Garur puran 5 गरुड पुराण सारोद्धार अध्याय पांच

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            गरुड पुराण सारोद्धार पांचवा अध्याय 

           


कर्मविपाकवश मनुष्यको अनेक योनियों और विविध रोगोंकी प्राप्ति 

गरुड उवाच येन येन च पापेन यद्यच्चिह्न प्रजायते । यां यां योनिं च गच्छन्ति तन्मे कथय केशव ॥ १ ॥ 

गरुडजीने कहा- हे केशव ! जिस - जिस पापसे जो - जो चिह्न प्राप्त होते हैं और जिन - जिन योनियोंमें जीव जाते हैं , वह मुझे बताइये ॥ १ ॥

 श्रीभगवानुवाच यैः पापैर्यान्ति यां योनिं पापिनो नरकागताः । येन पापेन यच्चिह्नं जायते मम तच्छृणु ॥ २ ॥

 ब्रह्महा क्षयरोगी स्याद् गोघ्नः स्यात्कुब्जको जडः । कन्याघाती भवेत्कुष्ठी त्रयश्चाण्डालयोनिषु ॥ ३ ॥

 श्रीभगवान्ने कहा- नरकसे आये हुए पापी जिन पापोंके द्वारा जिस योनिमें जाते हैं और जिस पापसे जो चिह्न होता है , वह मुझसे सुनो ॥२ ॥

 ब्रह्महत्यारा क्षयरोगी होता है , गायकी हत्या करनेवाला मूर्ख  और कुबड़ा होता है । कन्याकी हत्या करनेवाला कोढ़ी होता है और ये तीनों पापी चाण्डालयोनि प्राप्त  करते है ।

 स्त्रीघाती गर्भपाती च पुलिन्दो रोगवान् भवेत् । अगम्यागमनात्षण्ढो दुश्चर्मा गुरुतल्पगः ॥ ४ ॥

 मांसभोक्ताऽतिरक्ताङ्गः श्यावदन्तस्तु मद्यपः । अभक्ष्यभक्षको लौल्याद ब्राह्मणः स्यान्महोदरः ॥ ५ ॥

  अदत्त्वा मिष्टमश्नाति स भवेद्गलगण्डवान् । श्राद्धेऽन्नमशुचिं दत्त्वा श्वित्रकुष्ठी प्रजायते ॥ ६ ॥ 

स्त्रीको हत्या करनेवाला तथा गर्भपात करानेवाला पुलिन्द ( भिल्ल ) होकर रोगी होता है । परस्त्रीगमन करनेवाला नपुंसक और गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करनेवाला चर्मरोगी होता है ॥ ४॥ 

मांसका भोजन करनेवालेका अङ्ग अत्यन्त लाल होता है , मद्य पीनेवालेके दाँत काले ( कपिशवर्णके ) होते हैं , लालचवश अभक्ष्यभक्षण करनेवाले ब्राह्मणको महोदररोग होता है ॥ ५ ॥

 जो दूसरेको दिये बिना मिष्टान्न खाता है , उसे गलेमें गण्डमाला रोग होता है , श्राद्धमें अपवित्र अन्न देनेवाला श्वेतकुष्ठी होता है ॥ ६ ॥

 गुरोर्गवणावमानादपस्मारी भवेन्नरः । निन्दको वेदशास्त्राणां पाण्डुरोगी भवेद् ध्रुवम् ॥ ७ ॥

 कूटसाक्षी भवेन्मूकः काण : स्यात्पंक्तिभेदकः । अनोष्ठः स्याद्विवाहघ्नो जन्मान्धः पुस्तकं हरेत् ॥ ८ ॥

 गोब्राह्मणपदाघातात्खञ्जः पङ्गुश्च जायते । गद्गदोऽनृतवादी स्यात्तच्छ्रोता बधिरो भवेत् ॥ ९ ॥

 गर्वसे गुरुका अपमान करनेवाला मनुष्य मिरगीका रोगी होता है । वेदशास्त्रकी निन्दा करनेवाला निश्चित ही पाण्डुरोगी होता है ॥ ७ ॥ 

झूठी गवाही देनेवाला गूँगा , पंक्तिभेद करनेवाला काना , विवाहमें विघ्न करनेवाला व्यक्ति ओष्ठरहित और पुस्तक चुरानेवाला जन्मान्ध होता है ॥ ८॥

 गाय और ब्राह्मणको पैर से मारनेवाला लूला लॅगड़ा होता है , झूठ बोलनेवाला हकलाकर बोलता है तथा झूठी बात सुननेवाला बहरा होता है ॥ ९ ॥

 गरद : स्याजडोन्यतः खल्याटोऽग्निप्रदायकः । दुर्भगः पातविक्रेता रोगवान परमांसभुक ।। १० ।।

