श्री रामरावल जी महाराज
के अद्भुत चरित्र
श्रीरामरावलजी महाराज भगवान् श्रीरामके अनन्य भक्त थे । आप सदा एकान्त स्थानमें बैठे भगवच्चिन्तनमें मग्न रहा करते थे । आपका समाजमें सम्मान भी बहुत था । यह देखकर एक ऐंद्रजालिक ( जादूगर ) को आपसे ईर्ष्या हो गयी , वह आपको भगाने के लिये नाना प्रकारके उपद्रव करने लगा । वह कभी सर्प बन जाता तो कभी व्याघ्र । कभी - कभी मायासे इनके चारों और अग्निको लपटें उत्पन्न कर देता । इस प्रकार उस ऐंद्रजालिकने आपको भयभीत करने और भगानेके बहुत प्रयास किये , परंतु भला माया जिसकी दासी है , उसके भक्तको क्षुद्र बाजीगरकी ये कपट चालें क्या भयभीत कर पातीं । अन्तमें उसे इस बात का भान हो गया कि ये पहुँचे सन्त और सिद्ध महापुरुष हैं , अतः इनके शरणागत होकर शिष्य हो गया । इसी प्रकार आपने भगवत्पथसे भटके अनेक प्राणियोंको अपने आचरणसे सही राह दिखायी ।
श्री सीहा जी महाराज के पावन चरित्र
भक्त श्रीसीहाजी बड़े ही नामनिष्ठ सन्त थे और सदा नाम संकीर्तन करते रहते थे । आपका संकीर्तन इतना रसमय होता था कि स्वयं भगवान् भी विभिन्न वेश बनाकर उसमें आनन्द लेने पहुँच जाया करते थे । आप स्वयं तो कीर्तन करते ही थे , गाँवके बालकोंको भी बुलाकर कीर्तन कराते थे । बालकोंको कीर्तनके अन्तमें आप प्रसाद दिया करते थे ।अतः वे भी खुशी - खुशी पर्याप्त संख्या में आ जाया करते थे । एक बार ऐसा संयोग आपके पास बाँटनेके लिये प्रसाद ही न रहा । बालक प्रतिदिन आते और कीर्तन करके बिना प्रसाद पाये ही चले जाते ।
इससे आपको बड़ी चिन्ता हुई , साथ ही दुःख भी हुआ । आपको इस प्रकार चिन्तित देख चौथे दिन भगवान् स्वयं बालक बनकर आये और सबको उनकी इच्छानुसार इच्छाभर लड्डू वितरित किये फिर रात्रिमें आपसे स्वप्नमें कहा कि अब आपको चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है , प्रसाद न रहनेपर मैं स्वयं वेश बदलकर प्रसाद बाँटा करूंगा , आप बस कीर्तन कराइये । अब भगवान् प्रतिदिन वेश बदलकर आपके कीर्तनमें सम्मिलित होने लगे । एक दिन वे एक सेठ पुत्रका रूप धारण करके आये और कीर्तनमें सम्मिलित हो गये । संयोगसे वह सेठ भी उस दिन कीर्तनमें आ गया , जिसके पुत्रका रूप धारणकर भगवान् आये थे । सेठने अपने पुत्रके रूपमें भगवान्को देखा तो चकित रह गये ; क्योंकि वे तो अपने पुत्रको घरपर छोड़कर आये थे , वे जल्दीसे अपने घर गये तो वहाँ पुत्रको बैठे देखा । सेठजीने सोचा मेरी आँखोंको धोखा हुआ होगा और वे फिरसे कीर्तनमें आ गये , परंतु यहाँ आनेपर फिर उन्हें अपने पुत्रके रूपमें भगवान् दिखायी दिये । सेठजी चकित ! अब वे एक बार घर जाते और फिर वापस कीर्तनमें आते और दोनों जगह अपने पुत्रको देखते ।
अन्तमें हारकर उन्होंने यह बात श्रीसीहाजीसे कही । इसपर आपने कहा - ' सेठजी ! आप घर जाकर अपने पुत्रको यहीं लेते आइये । ' जब सेठजी घरसे अपने पुत्रको लेकर आये तो भगवान् अन्तर्धान हो गये । यह देखकर आप समझ गये कि सेठके पुत्रके रूपमें स्वयं श्रीभगवान् ही पधारे थे । इस प्रकार आपका संकीर्तन अत्यन्त दिव्य हुआ करता था ।
श्री दलहासिंह जी महाराज
राजस्थान में एक ग्राम है , खीचीबाड़ा । श्रीदलहासिंहजी वहींके निवासी थे । जातिसे यद्यपि आप क्षत्रिय थे , फिर भी आपकी वृत्ति अहिंसक थी और आपने सन्तसेवाका व्रत ले लिया था । आपके यहाँ नित्य प्रति सन्तोंकी टोलियाँ आती रहतीं । खूब भजन - कीर्तन और सत्संग होता सन्तोंके प्रसादकी भी व्यवस्था होती । इस प्रकार सन्तसेवीके रूपमें आपकी दूर - दूरतक ख्याति फैल गयी , परंतु इससे आपकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी । आपका पूरा समय सत्संग और सन्तसेवामें ही चला जाता था , अतः कोई अर्थोपार्जन भी न हो पाता । इस प्रकार आपके घरकी स्थिति ऐसी हो गयी कि पेट पालना भी मुश्किल हो गया । इसी बीच एक रिश्तेदारीसे भात भरनेका निमन्त्रण आ गया और सन्तोंका आना जाना तो लगा ही रहता था । अब तो आप बड़े ही धर्मसंकटमें फँस गये । सन्तसेवा किये बिना आप रह नहीं सकते थे और भात भरना भी सामाजिक जिम्मेदारी थी । अब तो आपका दिनका चैन और
