गरुडपुराण सारोद्धार पहला अध्याय
भगवान् विष्णु तथा गरुडके संवादमें गरुडपुराण - सारोद्धारका उपक्रम , पापी मनुष्योंकी इस लोक तथा परलोक में होनेवाली दुर्गतिका वर्णन , दशगात्रके पिण्डदानसे यातनादेशका निर्माण
धर्मदृढबद्धमूलो वेदस्कन्धः पुराणशाखाढ्य : । क्रतुकुसुमो मोक्षफलो मधुसूदनपादपो जयति ॥ १
शौनकादयः । सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्त्रसममासत ॥२
धर्म ही जिसका सुदृढ़ मूल है , वेद जिसका स्कन्ध ( तना ) है , पुराणरूपी शाखाओंसे जो समृद्ध है , यह जिसका नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे पुष्प है और मोक्ष जिसका फल है , ऐसे भगवान् मधुसूदनरूपी पादप कल्पवृक्षकी जय हो ॥ १
देव क्षेत्र नैमिषारण्यमें स्वर्गलोककी प्राप्तिकी कामनासे शौनकादि ऋषियोंने ( एक बार ) सहस्रवर्षमें पूर्ण होनेवाला यज्ञ प्रारम्भ ऋषयः किया ॥ २
जैसे वृक्ष सबको आश्रय देता है , वैसे ही भगवान् भी अपने चरणारविन्दोंने आश्रय देकर सबकी रक्षा करते हैं , इसलिये भगव मधुसूदनको यहाँ पादप ( पद्भ्यां चरणाच्या पाति रक्षतीति पादपः ) - वृक्षकी उपमा दी गयी है ।
एकदा मुनयः सर्वे प्रातहुतहुताग्नयः सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात् ॥ ३
एक समय प्रातः कालके हवनादि कृत्योंका सम्पादन करके उन सभी मुनियोंने सत्कार किये गये आसनासीन सूतजी महाराजसे आदरपूर्वक यह पूछा- ॥ ३
ऋत्य ऊचुः तथा कथितो भवता सम्यग्देवमार्गः सुखप्रदः । इदानीं श्रोतुमिच्छामो यममार्ग भवप्रदम् ॥ ४
संसारदुःखानि तत्क्लेशक्षयसाधनम् । ऐहिकामुष्मिकान् क्लेशान् यथावद्वक्तुमर्हसि ॥ ५
ऋषियोंने कहा- ( हे सूतजी महाराज ! ) आपने सुख देनेवाले देवमार्गका सम्यक् निरूपण किया है । इस समय हम लोग भयावह यममार्गके विषयमें सुनना चाहते हैं । आप सांसारिक दुःखोंको और उस क्लेशके विनाशक साधनको तथा इस लोक और परलोकके क्लेशोंको यथावत् वर्णन करनेमें समर्थ हैं [ अतः उसका वर्णन कीजिये ] ॥ ४५
सूत उवाच शृणुध्वं भो विवक्ष्यामि यममार्ग सुदुर्गमम् । सुखदं पुण्यशीलानां पापिनां दुःखदायकम् ॥ ६
यथा श्रीविष्णुना प्रोक्तं वैनतेयाय पृच्छते । तथैव कथयिष्यामि संदेहच्छेदनाय वः ॥ ७
सूतजी बोले- हे मुनियो । आप लोग सुनें । मैं अत्यन्त दुर्गम यममार्गके विषयमें कहता हूँ , जो पुण्यात्माजनोंके लिये सुखद और पापियोंके लिओ दुःखद है । गरुडजीके पूछनेपर भगवान् विष्णुने ( उनसे ) जैसा कुछ कहा था , मैं उसी प्रकार आप लोगोंके संदेहकी मृत्तिके लिये कहूँगा ॥ ६-७
कदाचित् सुखमासीनं कुण्ठ श्रीहरि गुरुम् विनयावनतो भूत्या पप्रच्छ विनतासुतः ॥ ८