 हीनजातौ प्रजायेत रखानामपहारकः । कुनखी स्वर्णहर्ता स्याद्धातुमात्रहरोऽधनः ॥ ११ ॥

 अन्नहर्ता भवेदाखुः शलभो धान्यहारकः । चातको जलहर्ता स्याद्विषहर्ता च वृश्चिकः।। १२ ।। 

शाकं पत्रं शिखी ह्रत्या गंधाश्छुच्छुन्दरी शुभान् । मधुदंशः पलं गृधो लवणं च पिपीलिका ॥ १३ ॥

 विष देनेवाला मूर्ख और उन्मत्त ( पागल ) तथा आग लगानेवाला खल्वाट ( गंजा ) होता है । पल ( मांस ) बेचनेवाला अभागा और दूसरेका मांस खानेवाला रोगी होता है ।। १० ।

 रत्नों अपहरण करनेवाला हीनजाति में उत्पन्न होता है , सोना चुरानेवाला नखरोगी और अन्य धातुओंको चुरानेवाला निर्धन होता है ॥ ११ ॥

 अन्न चुरानेवाला चूहा और धान चुरानेवाला शलभ ( टिट्टी ) होता है । जलकी चोरी करनेवाला चातक और विषका व्यवहार करनेवाला वृश्चिक ( बिच्छु ) होता है ॥ १२ ॥ 

शाक - पात चुरानेवाला मयूर होता है , शुभ गन्धवाली वस्तुओंको चुरानेवाला छुछुन्दरी होता है , मधु चुरानेवाला डाँस , मांस चुरानेवाला गीध और नमक चुगनेवाला चीटी होता है ॥ १३ ॥

 ताम्बूलफलपुष्पादिहर्ता स्याद्वानरों वने । उपानत्तॄणकार्पासहर्ता स्यान्येषयोनिषु ॥ १४ ॥

 यश्च रौद्रोपजीवी च मार्गे सार्थान्विलुम्पति । मृगयाव्यसनीयस्तु छागः स्याद्वधिके गृहे ।। १५ ।।

ताम्बूल , फल तथा पुष्प आदिकी चोरी करनेवाला बनमें बंदर होता है । जूता , घास तथा कपासको चुरानेवाला भेड्योनिमें उत्पन्न होता है ॥ १४ ॥ 

जो रौद्रकर्मों ( क्रूरकर्मों ) से आजीविका चलानेवाला है , मार्गमें यात्रियोंको लूटता है और जो आखेटका व्यसन रखनेवाला है , वह कसाईके घरका बकरा होता है ॥ १५ ॥

 यो मृतो विषपानेन कृष्णसर्पों वैश्वदेवमकर्तारः सर्वभक्षाच ये भवेद् गिरौ । निरंकुशस्वभावः स्यात् कुञ्जरो निर्जने वने ॥ १६ ॥ 

द्विजाः । अपरीक्षितभोक्तारो व्याघ्राः स्युर्निर्जने वने ॥ १७ ॥ गायत्रीं न स्मरेद्यस्तु यो न सन्ध्यामुपासते । अन्तर्दुष्टो बहिः साधुः स भवेद् ब्राह्मणो बकः ॥ १८ ॥

 विष पीकर मरनेवाला पर्वतपर काला नाग होता है । जिसका स्वभाव अमर्यादित है , वह निर्जन वनमें हाथी होता है ॥ १६ ॥ 

बलिवैश्वदेव न करनेवाले तथा सब कुछ खा लेनेवाले द्विज ( ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य ) और बिना परीक्षण किये भोजन कर लेनेवाले व्यक्ति निर्जन वनमें व्याघ्र होते हैं ॥ १७॥ 

जो ब्राह्मण गायत्रीका स्मरण नहीं करता और जो संध्योपासन नहीं करता , जिसका अन्तःस्वरूप दूषित तथा बाह्य स्वरूप , साधुकी तरह प्रतीत होता है , वह ब्राह्मण बगुला होता है ॥ १८ ॥ 

अयाज्ययाजको विप्रः स भवेद् ग्रामसूकरः । खरो वै बहुयाजित्वात्काकोऽनिर्मन्त्रभोजनात् ॥ १ ९ ॥ 

पात्रे विद्यामदाता च बलीवर्दो भवेद् द्विजः । गुरुसेवामकर्ता च शिष्यः स्याद् गोखरः पशुः ॥ २० ॥ 

गुरुं हुंकृत्य तुंकृत्य विप्रं निर्जित्य वादतः । अरण्ये निर्जले देशे जायते ब्रह्मराक्षसः ॥ २१ ॥

जिनको यज्ञ नहीं करना चाहिये , उनके यहाँ यज्ञ करानेवाला ब्राह्मण गाँवका सूअर होता है , क्षमतासे अधिक यज्ञ करानेवाला गर्दभ तथा बिना आमन्त्रणके भोजन करनेवाला कौआ होता है ॥ १ ९ ॥

