Roop Sanatan ji Maharaj

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 श्रीरूपसनातनजी



 गौड़ देस बंगाल हुते सबही अधिकारी । हय गय भवन भँडार बिभव भूभुज उनहारी ॥ यह सुख अनित बिचारि बास वृंदाबन कीन्हो । जथा लाभ संतोष कुंज करवा मन दीन्हो ॥ ब्रज भूमि रहस राधाकृषन भक्त तोष उद्धार कियो । संसार स्वाद सुख बांत ज्यों ( दुहुँ ) रूप सनातन तजि दियो ॥ ८

श्रीरूपजी तथा श्रीसनातनजी इन दोनों भाइयोंने संसार - स्वादके सब सुखोंका वमन ( उलटी ) की भाँति परित्याग कर दिया । आप दोनों भाई पहले बंगाल प्रान्तस्थ गौड़देशके शासकके यहाँ उच्चाधिकारी थे । आपके पास राजाओंके समान घोड़े - हाथी , महल मकान , कोष - खजाना , भोग - ऐश्वर्यादि थे । परंतु इस संसारके सुखको अनित्य विचारकर आप दोनोंने सब कुछ छोड़कर श्रीवृन्दावनमें दृढ़वास किया । भगवदिच्छासे शरीर - निर्वाहके लिये सहजमें जो कुछ भी मिल जाता , उसीमें संतोष करते थे । राज्यैश्वर्यसे मन हटाकर परम वैराग्यपूर्ण जीवन बिताते थे । आप दोनोंने श्रीव्रजभूमिके रहस्यों तथा श्रीराधाकृष्णके रहस्य तत्त्वोंको प्रकटकर भक्तोंको परम संतोष प्रदान किया तथा जगत्के जीवोंका उद्धार किया ॥ 

 श्रीरूप - सनातनके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है चार सौ वर्षसे अधिक बीत चुके , बंगालके सिंहासनपर हुसैनशाह नामक एक मुसलमान शासक अधिष्ठित था , उसके उच्चपदस्थ कर्मचारी प्रायः हिन्दू ही थे । बादशाहके उच्चपदाधिकारियोंमें रूप और सनातन नामके दक्षिणके दो ब्राह्मण - बन्धु मन्त्रीके पदपर प्रतिष्ठित थे । मुसलिम शासकके सान्निध्य तथा राजसी परिवेशके प्रभावसे इनका रहन - सहन भी मुसलमान रईसों - जैसा हो गया था । बादशाहने भी इनकेमुसलिम नाम रख दिये थे । राज्यमें ये दबिर खास ' और ' शाकिर मल्लिक ' के नामसे प्रसिद्ध थे । सनातनका असली नाम ' अमर ' और रूपका नाम ' सन्तोष ' था । हुसैनशाह इन्हें अपना दाहिना हाथ समझता था । वेष भूषासे ये पूरे मुसलमान प्रतीत होते थे । इतना सब होनेपर भी इनका हृदय हिन्दू - भावोंसे भरा था श्रीराम और श्रीकृष्ण के प्रति इनका अनुराग था । ब्राह्मण साधुओंमें इनकी भक्ति थी । रामकेलि ग्राममें इनके घरपर ब्राह्मण साधुओंका प्रायः मेला - सा लगा रहता था । अनेक विद्वान् ब्राह्मणोंका भरण - पोषण इनके द्वारा हुआ करता था । इनके छोटे भाई ' अनूप ' घर रहा करते थे और ये दोनों अधिकांश समय बादशाहके पास गौड़में रहते थे । 

श्रीचैतन्यमहाप्रभुका नाम सुनकर उनके प्रति स्वाभाविक ही इनकी श्रद्धा हो गयी और उस श्रद्धाने क्रमशः बढ़कर एक प्रकारकी विरह - वेदनाका - सा रूप धारण कर लिया । दोनों भाई श्रीचैतन्यके दर्शन के लिये बड़े उत्कण्ठित हो गये । दबिर खास और शाकिर मल्लिककी तीव्र दर्शनाभिलाषाने श्रीचैतन्यमहाप्रभुके मनको खींच लिया । महाप्रभुसे अब नहीं रहा गया वे वृन्दावन जानेके बहाने गंगाजीके किनारे - किनारे चलकर गौड़के समीप जा पहुँचे । जब महाप्रभु गौड़के समीप पहुँचे , तब उनके हजारों भक्तोंके दलकी तुमुल हरिध्वनिसे सारा नगर गूंज उठा । दोनों भाइयोंके हृदय आनन्दसे गद्गद और रोम पुलकायमान हो गये , परंतु उन्हें मनमें यह भय भी बना रहा कि कहीं स्वेच्छाचारी मुसलमान बादशाह महाप्रभुके दलको कोई कष्ट न पहुँचा दे । वे चाहते थे कि महाप्रभु यहाँसे शीघ्र ही चले जायँ तो ठीक है । परंतु उनका दर्शन करनेके लिये दोनोंके मनमें बड़ी उत्कण्ठा हो रही थी । इसलिये बाहर के बाहर उन्हें लौटाना भी नहीं चाहते थे । महाप्रभु गौड़में आ पहुँचे । वे दर्शन दिये बिना कब लौटनेवाले थे , वे तो आये ही थे दोनों भाइयोंको संसार कूपसे खींचकर बाहर निकालनेके लिये ! रातको दोनों भाई महाप्रभुके दरबारमें पहुँचे । प्रभु अपने प्रियतम परमात्माके प्रेममें समाधिस्थ थे । श्रीनित्यानन्दजीने चेष्टा करके उनकी समाधि भंग करवाकर दोनों भाइयोंका परिचय कराया । दोनों मुँहमें तिनके दबाकर और गलेमें कपड़ा डालकर महाप्रभुके चरणोंमें गिर पड़े और बोले - ' प्रभो ! आपने पतित और दीनोंका परित्राण करनेके लिये ही पृथ्वीपर पदार्पण किया है , हम जैसे दयनीय पतित आपको और कहाँ मिलेंगे ? आपने जगाई - मधाईका उद्धार किया , परंतु वे तो अज्ञानसे पाप करते थे । उद्धार तो सबसे पहले हमारा होना चाहिये , क्योंकि हमने तो जान - बूझकर पाप किये हैं , वास्तविक पतित तो हमीं हैं नाथ ! अब आपके सिवा हमें और कहीं ठौर नहीं है । ' 