किसी समय बैकुण्ठ में सुखपूर्वक विराजमान परम गुरु श्रीहरिसे विनतापुत्र गरुडजीने विनयसे झुककर पूछ- ॥८
गरुडपा श्रोतुमिच्छामि यममार्ग सुगम भगवन्नाम जिह्वा च भक्तिमार्गों बहुविध : कथितो भवता मम तथा च कथिता देव भक्तानां गतिरुत्तमा ॥ ९
भयंकरम् । त्वद्भक्तिविमुखान च तत्रैव गमनं श्रुतम् ।। १०
। अधुना यशवर्तिनी । तथापि नरकं यान्ति धिग धिगस्तु नराधमान् ॥ ११
अतो मे भगवन् ब्रूहि पापिन या गतिर्भवेत् । यममार्गस्य दुःखानि यथा ते प्राप्नुवन्ति हि ॥ १२
गरुडजीने कहा- हे देव आपने भक्तिमार्गका अनेक प्रकारसे मेरे समक्ष वर्णन किया है और भक्तोंको प्राप्त होनेवाली उत्तम गतिके विषय में भी कहा है । अब हम भयंकर यममार्गक विषय में सुनना चाहते हैं । हमने सुना है कि आपकी भक्तिसे विमुख प्राणी वहीं ( नरकमें ) जाते हैं ॥ ९ -१०
भगवान्का नाम सुगमतापूर्वक लिया जा . सकता है , जिहा प्राणीके अपने वशमें है तो भी लोग नरकको जाते हैं , ऐसे अधम मनुष्याँको बार - बार धिक्कार है । इसलिये है भगवन् । पापियाँको गति प्राप्त होती है तथा यममार्गमें जैसे वे अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त करते हैं , उसे आप मुझसे कहें ।। ११-१२
वक्ष्येऽहं शृणु पक्षीन्द्र यममार्ग च येन ये । नरके पापिनो यान्ति शृण्वतामपि भीतिदम् ॥ १३
पहला अध्याय श्रीभगवान् बोले - हे पक्षीन्द्र सुनो , मैं उस यसमार्गक विषयमें कहता हूँ , जिस मार्गसे पायीजन नरककी यात्रा करते हैं और जो सुननेवालोंके लिये भी भयावह है ॥ १३
हि ये आत्मसम्भाविताः स्तव्या अनेकचित्तविभ्रान्ता पापरतास्तार्क्ष्य दयाधर्मविवर्जिताः । दुष्टसङ्गाश्च सच्छास्त्रसत्संगतिपराङ्मुखाः ॥ १४
धनमानमदान्विताः । आसुरं भावमापत्रा दैवीसम्पद्विवर्जिताः ॥ १५
मोहजालसमावृताः । प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १६
ये नरा ज्ञानशीलाच ते यान्ति परमां गतिम् । पापशीला नरा यान्ति दुःखेन यमयातनाम् ॥ १७
पापिनामैहिकं दुःखं यथा भवति तच्छृणु । ततस्ते मरणं प्राप्य यथा गच्छन्ति यातनाम् ॥ १८
हे तार्क्ष्य ! जो प्राणी सदा पापपरायण हैं , दया और धर्मसे रहित हैं , जो दुष्ट लोगोंकी संगतिमें रहते हैं , सत् शास्त्र और सत्संगतिसे विमुख हैं ; जो अपनेको स्वयंप्रतिष्ठित मानते हैं , अहंकारी हैं तथा धन और मानके मदसे चूर हैं , आसुरी शक्तिको प्राप्त हैं तथा दैवी सम्पत्तिसे रहित हैं , जिनका चित अनेक विषयोंमें आसक्त होनेसे भ्रान्त है , जो मोहके जालमें फँसे हैं और कामनाओंके भोगमें ही लगे हैं , ऐसे व्यक्ति अपवित्र नरकमें गिरते हैं । जो लोग ज्ञानशील हैं , वे परम गतिको प्राप्त होते हैं । पापी मनुष्य दुःखपूर्वक यमयातना प्राप्त करते हैं॥१४-१७
