श्री कीताजी महाराज
श्रीकीताजी महाराजका जन्म जंगलमें आखेट करनेवाली जातिमें हुआ था , परंतु पूर्वजन्मके संस्कारवश आपकी चित्तवृत्ति अनिमेषरूपसे भगवत्स्वरूपमें लगी रहती थी । आप सर्वदा भगवान् श्रीरामकी कीर्तिका गान किया करते थे । साथ ही आपकी सन्तसेवामें बड़ी प्रीति थी , यहाँतक कि आप सन्तसेवाके लिये भगवद्भक्तिसे विमुख जनोंको जंगलमें लूट भी लिया करते थे और उससे सन्तसेवा करते थे । एक बारकी बात है , आपके यहाँ एक सन्तमण्डली आ गयी , परंतु आपके पास धनकी कोई स्थायी व्यवस्था तो थी नहीं , अतः आपने अपनी एक युवती कन्याको ही राजाके यहाँ गिरवी रख दिया और उस प्राप्त धनसे सन्तसेवा की । आपको आशा थी कि बादमें धन प्राप्त होनेपर कन्याको छुड़ा लूँगा । उधर जब राजाकी दृष्टि कन्यापर पड़ी तो उसके मनमें कुत्सित भाव आ गया । कन्याको भी राजाकी दुर्वृत्तिका पता चला तो उसने अपने पिताके पाससंन्देश भेजा । बेचारे कीताजी क्या करते । राजसत्तासे टकराने से समस्याका हल नहीं होता था , अन्तमें उन्होंने प्रभुकी शरण ली । उधर कन्याने भी अपनी लज्जा - रक्षा के लिये प्रभुसे प्रार्थना की । भक्तकी लज्जा भगवान्की लज्जा होती है , जिस भक्तने उनके प्रतिनिधिस्वरूप सन्तोंकी सेवाके लिये अपनी लज्जा दाँवपर रख दी हो , उसकी लज्जाका रक्षण तो उन परम प्रभुको करना ही होता है और उन्होंने किया भी राजा जब आपकी कन्याकी ओर कुत्सित भावसे आगे बढ़ा तो उसको कन्याके स्थानपर सिंहिनी दिखायी दी ।
अब तो उसे प्राणके लाले पड़ गये और काममद उड़न छू हो गया । कीताजी भक्त हैं , यह बात तो उसे मालूम ही थी , उसे लगा कि भक्त कीताजीका अपमान करनेके कारण ही उसपर ऐसा भगवान्का कोप हो गया है । उसने मन - ही - मन कन्याको प्रणाम किया भावदृष्टि बदलते ही सिंहिनी पुनः कन्याके रूप में दिखायी देने लगी । राजाकी आँखें खुल गई, उन्होंने कीताजीके पास जाकर क्षमा प्रार्थना की । कीताजी सन्तहृदय थे , उन्होंने राजाको क्षमा कर दिया ।
श्रीकीताजी भगवत्कृपाप्राप्त भक्त थे । एक बार सन्तसेवाके लिये आपको एक घोड़ेकी आवश्यकता थी , पासमें ही फौजकी छावनी थी । आप वहाँ गये तो पहरेदारने पूछा - ' कौन है ? ' आपने कहा - ' मैं चोर हूँ । मेरा नाम कीता है और मैं घोड़ा चुराने आया हूँ । ' आपकी इस साफगोईसे पहरेदारने समझा कोई फौजका अफसर है , विनोद कर रहा है , अतः कुछ नहीं बोला । आप एक बढ़िया घोड़ेको लेकर चले आये । दूसरे दिन छावनीमें घोड़ेकी चोरीकी बातसे हड़कम्प मच गया । पहरेदारने कीताजीका नाम बताया और रातकी सारी घटना बतायी । तुरंत ही कीताजीके यहाँ दबिश दी गयी तो एक वैसा ही घोड़ा उनके यहाँ बँधा मिला , परंतु आश्चर्यकी बात यह थी कि उस घोड़ेका रंग सफेद था , जबकि छावनीसे चोरी हुए घोड़ेका रंग लाल था । इस बावत जब कीताजीसे पूछताछ हुई तो उन्होंने सारी बात सच - सच बता दी । घोड़ेके रंग बदलने के बारेमें कहा कि ऐसा तो प्रभुकी इच्छासे ही हुआ है , यह मेरी मानवीय सामर्थ्यकी बात नहीं है । आपकी साफगोई , भगवद्भक्ति और सन्तनिष्ठासे फौजका सरदार बहुत प्रभावित हुआ और सन्तसेवाके निमित्त बहुत सा द्रव्य भेंट किया , साथ ही अपने बहुतसे सैनिकोंके साथ आपका शिष्य बन गया ।
