सारोद्धार गरुड पुराण दूसरा अध्याय
यममार्गकी यातनाओंका वर्णन , वैतरणी नदीका स्वरूप , यममार्गके सोलह पुरोमें क्रमशः गमन तथा वहाँ पुत्रादिकोंद्वारा दिये गये पिण्डदानको ग्रहण करना
गरुड उवाच
कीदृशो यमलोकस्य पन्था भवति दुःखदः । तत्र यान्ति यथा पापास्तन्मे कथय केशव ॥ १ ॥ गरुडजीने कहा- हे केशव यमलोकका मार्ग किस प्रकार दुःखदायी होता है । पापीलोग वहाँ जिस प्रकार जाते हैं , वह मुझे बताइये ॥ १
कथयाम्यहम् । मम भक्तोऽपि तच्छ्रुत्वा त्वं भविष्यसि कम्पितः ॥ २
यममार्ग महद्दुःखप्रदं ते वृक्षच्छाया न तत्रास्ति यत्र विश्रमते नरः । यस्मिन् मार्गे न चात्राद्यं येन प्राणान् समुद्धरेत् ॥ ३
न जलं दृश्यते कापि तृषितोऽतीव यः पिवेत् । तप्यन्ते द्वादशादित्याः प्रलयान्ते यथा खग ॥ ४
श्रीभगवान् बोले - हे गरुड ! महान् दुःख प्रदान करनेवाले यममार्गके विषय में मैं तुमसे कहता हूँ , मेरा भक्त होनेपर भी तुम उसे सुनकर काँप उठोगे ॥ २
यममार्गमें वृक्षकी छाया नहीं है , जहाँ प्राणी विश्राम कर सके । उस ॥ ३
वहाँ कहीं जल भी नहीं दीखता , जिसे अत्यन्त तृषातुर वह ( जीव ) पी सके । यहाँ प्रलयकालकी भाँति बारहों सूर्य तपते रहते हैं ॥ ४
तस्मिन् गच्छति पापात्मा शीतयातेन पीडितः । कण्टकैविध्यते कापि कचित्तसपैर्महाविषैः ।। ५
सिंहव्याघ्रः श्वभिघरिर्भक्ष्यते कापि पापकृत् वृद्धिकैदश्यते कापि कचिह्यति वहिना ॥ ६
कचिन्महाघोरमसिपत्रवनं महत् योजनानां सहस्त्रे द्वे विस्तारायामतः स्मृतम् ॥ ७
उस मार्गमें जाता हुआ पापी कभी बर्फीली हवासे पीडित होता है तथा कभी काँटे चुभते हैं और कभी महाविषधर सपके द्वारा डँसा जाता है ॥ ५
( वह ) पापी कहीं सिंहों , व्याघ्रों और भयंकर कुर्तीद्वारा खाया जाता है , कहीं बिच्छुओद्वारा डँसा जाता है और कहीं उसे आगसे जलाया जाता है ॥ ६
तब कहीं अति भयंकर महान् असिपत्रवन नामक नरकमें वह पहुँचता है , जो दो हजार योजन विस्तारवाला कहा गया है ॥ ७
काकोलूकवटगृध्रसरघादंशसंकुलम् सदावाग्नि च तत्पत्रैश्छिन्नभिन्नः प्रजायते ॥ ८
क्वचित् पतत्यन्धकूपे विकटात् पर्वतात् कचित् गच्छते क्षुरधारासु शंकूनामुपरि कचित् ॥ ९
स्खलत्यन्धे तमस्युग्रे जले निपतति क्वचित् । क्वचित् पङ्कजलौकाट्ये कचित् संतप्तकर्दमे ॥ १०
वह वन कौओं , उल्लुओं , वटों ( पक्षिविशेषों ) , गीधों , सरघों तथा डाँसाँसे व्याप्त है । उसमें चारों ओर दावाग्रि व्याप्त है , असिपत्रके पत्तोंसे वह ( जीव ) उस वनमें छिन्न - भिन्न हो जाता है ॥ ८
कहीं अंधे कुँएमें गिरता है , कहीं विकट पर्वतसे गिरता है , कहीं छूरेकी धारपर चलता है तो कहीं कीलोंके ऊपर चलता है ॥ ९
गुड़ी दूसरा अध्याय १७ ध्मातताम्रमये कहीं घने अन्धकारमें गिरता है , कहीं उम्र ( भय उत्पन्न करनेवाले ) जलमें गिरता है , कहीं जॉकोंसे भरे हुए कीचड़में गिरता है तो कहीं जलते हुए कीचड़में गिरता है ॥ १०
संतप्तवालुकाकीर्णे क्वचिदङ्गारवृष्टिश्च शिलावृष्टिः क्षारकर्दमवृष्टिश्च महानिम्नानि च क्वचित् । क्रचिदङ्गारराशौ च महाधूमाकुले क्वचित् ॥ ११
