोंकी उपमा नहीं दे सकते उन्हें अपने सम्मुख देख चुहारिन तो सहसा भाव - विभोर हो उठी । कुछ देर बाद जब होश आया तो जैसे तैसे चूड़ी पहना पायी । इसके बाद जब चुड़िहारिन आपसे पैसे माँगने आयी तो विचित्र स्थिति हो गयी । चुहारिन कहती कि मैंने आठ पुत्रवधुओंको चूड़ी पहनायी है और आप कहते मेरे तो सात ही पुत्र हैं , पुत्रवधुएँ कहाँसे आयी , अन्ततः थोड़े से पैसोंकि लिये क्या विवाद करना सोचकर आपने आठके पैसे दे दिये । रातमें श्रीश्रीजीने स्वप्न में कहा - ' क्या आप मुझे अपनी पुत्रवधू नहीं मानते हैं ? मैंने भी तो चूड़ी पहनी थी , फिर आप आठका पैसा क्यों नहीं दे रहे थे ? आपने ही तो कहा था कि सब पुत्रवधुओंको चूड़ी पहना दो इसीलिये मैंने भी चूड़ी पहन सी ' श्रीश्रीजीके वचनोंको सुनकर आप आनन्दविभोर हो गये । इसी प्रकार आपके विविध चरित्र हैं , जिनमें श्रीठाकुरजी तथा श्रीश्रीजीने आपके वात्सल्यभावको स्वीकार किया है ।


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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