रातकी नींद गायब हो गयी । आपकी ऐसी स्थिति देखकर नरसीका भात भरनेवाले भक्तवत्सल भगवान्को बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने स्वप्नमें आपसे कहा कि तुम्हारे घरके पासमें ही एक टीला है , उसमें अथाह सम्पत्ति भरी पड़ी है , उसे खोद लो और खूब सन्त - सेवा करो तथा भात भरो । फिर तो भगवान्का संकेत समझकर आपने वैसा ही किया । टीलेमेंसे अपार सम्पत्ति प्राप्त हुई , जिससे आपने जीवनभर सन्तसेवा की । सच है ' अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ '
संत श्री पद्म जी महाराज
श्रीपद्मजी भगवान् विष्णुके अनन्य भक्त थे । आपके पास भगवान् विष्णुकी एक स्वर्ण प्रतिमा थी , जिसकी वे आराधना करते थे । भक्तके लिये भगवान्की प्रतिमा उसका प्राणधन- उसके इष्टदेवका साक्षात् साकार विग्रह होती है , जबकि चोरके लिये वही प्रतिमा मात्र सुवर्णखण्ड ही होती है , जिसे वह विक्रय करके कुछ धन प्राप्त कर लेता है । एक बारकी बात है , आप सुवर्ण - प्रतिमाको एकान्तमें रख उसकी सेवा पूजा कर रहे थे ; सहसा एक चोरकी कुदृष्टि उसपर पड़ गयी । उसने सुनसान एकान्त स्थान देखकर वह सुवर्ण प्रतिमा और उसपर चढ़े आभूषण भी छीन लिये और भाग चला । अब तो आपके प्राण विकल हो उठे , अत्यन्त आर्त होकर आप भगवान्को पुकारने लगे । भक्तवत्सल भगवान्से भक्तका यह दुःख देखा न गया । उन्होंने कुछ ऐसी लीला की कि उस चोरका जूता उसके पैरसे निकलकर उसके सिरपर पड़ने लगा । इस संकटसे बचनेके लिये वह इधर - उधर बहुत दौड़ा , पर जिधर जाता , उधर ही उसपर जूता पड़ता । अन्तमें वह गिरता - पड़ता आपके पास आया और प्रतिमा तथा सभी आभूषण वापसकर चरणोंमें पड़कर क्षमा माँगी । आप तो परम करुणामय सन्त थे , आपके हृदयमें क्रोधका लेशमात्र भी नहीं था । मूर्ति पाते ही आप ऐसे प्रसन्न हो गये , मानों मृतशरीरमें पुनः प्राण प्रविष्ट हो जायें । अतः आपने उस दुष्ट चोरको तुरंत ही क्षमा कर दिया । आपके क्षमा करते ही चोरपर जूते पड़ने अपने - आप बन्द हो गये । ऐसे परम कारुणिक और सन्तहृदय भक्त थे श्रीपद्मजी ! जिस प्रकार पद्म जलमें खिला होता है , पर उसका पत्ता जलके सम्पर्कमें होनेपर भी उससे अप्रभावित रहता है , वैसे ही श्रीपद्मजी भी इस संसारमें रहते हुए भी , इससे अलग - अप्रभावित थे ।
संत श्री मनोरथ जी महाराज
के दिव्य चरित्र
बड़े पि श्रीमनोरथजी जातिके ब्राह्मण थे और बड़े ही सन्तसेवी गृहस्थ भक्त थे । आपके एक कन्या थी । सयानी होनेपर आपने उसका विवाह एक भक्त ब्राह्मणसे तय किया , परंतु उसके गरीब होनेसे कन्याकी माता और उसका मामा वहाँ विवाह नहीं करना चाहते थे । वे दोनों उसका एक धनी ब्राह्मणसे विवाह करना चाहते थे , परंतु वह अभक्त था , इसलिये आपको पसन्द नहीं था । उधर वह अभक्त ब्राह्मण अभक्त होनेके साथ - साथ दुष्ट और लम्पट भी था , उसने ठीक विवाहके दिन बलपूर्वक कन्याका अपहरण कर लिया । इससे आपको बहुत दुःख हुआ कि मेरी कन्या ऐसे अभक्त और भगवद्विमुख दुष्ट व्यक्तिके साथ कैसे गुजारा करेगी ? यह सोचकर आप अपने आराध्यदेवकी मूर्तिके पास जाकर बिलख - बिलखकर रोने लगे । भक्तवत्सल भगवान्से अपने भक्तका यह दुःख न देखा गया । उन्होंने तुरंत उस अभक्त के घरसे कन्याको लाकर आपके सम्मुख उपस्थित कर दिया । आपने तुरंत उस कन्याका भक्त ब्राह्मणके साथ विवाह कर दिया । इस अद्भुत चमत्कारको देखकर सब लोग बहुत प्रभावित हुए । आपके विपक्षी भी आपके शरणागत हो गये और भक्त - भगवत्सेवामें लग गये ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma
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