श्रीकीताजी निष्ठावान् और सच्चे आज्ञाकारी साधकोंको ही शिष्य बनाते थे । एक बार एक साधक भक्तने १२ वर्षतक आपकी सेवा की , परंतु आपने उसको तब भी दीक्षा नहीं दी , फिर अपने इष्टदेव प्रभु श्रीरामजीके स्वप्नमें आदेश देनेपर उसे दीक्षा देनेका निर्णय लिया , इसपर भी आपने उसकी बड़ी कठिन परीक्षा ली । शीत ऋतुमें उससे कोरे घड़ेमें जल मँगवाया । जब वह साधक जल लेकर आया तो उन्होंने उसके सिरपर रखे घड़ेको डण्डेके प्रहारसे फोड़ दिया , जिससे उसका सारा शरीर भीग गया । तत्पश्चात् आपने पुनः उससे दूसरा घड़ा भरकर लानेको कहा । इस प्रकार आपने सात घड़े उसके सिरपर फोड़ दिये । अन्तमें जब वह आठवाँ घड़ा भरकर ले आया तो आपने उसको धैर्य और गुरु आज्ञाके प्रति निष्ठाको परीक्षामें उत्तीर्ण मानकर उसे दीक्षा दे दी ।
श्री लड्डू जी महाराज
श्रीलड्डूजी महाराज बड़े ही परोपकारी एवं भगवद्भक्त वैष्णव सन्त थे । दूसरेके दुःखोको दूर करना आपका सहज स्वभाव था । आपके समय में बंगाल प्रान्तके एक गाँव में प्रायः भगवद्विमुख नास्तिक लोग ही रहते थे । वहाँ के लोग सन्त - भगवन्तको कुछ जानते ही नहीं थे , मानना तो दूर रहा इन्हें हिंसा करने में लेशमात्रका भी पाप भय नहीं था , यहाँ तक कि पशुबलि क्या , मानवबलि देनेमें भी उनको हिचक नहीं होती थी । एक बार सन्तोंकी एक टोली उस गाँवमें जा पहुँची । वे लोग तीन दिनतक वहाँ भूखे पड़े रहे , किसीने उन्हें भोजन - प्रसादके लिये नहीं पूछा । उन सन्तोंने जब वहाँके लोगोंकी रहनी - सहनी श्रीलड्डूजीसे बतायी तो आपने उन्हें वैष्णवताका उपदेश देनेका निश्चय किया ।
कहते हैं कि जिस समय आप उन विमुखोंके देश पहुँचे , उस समय वहाँ के राजाने देवीको बलि देनेके लिये किसी मनुष्यको पकड़ लाने के लिये अपने कर्मचारियोंको भेजा था । राजकर्मचारी एक गरीब ब्राह्मणके बालकको पकड़कर ले जा रहे थे । उसके माता - पिता करुण क्रन्दन कर रहे थे । उसी समय आप वहाँ पहुँच गये । दीन ब्राह्मण - दम्पती आपकी शरण में आये और पुत्रकी रक्षा करनेकी प्रार्थना की ब्राह्मणकी करुण प्रार्थना , ब्राह्मणीके क्रन्दन और बालककी दीनता देखकर आपका सन्त हृदय द्रवित हो उठा । आपने ब्राह्मण बालकको मुक्त करा दिया और उसकी जगहपर स्वयं बलिदान होनेके लिये तैयार हो गये । राजकर्मचारी आपको पकड़कर देवीके सम्मुख ले गये । देवी वैष्णव भक्तको बलिके लिये लाया देखकर अत्यन्त कुपित हुई और उन राजकर्मचारियोंका ही वध कर डाला ।
इस घटनाका भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है -
लड्डू नाम भक्त जाय निकसे विमुख देश लेसहूँ न सन्तभाव जानै पाप पागे हैं । देवी को प्रसन्न करें मानुस को मारि धेरै लै गये पकरि तहाँ मारिबे को लागे हैं । प्रतिमाको फारि बिकरार रूपधारि आई लै के तरवार मूंड काटे भीजे बागे हैं । आगे नृत्य करै , दृग भरै साधु पाँव धरै ऐसे रखवारे जानि जन अनुरागे हैं ॥
श्री संत जी महाराज