पापियोंको इस लोकमें जैसे दुःखकी प्राप्ति होती है और मृत्युके पश्चात् वे जैसी यमयातनाको प्राप्त होते हैं , उसे सुनो ।। १८
सुकृत दुष्कृतं वापि भुक्ता पूर्व यथार्जितम् । कर्मयोगात् तदा तस्य कश्चिद् व्याधिः प्रजायते ॥ १ ९
प्रियमाणः आधिव्याधिसमायुक्तं तत्राप्यजातनिर्वेदो आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल वायुनोत्क्रमतोत्तारः यथोपार्जित पुण्य और पापके फलोंको जीविताशासमुत्सुकम् । कालो बलीयानहिवदज्ञातः प्रतिपद्यते ॥ २०
स्वयम्भूतैः । जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥ २१
इवाहरन् । आमयाव्यप्रदीप्ताग्निरल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ २२
कफसंरुद्धनाडिकः । कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते ॥ २३
पूर्वमें भोगकर कर्मके सम्बन्धसे उसे कोई शारीरिक रोग हो जाता है ॥ १ ९
आधि ( मानसिक रोग ) और व्याधि ( शारीरिक रोग ) से युक्त तथा जीवनधारण करनेकी आशासे उत्कण्ठित उस व्यक्तिको जानकारीके बिना ही सर्पको भाँति बलवान् काल उसके समीप आ पहुँचता है ॥ २०
उस मृत्युको सम्प्राप्तिकी स्थितिमें भी उसे वैराग्य नहीं होता । उसने जिनका भरण - पोषण किया था , उन्हींके द्वारा उसका भरण - पोषण होता है , वृद्धावस्था के कारण विकृत रूपवाला और मरणाभिमुख वह व्यक्ति घरमें अवमाननापूर्वक दी हुई वस्तुको कुत्तेकी भाँति खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है । वह रोगी हो जाता है , उसे मन्दाग्नि हो जाती है और उसका आहार तथा उसकी सभी चेष्टाएँ कम हो जाती हैं ॥ २१-२२
प्राणवायुके बाहर निकलते समय आँखें उलट जाती हैं , नाडियाँ कफसे रुक जाती हैं , उसे खाँसी और श्वास लेने में प्रयत्न करना पड़ता है तथा कण्ठसे घुर् - घुर् - से शब्द निकलने लगते हैं ॥ २३
पहला अध्याय शयानः परिशोचद्भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः । वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशंगतः ॥ २४
एव कुटुम्बभरणे व्याप्तात्माऽजितेन्द्रियः । म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयास्तधीः ॥ २५
तस्मिन्नन्तक्षणे तार्क्ष्य दैवी दृष्टिः प्रजायते । एकीभूतं जगत्सर्वं न किंचिद्वक्तुमीहते ॥ २६
गते । प्रचलन्ति ततः प्राणा याम्यैर्निकटवर्तिभिः ॥ २७
विकलेन्द्रियसंघाते चैतन्ये जडतां स्वस्थानाच्चलिते श्वासे कल्पाख्या ह्यातुरक्षणः । शतवृश्चिकदंष्ट्रस्य या पीडा साऽनुभूयते ॥ २८
फेनमुद्रिरते सोऽथ मुखं लालाकुलं भवेत् । अघोद्वारेण गच्छन्ति पापिनां प्राणवायवः ॥ २ ९
चिन्तामन्त्र स्वजनोंसे घिरा हुआ तथा सोया हुआ वह ( व्यक्ति ) कालपाशके वशीभूत होनेके कारण बुलानेपर भी नहीं बोलता ॥ २४
