Harinabh ji _ गर्व से कहो हम हिंदु है ।

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          श्री अधार जी महाराज 



 भारतवर्ष का असली इतिहास तो यहां है । एक आदमी को किसी ने कह दिया कि तुम्हरा कान कौवा लेकर भागा रहा है । बस क्या था वह आदमी कौवा खदेङने लगा । 

यही काम हमारे हिंदु समाज भी कर रहे है । सबके सब कौवा को खदेङ रहे है । अपने कान को नही देख रहे है। कहने का तात्पर्य यह कि  आज जो हमलोग यवन शाशन, अंग्रेज शाशन की बात कर रहे है । यह सब क्या है व्यर्थ की बाते है ।  आप इन अवधि मे यदि हिंदु महापुरुष को खोजो तो पता चलता है असलियत क्या है ?  

अधार जी बड़े उच्च कोटिके सन्त थे । भगवान् श्रीहरिके नाममें आपकी बड़ी निष्ठा थी । आपने श्रीहरि नाम को ही अपना अधार बना लिया और उसके बलपर असंख्य जनोंको भवसागरसे पार किया । श्री हरि नामको आधार बना लेनेके कारण आपका नाम श्रीीअधारजी पड़ गया 

                 श्री हरिनाभ जी महाराज 


श्रीहरिनाभजी भगवत्कृपापात्र सन्त थे । आपका जन्म ब्राह्मण कुलमें हुआ था और आपको सन्त सेवा मे बड़ी ही निष्ठा थी । आपके यहाँ प्रायः सन्तोंको मण्डली आया करती थी और आप अत्यन्त निष्ठा के साथ उनको सेवा किया करते थे । एक बार संन्यासियोंकी एक बड़ी मण्डली आपके गाँवमें आयी । गाँववालोंने उन्हें आपके यहाँ भेज दिया । संयोगसे उस दिन आपके यहाँ तनिक भी सीधा नहीं था और न ही घरमें रुपया - पैसा आभूषण हो था , जिसे देकर दुकानसे सौदा आ सकता । ऐसेमें आपके समक्ष धर्मसंकट की स्थिति आ गई। सन्त - सेवा मे आपको निष्ठा ऐसी थी कि उन्हें अपने दरवाजेसे निराश जाने नहीं दे सकते थे । ऐसेमें आपने अपनी विवाहयोग्य कन्याको एक सगोत्री ब्राह्मणके यहाँ छोड़ दिया कि पैसेकी व्यवस्था होने पर छुड़ा लेंगे । इस प्रकार पैसोंकी व्यवस्था करके आप सीधा - सामान लाये और सन्त - सेवा की । 

कुछ समय बाद जब आपके पास पैसे इकट्ठे हो गये तो आपने ब्राह्मणके पैसे लौटा दिये , परंतु फिर भी वह कन्याको वापस करनेमें आनाकानी करता रहा । आपकी सन्त - सेवाके प्रति निष्ठा और ब्राह्मणकी कुटिलताने सन्तोंके परम आराध्य भगवान् श्रीहरिको उद्वेलित कर दिया । वे स्वयं चुपचाप कन्याको आपके यहाँ पहुँचा आये । अब वह ब्राह्मण आपसे झगड़ा तकरार करने लगा । इसपर भगवान्ने रात्रिमें स्वप्न में उससे कहा कि कन्याको मैंने उसके पिताके घर पहुँचाया है , यदि तुम इसके लिये तकरार करोगे तो मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा । अब ब्राह्मणको अपनी गलती और आपपर भगवत्कृपाका बोध हुआ । वह दूसरे दिन प्रातःकाल ही आकर आपके चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगा । आपके मनमें उसके प्रति तनिक भी क्रोध नहीं था , अतः उसे तो कर ही दिया साथ ही उसे भी सन्त - सेवी बना दिया । उसने सन्त - सेवाका व्रत तो लिया ही साथ ही आपकी पुत्रीको अपनी पुत्री मानकर उसके विवाहमें पूर्ण सहयोग दिया । इस प्रकार श्रीहरिनाभजी अद्भुत सन्त - सेवी गृहस्थ साधु थे । 


