Sri khoji ji Maharaj _ नवीन भारतीय इतिहास

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  श्री पदारथ जी महाराज 



 श्रीपदारथजी महाराज बड़े ही उच्चकोटि के गृहस्थ सन्त थे । श्रीहरिभक्तिको आप समस्त पदार्थोंका सार और सन्तोंको भगवान्‌का प्रतिनिधि मानते थे । सन्तोंम ही नहीं , अपितु सन्तवेषमें भी आपकी बड़ी निष्ठा थी । एक बार एक ठग किसी सन्तसेवी वणिक्के यहाँ सन्तवेषमें रहने लगा , थोड़े ही दिनमें वह वणिक् परिवारका विश्वासपात्र बन गया । 

एक दिन मौका पाकर वह वणिक्का सारा मालमत्ता लेकर चम्पत हो गया । वणिक् - पत्नीके जब देखा कि तिजोरी खुली है और सारी धन - सम्पत्ति गायब है , तो वह चीख चीखकर रोने - चिल्लाने लगी । उसका रोना - चिल्लाना : सुनकर राजकर्मचारियोंने ठगका पीछा किया । जब ठगको अपने बचनेका कोई उपाय न सूझा तो वह आपके ही घरमें घुस आया । उसे राजकर्मचारियोंके भयसे भयभीत देखकर आपको कुछ दालमें तो काला लगा , पर सन्तवेषके प्रति निष्ठा होनेके कारण उसे अपने घरमें छिपा लिया और राजकर्मचारियोंके वापस चले जानेके बाद उससे सारी घटना सच - सच बतानेको कहा । समस्त वस्तुस्थितिसे अवगत होनेपर आपने वणिक्का सारा धन उसके घर भिजवा दिया और ठगको भगवान्का चरणामृत एवं प्रसाद दिया , जिससे उसकी बुद्धि शुद्ध हो गयी । इस प्रकार आपने अनेक कुमार्ग गामियोंको भगवद्भक्ति - पथका पथिक बना दिया 


श्री विमलानन्दजी महाराज 

श्रीविमलानन्दजी महाराज बड़े ही सिद्ध महापुरुष थे । नामके अनुरूप ही आपका हृदय बड़ा ही निर्मल था और आपके सम्पर्कमें आनेवाले प्राणी भी मनकी दुर्वासनाओंसे मुक्त हो जाया करते थे । आपके विषयमें यह कथा बहुत ही प्रसिद्ध है किसी नगरमें एक वणिक् रहता था , उसकी युवा कन्या अतीव लावण्यमयी थी । एक दिन वहाँके राजाकी दृष्टि उस कन्यापर पड़ी । वह राजा स्वभावसे ही विषयी और लम्पट था , अतः उसने उस कन्याको पकड़ लानेके लिये अपने कर्मचारियों को भेज दिया । बेचारा वर्णिक् क्या करता ! राजहठ और सत्तामदके समक्ष उसका वश ही क्या था ! फिर भी किसी - न - किसी प्रकार धर्मरक्षा तो करनी ही थी । निदान , निरुपाय होकर वह आपकी शरण में आया और सारी घटना बताकर रक्षा करनेकी प्रार्थना की । आपने उसे सान्त्वना दी और रक्षाका आश्वासन दे दिया । उधर जब राजाके कर्मचारी वणिक्के घरके पास पहुँचे तो सब के सब अन्धे हो गये , किसी प्रकार गिरते - पड़ते राजाके पास पहुँचे और सारी घटना सुनायी , परंतु वासनाके अन्धे अविवेकी राजाको कर्मचारियोंकी बातोंसे ज्ञान न हुआ और वह स्वयं वणिक्के यहाँके लिये चला । 