इस प्रकार कुटुम्बके भरण - पोषणमें ही निरन्तर लगा रहनेवाला , अजितेन्द्रिय व्यक्ति ( अन्तमें ) रोते - बिलखते बन्धुबान्धवोंके बीच उत्कट वेदनासे संज्ञाशून्य होकर मर जाता है ॥ २५
हे गरुड ! उस अन्तिम क्षणमें प्राणीको व्यापक ( दिव्य ) दृष्टि प्राप्त हो जाती है , जिससे वह लोक - परलोकको एकत्र देखने लगता है । अतः चकित होकर वह कुछ भी कहना नहीं चाहता ॥ २६
यमदूतोंके समीप आनेपर सभी इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं , चेतना जडीभूत हो जाती है और प्राण चलायमान हो जाते हैं ॥ २७
आतुरकालमें प्राणवायुके अपने स्थानसे चल देनेपर एक क्षण भी एक कल्पके समान प्रतीत होता है और सौ बिच्छुओंके डंक मारनेसे जैसी पीडा होती है , वैसी पीडाका उस समय ( उसे ) अनुभव होने लगता है ॥ २८
वह मरणासन्न व्यक्ति फेन उगलने लगता है और उसका मुख लारसे भर जाता है । पौरोजनोंके प्राणवायु अधोद्वार ( गुदामार्ग ) से निकलते हैं ॥ २ ९
यमदूतौ तदा प्राप्तौ भीमी सरभसेक्षणौ । पाशदण्डधरौ नग्नौ दन्तैः कटकटायितौ ॥ ३०
ऊर्ध्वकेशौ काककृष्णौ वक्रतुण्डौ नखायुधौ । स दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः सकृन्मूत्रं विमुञ्चति ॥ ३१
अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो हाहा कुर्वन् कलेवरात् । तदैव गृह्यते दूतैर्याम्यैः पश्यन् स्वकं गृहम् ॥ ३२
यातनादेहमावृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले बलात् । नयतो दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा यथा ॥ ३३
तस्यैवं नीयमानस्य दूताः संतर्जयन्ति च । प्रवदन्ति भयं तीव्रं नरकाणां पुनः पुनः ॥ ३४
उस समय दोनों हाथों में पाश और दण्ड धारण किये , नग्न , दाँतोंको कटकटाते हुए क्रोधपूर्ण नेत्रवाले यमके दो भयंकर दूत समीपमें आते हैं ॥ ३०
उनके केश ऊपरकी ओर उठे होते हैं , वे कौएके समान काले होते हैं और टेढ़े मुखवाले होते हैं तथा उनके नख आयुधकी भाँति होते हैं । उन्हें देखकर भयभीत हृदयवाला वह मरणासन्न प्राणी मल - मूत्रका विसर्जन करने लगता है ॥ ३१
अपने पाञ्चभौतिक शरीरसे हाय - हाय करते हुए निकलता हुआ तथा यमदूतोंके द्वारा पकड़ा हुआ वह अङ्गुष्ठमात्र प्रमाणका पुरुष अपने घरको देखता हुआ यमदूतोंके द्वारा यातनादेहसे ढक करके गलेमें बलपूर्वक पाशोंसे बाँधकर सुदूर यममार्गपर यातनाके लिये उसी प्रकार ले जाया जाता है , जिस प्रकार राजपुरुष दण्डनीय अपराधीको ले जाते हैं ॥ ३२-३३
इस प्रकार ले जाये जाते हुए उस जीवको यमके दूत तर्जना करके डराते हैं और नरकोंके तीव्र भयका पुनः पुनः वर्णन करते हैं ( सुनाते हैं ) - ॥ ३४
