Sri Tripur das ji गर्व से कहो हम हिंदु है ।

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                           श्री त्रिपुरदास जी महाराज 

            के जीवन चरित्र 


गोस्वामी श्रीविठ्ठलनाथजीके कृपापात्र श्रीत्रिपुरदासजी थे । 

इनका चरित्र संक्षेपमें इस प्रकार है श्रीत्रिपुरदासजी 


भक्त श्रीत्रिपुरदासजी गुसाई श्रीविठ्ठलनाथजीके कृपापात्र सद्गृहस्थ सन्त थे । आप ब्रजमण्ड शेरगढ़के निवासी थे । आपका जन्म कायस्थवंशमें हुआ था और आपके पिता शेरगढ़ रियासतके यवन राजमन्त्री थे । इतना सब होते हुए भी आपकी प्रवृत्ति विषय - भोगोंकी ओर न होकर प्रभु - भक्तिकी और थी । एक बार आप अपने पिताजीके साथ आगरासे आ रहे थे । मार्गमें श्रीगोवर्धनजीमें रुककर आत श्रीश्रीनाथजीका दर्शन किया । श्रीठाकुरजीका दर्शन करके आप ऐसे आनन्दमग्न हुए कि आपने वहीं रुकनेदा मन बना लिया । पिताजीने बार - बार समझाया , परंतु इन्होंने घर जाने से इनकार कर दिया । अन्तमें वे ही घरके लिये चल दिये और आप श्रीठाकुरजीकी मधुर झाँकीके दर्शनके लिये वहीं रुके रहे । परंतु दुर्भाग्यव कुछ दुष्टोंने आपके पिताजीको रास्ते में ही मार डाला । यद्यपि यह अत्यन्त दुःखद समाचार था , आपको हार्दिक कष्ट तो हुआ , परंतु आपने इसमें भी भगवान्का मंगलमय विधान ही माना । अब आप गृह - परिवा आदिके बन्धनोंसे मुक्त होकर केवल श्रीनाथजीका दर्शन करते और उसीमें आनन्दमग्न रहते । एक दिन आप प्रेममयी दशामें आनन्दमग्न थे तो गुसाई श्रीविठ्ठलनाथजी महाराजकी आपपर दृष्टि पड़ी । आपको अधिकारी जीव जानकर उन्होंने परिचय पूछा । आपने आचार्यश्रीके चरणोंमें प्रणिपातकर साष्टांग प्रणाम किया और अत्यन्त दीनतापूर्वक कहा - ' प्रभो ! मैं मातृ - पितृहीन सर्वथा अनाथ बालक हूँ , अपनी चरण - शरण लेकर मुझे सनाथ करें । ' आचार्यश्री आपकी प्रभु - भक्ति और विनम्रता देखकर बहुत प्रसन्न हुए और आपको विधिपूर्वक दीक्षा देकर ब्रह्मसम्बन्धकी प्रतष्ठा की । कुछ दिनतक आप श्री श्रीनाथजीकी सेवामें श्रीगोवर्धनवीर रहे , तत्पश्चात् श्रीगुसांईजीकी आज्ञा मानकर आप पुनः घर आ गये और भक्तिमय जीवन व्यतीत करते घरपर ही निवास करने लगे । यवनराजको जब आपके गृह - आगमनकी जानकारी हुई तो कुछ कृतज्ञता 

वश  और कुछ आपकी योग्यतासे प्रभावित हो , उसने आपको बुलाकर राजमन्त्री बना दिया । 


         श्रीत्रिपुरदासजी राजमन्त्री बन तो गये , पर जो अनन्त ब्रह्माण्डोंके स्वामीका सेवक रहा हो , उससे किसी तुच्छ यवन राजाकी चाकरी भला कैसे हो सकती थी ; फिर प्रभु भी भला अपने सेवकको अन्य किसीकी सेवा कैसे देख सकते थे । अन्यायी यवनराजकी चाटुकारिता आपसे हो नहीं सकी , अतः उसने द्वेषवश आपका सर्वस् अपहरण कर लिया और मंत्रिपदसे हटा दिया । इस प्रकार आपको लौकिक बन्धनोंसे पुनः मुक्ति मिल गयी । 


आपकी श्रीआचार्य महाप्रभु तथा श्रीश्रीनाथजीके चरणामृतप्रसादमें बड़ी ही निष्ठा थी ,  बिना चरणामृतप्रसाद लिये आप अन्न - जल कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे । संयोगकी बात , एक दिन जब आप भोज करने गये तो रसोइयेने कहा कि आज चरणामृतप्रसाद एकदम समाप्त हो गया है , यह सुनते ही आप यह कहते हुए वापस चले गये कि बिना चरणामृतप्रसाद ग्रहण किये तो मैं अन्न - जल ग्रहण करूंगा नहीं , तुमलोग का भोग लगाकर प्रसाद पा लेना । भक्त भूखा रहे तो भगवान्को भला भोग कैसे प्रिय लग सकता है । त्रिपुरदासजीकी नियमनिष्ठा , चरणामृतप्रसादके प्रति प्रेम देखकर भगवान् स्वयं एक दस वर्षके बालक बन गये और तीन थैलियाँ लेकर रसोइयेके पास आये और बोले- ' भण्डारीजी । ये तीन थैलियाँ श्रीत्रिपुरदासजीने भिजवायी हैं , इनमें एकमें श्रीश्रीनाथजीका महाप्रसाद , दूसरीमें उनका चरणामृतप्रसाद और तीसरी थैलीमें आचार्य श्रीका चरणामृतप्रसाद है । रसोइयेने थैलियाँ ले ली और बालरूप भगवान् चलते बने । 