सवज्रका । रक्तवृष्टिः शस्त्रवृष्टिः क्वचिदुष्णाम्बुवर्षणम् ॥ १२ ॥ क्वचित् । वप्रप्ररोहणं क्वापि कन्दरेषु प्रवेशनम् ॥ १३
कहीं तपी हुई बालुकासे व्याप्त और कहीं धधकते हुए ताम्रमय मार्ग , कहीं अंगारकी राशि और कहीं अत्यधिक धुएँसे भरे हुए मार्गपर उसे चलना पड़ता है ॥ ११
कहीं अंगारकी वृष्टि होती है , कहीं बिजली गिरनेके साथ शिलावृष्टि होती है , कहीं रक्तकी , कहीं शस्त्रकी और कहीं गर्मजलकी वृष्टि होती है ॥ १२
कहीं खारे कीचड़की वृष्टि होती है , ( मार्गमें ) कहीं गहरी खाई है , कहीं पर्वत शिखरोंकी चढ़ाई है और कहीं कन्दराओंमें प्रवेश करना पड़ता है ॥
गाढान्ध कारस्तत्रास्ति दुःखारोहशिलाः क्वचित् । पूयशोणितपूर्णाश्च विष्ठापूर्णहृदाः क्वचित् ॥ १४
शतयोजनविस्तीर्णा मार्गमध्ये वहत्युग्रा घोरा वैतरणी नदी । सा दृष्ट्वा दुःखदा किं वा यस्या वार्ता भयावहा ॥ १५
पूयशोणितवाहिनी । अस्थिवृन्दतटा दुर्गा मांसशोणितकर्दमा ॥ १६
वहाँ ( मार्गमें ) कहीं घना अंधकार है तो कहीं दुःखसे चढ़ी जानेयोग्य शिलाएँ हैं , कहीं मवाद , रक्त तथा विष्ठासे भरे हुए तालाब है ॥ १४
यम मार्गके बीचोबीच अत्यन्त उम्र और घोर वैतरणी नदी बहती है । यह देखनेपर दुःखदायिनी हो तो क्या आचर्य ? उसकी वार्ता ही भय पैदा करनेवाली है ॥ १५
यह सौ योजन चौड़ी है , उसमें पूर्व ( पीब - मवाद ) और शोणित ( रक्त ) बहते रहते हैं । हड्डियोंके समूहसे तट बने हैं अर्थात् उसके तटपर हड्डियाँका ढेर लगा रहता है । मांस और रक्तके कोचढ़वाली वह ( नदी ) दुःखसे पार की जानेवाली है ॥ १६
अगाधा दुस्तरा पापैः केशशैवालदुर्गमा महाग्राहसमाकीर्णा घोरपक्षिशतैर्वृता ॥ १७
आगतं पापिनं ज्वालाधूमसमाकुला । कथ्यते सा नदी तार्क्ष्य कटाहान्ततं यथा ॥ १८
कृमिभि : संकुला घोर : सूचीवक्त्रैः समन्ततः । वज्रतुण्डैर्महागृधैर्वायसैः परिवारिता ॥ १ ९
शिशुमारैश्च दृष्ट्वा महाघोरातिगर्जन्ती दुर्निरीक्ष्या मकरैर्जलीकामत्स्यकच्छपैः । अन्यैर्जलस्थैर्जीवैश्च पूरिता मांसभेदकैः ॥ २०
पतितास्तत्प्रवाहे चा क्रन्दन्ति बहुपापिनः हा भ्रातः पुत्र तातेति प्रलपन्ति मुहुर्मुहुः ॥ २१
क्षुधितास्तृषिताः पापाः पियन्ति किल शोणितम् सा सरापूर वहन्ती फेनिलं बहु ॥ २२
भयावहा । तस्या दर्शनमात्रेण पापाः स्युर्गतचेतनाः ॥ २३
अथाह गहरी और पापियोंके द्वारा दुःखपूर्वक पार की जानेवाली वह नदी केशरूपी सेवारसे भरी होनेके कारण दुर्गम है । वह विशालकाय ग्राहों ( घड़ियालों ) से व्याप्त है और सैकड़ों प्रकारके घोर पक्षियोंसे आवृत है ॥ १७
हे गरुड ! आये हुए पापीको देखकर वह नदी ज्वाला और धूमसे भरकर कड़ाहमें रखे मृतकी भाँति खौलने लगती दूसरा है ॥ १८
वह नदी सूईके समान मुखवाले भयानक कीड़ोंसे चारों ओर व्याप्त है । वज्रके समान चोंचवाले बड़े बड़े गीध एवं कौओंसे घिरी हुई है ॥ १ ९
वह नदी शिशुमार , मगर , जॉक , मछली , कछुए तथा अन्य मांसभक्षी जलचर - जीवोंसे भरी पड़ी है ॥ २०
उसके प्रवाहमें गिरे हुए बहुत से पापी रोते - चिल्लाते हैं और हे भाई , हा पुत्र , हा तात ! - इस प्रकार कहते हुए बार - बार विलाप करते हैं ॥ २१