महाप्रभु उनकी निष्कपट दीनताको देखकर मुग्ध हो गये , दयासे उनका हृदय द्रवित हो गया । वे बोले ' उठो , दीनताको दूर करो ; तुम्हारी इस दीनताको देखकर मेरा हृदय फटा जा रहा है , तुम मुझे बड़े प्रिय हो । मैं यहाँ तुम्हीं दोनों भाइयोंसे मिलने आया हूँ । तुम निश्चिन्त रहो । शीघ्र ही तुमपर श्रीकृष्णकी कृपा होगी । आजसे तुम्हारा नाम ' सनातन ' और ' रूप ' हुआ । ' महाप्रभुके वचन सुनकर सनातन और रूपका हृदय आनन्दसे भर गया और वे कृतज्ञतापूर्ण दृष्टिसे महाप्रभुके मुख - कमलकी ओर एकटकी लगाकर देखने लगे । उनके जीवन स्रोतकी दिशा सहसा बदल गयी ! 

इसके बाद महाप्रभुने सनातनके परामर्शसे इतने लोगोंको साथ लेकर वृन्दावन जानेका विचार छोड़ दिया और वापस नीलाचल ( पुरी ) की ओर लौट गये । इधर रूप- सनातनकी दशा कुछ और ही हो गयी । वैराग्य उमड़ पड़ा । राज्य - वैभव और मन्त्रित्वसे मन हट गया । एक क्षण भी राजकाजमें रहना उनके लिये नरक - यन्त्रणाके समान दुःखदायी हो गया । सनातनकी अनुमतिसे रूप तो छुट्टी लेकर अपने घर रामकेलि चले गये । सनातन बीमारीका बहाना करके डेरेपर ही रहने लगे । रूपने दो गुप्तचर महाप्रभुके समीप नीलाचल भेज दिये और उन्हें ताकीद कर दी कि महाप्रभुके वृन्दावनकी ओर प्रयाण करते ही शीघ्र लौटकर मुझे सूचना देना । 

इस बीचमें धन - सम्पत्तिको लुटाकर रूप वृन्दावन जानेके तैयारी करने लगे । इनके छोटे भाईका नाम अनुपम था , वह पहलेसे ही बड़ा श्रद्धालु था । उसने भी भाईके साथ ही घर छोड़नेकी तैयारी कर ली । रूप सनातनके कोई संतान नहीं थी ; अनुपमके ' जीव ' नामक एक पुत्र था , उसे थोड़ा - सा धन सौंपकर शेष सारा धन गरीबोंको लुटा दिया गया । इतनेमें समाचार मिला कि सनातनको बादशाहने कैद कर लिया है । जानी हुई - सी बात थी । रूप और अनुपमने शीघ्र ही चले जानेका विचार किया और अनुचरोंके नीलाचलसे लौटते ही महाप्रभुके वृन्दावन - गमनकी बात सुनकर दोनों भाई वृन्दावनको चल दिये जाते समय एक पत्र सनातनको इस आशयका लिख गये कि ' हमलोग दोनों वृन्दावन जा रहे हैं । किसी प्रकार पिण्ड छुड़ाकर आप भी शीघ्र आइये , आवश्यक व्ययके लिये दस हजार रुपये मोदीके यहाँ रख दिये गये हैं । ' 

सदा अमीरी ठाटमें रहनेवाले रूप और अनूपकी आज कुछ विचित्र ही अवस्था है । उन्होंने सारे वस्त्र और आभूषण उतारकर फेंक दिये हैं , तनपर एक - एक फटी गुदड़ी है और कमरमें एक - एक कौपीन है । भूख - प्यास और नींदकी कुछ भी परवाह नहीं है , पासमें एक कौड़ी नहीं है । वे सहर्ष कष्ट सहन करते हुए पैदल चले जा रहे हैं । अपने - आप जो कुछ खानेको मिल जाता है , उसीसे उदरपूर्ति करके रातको चाहे जहाँ पड़ रहते हैं ; परंतु उनके मनमें कोई दुःख नहीं है । चलते - चलते दोनों भाई प्रयाग पहुँचे ।

 वहाँ जाते ही अनायास पता लग गया कि महाप्रभु यहाँपर हैं । दोनों भाई दाँतों तले तिनका दबाकर जगत्के बड़े से - बड़े दीन और कंगालकी तरह काँपते - रोते और पड़ते - उठते महाप्रभुके चरणोंमें जाकर गिर पड़े और दोनों ही प्रेमके आवेशमें मतवाले से हो गये । कुछ समयके बाद धीरज धरकर बोले- हे दीनदयामय ! हे पतितपावन ! हे नाथ ! हम जैसे पतितोंको तुम्हारे अतिरिक्त और कौन आश्रय देगा ? "

 महाप्रभुने इससे पूर्व सिर्फ एक दिन रातके समय रूपको देखा था , परंतु अब उसे देखते ही तुरंत पहचानकर महाप्रभु हँसकर बोले ' 

उठो , उठो , रूप ! दीनता छोड़ दो , तुमलोगोंपर श्रीकृष्णकी अपार कृपा है । तभी तो उन्होंने तुमलोगोंको विषय - कूपसे निकाल लिया है । " 

रूपने कहा- ' प्रभो ! सुना है कि सनातनको बादशाहने कैद कर लिया है । ' प्रभु बोले - ' घबराओ मत सनातन कैदसे छूट गया है और मेरे समीप आ रहा है ! ' रूप और अनुपम उस दिन महाप्रभुके पास ही रहे और वहीं प्रसाद लिया ।