शीघ्रं प्रचल दुष्टात्मन् यास्यसि त्वं यमालयम् । कुम्भीपाकादिनरकांस्त्वां नयावोऽद्य मा चिरम् ॥ ३५
यमदूत कहते हैं रे दुष्ट । शीघ्र चल , तुम यमलोक जाओगे । आज तुम्हें हम सबकुम्भीपाक आदि नरकोंमें शीघ्र हो ले जायेंगे ॥ ३५
एवं तत्र तत्र वाचस्तदा शृण्वन् बन्धूनां रुदित तथा उच्चैहहिति विलयंस्ताडयते यमकिङ्करः ॥ ३६
पथि श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽयं स्वमनुस्मरन् ॥ ३७
तयोनिभित्रहृदयस्सर्जनजतिवेपथुः सुपरीतो ऽकंदवानलानिलैः तप्तवालुके । संतप्यमानः पथि कृच्छ्रेण पृष्ठे कशया च ताडितश्चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके ॥ ३८
पतञ्हान्तो मूर्च्छितः पुनरुत्थितः । यथा पापीयसा नीतस्तमसा यमसादनम् ॥ ३ ९
इस प्रकार यमदूतोंको वाणी तथा बन्धुबान्धवाँका रुदन सुनता हुआ वह जीव जोरसे हाहाकार करके विलाप करता है और यमदूतोंके द्वारा प्रताड़ित किया जाता है ॥ ३६
यमदूतोंकी तर्जनाओंसे उसका हृदय विदीर्ण हो जाता है , यह काँपने लगता है , रास्ते में उसे कुत्ते काटते हैं और अपने पापका स्मरण करता हुआ वह पीडित जीव ( यममार्गमें ) चलता है ॥ ३७
भूख और प्याससे पीडित होकर सूर्य , दावाग्नि एवं वायु ( -के झोंकों ) से संतप्त होते हुए और यमदूतोंके द्वारा पीठपर कोड़ेसे पीटे जाते हुए उस जीवको तपी हुई बालुकासे पूर्ण तथा विश्रामरहित और जलरहित मार्गपर असमर्थ होते हुए भी बड़ी कठिनाईसे चलना पड़ता है ॥ ३८
थककर जगह - जगह गिरता और मूर्च्छित होता हुआ वह पुनः उठकर पापीजनोंकी भाँति अन्धकारपूर्ण यमलोकमें ले जाया जाता है ॥ ३ ९
त्रिभिर्मुहूर्तैद्वारभ्या वा नीयते तत्र मानवः । प्रदर्शयन्ति दूतास्ताः घोरा नरकयातनाः ॥ ४० ॥
मुहूर्तमात्रात् त्वरितं यमं वीक्ष्य भयं पुमान् यमाज्ञया समं दूतैः पुनरायाति खेचरः ॥ ४१
आगम्य वासनावद्धो देहमिच्छन् यमानुगैः । धृतः पाशेन रुदति भुत्तृभ्यां परिपीडितः ॥ ४२
दो अथवा तीन मुहूर्तमें वह मनुष्य वहाँ पहुँचाया जाता है और यमदूत उसे घोर नरकयातनाओंको दिखाते हैं ॥ ४०
मुहूर्तमात्रमें यमको और नारकीय यातनाओंके भयको देखकर वह व्यक्ति यमकी आज्ञासे आकाशमार्गसे यमदूतोंके साथ पुनः इस लोक ( मनुष्यलोक ) में चला आता है ॥ ४१
मनुष्यलोकमें आकर अनादि वासनासे बद्ध वह जीव देहमें प्रविष्ट होनेकी इच्छा रखता है , किंतु यमदूतद्वारा पकड़कर पाशमें बाँध दिये जानेसे भूख और प्याससे अत्यन्त पीडित होकर रोता है ॥ ४२
भुङ्गे पिण्डं सुतैर्दत्तं दानं चातुरकालिकम् । तथापि नास्तिकस्तार्क्ष्य तृप्तिं याति न पातकी ॥ ४३
पापिनां नोपतिष्ठन्ति दानं श्राद्धं जलाञ्जलिः । अतः क्षुद्व्याकुला यान्ति पिण्डदानभुजोऽपि ते ॥ ४४