भूख और प्याससे व्याकुल होकर पापी जीव रक्तका पान करते हैं । वह नदी झागपूर्ण रक्तके प्रवाहसे व्याप्त , महाघोर , अत्यन्त गर्जना करनेवाली , देखनेमें दुःख पैदा करनेवाली तथा भयावह है । उसके दर्शनमात्रसे पापी चेतनाशून्य हो जाते हैं ॥ २२-२३
बहुवृश्चिकसंकीर्णा सेविता कृष्णपन्त्रगैः । तन्मध्ये पतितानां च त्राता कोऽपि न विद्यते ॥ २४
आवर्तशतसाहस्त्रैः पाताले यान्ति पापिन : । क्षणं तिष्ठन्ति पाताले क्षणादुपरिवर्तिनः ॥ २५
पापिनां पतनायैव निर्मिता सा नदी खग न पारं दृश्यते तस्या दुस्तरा बहुदुःखदा ॥ २६
बहुत - से बिच्छू तथा काले सर्पोंसे व्यास उस नदीके बीचमें गिरे हुए पापियोंकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है ॥ २४
उसके सैकड़ों , हजारों , भँवरोंमें पड़कर पापी पातालमें चले जाते हैं । क्षणभर पातालमें रहते हैं और एक क्षणमें ही ऊपर चले आते हैं ॥ २५
हे खग वह नदी पापियोंके गिरनेके लिये ही बनायी गयी है । उसका पार नहीं दीखता । वह अत्यन्त दुःखपूर्वक तरनेयोग्य तथा बहुत दुःख देनेवाली है ॥ २६
यममार्गेऽतिदुःखदे । क्रोशन्तश्च रुदन्तश्च दुःखिता यान्ति पायिनः ॥ २७
पाशेन यन्त्रिताः केचित् कृष्यमाणास्तथांकुशैः । शस्त्राग्रैः पृष्ठतः प्रोतैनींयमानाश्च पापिनः ॥ २८
नासाग्रपाशकृष्टाच कर्णपाशैस्तथापरे । कालपाशैः कृष्यमाणाः काकैः कृप्यास्तथापरे ॥ २ ९
इस प्रकार बहुत प्रकारके क्लेशोंसे व्याप्त अत्यन्त दुःखप्रद यममार्गमें रोते - चिल्लाते हुए दुःखी पापी जाते हैं ॥ २७
कुछ पापी पाशसे बँधे होते हैं , कुछ अंकुशमें फँसाकर खींचे जाते हैं , और कुछ शस्त्रके अग्रभागसे पीठमें छेदते हुए ले जाये जाते हैं ॥ २८
कुछ नाकके अग्रभागमें लगे हुए पाशसे और कुछ कानमें लगे हुए पाशसे खींचे जाते हैं । कुछ कालपाशसे खींचे जाते हैं और कुछ कौओंसे खींचे जाते हैं ॥ २ ९
ग्रीवायाहुषु पादेषु बद्धाः पृष्ठे च यमदूतैर्महाघोरैस्ताड्यमानाच शृङ्खलैः । अयोभारचयं केचिद्रहन्तः पथि यान्ति ते ॥ ३०
मुद्गरैः । वमन्तो रुधिरं वक्त्रात् तदेवाश्नन्ति ते पुनः ॥ ३१
शोचन्तः स्वानि कर्माणि ग्लानिं गच्छन्ति जन्तवः । अतीव दुःखसम्पन्नाः प्रयान्ति यममन्दिरम् ॥ ३२
वे पापी गरदन , हाथ तथा पैरमें जंजीरसे बँधे हुए तथा अपनी पीठपर लोहेके भारको ढोते हुए मार्गपर चलते हैं ॥ ३०
अत्यन्त घोर यमदूतोंके द्वारा मुद्गरोंसे पीटे जाते हुए वे मुखसे रक्त वमन करते हुए तथा वमन किये हुए रक्तको पुनः पीते ( हुए जाते ) हैं ॥ ३१
( उस समय ) अपने दुष्कर्मोंको सोचते हुए प्राणी अत्यन्त ग्लानिका अनुभव करते हैं और अतीव दुःखित होकर यमलोकको जाते हैं ॥ ३२
तथापि स व्रजन् मार्गे पुत्र पौत्र इति ब्रुवन् । हा हेति प्ररूदन् नित्यमनुतप्यति मन्दधीः ॥ ३३
दूसरा अध्याय लभ्यते । तत्प्राप्य न कृतो धर्मः कीदृशं हि मया कृतम् ॥ ३४
मया न दत्तं न हुतं हुताशने तपो न तप्तं त्रिदशा न पूजिताः । न तीर्थसेवा विहिता विधानतो देहिन् क्वचिन्त्रिस्तर यत् त्वया कृतम् ॥ ३५