जब वह वणिक्के घरके पास पहुँचा तो उस दुष्टकी भी वही दुर्गति हुई । नेत्रोंकी ज्योतिके जानेपर उसकी आँखोंपर चढ़ा वासनाका परदा भी हट गया और अपनी भूलका बोध हुआ । जब उसे ज्ञात हुआ कि श्रीविमलानन्दजी महाराजने इस वणिक्की रक्षाका आश्वासन दे रखा है तो उसे सन्तकी शक्तिका भान हुआ और वह सीधा आकर आपके चरणोंमें गिर पड़ा तथा अपने अपराधके लिये क्षमा माँगी । आपने कृपा करके न केवल उसे क्षमा कर दिया , अपितु अपने उपदेशोंसे उसके जीवनकी दिशा भगवान् और भगवद्भक्तिकी ओर कर दी । इस प्रकार आपने बहुतसे भगवद्विमुखोंका कल्याण किया । 

                   श्री खोजी जी महाराज 

जतीराम रावल्य स्याम खोजी सँतसीहा । दल्हा पद्म मनोरत्थ रॉक द्यौगू जप जीहा ॥ जाड़ा चाचा गुरु सवाई चाँदा नापा । पुरुषोत्तम सों साच चतुर कीता मन कौ जिहि मेट्यो आपा ॥ मति सुंदर धीधांगश्रम संसार नाच नाहिन नचे । करुना छाया भक्ति फल ए कलिजुग पादप रचे ॥ 

श्रीभगवान्ने इन भक्तोंको वृक्षरूप रचा । इन सन्तरूपी वृक्षोंमें इनकी करुणा ही छाया है और इनकी भक्ति ही फल है । इनके ये नाम हैं- श्रीजतीरामजी , श्रीरावल्यजी , श्रीस्यामजी , श्रीखोजीजी , सन्त श्रीसीहाजी , श्रीदल्हाजी , श्रीपद्मजी , श्रीमनोरथजी , श्रीराँका बाँकाजी , श्रीधौगूजी , जो जिहासे निरन्तर भगवन्नाम जप किया करते थे । श्रीजाड़ाजी , श्रीचाचा गुरुजी , श्रीसवाईजी , श्रीचाँदाजी , श्रीनापाजी , भगवान् पुरुषोत्तमके सच्चे भक्त श्रीपुरुषोत्तमजी , श्रीचतुरजी , श्रीकीताजी , जिन्होंने अपने मनका अहं सर्वथा मिटा डाला था- इन सभी भक्तोंकी बुद्धि बड़ी सुन्दर थी । ये संसाररूपी रंगमंचपर श्रमरूपी श्री श्राद्ध आदि मृदंगके तालपर नहीं नये ॥ 

 इनमेंसे कतिपय भक्तोंके पावन चरित इस प्रकार वर्णित हैं- श्रीखोजीजी श्रीखोजीजी मारवाड़ राज्यान्तर्गत पालड़ी गाँवके निवासी थे । आप जन्मजात वैराग्यवान् और भगवदनुरागी होनेके कारण बचपनसे ही गृहकार्य में उदासीन और भगवद्भजन तथा साधुसंगमें रमे रहते थे । इससे आपके भाइयोंकी आपसे नहीं पटती थी और वे लोग आपको निकम्मा ही मानते थे । एक बार आपके गाँव में एक सन्तमण्डली आयी हुई थी , आप रात - दिन सन्तों की सन्निधिमें रहकर कथावार्ता और सत्संगमें लगे रहते थे । थोड़े समयके लिये भी आपका घर जाना न होता था । इसी बीच दुर्भाग्यसे एक दिन अचानक आपके पिताका स्वर्गवास हो गया । जब सारे और्ध्वदैहिक कार्य सम्पन्न हो गये तो भाइयोंने आपसे कहा कि पिताजीके अस्थिकलशको गंगाजी में प्रवाहित कर आओ , जिससे तुम भी पितृ ऋणसे मुक्त हो जाओ । घरसे गंगाजी बहुत दूर थीं , इसीलिये भाइयोंने जान - बूझकर आपके जिम्मे यह कठिन कार्य लगाया था ।