 महाप्रभुने कई दिनोंतक उन्हें प्रयागमें अपने पास रखा । रूपके द्वारा प्रभुको बहुत बड़ा कार्य करवाना था , वृन्दावनकी दिव्य प्रेमलीलाको पुनर्जीवन देना था । इसलिये रूपको एकान्तमें रखकर लगातार कई दिनोंतक महाप्रभुने उसको भक्तिका यथार्थ रहस्य भलीभाँति समझाकर अन्तमें कहा- ' रूप ! मैं काशी जाता हूँ । तुम वृन्दावन जाओ , मेरी आज्ञाका पालन करो , जीवोंका कल्याण करो , अपने सुखकी आशा छोड़कर वृन्दावन जाओ और इसके बाद यदि इच्छा हो तो मुझसे नीलाचलमें मिलना । ' यों कहकर प्रभु वहाँसे चल दिए ।


बड़े कष्टसे धैर्य धारणकर प्रभुके आज्ञानुसार रूप अपने छोटे भाई अनुपमके साथ वृन्दावनको चले । रूप और अनुपमको वृन्दावन भेजकर महाप्रभु काशी चले गये और वहाँ श्रीचन्द्रशेखरके मकानमें इधर सनातनने गौड़के कारागारमें रूपका पत्र पाकर शीघ्र ही वहाँसे निकलकर महाप्रभुके समीप जाने का विचार कर लिया तथा मौकेसे द्वाररक्षकको दस हजार मुहरें देकर वे कारागारसे निकल पड़े और उसी की 

सहायतासे रातोरात गंगाके उस पार चले गये । ईशान नामक एक नौकर इनके साथ था । उसने छिपाकर आठ मुहरें अपने पास रख ली थीं । पातड़ा ग्राममें भौमिकोंने मुहरोंके लोभसे सनातनका बड़ा आदर किया । उनके मनमें पाप था , वे रातको सनातन और ईशानको मारकर मुहरें छीनना चाहते थे । सनातनने मनमें सोचा कि ये लोग मेरा इतना सम्मान क्यों करते हैं , इनको लुभानेकी मेरे पास तो कोई वस्तु नहीं है । उनके मनमें सन्देह हुआ और उन्होंने ईशानसे पूछा - मालूम होता है तुम्हारे पास कुछ धन है । ' ईशानने एक मुहर छिपाकर कहा- हाँ , सात मुहरें हैं । सनातनने कहा- ' भाई । इस पापको अपने पास क्यों रखा ? यदि तुम इस समय न बताते तो रातको ये भौमिक बिना मारे न छोड़ते । ' उससे सातों मुहरें लेकर सनातनने भौमिकोंको दे दीं , शेष एक मुहरका और पता लगनेपर सनातनने वह मुहर ईशानको देकर उसे वापस देश लौटा दिया , सारा बखेड़ा निपटा । सुखपूर्वक सनातन अकेले ही चलने लगे । सन्ध्याके समय हाजीपुर नामक स्थानमें पहुँचे और एक जगह बैठकर बड़े ऊँचे स्वरसे श्रीकृष्णके पावन नामका कीर्तन करने लगे । उन्हें सच्ची शान्ति और विश्रान्ति इसीमें मिलती थी । वास्तवमें बात भी ऐसी ही है । 


सनातनके बहनोई श्रीकान्त बहुत दिनोंसे हाजीपुरमें थे । वे गौड़ बादशाहके लिये घोड़े खरीदने आये थे । सन्ध्याका समय था , श्रीकान्त एक तरफ बैठे आराम कर रहे थे । उनके कानों में हरिनामकी मीठी आवाज गयी , पहचाना हुआ - सा स्वर था , श्रीकान्त उठकर सनातनके पास आये और देखते ही अवाक् रह गये । उन्होंने देखा , सनातनका शरीर जीर्ण हो गया है , वे फटी हुई मैली - सी धोती पहने हुए हैं , दाढ़ी बढ़ रही है , मुखपर वैराग्यकी छाया पड़ी हुई है और जोर - जोरसे मतवालेकी भाँति हरिनामका उच्चारण कर रहे हैं । श्रीकान्तने सनातनको पुकारकर सचेत किया और उनके पास बैठकर इस हालतका कारण पूछा । सनातनने संक्षेपमें सारी कहानी सुना दी । श्रीकान्तने कहा- ' ऐसा ठीक नहीं , घर लौट चलिये । ' सनातनने कहा ' घर ही तो जा रहा हूँ । अबतक घर भूला हुआ था , पराये घरको घर माने हुए था ; अब पता लग गया है , इसीलिये तो दौड़ता हूँ । आँखें खुलनेपर स्वप्नके महलोंमें कौन रहता है ? ' श्रीकान्तने समझानेकी बड़ी चेष्टा की , परंतु समझे हुएको भूला हुआ क्या समझायेगा ! जहाँ वैराग्यका सागर उमड़ा हो , वहाँ विषयरूपी कूड़ेको कहाँ स्थान मिल सकता है ? श्रीकान्तकी बातें सनातनके जाग्रत् हृदयको स्पर्श नहीं कर सकीं , ऊपर ही ऊपर उड़ गयीं । श्रीकान्तने समझा कि अब ये नहीं मानेंगे । अतएव सनातनके घर लौटनेकी आशा छोड़कर उन्होंने उनके राह खर्चके लिये कुछ देना चाहा । सनातनने कुछ भी नहीं लिया । गहरा जाड़ा पड़ रहा था , श्रीकान्तने एक बढ़िया दुशाला देना चाहा , सनातनने उसे भी नहीं लिया । श्रीकान्त रोने लगे , उनका रोना देखकर सनातनका मन पिघला । भक्त बड़े कोमल हृदय होते हैं , उनसे दूसरेका दुःख नहीं देखा जाता । अतएव श्रीकान्तके मनको शान्त और सुखी करनेके लिये उन्होंने उनसे एक भूटानी कम्बल ले लिया और देखते ही देखते वहाँसे चल पड़े । श्रीकान्त चुपचाप खड़े रोते रह गये । 