श्रीठाकुरजीका भोग लग जानेपर रसोइयेने श्रीत्रिपुरदासजीको बुलानेके लिये भेजा परंतु वे न आये , कई बार बुलानेपर आये तो खिन्न भावसे कहने लगे कि मैंने तो पहले ही कह दिया था कि बिना चरणामृतप्रसाद ग्रहण किये मैं एक कण भी मुखमें नहीं रखेंगा , फिर आप लोग क्यों बार - बार बुला रहे हैं ? यह सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए रसोइयेने कहा - ' आप ही ने तो एक बालकके हाथ तीन थैलियोंमें चरणामृतप्रसाद और महाप्रसाद भेजा था , फिर ऐसी बात क्यों कह रहे हैं ? ' अब आश्चर्यचकित होनेकी बारी त्रिपुरदासजीकी थी , उन्होंने कहा- मैंने तो किसीसे चरणामृतप्रसाद नहीं भेजा था , कौन लाया ? कहाँ है वह बालक ? रसोइयेने कहा - ' वह तो थैलियाँ देकर तुरंत चला गया था । ' अब आपको यह समझते देर न लगी कि करुणाविग्रह श्रीश्रीनाथजीने ही मेरे लिये यह कष्ट किया । प्रभुकी कृपा विचारकर वे गद्गद हो गये और उनकी आँखें अश्रुपूरित हो उठीं ।


 श्रीत्रिपुरदासजीने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि मैं प्रतिवर्ष शीतकालमें ठाकुर श्री श्रीनाथजीके लिये दगला ( अंगरखा ) भेजा करूंगा । तदनुसार ये अत्यन्त ही बहुमूल्य वस्त्रका दगला सिलवाते थे , फिर उसमें सुनहले गोटे लगवाते थे और बड़े प्रेमसे भेजते थे । यही कारण है कि इनका भेजा हुआ दगला ठाकुर श्रीनाथजीको अत्यन्त प्रिय लगता था और गोसाई श्रीविठ्ठलनाथजी भी उसे बड़े प्रेमसे श्रीठाकुरजीको धारण करवाते थे । कुछ कालोपरान्त इनका ऐसा समय आया कि राजाने इनका सर्वस्व अपहरण कर लिया । ये एक - एक आने और एक - एक दानेको मोहताज हो गये । इसी बीच शरद् ऋतु आ गयी । तब इन्हें श्रीठाकुरजीके लिये दगला भेजनेकी याद आयी , परंतु धनका सर्वथा अभाव होनेसे श्रीठाकुरजीकी सेवासे वंचि होने तथा प्रतिज्ञा - भंग होनेके दुःखसे इनकी आँखोंमें आँसू छलछला आये । एकाएक पीतलकी एक दावात इनकी नजरमें आयी , फिर तो मानो डूबतेको तिनकेका सहारा मिल गया हो । इन्होंने मनमें निश्चय किया कि इसीको बेचकर श्रीठाकुरजीकी सेवा करूँगा ।


  श्रीत्रिपुरदासजीने उस दावातको बाजार में बेचा , उससे उन्हें एक रुपया मिला । उस रुपयेसे इन्होंने केवल मोटे कपड़ेका एक थान खरीदा । फिर उस कपड़ेको लाल रंगमें रँगा । परंतु फिर भी इनका साहस नहीं हुआ कि ऐसे साधारण वस्त्रको लेकर हम कैसे श्रीगोसाईंजीके पास जायँ , अतः उसे घरमें ही रख लिया । सोचा था कि श्रीगिरिराजजीकी ओरसे कोई आयेगा तो उसके द्वारा भेजवा दूँगा । इसी बीच श्रीगोसाईजीका कोई सेवक अपने गाँवमें आया हुआ सहज ही दीख गया । फिर तो इन्होंने वह वस्त्र उस सेवकको देकर कहा- ' आप इसे भण्डारीजीको दे देना । यद्यपि यह वस्त्र श्रीगुसाईंजीके किसी दास दासीके भी पहननेयोग्य नहीं है तो भी मुझ दीनकी यह तुच्छ भेंट आप ले जाइये , परंतु एक बातका ध्यान रखियेगा , मेरी आपसे यह प्रार्थना है कि इस वस्त्रका समाचार श्रीगुसाईंजीको मत सुनाइयेगा ' । 