इस प्रकार यममार्गमें जाता हुआ वह मन्दबुद्धि प्राणी हा पुत्र हा पौत्र ! इस प्रकार पुत्र और पौत्रोंको पुकारते हुए हाय - हाय इस प्रकार विलाप करते हुए पश्चात्तापकी ज्वालासे जलता रहता है ॥ ३३
( वह विचार करता है कि ) महान् पुण्यके सम्बन्धसे मनुष्य जन्म प्राप्त होता है , उसे प्राप्तकर भी मैंने धर्माचरण नहीं किया , यह मैंने क्या किया ॥ ३४
मैंने दान दिया नहीं , अग्निमें हवन किया नहीं , तपस्या की नहीं , देवताओंकी भी पूजा की नहीं , विधि - विधानसे तीर्थसेवा की नहीं , अतः हे जीव जो तुमने किया है , उसीका फल भोगो ॥ ३५
न पूजिता विप्रगणाः सुरागा चाश्रिताः सत्पुरुषा न सेविताः । परोपकारो न कृतः कदाचन देहिन् क्वचित्रिस्तर यत् त्वया कृतम् ॥ ३६
जलाशयो नैव कृतो हि निर्जले मनुष्यहेतोः पशुपक्षिहेतवे । गोविप्रवृत्त्यर्थमकारि नाण्वपि देहिन् क्वचिन्त्रिस्तर यत् त्वया कृतम् ॥ ३७
( हे देही । तुमने ) ब्राह्मणोंकी पूजा की नहीं , देवनदी गङ्गाका सहारा लिया नहीं , सत्पुरुषोंकी सेवा की नहीं , कभी भी दूसरेका उपकार किया नहीं , इसलिये हे जीव जो तुमने किया है , अब उसीका फल भोगो ॥ ३६
मनुष्यों और पशु - पक्षियोंकि लिये जलहीन प्रदेशमें जलाशयका निर्माण किया नहीं । गौओं और ब्राह्मणोंकी आजीविकाक लिये थोड़ा भी प्रयास किया नहीं , इसलिये हे देही । तुमने जो किया है , उसीसे अपना निर्वाह करी ॥ ३७
न नित्यदानं न गवाहिकं कृतं न वेदशास्त्रार्थवचः प्रमाणितम् । श्रुतं पुराणं न च पूजितो ज्ञो देहिन् चिन्त्रिस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ ३८
तुमने नित्य - दान किया नहीं , गौओंके दैनिक भरण - पोषणको व्यवस्था की नहीं , वेदों और शास्त्रोंक वचनोंको प्रमाण माना नहीं , पुराणोंको सुना नहीं , विद्वानोंको पूजा की नहीं , इसलिये है देही । जो तुमने किया है , उन्हीं दुष्कर्मोके फलको अब भोगो ॥ ३८
भर्तुर्मया नैव कृतं हितं वचः पतिव्रतं नैव कदापि पालितम् । न गौरवं कापि कृतं गुरुचितं देहिन् क्वचित्रिस्तर यत् त्वया कृतम् ॥ ३ ९
न धर्मबुद्धया पतिरेय सेवितो वह्निप्रवेशो न कृतो मृते पती । वैधव्यमासाद्य तपो न सेवितं देहिन् कचिन्निस्तर यत् त्वया कृतम् ॥ ४०
चान्द्रायणैर्वा नियमैः सविस्तरैः । मासोपवासैर्न विशोषितं मया पूर्वकृतैर्विकर्मभिः ॥ ४१
नारीशरीरं बहुदुःखभाजनं लब्ध मया ( नारी जीव भी पश्चात्ताप करते हुए कहता है ) मैंने पतिकी हितकर आज्ञाका पालन किया नहीं , पातिव्रत्य धर्मका कभी पालन किया नहीं और गुरुजनोंको गौरवोचित सम्मान कभी दिया नहीं , इसलिये है देहिन् ! जो तुमने किया , उसीका अब फल भोगो ॥ ३ ९
धर्मकी बुद्धिसे एकमात्र पतिकी सेवा की नहीं और पतिकी मृत्यु हो जानेपर वहिप्रवेश करके उनका अनुगमन किया नहीं , वैधव्य प्राप्त करके त्यागमय जीवन व्यतीत किया नहीं , इसलिये हे देहिन् । जैसा किया , उसका फल अब भोगो ॥ ४०
मासपर्यन्त किये जानेवाले उपवासोंसे तथा चान्द्रायण व्रतो आदि सुविस्तीर्ण नियमोंके पालनसे शरीरको सुखाया नहीं । पूर्वजन्ममें किये हुए दुष्कर्मोसे बहुत प्रकारके दुःखाँको प्राप्त करनेके लिये नारी - शरीर प्राप्त किया था ॥ ४१