महाप्रभु जिस राहसे , जिस गाँवसे और जिस नगरसे जाते थे , सभी जगह अपना एक निशान छोड़ जाते थे- वह था हरिनामकी तुमुल और मत्त ध्वनि । अतएव सनातनको खोज करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ी । वे प्रेममें झूमते हुए हरिनामपरायण लोगोंको महाप्रभुका मार्ग - चिह्न समझकर काशी जा पहुँचे और वहाँ जाकर इसी प्रकार सीधे चन्द्रशेखरके मकानके समीप पहुँच गये । खोज प्रत्यक्ष थी । लाखों नर - नारी मिलकर हरिध्वनि कर रहे थे । सनातनका मन प्रफुल्लित और शरीर पुलकित हो गया । वे धीरे - धीरे जाकर चन्द्रशेखरके दरवाजेपर बैठ गये । महाप्रभु घरके भीतर हैं और सनातन बाहर बैठे हुए प्रभुके श्रीचरणोंका ध्यान कर रहे हैं । अन्दर जानेका साहस नहीं होता । अपने पापोंको स्मरण करके मनमें सोचते हैं कि ' क्यामुझपर भी प्रभुकी कृपा होगी ? मुझ सरीखे घोर नारकी जीवकी ओर क्या प्रभु निहारेंगे ? ' सनातनके मनमें कहीं पर भी कपट या दम्भकी गन्धतक नहीं है । सरल और शुद्ध हृदयसे पापोंकी स्मृतिके अनुतापसे दग्ध होते हुए सनातन आज प्रभुकी शरण चाहते हैं । 

सर्वज्ञ महाप्रभुने घरके अन्दर बैठे हुए ही इस बातको जान लिया कि बाहर सनातन बैठे हैं । अतएव उन्होंने चन्द्रशेखरसे कहा कि ' दरवाजेपर जो वैष्णव बैठा है , उसे अन्दर बुला लाओ । ' आज्ञानुसार चन्द्रशेखर बाहर गया और वहाँ किसी वैष्णवको न देखकर वापस लौटकर बोला कि ' बाहर तो कोई वैष्णव नहीं है । ' महाप्रभुने कहा - ' क्या दरवाजेपर कोई नहीं बैठा है ? ' चन्द्रशेखरने कहा- ' दरवाजेपर एक फकीर सा तो बैठा है । ' महाप्रभुने कहा- ' जाओ । उसीको बुला लाओ । ' सनातनके कपड़े - लत्ते वैष्णवके - से नहीं थे ; परंतु उसका अन्तर तो विष्णुमय था । अन्तरको पहचानना अन्तर्यामीका ही काम है । 

चन्द्रशेखर यह सुनकर आश्चर्य करने लगा । सोचने लगा कि आज प्रभु इस फकीरको क्यों बुला रहे हैं । परंतु महाप्रभुके सामने कुछ कहनेका साहस नहीं हुआ और उसने बाहर जाकर सनातनसे कहा- ' आप कौन हैं ? आपको प्रभु बुला रहे हैं । ' ' प्रभु बुला रहे हैं । ' इन शब्दोंने बिजलीका - सा काम किया । सनातन हृदयमें हर्ष , आशा , चिन्ता , भय , भक्ति और लज्जा आदि अनेक भावोंकी तरंगें उठने लगीं । उन्होंने कहा ‘ हैं ! क्या प्रभु बुलाते हैं ? क्या सचमुच ही मुझे बुलाते हैं ? आप भूल तो नहीं रहे हैं ? भला , प्रभु मुझे क्यों बुलाने लगे । वे और किसीको बुलाते होंगे ! ' चन्द्रशेखरने कहा - ' प्रभु आपको ही बुलाते हैं , आप अन्दर पधारिये ।


 ' सनातनके हृदयमें आनन्दका समुद्र उमड़ पड़ा , परंतु अपनी स्वाभाविक दीनतासे वे दाँतों तले तिनका दबाकर अपराधीकी भाँति चुपचाप अन्दर जाकर प्रभुके चरणोंमें लकुटकी तरह गिर पड़े । दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी अजस्र धारा बहने लगी । सनातन बोले - ' प्रभो ! मैं पामर हूँ , मैंने आजीवन कामादि षड्विकारोंकी सेवा की है , विषय - भोगको ही सुख माना है , दिन - रात नीचोंके साथ नीच कर्म करनेमें रत रहा हूँ । इस मनुष्य - जन्मको मैंने व्यर्थ ही खो दिया , मुझ सरीखा पापी , अधम , नीच और कुटिल और कौन होगा । प्रभो ! आज आपके चरणोंकी शरणमें आया हूँ , अपनी स्वाभाविक दयालुताकी तरफ खयाल करके मुझे चरणों में स्थान दो । इस अधमको इन चरणोंके सिवा और कहाँ आश्रय मिलेगा । '

 प्रभु सनातनके इन शब्दोंको नहीं सुन सके , उनका हृदय दयासे द्रवित हो गया । सनातनको जबरदस्ती उठाकर प्रभुने अपनी छातीसे लिपटा लिया । सनातनके नेत्रोंकी अश्रुधारा मानो मन्दाकिनीकी धारा बनकर महाप्रभुके सशरीर चरणोंको धोने लगी और महाप्रभुके नेत्रोंकी प्रेमाश्रुधारा सनातनके मस्तकको सिंचनकर उसे सहसा पापमुक्त करने लगी । 

सनातन कहने लगे - ' प्रभो ! मुझे आप क्यों स्पर्श करते हैं ? मेरा यह कलुषित कलेवर आपके स्पर्श योग्य नहीं है । इस घृणित और दूषित देहको आप स्पर्श न कीजिये । ' प्रभुने कहा - ' सनातन ! दीनताका त्याग करो ।