      श्री स्वभूराम देवाचार्य जी महाराज 

श्रीस्वभूरामदेवाचार्यजी महाराजका जन्म ब्राह्मण कुलमें हुआ था । आपके पिताका नाम श्रीकृष्णदत और माता का नाम श्रीराधादेवी था । श्रीकृष्णदत्त एवं राधादेवीको जब दीर्घकालतक संतानकी प्राप्ति नहीं हुई तो एक सन्तकी प्रेरणासे दोनों निम्बार्क - सम्प्रदायाचार्य श्रीहरिदेव व्यासजीके पास गये । उन्होंने आपलोगोंको गो - सेवा करनेकी आज्ञा दी । अब आप लोग गायोंको चराते , उनकी सार - सँभाल करते और हर प्रकारकी सेवा करते । इस प्रकार सेवा करते - करते गोपाष्टमीका दिन आया । आप दोनों लोग गोशालामें गये , वहाँ देखा तो चारों ओर प्रकाश फैला था और उस प्रकाशपुंजके मध्यमें एक सुन्दर शिशु लेटा था । उसे देखते ही दम्पतीका वात्सल्यभाव जाग्रत् हो गया और राधादेवीने उसे अपनी गोदमें उठा लिया । इस प्रकार स्वयं प्रकट होनेके कारण शिशुका नाम स्वभूराम पड़ा ।

 आठ वर्षकी अवस्थामें बालक स्वभूरामको उनके माता पिता श्रीहरिदेव व्यासजीके पास ले गये और उसका यज्ञोपवीत कराकर वैष्णव दीक्षा दिलायी , तत्पश्चात् सब लोग पुनः घर आ गये । श्रीस्वभूरामजी घर आ तो गये , पर उनका मन घरमें न लगता । एक दिन उन्होंने अपने माता - पितासे संन्यास लेनेकी बात कही और उनसे आज्ञा एवं आशीर्वाद माँगा । इसपर आपके माता पिता वात्सल्यस्नेहवश बिलखने लगे और रोते हुए बोले- ' बेटा । हम वृद्धोंके तुम्हीं एकमात्र प्राणाधार हो , यदि तुम भी वैराग्य - धारण कर लोगे तो हम लोग किसके आधारपर जीवन धारण करेंगे ? ' माता - पिताकी परेशानीको देखकर आपने कहा कि यदि मेरे दो भाई और हो जाये तो क्या आप लोग मुझे विरक्त हो जानेकी आज्ञा दे देंगे ? यह सुनकर माता - पिता हँस पड़े ; क्योंकि तबतक उनकी पर्याप्त अवस्था हो चुकी थी । परंतु आपकी वाणी सत्य सिद्ध हुई । कुछ दिनों बाद भगवत्कृपासे सन्तदास और माधवदास नामक दो भाइयोंका जन्म हुआ । उनके कुछ बड़े हो जानेपर आपने पुनः माता - पितासे संन्यासकी अनुमति माँगी और मौन स्वीकृति प्राप्तकर श्रीहरिव्यासदेवाचार्यजीकी शरणमें चले गये । आपने श्रीगुरुदेवजीसे विरक्त दीक्षा ली और भजन - साधन करने लगे । 

एक बारकी बात है , श्रीयमुनाजीकी बाढ़से आपके आश्रम - ग्राम बुड़ियाके डूब जानेकी आशंका हो गयी । सभी गाँववाले बचावके लिये गाँवके चारों ओर ऊँची दीवाल बनाने लगे , परंतु जब उससे भी बाढ़ रोकनेमें सफलता न मिली तो ' त्राहि माम् त्राहि माम् ' करते आपके पास आये । आपने मनमें विचार किया कि श्रीयमुना महारानी तो स्वामिनीजी हैं , मेरे आराध्यकी प्राणप्रिया हैं , यदि वे कृपाकर पधार रही हैं तो यह तो हर्षका विषय है , ऐसेमें भला उनके मार्गमें अवरोध खड़ा करना कहाँ उचित है - ऐसा सोचकर आपने फावड़ा उठाया और श्रीयमुनाजीसे गाँवतक मार्ग बना दिया । सब लोग उनके इस क्रियाकलापको आश्चर्यभावसे देखते रहे , परंतु यमुनामैया उनके दिव्य भावको जान गयीं और एक पतली सी धाराके रूपमें आश्रमतक आकर फिर वापस चली गयीं । आपके इस अलौकिक प्रभावसे आज भी बुढिया ग्राम मे आपका सुयश गाया जाता है ।