एवं विलप्य बहुशो संस्मरन् पूर्वदहिकम् । मानुषत्वं मम कुत इति क्रोशन् प्रसर्पति ॥ ४२
गच्छति । अष्टादशे दिने तार्क्ष्य प्रेतः सौम्यपुरं व्रजेत् ।। ४३
दशसप्तदिनान्येको वायुवेगेन तस्मिन् पुरवरे रम्ये प्रेतानां च गणो महान् पुष्पभद्रा नदी तत्र न्यग्रोधः प्रियदर्शनः ॥ ४४
इस तरह बहुत प्रकारसे विलाप करके पूर्वदेहका स्मरण करते हुए ' मेरा मानव - जन्म ( शरीर ) कहाँ चला गया ' इस प्रकार चिल्लाता हुआ वह यममार्गमं चलता है ॥ ४२
हे तार्क्ष्य । ( इस प्रकार ) सतरह दिनतक अकेले वायुवेगसे चलते हुए अठारहवें दिन वह प्रेत सौम्यपुरमें जाता है ॥ ४३ ॥ उस रमणीय श्रेष्ठ सौम्यपुरमें प्रेतोंका महान् गण रहता है । वहाँ पुष्पभद्रा नदी और अत्यन्त प्रिय दिखनेवाला वटवृक्ष है ॥ ४४
१ चान्द्रायण व्रत - चन्द्रमाकी कलाओंके हास एवं वृद्धिके अनुसार उतने ही ग्रास ग्रहण करके किया जानेवाला व्रत ' चान्द्रायण व्रत ' कहलाता है , यह ' पिपीलिका मध्य ' और ' यव - मध्य - इन नामोंसे दो प्रकारका होता है ।
पुरे तंत्रस विश्रामं प्राप्यते यमकिङ्करः दारपुत्रादिकं सौख्यं स्मरते तत्र दुःखितः ॥ ४५
धनानि भृत्यपौत्राणि सर्व शोचति वै पदा । तदा प्रेतास्तु तत्रत्या : किङ्करावेदमब्रुवन् ॥ ४६
क्र धने सुतो जाया क्र सुहत्चबान्धवाः स्वकर्मोपार्जित भोक्ता मूड याहि चिरं पछि ॥ ४७
उस पुरमें यमदूटोंके द्वारा उसे विश्राम कराया जाता है । वहाँ दुःखी होकर वह स्त्री - पुत्रों द्वारा प्राप्त सुखका स्मरण करता है । ४५
वह अपने धन , भूत्य और पौत्र आदिके विषय में जब सोचने लगता है तो वहाँ रहनेवाले चमके किंकर उससे इस प्रकार कहते है ॥४६
धन कहाँ है ? पुत्र कहाँ है ? पत्नी कहाँ है ? मित्र कहाँ है ? कहाँ है ? हे मूड जीव अपने कर्मोपार्जित फलको ही भोगता है , इसलिये सुदीर्घ कालतक इस पर चलो ४७
जानासि संबलवलं बलमध्यगानां नो संबलाय यतसे परलोकपान्ध । गन्तव्यमस्ति तव निश्चितमेव तेन मार्गेण यत्र भवतः क्रयविक्रयौ न ॥ ४८
आख्यामार्गोऽयं नैव मर्त्य , श्रुतस्त्वया पुराणसम्भवं वाक्यं किं द्विजेभ्योऽपि न श्रुतम् ॥ ४ ९
दूतैस्ताड्यमानःक्ष मुद्गरैः । निपतन्नुत्पतन् धावन् पाशैराकृष्यते बलात् ॥ ५०
है परलोकके राही ! तू यह जानता है कि राहगीरोंका बल और संबल पाथेय ही होता है , जिसके लिये तूने प्रयास तो किया नहीं तू यह भी जानता था कि तुम्हें निश्चित हो उस मार्गपर चलना है और उस रास्तेपर कोई भी लेन - देन हो नहीं सकता ॥४८
यह मार्ग तो बालकोंको भी विदित रहता है । हे मनुष्य क्या तुमने इसे सुना नहीं था ? क्या तुमने ब्राह्मणोंके मुखसे पुराणोंके वचन सुने नहीं थे ॥ ४ ९
इस प्रकार कहकर मुद्गरोंसे पीटा जाता हुआ वह जीव गिरते - पड़ते - दौड़ते हुए बलपूर्वक पाशोंसे खींचा जाता है ॥ ५० अत्र दत्तं सुतैः पौत्रैः स्नेहाद्वा कृपयाथवा मासिकं पिण्डमश्नाति ततः सौरिपुरं व्रजेत् ॥ ५१
तत्र नाम्नास्ति राजा वै जङ्गमः कालरूपधृक् । तद्दष्वा भयभीतोऽसौ विश्रामे कुरुते मतिम् ॥ ५२
उदकं चात्रसंयुक्तं भुडे तत्र पुरे गतः । त्रैपाक्षिके वै यद्दतं स तत्पुरमतिक्रमेत् ॥ ५३