 तुम्हारी दीनता देखकर मेरा कलेजा फटा जाता है ; जब श्रीकृष्ण कृपा करते हैं , तब भले - बुरेका विचार नहीं करते । श्रीकृष्ण तुम्हारे सम्मुख हुए हैं ; तुमपर श्रीकृष्णकी इतनी कृपा है कि उसका वर्णन नहीं हो सकता । तभी तो उन्होंने तुम्हें विषयकूपसे निकाल लिया है । तुम्हारा शरीर निष्पाप है ; क्योंकि तुम्हारी बुद्धि श्रीकृष्ण - भक्तिमें लगी हुई है । मैं तो अपनेको पवित्र करनेके लिये ही तुम्हें स्पर्श करता हूँ । ' यों कहकर महाप्रभुने सनातनके भाग्यकी बड़ी ही प्रशंसा की और कहा कि श्रीकृष्ण प्रेम होनेपरवास्तवमें ऐसी ही दीनता हुआ करती है । इसके बाद महाप्रभुने सनातनसे उसकी कारामुक्तिके सम्बन्ध में पूछा । सनातनने संक्षेपसे सारी कथा सुना दी । 

महाप्रभुने चन्द्रशेखरसे कहा कि ' सनातनका मस्तक मुण्डनकर और इसे स्नान करवाकर नये कपड़े पहना दो । स्नान कर चुकनेपर जब तपन मिश्र नामक एक भक्त सनातनको नयी धोती देने लगे , तब सनातनने कहा - ' यदि आप मुझे वस्त्र देना चाहते हैं तो कोई फटा पुराना कपड़ा दे दीजिये , मुझे नये कपड़ेसे क्या प्रयोजन है । ' सनातनका आग्रह देखकर मिश्रने एक पुरानी धोती दे दी और सनातनने फाड़कर उसके दो कौपीन बना लिये । सनातनके इस वैराग्यको देखकर महाप्रभु मन - ही - मन बड़े प्रसन्न हुए , परंतु श्रीकान्तकी दी हुई कम्बल सनातनके कन्धेपर इस समय भी पड़ी हुई थी । महाप्रभुने दो - चार बार उसकी ओर देखा ; तब सनातनने समझा कि मैंने अबतक यह सुन्दर कम्बल अपने पास रख छोड़ा है , मेरी विषयवासना दूर नहीं हुई है , इसीसे प्रभु बार - बार इसकी ओर ताककर मुझे सावधान कर रहे हैं । सनातनने गंगा तटपर जाकर वह कम्बल एक गरीबको दे दिया , बदलेमें उससे फटी गुदड़ी लेकर उसे ओढ़ लिया । जब महाप्रभुने सनातनको गुदड़ी ओढ़े देखा , तब वे बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि ' सनातन ! श्रीकृष्णने तुम्हारे विषय रोगको आज समूल नष्ट कर दिया ; भला , उत्तम वैद्य रोगका जरा - सा अंश भी शेष क्यों रहने देता है ? 

' महाप्रभुने सनातनको लगातार दो महीनेतक भक्ति - तत्त्वकी परमोत्तम शिक्षा देकर उनसे वृन्दावन जानेको कहा और वहाँ रूप- अनुपमके साथ मिलकर श्रीकृष्णका कार्य सम्पादन करनेके लिये आदेश दिया । 

महाप्रभु तो नीलाचल चले गये और उनकी आज्ञा पाकर सनातन वृन्दावन आये । वृन्दावन आनेपर पता लगा कि उनके भाई रूप और अनुपम दूसरे मार्गसे काशी होते हुए देश चले गये हैं । सनातन वनमें एक पेड़के तले रहने लगे । प्रतिदिन जंगलसे लकड़ियाँ लाकर बाजारमें बेचते और उसीसे अपना निर्वाह करते ; जो कुछ बच रहता , सो दीन - दुःखियोंको बाँट देते । एक दिन जो बंगालके हर्ताकर्ता थे , आज वे ही हरिप्रेमकी मादकताके प्रभावसे ऐसे दीन बन गये


 ! कुछ समयतक वृन्दावनमें निवास करके सनातन महाप्रभुसे मिलनेके लिये नीलाचलकी ओर चले । रास्ते में उन्हें एक चर्मरोग ( कुष्ठ ) हो गया । कविराज गोस्वामीने लिखा है कि झारखण्डके दूषित जलपानसे उनको यह रोग हो गया था । जो कुछ भी हो , सनातन रोगाक्रान्त होकर नीलाचल पहुँचे और अपनेको दीन , हीन और पतित मानकर श्रीहरिदासजीके यहाँ ठहर गये । श्रीहरिदासजीके यहाँ महाप्रभु रोज जाया करते । उन्होंने जाकर सनातनको देखा , सनातन दूरसे ही चरणोंमें प्रणाम करने लगे । महाप्रभुने दौड़कर उन्हें छातीसे लगाना चाहा ; पर सनातन पीछे हट गये और बोले कि ' प्रभो ! आप मुझे स्पर्श न करें , मैं अत्यन्त नीच तो हूँ ही , तिसपर मुझे कोढ़ हो गया है । इसलिये क्षमा करें । ' महाप्रभुने कहा- ' सनातन ! तुम्हारा शरीर मेरे लिये बड़ा ही पवित्र है , तुम श्रीकृष्णके भक्त हो ; तुमसे जो घृणा करेगा , वही अस्पृश्य है । ' यों कहकर महाप्रभुने सनातनको जबरदस्ती छातीसे लिपटा लिया , सनातनके कोढ़का मवाद महाप्रभुके सारे शरीरमें लग गया । महाप्रभुने सनातनसे कहा कि ' तुम्हारे दोनों भाई यहाँ आकर दस महीने रहे थे ; इसके बाद रूप तो वापस वृन्दावन लौट गये हैं और अनुपमको यहीं श्रीकृष्णकी प्राप्ति हो गयी है । ' छोटे भाईका मरण सुनकर सनातनको खेद हुआ । प्रभुने आश्वासन देकर सनातनसे कहा कि ' तुम यहीं हरिदासजीके पास रहो ; तुम दोनोंका ही श्रीकृष्णमें बड़ा प्रेम है , तुमलोगोंपर शीघ्र ही श्रीकृष्ण कृपा करेंगे । ' यों कहकर महाप्रभु चले गये और इसी प्रकार रोज - रोज वहाँ आकर सनातनको आलिंगन करने लगे । सनातनके मनमें इससे बड़ा क्षोभ होता था । 