 इसपर आपने कहा वैष्णवजन भगवन्नामका जहाँ उच्चारण करते हैं , वहाँ गंगाजीसहित सारे तीर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं । भाइयोंने सोचा कि गृहकार्यसे उदासीन रहनेवाले ये पिताके अस्थिकलशको भी आलस्य वश गंगाजी नहीं ले जा रहे हैं तो जबर्दस्ती भेजा । आपने सन्तोंको साथ लिया और भगवन्नामकीर्तन करते हुए अस्थिकलश लेकर गंगाजीको चल दिये । मार्गमें आपको स्वर्णकलश लिये कुछ दिव्य नारियाँ दिखायी दीं । जब आप उनके समीपसे गुजरने लगे तो थे पूछने लगीं - ' भक्तवर । आप कहाँ जा रहे हैं ? ' आपने कहा- ' मैं पिताजीके अस्थिकलशको श्रीगंगाजी में प्रवाहित करने जा रहा हूँ । ' उन दिव्य नारियोंने कहा ' हम गंगा - यमुना आदि नादियाँ ही हैं , हम आपके ही निमित्त जल भरकर ले आयी हैं । 

आप अपने पिताजीके अस्थिकलशका यहीं विसर्जन कर दीजिये और स्वयं स्नानकर घर चले जाइये । ' आपने ऐसा ही किया और भाइयोंकी प्रतीतिके लिये एक कलश जल भी लेते गये । श्रीखोजीजीका गुरुप्रदत्त नाम श्रीचतुरदास था , गुरुके मनके भावकी खोज करनेके कारण श्रीगुरुदेवजीने

इन्हें ' श्रीखोजीजी ' की उपाधि प्रदान की । इस सम्बन्धमें कथा है कि एक बार आपके श्रीगुरुदेव लघुशंका करने गये , आप उनके हाथ - पैरकी शुद्धिके लिये जल लिये खड़े थे । श्रीगुरुदेव जब आपके पास आये तो हँसने लगे । आपने बड़ी विनम्रतासे पूछा - ' गुरुदेव ! आपके हँसनेका क्या कारण है , सेवकसे कोई भूल हो गयी है क्या ? ' इसपर गुरुदेव बोले - ' अरे ! तू कैसा शिष्य है , जो गुरुके मनकी बात नहीं जान सकता । जा , जब मेरे मनकी बात जान लेना तभी मेरे पास आना । '


 श्रीगुरुदेवकी आज्ञाके अनुसार आप गुरु - चरणोंका स्पर्शकर वहाँसे चल दिये । आपने बहुत से सन्तों महात्माओंसे गुरुदेवके मनकी बात पूछी पर कोई भी उत्तर देनेमें सक्षम न हुआ । अन्तमें एक दिन आपकी भेंट श्रीकबीरदासजीसे हो गयी , उनके समक्ष भी आपने बड़ी ही विनम्रतापूर्वक यही प्रश्न रखा । श्रीकबीरदासजी महाराज तो सिद्ध सन्त थे , उन्होंने तुरंत ही आपके श्रीगुरुदेवके मनकी बात जान ली और आपको बताया कि आपके गुरुदेव जब लघुशंका कर रहे थे तो उस मूत्र प्रवाहमें एक पीपलका फल भी आ गया था , उसे बहते देखकर आपके गुरुदेवको मनुष्य जीवनकी असारताका ध्यान आ गया । उन्होंने सोचा कि जबतक यह फल पीपलके पेड़में लगा था तो इसका अस्तित्व था , जब यह उस महाविटपसे पृथक् हो गया तो मूत्र प्रवाहमें बह रहा है । यही स्थिति मनुष्यकी भी है , जबतक वह परमपिता परमात्मासे जुड़ा है , तबतक कितना सुखी रहता है , जब वह उससे पृथक् होकर संसारमें आ जाता है , तो इसी प्रकार मूत्र प्रवाहमें बहता है , फिर भी अज्ञान और अहंकारवश अपनेको श्रेष्ठ समझता है - यही सोचकर उन्हें हँसी आ गयी ।