यहाँ स्नेह अथवा कृपाके कारण पुत्र - पौत्रोंद्वारा दिये हुए मासिक पिण्डको खाता है । उसके बाद वह जीव सौरिपुरको प्रस्थान करता है ॥५१
उस सौरिपुरमें कालके रूपको धारण करनेवाला जङ्गम नामक राजा ( रहता ) है । उसे देखकर वह जीव भयभीत होकर विश्राम करना चाहता है ॥५२
उस पुरमें गया हुआ वह जीव अपने स्वजनोंक द्वारा दिये हुए पाक्षिक अन्न - जलको खाकर उस पुरको पार करता है ॥ ५३ ॥ ततो नगेन्द्रभवनं प्रेतो याति त्वरान्वितः । वनानि तत्र रौद्राणि दृष्ट्वा क्रन्दति दुःखितः ॥ ५४
निर्घृणैः कृष्यमाणस्तु रुदते च पुनः पुनः । मासद्वयावसाने तु तत्पुरं व्यथितो व्रजेत् ॥ ५५
भुक्त्वा पिण्डं जलं वस्त्रं दत्तं यद्बान्धवैरिह कृष्यमाणः पुनः पाशैनीयतेऽग्रे च किङ्करैः ॥ ५६
उसके बाद शीघ्रतापूर्वक वह प्रेत नगेन्द्र भवनकी ओर जाता है और वहाँ भयंकर वनोंको देखकर दुःखी होकर रोता है ॥ ५४
दयारहित दूतोंके द्वारा खींचे जानेपर वह बार - बार रोता है और दो मासके अन्त में वह दुःखी होकर वहाँ जाता है ॥ ५५
बान्धवोंद्वारा दिये गये पिण्ड , जल , वस्त्रका उपभोग करके यमकिंकरोंके द्वारा पाशसे बार बार खींचकर पुनः आगे ले जाया जाता है ॥५६
प्राप्य गन्धर्वपत्तनम् । तृतीयमासिकं पिण्डं तत्र भुक्त्वा प्रसर्पति ॥ ५७
मासे तृतीये सम्प्राप्ते शैलागर्म चतुर्थे च मासि प्राप्नोति वै पुरम् । पाषाणास्तत्र वर्षन्ति प्रेतस्योपरि भूरिशः ॥ ५८
चतुर्थमासिकं पिण्डं भुक्त्वा किञ्चित् सुखी भवेत् । ततो याति पुरं प्रेतः क्रौञ्चं मासेऽथ पञ्चमे ॥ ५ ९
तीसरे मासमें वह गन्धर्वनगरको प्राप्त होता है और वहाँ त्रैमासिक पिण्ड खाकर आगे चलता है ॥ ५७
शैलागमपुरमें पहुंचता है और वहाँ प्रेतके ऊपर बहुत अधिक पत्थरोंकी वर्षा होती चौथे मासमें है ॥ ५८
( वहाँ ) चौथे मासिक पिण्डको खाकर वह कुछ सुखी होता है । उसके बाद पाँचवें महीने में वह प्रेत क्रौशपुर पहुँचता है ॥ ५ ९
हस्तदत्तं तदा भुङ्गे प्रेतः क्रौञ्चपुरे स्थितः । यत्पञ्चमासिकं पिण्डं भुक्त्वा क्रूरपुरं व्रजेत् ॥ ६०
सार्थकैः पञ्चभिमांसैन्यूनषाण्मासिकं व्रजेत् । तत्र दत्तेन पिण्डेन घटेनाप्यावितः स्थितः ॥ ६१
मुहूर्तार्थं तु विश्रम्य कम्पमानः सुदुःखितः । तत्पुरं तु परित्यज्य तर्जितो यमकिङ्करैः ॥ ६२
प्रयाति चित्रभवनं विचित्रो नाम पार्थिवः । यमस्यैवानुजो भ्राता यत्र राज्यं प्रशास्ति हि ॥ ६३
क्रौञ्चपुर में स्थित वह प्रेत वहाँ बान्धवोंद्वारा हाथसे दिये गये पाँचवें मासिक पिण्डको खाकर आगे क्रूरपुरको ओर चलता है ॥ ६०
साढ़े पाँच मासके बाद ( बान्धवोंद्वारा प्रदत्त ) ऊनषाण्मासिक पिण्ड और घटदानसे तृप्त होकर वह वहाँ आधे मुहूर्ततक विश्राम करके यमदूतोंके द्वारा डराये जानेपर दुःखसे काँपता हुआ उस पुरको छोड़कर ॥ ६१-६२
चित्रभवन नामक पुरको जाता है , जहाँ यमका छोटा भाई विचित्र नामवाला राजा राज्य करता है ॥ ६३
तं विलोक्य महाकार्य यदा भीतः पलायते । तदा सम्मुखमागत्य कैवर्ता इदमब्रुवन् ॥ ६४
वयं ते ततुंकामाय महावैतरणी नदीम् । नावमादाय सम्प्राप्ता यदि ते पुण्यमीदृशम् ॥ ६५