भक्त श्रीसन्तजीका साधु - सेवामें बड़ा प्रेम था । इन्होंने गाँव - गाँवसे भिक्षा लाकर सन्त - सेवा करनेका नियम ले रखा था । एक बार ये किसी गाँवमें भिक्षा लेने गये थे । इसी बीच घरपर सन्तोंकी जमात आ गयी । सन्तोंने इनकी पत्नीसे पूछा कि ' सन्तजी कहाँ हैं ? ' तो पत्नीने प्रमादपूर्वक कहा कि वे चूल्हेमें गये । ' पत्नीकी वाणी सुनकर सन्त जान गये कि इसका साधु - सन्तोंमें भाव नहीं है , अतः वहाँसे चल
दिये । संयोगसे मार्गमें श्रीसन्तजी मिल गये । सन्तों ने पूछा- आप कहाँ रहे ? ' उस समय सन्तजीके हृदय में साक्षात् भगवान् ही बैठकर बोले - ' हमारी पत्नीने जो कहा है , वह सत्य कहा है । सचमुच मेरे मनमें चूल्हेकी आँचका ही ध्यान हो रहा था । फिर श्रीसन्तजी सन्तों को पुनः घर लौटा लाये और भगवत्प्रसाद पवाकर उन्हें आनन्दमें मग्न कर दिया । श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है सदा साधुसेवा अनुराग रंग पागि रह्यौ गह्यौ नेम भिक्षा व्रत गाँव गाँव जाय के आये घर संत पूछें तिया सॉ यॉ संत कहाँ ? ' संत चूल्हे माँझ ' कही ऐसे अलसाय के ॥ बानी सुनि जानी , चले मग सुखदानी मिले कही कित हुते ? सो बखानी उर आय के बोली वह साँच , वही आँच ही को ध्यान मेरे आनिगृह फेरि किये मगन जिंवाय के ॥
श्री तिलोक जी सुनार
श्रीतिलोकभक्तजी पूर्व देशके रहनेवाले थे और जातिके सोनार थे । इन्होंने हृदय में भक्तिसार - सन्त सेवाका व्रत धारण कर रखा था । एक बार वहाँके राजाकी लड़कीका विवाह था । उसने इन्हें एक जोड़ा पायजेव बनाने के लिये सोना दिया , परंतु इनके यहाँ तो नित्यप्रति अनेकों सन्त महात्मा आया करते थे , उनकी सेवासे इन्हें किंचिन्मात्र भी अवकाश नहीं मिलता था , अतः आभूषण नहीं बना पाये । जब विवाहके दो दिन ही रह गये और आभूषण बनकर नहीं आया तो राजाको क्रोध हुआ और सिपाहियोंको आदेश दिया कि तिलोक सुनारको पकड़ लाओ । सिपाहियोंने तुरंत ही इन्हें पकड़कर लाकर राजाके सम्मुख कर दिया । राजाने इन्हें डाँटकर कहा कि ' तुम बड़े धूर्त हो । समयपर आभूषण बनाकर लानेको कहकर भी नहीं लाये । ' इन्होंने कहा - ' महाराज ! अब थोड़ा काम शेष रह गया है , अभी आपकी पुत्रीके विवाहके दो दिन शेष हैं । यदि मैं ठीक समयपर न लाऊँ तो आप मुझे मरवा डालना । राजाकी कन्या के विवाहका दिन भी आ गया , परंतु इन्होंने आभूषण बनाने के लिये जो सोना आया था , उसे हाथसे स्पर्श भी नहीं किया । फिर इन्होंने सोचा कि समयपर आभूषण न मिलनेसे अब राजा मुझे जरूर मार डालेगा , अतः डरके मारे जंगलमें जाकर छिप गये । यथासमय राजाके चार - पाँच कर्मचारी आभूषण लेनेके लिये श्रीतिलोकजीके घर आये । भक्तके ऊपर संकट आया जानकर भगवान्ने श्रीतिलोक भक्तका रूप धारणकर अपने संकल्पमात्रसे आभूषण बनाया और उसे लेकर राजाके पास पहुँचे । वहाँ जाकर राजाको पायजेवका जोड़ा दिया । राजाने उसे हाथमें ले लिया । आभूषणको देखते ही राजाके नेत्र ऐसे लुभाये कि देखनेसे तृप्त ही नहीं होते थे । राजा श्रीतिलोकजीपर बहुत ही प्रसन्न हुआ । उनकी पहलेकी सब भूल - चूक माफ कर दी और उन्हें बहुत सा धन पुरस्कारमें दिया । श्रीतिलोकरूपधारी भगवान् मुरारी इस प्रकार धन लेकर श्रीतिलोक भक्तके घर आकर विराजमान हुए ।
भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजी महाराजने इस घटनाका वर्णन इस प्रकार किया है