भगवान् मंगलमय परम पिता हैं , वे तो अपनी संतानपर नित्य दयामय हैं ; उनसे कुछ भी माँगना उनकी दयालुतापर अविश्वास करना है । सनातनने कुष्ठकी भयानक पीड़ा सहर्ष सहन की ; परंतु किसी समय भी उनके मनमें यह संकल्प नहीं उठा कि मैं प्रभुसे अपने रोगकी निवृत्तिके लिये कुछ प्रार्थना करूँ । इन्हीं सब बातोंको दिखलाने के लिये समर्थ होनेपर भी प्रभुने केवल दर्शनमात्रसे सनातनके रोगका नाश नहीं किया । जब जगत् सनातनके अतुलनीय निष्कपट , निष्काम प्रेम और उनकी अनुकरणीय दीनतासे परिचित हो गया , बस , उसी समय सनातन रोगमुक्त हो गये । तदनन्तर महाप्रभुने सनातनको वृन्दावन जाकर जीवोंका उद्धार करनेकी अनुमति दी । महाप्रभुको छोड़कर जानेमें सनातनको असीम कष्ट था ; परंतु उनकी आज्ञाका उल्लंघन करना सनातनको उससे भी अधिक कष्टकर प्रतीत हुआ । सनातन वृन्दावन चले गये । रूप भी पहुँच गये । दोनोंने मिलकर वृन्दावनके उद्धारका कार्य किया ।


 सनातनने ' बृहद्भागवतामृत ' , ' हरिभक्तिविलास ' , ' लीलास्तव ' , ' स्मरणीय टीका ' , ' दिग्दर्शनी टीका ' और श्रीमद्भागवतके दशम स्कन्धपर ' वैष्णवतोषिणी ' नामक टीका बनायी । रूपने ' भक्तिरसामृतसिन्धु ' , ' मधुरामाहात्म्य ' , ' पदावली ' , ' हंसदूत ' , ' उद्धवसन्देश ' , ' अष्टादशकच्छन्दः ' , ' स्तवमाला ' , ' उत्कलिकावली ' , ' प्रेमेन्दुसागर ' , ' नाटकचन्द्रिका ' , ' लघुभागवततोषिणी ' , ' विदग्धमाधव ' , ' ललितमाधव ' , ' उज्ज्वलनीलमणि ' , ' दानकेलिभानिका ' और ' गोविन्दविरुदावली ' आदि अनेक अनुपम ग्रन्थोंकी रचना की । ' विदग्धमाधव ' की रचना वि ० संवत् १५८२ में हुई थी । इन सब ग्रन्थोंमें भक्त , भक्ति और श्रीकृष्णतत्त्व आदिका बड़ा विशद वर्णन है । दोनों भाई वहाँ वृक्षोंके नीचे सोते रहते - भीख माँगकर रूखी - सूखी खाते , फटी लँगोटी पहनते , गुदड़ी और करवा साथ रखते । आठ पहरमें केवल चार घड़ी सोते और शेष सब समय श्रीकृष्णका नाम - जप संकीर्तन और शास्त्रोंका प्रणयन करते । 


श्रीरूप और सनातन दोनों श्रीवृन्दावनमें ही गोलोकवासी हुए । एक समय जो विद्या , पद , ऐश्वर्य और मानमें मत्त थे , वे ही भगवत्कृपासे अत्यन्त विलक्षण निरभिमानी , निर्लोभी , वैराग्यवान् और परम प्रेमिक बन गये । 

श्रीप्रियादासजी श्रीरूपसनातनजीके विषयमें कहते हैं

 गोस्वामी श्रीनाभाजी श्रीरूपजी तथा श्रीसनातनजीके वैराग्यका वर्णन करनेमें ऐसे प्रेममग्न हो गये कि छप्पयके पाँच चरण वैराग्य - वर्णनमें ही पूरे हो गये । केवल एक चरण शेष रह गया , तब श्रीनाभाजीका मन अत्यन्त संतप्त हो उठा कि मैंने इनके प्रेमपक्षका तो कुछ वर्णन ही नहीं किया । फिर तो एक तुक शेष रह गयी थी , उसीमें करोड़ों कवित्तोंका अर्थ भर दिया । श्रीनाभाजीने इस स्थलपर कविताका सच्चा स्वरूप दिखलाया है । इस एक तुकमें श्रीनाभाजीने श्रीरूप- सनातनजीकी श्रीराधा - कृष्णरसकी आचार्यता वर्णन की है । अहो ! जिनकी कृपादृष्टिसे जनसाधारण भी प्रेम - पोथी पढ़े , पढ़ते हैं एवं पढ़ेंगे , उनके लिये यह कहना कि ' ये दोनों महानुभाव बड़े अनुरागी थे ' क्या कोई बड़ाई है ? अर्थात् नहीं भाव यह कि ये तो सहज ही प्रेमरूप थे ।


 कहत बैराग गये पागि नाभा स्वामी जू वै गई यों निबर तुक पाँच लागी आँचि है । रही एक माँझ धरयो कोटिक कवित्त अर्थ याही ठौर लै दिखायो कविताकौ साँचि है । राधाकृष्ण रसकी आचारजता कही यामें सोई जीवनाथभट्ट छप्पै बानी नाँचि है । बड़े अनुरागी ये तौ कहियो बड़ाई कहा अहो जिन कृपा दृष्टि प्रेम पोथी बाँचि है ।। 


 कालके कुचक्रसे व्रजमण्डलके तीर्थ प्रायः लुप्त गुप्त हो गये थे । अतः उन दिनों उन्हें और श्रीव्रजभूमि एवं श्रीवृन्दावनके स्वरूप एवं रहस्यको कोई जानता नहीं था । परंतु श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजीने

 श्रीब्रज- वृन्दावनके सम्बन्धमें जैसा कुछ कहा है , श्रीरूप- सनातनजीने वैसा ही प्रकट करके दिखा दिया । आपकी उपासनाकी रीति भी श्रीमद्भागवतके ही अनुसार थी । आपने रससार शृंगार रसकी उपासना अपनायी थी , जो कि रसिक महानुभावोंको परम सुखदायिनी है । श्रीगौरांग महाप्रभुका आदेश पाकर आपने कुछ दिनतक श्रीगोपीश्वर महादेवके निकट निवास किया और श्रीमहाप्रभुकी कृपासे सब प्रकारकी भक्ति पाकर बहुत - से भक्ति - ग्रन्थोंकी रचना की ग्रन्थोंमें वर्णित आपकी एक - एक बातमें मन , बुद्धि जब निमग्न होते हैं तो वह सुख मिलता है कि फिर शरीर पुलकायमान हो जाता है और आँखोंसे आँसुओंकी झड़ी - सी लग जाती है ।