भवन्ति प्रेतरूपास्ते पिण्डदानविवर्जिताः । आकल्पं निर्जनारण्ये भ्रमन्ति बहुदुःखिताः ॥ ४५
हे तार्क्ष्य ! वह पातकी प्राणी पुत्रोंसे दिये हुए पिण्ड तथा आतुरकालमें दिये हुए दानको प्राप्त करता है तो भी उस नास्तिकको तृप्ति नहीं होती ॥ ४३
पुत्रादिके द्वारा पापियोंके उद्देश्यसे किये गये श्राद्ध , दान तथा जलाञ्जलि उनके पास ठहरती नहीं । अतः पिण्डदानका भोग करनेपर भी वे क्षुधासे व्याकुल होकर ( यममार्गमें ) जाते हैं ॥
जिनका पिण्डदान नहीं होता , वे प्रेतरूपमें होकर कल्पपर्यन्त निर्जन वनमें बहुत दुःखी होकर भ्रमण करते रहते हैं ॥ ४५
कल्पकोटिशतैरपि । अभुक्त्वा यातनां जन्तुर्मानुष्यं लभते न हि ॥ ४६
नाभुक्तं प्रत्यहं ते विभाज्यन्ते चतुर्भागः खगोत्तम ॥ ४७
कर्म अतो दद्यात् सुतः पिण्डान् दिनेषु दशसु द्विज भागद्वयं तु देहस्य अहोरात्रैश्च नयभिः दग्धे देहे प्रेतः पुनर्देहः पुष्टिदं भूतपञ्चके तृतीयं यमदूतानां चतुर्थ सोपजीवति ॥ ४८
पिण्डमवाप्नुयात् । जन्तुर्निष्पन्नदेहश्च दशमे बलमाप्नुयात् ॥ ४ ९
खग हस्तमात्रः पुमान् येन पथि भुंक्ते शुभाशुभम् ॥ ५०
पिण्डैरुत्पद्यते सैकड़ों करोड़ कल्प बीत जानेपर भी बिना भोग किये कर्मफलका नाश नहीं होता और जबतक वह पापी जीव यातनाओंका भोग नहीं कर लेता , तबतक उसे मनुष्य शरीर भी प्राप्त नहीं होता ॥ ४६
हे पक्षी इसलिये पुत्रको चाहिये कि वह दस दिनोंतक प्रतिदिन पिण्डदान करे । हे पक्षिश्रेष्ठ वे पिण्ड प्रतिदिन चार भागों में विभक्त होते हैं । उनमें दो भाग तो प्रेतके देहके पञ्चभूतोकी पुष्टिके लिये होते हैं , तीसरा भाग यमदूतोंको प्राप्त होता है । और चौथे भागसे उस जीवको आहार प्राप्त होता है ॥ ४७-४८
नौ रात - दिनोंमें पिण्डको प्राप्त करके प्रेतका शरीर बन जाता है और दसवें दिन उसमें बलको प्राप्ति होती है ॥ ४ ९
हे खग ! मृत व्यक्तिके देहके जल जानेपर पिण्डके द्वारा पुनः एक हाथ लम्बा शरीर प्राप्त होता है , जिसके द्वारा वह प्राणी ( यमलोकके ) रास्तेमें शुभ और अशुभ कमक फलको भोगता है ॥ ५०
प्रथमेऽहनि यः पिण्डस्तेन मूर्धा प्रजायते । ग्रीवास्कन्धौ द्वितीयेन तृतीयाद्धृदयं भवेत् ॥ ५१
चतुर्थेन भवेत् पृष्ठं पञ्चमान्नाभिरेव च ऊरुश्चाष्टमे चैव जान्वइग्री नवमे षष्ठे च सप्तमे चैव कटी गुह्यं प्रजायते ॥ ५२
तथा । नवभिर्देहमासाद्य दशमेऽहि क्षुधा तृषा ॥ ५३ ॥
पिण्डजं देहमाश्रित्य त्रयोदशेऽहनि प्रेतो पडशीतिसहस्त्राणि क्षुधाविष्टस्तृषार्दितः । एकादशं द्वादशं च प्रेतो भुङ्गे दिनद्वयम् ॥ ५४
यन्त्रितो यमकिङ्करैः । तस्मिन् मार्गे व्रजत्येको गृहीत इव मर्कटः ॥ ५५
योजनानां प्रमाणतः । यममार्गस्य विस्तारो विना वैतरणीं खग ॥५६