पूरवमें ओकसो तिलोक हो सुनार जाति पायो भक्तिसार साधुसेवा उर धारियै । भूपके विवाह सुता जोरी एक जेहरिको गढ़िवेकौ दियाँ कह्यौ नीके के सँवारियै ॥ आवत अनन्त सन्त औसर न पावै किहूँ रहे दिन दोय भूप रोष यों संभारियै । ल्यायो रे पकरि , ल्याये , छाड़िये मकर , कही नेकु रह्यो काम आवै नातो मारि डारियै ।।
आयो वही दिन कर छुयी हूँ न इन नृप करै प्रान बिन बन माँझ छिप्यौ जायकै आये नर चारि पाँच जानी प्रभु आँच गढ़ि लियौ सो दिखायौ साँच चले भक्तभायकै ॥
भूपको सलाम कियो जेहरिकौ जोरौ दियौ लियो कर देखि नैन छोड़ें न अघायकै । भई रीझि भारी सब चूक मेटि डारी धन पायो लै मुरारी ऐसे बैठे घर आयकै ॥
श्रीतिलोकरूपधारी भगवान्ने दूसरे दिन प्रातःकाल ही महान् उत्सव किया । उसमें अत्यन्त रसमय , परम स्वादिष्ट अनेकों प्रकारके व्यंजन बने थे । साधु - ब्राह्मणोंने खूब पाया । फिर भगवान् एक सन्तका स्वरूप धारणकर झोलीभर सीथ- प्रसाद लिये हुए वहाँ गये , जहाँ श्रीतिलोक भक्त छिपे बैठे थे । श्रीतिलोकजीको प्रसाद देकर सन्त रूपधारी भगवान्ने कहा- ' श्रीतिलोक भक्तके घर गया था । उन्होंने ही खूब प्रसाद पवाया और झोली भी भर दी । ' श्रीतिलोक भक्तने पूछा- कौन तिलोक ? भगवान्ने कहा- ' जिसके समान त्रैलोक्यमें दूसरा कोई नहीं है । ' फिर भगवान्ने पूरा विवरण बताया । सन्तरूपधारी भगवान्के वचन सुनकर श्रीतिलोकजीके मनको शान्ति मिली । फिर भगवठोममें मग्न श्रीतिलोकजी रात्रिके समय घर आये । घरपर साधु - सन्तोंकी चहल - पहल तथा घरको धन धान्यसे भरा हुआ देखकर श्रीतिलोकजीका श्रीप्रभुके श्रीचरणोंकी ओर और भी अधिक झुकाव हो गया । वे समझ गये कि श्रीप्रभुने मेरे ऊपर महान् कृपा की है , निश्चय ही मेरे किसी महान् भाग्यका उदय हुआ है ।
श्रीप्रियादासजी श्रीतिलोकजीपर भगवान्की इस कृपाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते
भोरही महोछौ कियौ , जोई माँगे सोई दियौ नाना पकवान रसखान स्वाद लागे हैं । सन्तकौ सरूप धरि लै प्रसाद गोद ' भरि गये तहां ' पावै जू तिलोक गृह पागे हैं । कौनसो तिलोक ? अरे दूसरो तिलोक मैं न बैन सुनि चैन भयो आये निसि रागे हैं । चहल पहल धन भर्यो घर देखि ढर्यो प्रभुपद कंज जानौ मेरे भाग जागे हैं ॥
श्री लक्ष्मण जी महाराज
परम सन्तसेवी श्रीलक्ष्मणजी सन्तोंके रहनेके लिये निवास स्थान बनवा रहे थे , छतका पटाव हो गया था , परंतु वह अभी परिपक्व नहीं हुआ था कि छतकी आधारभूता एक बल्ली टूट गयी । लोगोंको बड़ी चिन्ता हुई कि अब तो छत गिर जायगी अथवा नीचेको धँस जायगी । अब तो इसे फिरसे बनवाना पड़ेगा आदि । श्रीलक्ष्मणजीने सबको समझाया कि आप लोग चिन्ता नहीं करें , श्रीहरिकृपासे कुछ भी नहीं बिगड़ेगा । सचमुच प्रातः काल जब सबने देखा तो बल्लीमें टूटनेका निशान भी नहीं था , छत ज्यों - की - त्यों दुरुस्त थी । सब लोग भगवान्की इस प्रत्यक्ष कृपापर आश्चर्य करने लगे । ऐसे अनन्य निष्ठावान् और सन्तसेवी भक्त थे श्रीलक्ष्मणजी ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
भूपाल मिश्र
सनातन वैदिक धर्म
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