श्रीप्रियादासजी इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं

 कायथ त्रिपुरदास भक्ति सुख राशि भर्यो कर्यो ऐसो पन सीत दगला पठाइयै । निपट अमोलपट हिये हित जटि आवै तातें अति भावै नाथ अंग पहिराइयै ॥ आयो कोऊ काल नरपति नैं बिहाल कियौ भयौ ईश ख्याल नेकु घर मैं न खाइयै । वही ऋतु आई सुधि आई आँखि पानी भरि आई एक द्वाति दीठि आई बेचि ल्याइयै ॥ 

बेचिकै बजार यों रुपैया एक पायौ ताकौ ल्यायौ लोटौ थान मात्र रंग लाल गाइये । भीज्यो अनुराग पुनि नैन जल धार भीज्यो भीज्यो दीनताई धरि राख्यो और आइयै ॥ कोऊ प्रभु जन आय सहज दिखाई दई भई मन दियो लै ' भंडारी पकराइयै ' । काहू दास दासी के न काम कौ पै जाउ लै कै विनती हमारी जू गुसाईं न सुनाइयै ।। 

 उस सेवकने श्रीत्रिपुरदासजीके वस्त्रको लाकर भण्डारीके हाथमें दे दिया और उस भण्डारीने उस वस्त्रको बिछाकर उसके ऊपर श्रीठाकुरजीके शृंगारके और बढ़िया वस्त्र रख दिये । परंतु परम सनेही ठाकुर श्रीश्रीनाथजीसे भक्तके इस प्रेमोपहारकी उपेक्षा सही नहीं गयी , वे व्याकुल होकर बोले- मुझे बड़े जोरसे ठण्डक लग रही है , शीघ्र इसको दूर करनेका कोई उपाय करो । तब श्रीगुसाईंजीने बहुत से सुन्दर सुन्दर वस्त्र श्रीअंगपर ओढ़ाये । परंतु ठण्ड नहीं गयी । तब श्रीगुसाईंजीने अँगीठी जलायी । फिर भी ठण्ड दूर नहीं हुई । तब आपके ध्यान में आया कि किसी भक्तपर अनुग्रह करनेके लिये प्रभु यह लीला कर रहे हैं , अतः तुरंत ही सेवकको बुलाकर पूछा कि इस वर्ष किस - किसकी पोशाकें आयी हैं ? बही खोलकर सेवकने सबका नाम सुनाया , परंतु एक त्रिपुरदासजीका नाम नहीं लिया । 

गुसाई श्रीविठ्ठलनाथजीने कहा कि मैंने भक्त त्रिपुरदासका नाम तो सुना नहीं , क्या इस वर्ष इनके यहाँसे पोशाक नहीं आयी है ? सेवकने कहा- उनका सब धन नष्ट हो गया है , अतः उनके यहाँसे मोटे कपड़ेका एक थान आया है , मैंने उसे और पोशाकोंके नीचे बिछा रखा है । श्रीगुसाईंजी श्रीठाकुरजीके मनकी जान गये कि प्रेम प्रवीण प्रभु तो भक्तोंके भावको देखकर उनके प्रेमोपहारको सहर्ष स्वीकार करते हैं , आज्ञा दी कि उस कपड़ेको शीघ्र लाओ । सेवक अनमना - सा होकर उस कपड़ेको ले आया । तुरंत ही श्रीठाकुरजीके दर्जीको बुलाकर उस कपड़ेको नाप - साधकर कटवाकर अँगरखा सिलाया गया । श्रीगुसाईंजीने तुरंत उस अँगरखेको श्रीठाकुरजीके श्रीअंगमें धारण कराया , तब श्रीठाकुरजीने बड़े भावमें भरकर कहा कि अब हमारा जाड़ा दूर हो गया ।

 श्रीप्रियादासजी श्रीत्रिपुरदासजीके प्रति श्रीठाकुरजीके इस भावका इस प्रकार वर्णन करते हैं दियौ लै भंडारी कर राखे धरि पट वापै निपट सनेही नाथ बोले अकुलायकै । भये हैं जड़ाये कोऊ बेग ही उपाय करौ बिबिध उढ़ाये अंग वसन सुहायकै ॥ आज्ञा पुनि दई यों अँगीठी बारि दई फेर वही भई सुनि रहे अति ही लजायकै । सेवक बुलाय कही कौनकी कबाय आई सबैकी सुनाई एक वही ली बचायकै ॥ 

 सुनी न त्रिपुरदास , बोल्यो धन नास भयौ मोटो एक थान आयौ राख्यौ है बिछायकै । ल्यावो बेगि याही छिन मनकी प्रवीन जानि ल्यायो दुखमानि ब्योंति लई सो सिवायकै ॥ अंग पहिराई सुखदाई कापै गाई जाति कही तब बात जाड़ौ गयौ भरि भायकै । नेह सरसाई लै दिखाई उर आई सबै ऐसी रसिकाई हृदै राखी है बसायकै ॥ 

 हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

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