वृन्दावन व्रज भूमि जानत न कोऊ प्राय दई दरसाय जैसी शुक मुख गाई है । रीति हूँ उपासनाकी भागवत अनुसार लियो रससार सो रसिक सुखदाई है ॥ 

आज्ञा प्रभु पाय पुनि ' गोपीस्वर ' लगे आय किये ग्रन्थ पाय भक्ति भाँति सब पाई है । एक एक बात में समात मन बुद्धि जब पुलकित गात दुग झरी सी लगाई है ॥ 

 एक समय श्रीरूपगोस्वामीजी श्रीनन्दग्राममें कदम्ब टेरपर भजन कर रहे थे । उसी समय बड़े भाई श्रीसनातनजी श्रीवृन्दावनसे आपके पास आये । उस समय श्रीरूपजीके मनमें यह विचार आया कि आज मैं परम सुखदायी खीरका भोग श्रीठाकुरजीको लगाकर वह प्रसाद अपने अग्रजको पवाऊँ । आपके मनमें किंचिन्मात्र ही यह विचार आया था कि तत्काल मानो भक्तोंको सुख देनेवाली लाडिली श्रीप्रियाजू एक बालिकाके रूपमें खीरका सब सामान ले आयीं । उसी सामानसे तुरंत रसोई करके श्रीठाकुरजीको भोग लगाया गया और जब वह प्रसाद लेकर श्रीसनातनजीने पाया तो उन्हें अत्यन्त प्रिय लगा तथा प्रेमका नशा सा छा गया , तब उन्होंने पूछा कि यह खीर कैसे बनी है ? इसमें तो अलौकिक स्वाद है , तब श्रीरूपजीने सब बात बतायी । सुनकर श्रीसनातनजीने कहा- अब पुनः ऐसी इच्छा मत करना । मेरी इस बातको हृदयमें दृढ़तापूर्वक धारण कर लो । तुम तो अपनी वैराग्यकी चालसे ही चलो । इतना कहते - कहते श्रीसनातनजीकी एवं उनका आदेश सुनकर श्रीरूप गोस्वामीजीकी आँखों में प्रेमाश्रु छलछला आये-

 रहे नन्दगाँव रूप आये श्रीसनातन जू महासुख रूप भोग खीर कौ लगाइयै । नेकु मन आई सुखदाई प्रिया लाडिली जू मानो कोऊ बालकी सुसौंज सब ल्याइयै ॥ करिकै रसोई सोई लै प्रसाद पायो भायौ अमलसो आयौ चढ़ि पूछी सो जताइयै । फेरि जिनि ऐसी करौ यही दृढ़ हिये धरौ ढरौ निज चाल कहि आँखें भरि आइयै ।। 

एक बार वैष्णव समाजमें श्रीरूप गोस्वामीजीके श्रीमुखसे श्रीराधा - कृष्णके रूप गुणका गान हो रहा था । जिसे कानोंसे सुनकर सभामें उपस्थित सभी लोगोंके प्राण व्याकुल हो गये , सबको मूर्च्छा - सी आ गयी । परंतु आप ( श्रीरूपजी ) बड़े ही धैर्यवान् थे । अतः यद्यपि भावावेशमें शरीरकी सुधि नहीं थी तो भी खड़े ही रहे और खड़े - खड़े रूप - गुणगान करते रहे । उस समय आपने प्रेमकी ऐसी रहस्यमय स्थितिका दर्शन कराया , जो बड़े - बड़े भावज्ञोंकी बुद्धिमें नहीं आ सकती है । ( वह यह कि उसी समय ) श्रीकर्णपूर गोस्वामीजीने आपके पीछे आकर अच्छी प्रकारसे देखा कि आप बिलकुल अच्छेसे , स्वस्थसे जान पड़ते हैं , किसी प्रकारकी आकुलता नहीं है । परंतु वह तनिक आपके समीप आये और आपकी श्वास उनके शरीरको लगी , तब वे आपके प्रेमको जान पाये । श्वासका स्पर्श होते ही उन्हें ऐसा लगा मानो अग्निकी लपट लग गयी हो तथा उनके शरीरपर अंगार छू जाने - जैसा चिह्न भी हो गया अर्थात् फफोले पड़ गये । प्रेमकी यह नवीन रीति भला किससे गायी जा सकती है ।

 रूप गुण गान होत कान सुनि सभा सब अति अकुलान प्रान मूरछा सी आई है । बड़े आप धीर रहे ठाढ़े न शरीर सुधि बुधि में न आवै ऐसी बात लै दिखाई है । श्रीगुसाई कर्णपूर पाछे आये देखे आछे नेकु ढिंग भये स्वास लग्यौ तब पाई है । मानौ आगि आँचि लागी ऐसो तन चिह्न भयाँ नयाँ यह प्रेमरीति कार्य जात गाई है । 


 एक दिन रात्रिके समय ठाकुर श्रीगोविन्दचन्द्रजीने आपको स्वप्नमें दर्शन दिया और कहा कि मैं खिरक ( गोमटीला ) के भूगर्भमें निवास करता हूँ । एक गैया नित्यप्रति सुबह - शाम तथा रात्रिको भी अपनी दूधकी धारासे मेरा अभिषेक करती है और हमारा पोषण करती है । आप वहाँ जाकर देखिये , तब स्वयं जान जायेंगे । श्रीठाकुरजीके संकेतानुसार श्रीरूप गोस्वामीजीने श्रीगोविन्दचन्द्र भगवान्‌का स्वरूप प्रकट किया । श्रीठाकुर गोविन्ददेवजीकी अत्यन्त ही अनुपम छवि है । चतुर रसिकजन रसिकेन्द्रचूडामणि श्रीराधागोविन्द एवं परम रसिक श्रीरूपजीका निरन्तर हृदयमें ध्यान करते हैं श्रीगोविन्दचन्द आय निसि का स्वपन दियाँ दियाँ कहि भेद सब जासों पहिचानिये । रही मैं खिरक माँझ पोष निसिभोर साँझ साँचै दूधधार गाय जाय देखि जानिये ॥ प्रगट लै कियो रूप अति ही अनूप छवि कवि कैसे कहै थकि रहे लखि मानिये । कहाँ लाँ बखानों भर सागर न गागर में नागर रसिक हिये निसि दिन आनियै ॥ 