आपका एक ब्राह्मण शिष्य था , सम्पत्ति तो उसके पास बहुत थी , पर संतान कोई न थी एक - एक करके उसने तीन विवाह किये , पर संतानकी प्राप्ति न हुई । गाँववाले उसे निपूता कहते । एक दिन वह आपके पास आया और आपसे अपना दुःख निवेदन किया । आपने कहा चिन्ता न करो , तुम्हारी तीसरी पत्नीसे तुम्हें एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति होगी , जो बड़ा ही भक्त और सन्त - सेवी होगा । यथासमय ब्राह्मणके घर पुत्रका जन्म हुआ । इसके बाद तो उसकी सन्तसेवामें और निष्ठा बढ़ गयी । कालान्तरमें उस ब्राह्मणकी मृत्यु हो गयी और उसके कुछ ही दिनों बाद पुत्रको भी एक विषधरने डँस लिया । रोती - बिलखती बालककी माँ उस मृतप्राय बालकको लेकर आपके पास आयी । आपने श्रीभगवान्का चरणामृत उस बालकके मुखमें डाल दिया । बालक तत्काल वैसे ही उठ बैठा , जैसे कोई नींदसे जगकर उठ बैठे । यही बालक आगे चलकर श्रीकन्हरदेवाचार्य नामसे प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार आपने अनेक अलौकिक कार्य किये और वैष्णव धर्मकी ध्वजा फहरायी ।


   श्री ऊदाराम जी महाराज 

श्रीउदारामजीका जन्म वैश्यकुलमें हुआ था । आप परम भगवद्भक्त और सन्तसेवी थे । आपकी पत्नी भी परम भागवती और पतिपरायणा थीं । एक पुत्रके जन्मके बाद आप दम्पतीने निश्चय किया कि अब पितृ ऋणसे उऋण होनेके लिये संतान हो गयी है , अतः शेष समय भगवद्भजन और सन्तसेवामें ही बिताना चाहिये । यह निश्चयकर पति - पत्नी भगवद्भजन और साधु - सेवामें रत हो गये । भगवान्ने इनकी सन्तसेवाको प्रकाशित करनेके लिये इनकी परीक्षा लेनेका विचार किया । वे एक सन्तका स्वरूप धारणकर आपके पास आये और बोले - ' मेरी पत्नी बीमार है , अतः सेवा करनेके लिये कुछ दिनके लिये अपनी पत्नी मुझे दे दो , जैसे ही मेरी पत्नी स्वस्थ हो जायगी , मैं वापस कर दूँगा । ' आपने स्वीकार कर लिया । सन्तरूप भगवान्ने कहा

अब आप इन्हें मेरे आश्रमतक छोड़ आयें । इसके लिये भी आप तैयार हो गये और पत्नीको लेकर सन्तके आश्रमपर पहुँच गये । तबतक रातका अंधेरा हो गया था , अतः सन्तके आग्रहपर आप भी वहीं रुक गये । प्रातः आँख खुलनेपर देखा कि दोनों पति - पत्नी आश्रममें नहीं , बल्कि अपने घरमें हैं । तब आपको विश्वास हो गया कि सन्तरूपमें स्वयं श्रीभगवान् ही हमें सन्तसेवाका फल देने आये थे । अब आपकी सन्तसेवायें और निष्ठा बढ़ गयी , परंतु इनके पत्नीको सन्तके यहाँ भेजनेके कार्यके कारण सन्त - महिमा और वास्तविकताको न जाननेवाले परिवारीजन और जाति - बिरादरीके लोग आपसे नाराज हो गये । प्रथम तो उन लोगोंने आपको सन्तसेवा और वैष्णवोंसे नाता तोड़नेके लिये कहा , परंतु जब आप न माने तो राजाके पास झूठी शिकायत कर दी कि ऊदारामके पास बहुत धन है , परंतु यह राज्यकर नहीं देता । अविवेकी राजाने भी बिना कोई विचार किये सिपाहियोंको श्रीऊदारामजीको गिरफ्तारकर लानेके लिये भेज दिया , परंतु सिपाही जब आपके घरके पास पहुँचे तो सबके सब अन्धे हो गये । यह समाचार जब राजाको पता चला तो उसे अपनी भूल ज्ञात हुई । उसने तत्काल आकर आपके चरणोंमें प्रणिपात किया और आपके उपदेशोंसे प्रभावित होकर भगवद्भजन और साधु - सेवाका व्रत ले लिया । इसी प्रकार आपके चरित्रसे प्रेरणा लेकर अनेक भगवद्विमुख जन वैष्णव बन गये । 