दानं वितरणं प्रोक्तं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । इयं सा तीर्यते यस्मात् तस्माद्वैतरणी स्मृता ॥ ६६
उस विशाल शरीरवाले राजाको देखकर जब वह ( जीव ) डरसे भागता है , तब सामने आकर कैवर्त ( धीवर ) उससे यह कहते हैं ॥ ६४
हम इस महावैतरणी नदीको पार करनेवालोंके लिये नाव लेकर आये हैं , यदि तुम्हारा इस प्रकारका पुण्य हो तो ( इसमें बैठ सकते हो ) ॥ ६५
तत्त्वदर्शी मुनियोंने दानको ही वितरण ( देना या बाँटना ) कहा है । यह वैतरणी नदी वितरणके द्वारा ही पार की जा सकती है , इसलिये इसको वैतरणी कहा जाता है ॥ ६६
गौस्तदा नौरुपसर्पति । नाऽन्यथेति वचस्तेषां श्रुत्वा हा दैव भाषते ॥ ६७
तं दृष्ट्वा क्यथते सा तु तां दृष्ट्वा सोऽतिक्रन्दते । अदत्तदानः पापात्मा तस्यामेव निमज्जति ॥ ६८
तन्मुखे कण्टकं दत्त्वा दूतैराकाशसंस्थितैः । बडिशेन यथा मत्स्यस्तथा पार प्रणीयते ॥ ६ ९
यदि तुमने वैतरणी गौका दान किया हो तो नौका तुम्हारे पास आयेगी अन्यथा नहीं । उनके ऐसे वचन सुनकर ' हा दैव ! ' ऐसा कहता है ॥ ६७
उस प्रेतको देखकर वह नदी खौलने लगती है और उसे देखकर प्रेत अत्यन्त क्रन्दन ( विलाप ) करने लगता है । जिसने अपने जीवनमें कभी दान दिया ही नहीं है , ऐसा पापात्मा उसी ( वैतरणी ) में डूबता है ॥ ६८
तब आकाशमार्गसे चलनेवाले दूत उसके मुखमें काँटा लगाकर वंशीसे मछलीकी भाँति उसे खींचते हुए पार ले जाते हैं ॥ ६ ९
पाण्यासिकं च यत्पिपई तत्र भुक्त्वा प्रसर्पति मार्गे स विलपन् याति बुभुक्षापीडितो ह्यलम् ॥ ७०
सप्तमे मासि सम्प्राप्ते पुरं बह्वापदं ब्रजेत् । तत्र भुङ्गे प्रदत्तं तत् सप्तमे मासि पुत्रकैः ।। ७१
तत्पुरं तु व्यतिक्रम्य दुःखदं पुरमृच्छति । महद्दुःखमवाप्नोति खे गच्छन् खेचरेश्वर ॥ ७२
वहाँ पाण्मासिक पिण्ड खाकर वह अत्यधिक भूखसे पीडित होकर विलाप करता हुआ आगेके रास्तेपर चलता है ॥ ७०
सातवें मासमें वह बह्मपदपुरको जाता है और वहाँ अपने पुत्रोंद्वारा दिये हुए सप्तम मासिक पिण्डको खाता है ॥ ७१
हे पक्षिराज गरुड ! उस पुरको पारकर वह दुःखद नामक पुरको जाता है । आकाशमार्गसे जाता हुआ वह महान् दुःख प्राप्त करता है ॥७२
मास्यष्टमे प्रदर्श यत्पिण्डं भुक्त्वा प्रसर्पति । नवमे मासि सम्पूर्ण नानाक्रन्दपुरं व्रजेत् ॥ ७३
नानाक्रन्दगणान् दृष्ट्वा क्रन्दमानान् सुदारुणान् । स्वयं च शून्यहृदयः समाक्रन्दति दुःखितः ॥ ७४
विहाय तत्पुरं प्रेतस्तर्जितो यमकिङ्करैः। गच्छेदशमे मासि कृच्छ्रतः ॥ ७५
वहां आठवें मासमें दिये हुए पिण्डको खाकर आगे बढ़ता है और नवाँ मास पूर्ण होनेपर नानाकन्दपुरको प्राप्त होता है ॥ ७३
वहाँ क्रन्दन करते हुए अनेक भयावह क्रन्दगणोंको देखकर स्वयं शून्य हृदयवाला वह जीव दुःखी होकर आक्रन्दन करने लगता है ॥४४
उस पुरको छोड़कर वह यमदूतोंके द्वारा भयभीत किया जाता हुआ दसवें महीनेमें अत्यन्त कठिनाईसे सुलभवन नामक नगरमें पहुँचता है ॥ ७५
प्रवर्षन्ति प्रेतान पिण्डदान जलं तत्र भुक्त्वाऽपि न सुखी भवेत् । मासि चैकादशे पूर्ण पुरं रौद्रं स गच्छति ॥ ७६