एक बार श्रीसनातनजी नन्दगाँवमें पावन सरोवरपर रह रहे थे । भजनमें मन लग जानेसे तीन दिन न तो गाँवमें मधुकरी आदि माँगने गये और न तो संयोगसे गाँवका ही कोई सरोवरकी ओर आया । चौथे दिन एक श्यामवर्णका बालक ( स्वयं ठाकुर श्रीमदनमोहनजी ) दूध लेकर आया और उसने प्रार्थनापूर्वक इन्हें दूध पिलाया । बालककी रूप - माधुरीसे आकृष्ट होकर इन्होंने पूछा- तुम कहाँ रहते हो ? तब बालकने अपने घरका पता बताया तथा कहा कि हम चार भाई श्रीहरदेवजी गोवर्धनमें , श्रीवलदेवजी बलदेव ग्राममें , श्रीकेशवदेवजी मथुरामें , श्रीगोविन्ददेवजी वृन्दावनमें हैं , साथ ही पिताजी ( श्रीनन्दूजी ) का भी परिचय दिया । बालकके चले जानेपर श्रीसनातनजीका मन पुनः बालकके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हुआ , अतः सरोवरसे उठकर नन्दगाँव गये और उन्होंने घर - घर पूछा , परंतु कहीं भी बालकरूपधारी श्रीहरिको नहीं पाया । चारों ओर खोज - खोजकर हार गये । इनकी आँखोंमें आँसू भर आये , तब आपने निश्चय किया कि यदि अबकी बार वह बालक आयेगा तो उसे जाने नहीं दूंगा । श्रीसनातनजीको बालकके सिरपर बँधी लाल पगिया बहुत ही अच्छी लग रही थी । आप रात - दिन उसी लालपागवाले साँवरे किशोरका ध्यान करने लगे रहें


 श्रीसनातन जू नन्दगांव पावन पै आव न दिवस तीन दूध लै कै प्यारियै । साँवरो किशोर , आप पूछे किहिं ओर रहो ? कहे चारि भाई पिता रीतिहूँ उचारियै ॥ गये ग्राम , बूझी घर हरि पै न पाये कहूँ चहूँ दिसि हेरि हेरि नैन भरि डारियै । अब कै जो आवै फेर जान नहिं पावै सीस लाल पाग भावै निसिदिन उर धारियै ॥ 

 श्रीरूप गोस्वामीजीने ' चाटु पुष्पांजलि ' नामक स्तोत्रमें श्रीराधिकाजीकी वेणीकी नागिनसे उपमा दी है । इस प्रसंगको जब श्रीसनातनजीने पढ़ा तथा श्रीराधिकाजीका स्वरूप नेत्रोंसे देखा तो उन्हें यह उपमा नहीं जँची । उन्होंने सोचा कि जान पड़ता है भाईने भावपद्धतिसे हटकर केवल काव्यपद्धतिका अनुसरण करते हुए ऐसा लिखा है । परंतु एक दिन आप श्रीराधाकुण्डके किनारे बैठे भजन कर रहे थे । इतनेमें क्या देखा कि एक वृक्षकी डालपर झूला पड़ा हुआ है , उसपर बैठी एक गौरवर्णकी किशोरी प्रफुल्लितमना झूल रही है और सखियाँ उमंगमें भरी झुला रही हैं । उस किशोरीकी पीठपर आपको लपलपाती हुई नागिन - सी दिखायी पड़ी । आप तुरंत ही नागिनसे किशोरीकी रक्षा करनेके लिये दौड़ पड़े । परंतु समीप पहुँचनेपर देखा कि वह नागिन नहीं है , वस्तुतस्तु उसकी वेणी है । इतनेमें ही वह झूलेका दृश्य भी अन्तर्धान हो गया । 

फिर तो आप समझ गये कि यह तो साक्षात् किशोरी श्रीराधिकाजी सखियोंके साथ झूला झूल रही थीं और हमारे भ्रमका निवारण करनेके लिये यह लीला की थी । फिर तो आप अपने छोटे भाई श्रीरूपजीके पास आये और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकी परिक्रमा की । बड़े भाईको अपनी परिक्रमा करते देखकर श्रीरूपजीने भयभीत होकर इनके चरण पकड़ लिये । श्रीसनातनजीने उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया । दोनों ही भाई प्रेमरससारमें पगे रहते थे । आप दोनोंके चरित्र अपार हैं । आपका सुयश संसारमें जगमगा रहा है ।

 कही ब्याली रूप बेनी निरखि सरूप नैन जानी श्रीसनातन जू काव्य अनुसारियै । राधासर तीर द्रुम डार गहि झूलै फूलै देखत लफलफात गति मति वारियै ॥ 

आये यों अनुज पास फिरे आसपास देखि भयो अति त्रास गहे पाउँ उर धारियै । चरित अपार उभै भाई हित सार पगे जगे जग माहिं मति मनमैं उचारियै ॥ 


 श्रीहितहरिवंशजी गोस्वामी राधा चरन प्रधान हृदय अति सुदृढ़ उपासी । कुंज केलि दंपती तहाँ की करत खवासी ॥ सर्बसु महाप्रसाद प्रसिध ताके अधिकारी । बिधि निषेध नहिं दास अननि उतकट व्रत धारी ॥ ब्यास सवन पश अनसरे सोड भलें पहिचानिहै ।


हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन 


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