पहले दिन जो पिण्ड दिया जाता है , उससे उसका सिर बनता है , दूसरे दिनके पिण्डसे ग्रीवा ( गरदन ) और स्कन्ध ( कंधे ) तथा तीसरे पिण्डसे हृदय बनता है ॥ ५१
चौथे पिण्डसे पृष्ठभाग ( पीठ ) , पाँचवेंसे नाभि , छठे तथा सातवें पिण्डसे क्रमश : कटि ( कमर ) और गुह्याङ्ग उत्पन्न होते हैं ॥ ५२
आठवें पिण्डसे करु ( जाँघें ) और नौवें पिण्डसे जानु ( घुटने ) तथा पैर बनते हैं । इस प्रकार नौ पिण्डोंसे देहको प्राप्त करके दसवें पिण्डसे उसकी क्षुधा और तृषा ( भूख - प्यास ) – ये दोनों जाग्रत होती हैं ॥ ५३
इस पिण्डज शरीरको प्राप्त करके भूख और प्याससे पीडित जीव ग्यारहवें तथा बारहवें - दो दिन भोजन करता है ॥५४
तेरहवें दिन यमदूतोंके द्वारा बन्दरकी तरह बँधा हुआ वह प्राणी अकेला उस यममार्गमें जाता है ॥ ५५
हे खग ( मार्गमें मिलनेवाली ) वैतरणीको छोड़कर यमलोकके मार्गकी दूरीका प्रमाण छियासी हजार योजन है ॥५६
अहन्यहनि वै प्रेतो योजनानां शतद्वयम् चत्वारिंशत् तथा सप्त दिवारात्रेण गच्छति ॥ ५७
अतीत्य क्रमशो मार्गे पुराणीमानि षोडश प्रयाति धर्मराजस्य भवनं पातकी जनः ॥ ५८
सौम्यं सौरिपुरं नगेन्द्रभवनं गन्धर्वशैलागमौ क्रौञ्चं क्रूरपुरं विचित्रभवनं बह्वापदं दुःखदम् । नानाक्रन्दपुरं सुतप्तभवनं रौद्रं पयोवर्षणं शीताढ्यं बहुभीति धर्मभवनं याम्यं पुरं चाग्रतः ॥ ५ ९
याम्यपाशैर्धृतः पापी हाहेति प्ररुदन् पथि । स्वगृहं तु परित्यज्य पुरं याम्यमनुव्रजेत् ॥ ६०
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे पापिनामैहिकामुष्मिकदुःखनिरूपणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ वह प्रेत प्रतिदिन रात - दिनमें दो सौ सैंतालीस योजन चलता है ॥ ५७
मार्गमें आये हुए इन सोलह पुरों ( नगरों ) - को पार करके पातकी व्यक्ति धर्मराजके भवनमें जाता है । ( १ ) सौम्यपुर , ( २ ) सौरिपुर , ( ३ ) नगेन्द्रभवन , ( ४ ) गन्धर्वपुर , ( ५ ) शैलागम , ( ६ ) क्रौञ्चपुर , ( ७ ) क्रूरपुर , ( ८ ) विचित्रभवन , ( ९ ) बहापदपुर , ( १० ) दुःखदपुर , ( ११ ) नानाक्रन्दपुर , ( १२ ) सुतप्तभवन , ( १३ ) रौद्रपुर , ( १४ ) पयोवर्षणपुर , ( १५ ) शीताढ्यपुर तथा ( १६ ) बहुभीतिपुरको पार करके इनके आगे यमपुरीमें धर्मराजका भवन स्थित है ॥ ५८-५९
यमराजके दूतोंके पाशोंसे बँधा हुआ पापी जीव रास्तेभर हाहाकार करता - रोता हुआ अपने घरको छोड़ करके यमपुरीको जाता है ।॥ ६०
इस प्रकार गरुडपुराणके अन्तर्गत सारोद्धारमें ' पापियोंके इस लोक तथा परलोकके दुःखका निरूपण ' नामका पहला अध्याय पूरा हुआ ॥
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
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