 श्रीकबीरदासजीसे इस प्रकार रहस्य - बोध प्राप्तकर आप पुनः श्रीगुरुदेवके पास आये और उनसे उपर्युक्त सारी बात बतायी । श्रीगुरुदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और बोले - ' तुमने मेरे मनके भावको खोज लिया , अतः आजसे तुम्हारा नाम ' खोजी ' प्रसिद्ध होगा ।

 ' श्रीखोजीजीके श्रीगुरुदेव भगवच्चिन्तनमें परम प्रवीण थे । उन्होंने अपने शरीरका अन्तिम समय जानकर अपनी मुक्तिके प्रमाणके लिये एक घण्टा बाँध दिया और सभी शिष्य सेवकोंसे कह दिया कि हम जब श्रीप्रभुकी प्राप्ति कर लेंगे तो यह घण्टा अपने - आप बज उठेगा । यही मेरी मुक्तिका प्रमाण जानना । परंतु आश्चर्य यह हुआ कि उन्होंने शरीरका त्याग तो कर दिया , परंतु घण्टा नहीं बजा । तब शिष्य - सेवकों को बड़ी चिन्ता हुई । श्रीगुरुदेवजीके शरीर त्यागके समय श्रीखोजीजी स्थानपर नहीं थे । ये बादमें आये जब इनको समस्त वृत्तान्त विदित हुआ तो जहाँ श्रीगुरुजीने लेटकर शरीर छोड़ा था , श्रीखोजीजीने भी वहीं पौढ़कर ऊपर देखा तो इन्हें एक पका हुआ आम दिखायी पड़ा । इन्होंने उस आमको तोड़कर उसके दो टुकड़े कर दिये । उसमेंसे एक छोटा - सा जन्तु ( कीड़ा ) निकला और वह जन्तु सबके देखते - देखते अदृश्य हो गया , घण्टा अपने - आप बज उठा । 

हुआ यूँ कि श्रीखोजीजीके गुरुदेव तो प्रथम ही प्रभुको प्राप्त कर चुके थे , यह सर्व प्रसिद्ध है । परंतु बादमें शरीर त्यागके समय अच्छा पका हुआ फल देखकर , भगवान्के भोगयोग्य विचारकर उनके मनमें यह नवीन अभिलाषा उत्पन्न हुई कि इसका तो भगवान्‌को भोग लगना चाहिये । भक्तकी उस इच्छाको भक्तवश्य भगवान्ने सफल किया ।


 भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी इस घटनाका वर्णन अपने कवित्तों में इस प्रकार करते हैं

 खोजीजू के गुरु हरि भावना प्रवीन महा देह अन्त समैं बाँधि घण्टासो प्रमानियै । पावैं प्रभु जब तब बाजि उठै जानौ यही पाये पै न बाजो बड़ी चिन्ता मन आनियै ॥ 

 तन त्याग बेर नहीं हुते फेरि पाछे आये वाही ठौर पौढ़ि देख्यौ आँब पक्यौ मानिये । तोरि ताके टूक किये छोटौ एक जन्तु मध्य गयौ सो बिलाय बाजि उठो जग जानियै ॥ ३ ९९ ।। शिष्यकी तौ योग्यताई नीके मन आई अजू गुरुकी प्रबल ऐपै नेकु घट क्यों भई । सुनौ याकी बात मन बात वति गति कही सही लै दिखाई और कथा अति रसमई ॥ ये तौ प्रभु पाय चुके प्रथम प्रसिद्ध पाछे आछो फल देखि हरि जोग उपजी नई । इच्छा सो सफल श्याम भक्तवश करी वही रही पूर पच्छ सब बिथा उरकी गई ॥ ४०० ॥ इस प्रकार श्रीखोजीजीमें सन्तनिष्ठा और गुरुभक्तिका अपूर्व संगम परिलक्षित होता है । आपने अपना सारा जीवन सन्त - भगवत्सेवामें बिताया ।      


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