          भक्त श्री डूंगर जी महाराज 

 भक्त श्रीडूंगरजी जातिसे पटेल क्षत्रिय थे । सन्तसेवामें आपकी बड़ी ही निष्ठा थी , परंतु आपके पिताको यह सब व्यर्थ लगता था । अतः आप पितासे छिपाकर सन्तोंको खिलाने - पिलानेमें धन खर्च कर दिया करते थे । इस प्रकार आपने जब बहुत - सा धन व्यय कर दिया तो यह बात आपके पिताजीको भी मालूम हुई और क्रुद्ध होकर उन्होंने आपको घरसे निकाल दिया । यद्यपि अब आपके पास अर्थाभाव हो गया था , फिर भी आपकी सन्तसेवा बदस्तूर जारी रही । यहाँतक कि आपने अपनी पत्नीके आभूषणतक बेंचकर उससे सन्तोंकी सेवा कर दी । इससे आपकी प्रसिद्धि तो चारों ओर फैल गयी , परंतु घरमें अन्नका एक दाना न रहा । एक दिन सन्तोंकी एक बड़ी मण्डली आपके द्वारपर आ गयी , घरमें अन्नका एक भी दाना न होनेसे आपके सामने बड़ा धर्मसंकट आ पड़ा । आर्थिक स्थिति ठीक न होने और आमदनीका कोई स्रोत न होनेसे कोई आपको उधार भी देनेको तैयार नहीं था । घरमें ऐसी कोई कीमती वस्तु भी नहीं थी , जिसे बेंचकर या गिरवी रखकर उधार प्राप्त हो जाता । अन्तमें सब तरफसे निराश होकर आप दोनों भक्तदम्पतीने भगवान्से ही पुकार लगायी । 


ऐसे अकिंचन भक्त और सन्तसेवीकी प्रार्थना भला भगवान् कैसे अनसुनी करते , प्रभुकृपासे तुरंत ही अन्नकी वर्षा होने लगी । आपकी पत्नीने तुरंत आटा तैयार किया , रसोई बनी और सन्तोंने प्रसाद पाया । उधर अन्न - वर्षाकी चर्चा क्षणभरमें पूरे गाँवमें व्याप्त हो गयी । जब यह समाचार आपके पिताको ज्ञात हुआ तो उन्हें बड़ी ग्लानि हुई और वे भी धन - सम्पदाका मोह छोड़कर सन्तसेवामें रत हो गये । भगवत्कृपा और सन्त - निष्ठासे आपके जीवनमें अनेक चमत्कार हुए । एक बार आप श्रीद्वारिकापुरीजीकी यात्रापर जा रहे थे , मार्गमें एक अघोरी मिला , जो आपको मारकर खा जाना चाहता था । ऐसी विषम परिस्थितिमें भगवान्ने प्रकट होकर आपकी प्राण - रक्षा की और अघोरीको उचित दण्ड दिया । आप वैष्णवधर्मके प्रचार - प्रसारके लिये प्रायः यात्राएँ किया करते थे । एक बार आप कहीं जा रहे थे , मार्गमें देखा कि एक गर्भवती स्त्री अपने मृत पतिके साथ सती होने जा रही है , यह देखकर आपको बड़ी दया आयी और आपने भगवच्चरणामृतकी कुछ बूँदें उस मृत व्यक्तिके मुखमें डाल दीं , फिर क्या था ,वह व्यक्ति उठ खड़ा हुआ चारों और आपकी जय - जयकार होने लगी । आपने वहाँ एकत्र लोगोंको भगवद्भक्तिका उपदेश दिया । इस प्रकार आपने अपने अनेक चमत्कारपूर्ण कार्योंसे बहुत बहुत से लोगो को भगवद भक्ति पूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा दी ।


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra108.blogspot.com 

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