दर्शकमासिकं तत्र भुङ्के दत्तं सुतादिभिः सार्धे चैकादशे मासि पयोवर्षणमृच्छति ॥ ७७
मेघास्तत्र प्रवर्षन्ति प्रेतानां दुःखदायकाः । न्यूनाब्दिकं च यच्छ्राद्धं तत्र भुस दुःखितः ।। ७८
यहाँ पुत्रादिसे पिण्डदान और जलाइलि प्राप्त करके भी सुखी नहीं होता । ग्यारहवाँ मास पूरा होनेपर वह रौद्रपुरको जाता है ॥ ७६
और पुत्रादिके द्वारा दिये हुए एकादश मासिक पिण्डको वहाँ खाता है । साढ़े ग्यारह मास बीतनेपर वह जीव पर्यावर्षण नामक नगरमें पहुंचता है ॥ ७७
वहाँ प्रेतोंको दुःख देनेवाले मेघ घनघोर वर्षा करते हैं , वहाँपर दुःखी वह प्रेत उताब्दिक श्राद्ध ( के पिण्ड ) को खाता है ॥ ७८
सम्पूर्णे तु ततो वर्षे शीताढ्यं नगरं व्रजेत् हिमाच्छतगुणं तत्र महाशीतं तपत्यपि ॥ ७ ९
शीतार्त : क्षुधितः सोऽपि वीक्षते हि दिशो दश तिष्ठते बान्धवः कोऽपि यो मे दुःखं व्यपोहति ॥ ८०
किङ्करास्ते वदन्त्यत्र क्व ते पुण्यं हि तादृशम् । भुक्त्वा च वार्षिकं पिण्डं धैर्यमालम्बते पुनः ॥ ८१
इसके बाद वर्ष पूरा होनेपर वह जीव शीताढ्य नामक नगरको प्राप्त होता है , वहाँ हिमसे भी सौ गुनी अधिक ( महान् ) ठंड पड़ती है ॥ ७ ९
शीतसे दुःखी तथा क्षुधित वह जीव ( इस आशासे ) दसों दिशाओंमें देखता है कि शायद कहीं कोई हमारा बान्धव हो , जो मेरे दुःखको दूर कर सके ॥ ८०
तब यमके दूत कहते हैं- तुम्हारा ऐसा पुण्य कहाँ है ? फिर वार्षिक पिण्डको खाकर वह धैर्य धारण करता है ॥ ८१
ततः संवत्सरस्यान्ते प्रत्यासन्ने यमालये बहुभीतिपुरे गत्वा हस्तमात्रं समुत्सृजेत् ॥ ८२
खेचर यातनादेहमासाद्य सह याम्यैः प्रयाति च ॥ ८३
अङ्गुष्ठमात्रो वायुश्च कर्मभोगाय और्ध्वदेहिकदानानि यैर्न दत्तानि काश्यप कष्टेन ते पुरं यान्ति गृहीत्वा दृढबन्धनैः ॥ ८४
उसके बाद वर्षके अन्तमें यमपुरके निकट पहुँचनेपर वह प्रेत बहुभीतिपुरमें जाकर हाथभर मापके अपने शरीरको छोड़ देता है ॥ ८२
हे पक्षी पुनः कर्मभोगके लिये अङ्गुष्ठमात्रके वायुस्वरूप यातनादेहको प्राप्त करके वह यमदूतोंके साथ जाता है ॥ ८३
हे कश्यपात्मज जिन्होंने और्ध्वदैहिक ( मरणकालिक ) दान नहीं दिये हैं , वे यमदूतोंके द्वारा दृढ़ बन्धनोंसे बँधे हुए अत्यन्त कष्टसे यमपुरको जाते हैं ॥ ८४
धर्मराजपुरे सन्ति चतुराद्वाराणि खेचर। यत्रायं दक्षिणद्वारमार्गस्ते परिकीर्तितः ॥ ८५
अस्मिन् पथि महाघोरे क्षुत्तृषाश्रमपीडिताः । यथा यान्ति तथा प्रोक्तं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥८६
इति गरुडपुराणे सारोद्धारे यममार्गनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २
~ हे आकाशगामी धर्मराजपुरमें चार द्वार हैं , जिनमेंसे दक्षिण द्वारके मार्गका तुमसे वर्णन कर दिया ॥ ८५
इस महान् भयंकर मार्गमें भूख - प्यास और श्रमसे दुःखी जीव जिस प्रकार जाते हैं , वह सब मैंने बतला दिया । अब और क्या सुनना चाहते हो ॥ ८६
इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धारमें यममार्गनिरूपण ' नामका दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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