 जो सत्पात्र शिष्यको विद्या नहीं प्रदान करता , वह ब्राह्मण बैल होता है । गुरुकी सेवा न करनेवाला शिष्य बैल और गधा होता है ॥ २० ॥ 

गुरुके प्रति ( अपमानके तात्पर्यसे ) हुं यातुशब्दोंका उच्चारण करनेवाला और वाद - विवादमें ब्राह्मणको पराजित करनेवाला जलविहीन अरण्यमें ब्रह्मराक्षस होता है ॥ २१ ॥

 स्यादुलूकः यस्तु स्नेहच्छेदकरस्तु प्रतिश्रुतं द्विजे दानमदत्त्या जम्बुको भवेत् । सतामसत्कारकरः फेत्कारोऽग्निमुखो भवेत् ॥ २२ ॥ 

मित्रधुग्गिरिगृधः क्रयवञ्चनात् । वर्णाश्रमपरीवादात्कपोतो जायते बने ॥ २३ ॥

 आशाच्छेदकरो यः । यो द्वेषात् स्त्रीपरित्यागी चक्रवाकश्चिरं भवेत् ॥ २४ ॥ 

प्रतिज्ञा करके द्विजको दान न देनेवाला सियार होता है । सत्पुरुषोंका अनादर करनेवाला व्यक्ति अग्रिमुख सियार होता है ॥ २२ ॥ 

मित्रसे द्रोह करनेवाला पर्वतका गीध होता है और क्रयमें धोखा देनेवाला उल्लू वर्णाश्रमकी निन्दा करनेवाला वनमें कपोत होता है ॥ २३ ॥

 आशाको तोड़नेवाला और स्नेहको नष्ट करनेवाला , द्वेषवश स्त्रीका परित्याग कर देनेवाला बहुत कालतक चक्रवाक ( चकोर ) होता है ॥ २४ ॥ 

 मातृपितृगुरुद्वेषी भगिनीभ्रातृवैरकृत् । गर्भे योनौ विनष्टः स्याद्यावद्योनिसहस्रशः ॥ २५ ॥

 श्वश्रोऽपशब्ददा नारी नित्यं कलहकारिणी । सा जलौका च यूका स्याद्धर्तारि भर्त्सते च या ॥ २६ ॥

 स्वपतिं च परित्यज्य परपुंसानुवर्तिनी । वल्गुनी गृहगोधा स्याद् द्विमुखी वाऽथ सर्पिणी ॥ २७ ॥

  माता - पिता , गुरुसे द्वेष करनेवाला तथा बहन और भाईसे शत्रुता करनेवाला हजारों जन्मोंतक गर्भ में या योनिमें नष्ट होता रहता है ॥ २५ ॥ 

सास - श्वशुरको अपशब्द कहनेवाली स्त्री तथा नित्य कलह करनेवाली स्त्री जलौका ( जलजॉक ) होती है और पतिकी भर्त्सना करनेवाली नारी जूँ होती है ॥ २६ ॥

 अपने पतिका परित्याग करके परपुरुषका सेवन करनेवाली स्त्री वल्गुनी ( चमगीदड़ी ) , छिपकली अथवा दो मुँहवाली सर्पिणी होती है ॥ २७ ॥ 

यः स्वगोत्रोपघाती च स्वगोत्रस्त्रीनिषेवणात् । तरक्षः शल्लको भूत्वा ऋक्षयोनिषु जायते ॥ २८ ॥

 तापसीगमनात् कामी भवेन्मरुपिशाचकः । अप्राप्तयौवनासंगाद् भवेदजगरो बने ॥ २ ९ ॥

गुरुदाराभिलाषी च कृकलासो भवेन्नरः । राज्ञीं गत्वा भवेददुष्टो मित्रपत्नीं च गर्दभः ।। ३० ।। 

सगोत्रकी साथ सम्बन्ध बनाकर अपने गोत्रको विनष्ट करनेवाला तरक्ष ( लकड़बग्घा ) और शल्लक ( शाही ) होकर रीछ - योनिमें जन्म लेता है ॥ २८ ॥

 तापसीके साथ व्यभिचार करनेवाला कामी पुरुष मरुप्रदेशमें पिशाच होता है और अप्राप्तयौवनासे सम्बन्ध करनेवाला वनमें अजगर होता है ॥ २ ९ ॥ 

गुरुपत्नीके साथ गमनकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य कृकलास ( गिरगिट ) होता है । राजपत्नीके साथ गमन करनेवाला ऊँट तथा मित्रकी पत्नीके साथ गमन करनेवाला गधा होता है ॥ ३० ॥

गुदगो विडविराहः स्याद् वृषः स्याद् वृषलीपतिः । महाकामी भवेद यस्तु स्यादश्व कामलम्पटः ।। ३ ९ ।। 

मृतस्यैकादशाहं तु भुञ्ञानः श्वा विजायते । लभेदेवलको विप्रो योनिं कुक्कुट संज्ञकाम ॥ ३२ ॥

 द्रव्यार्थ देवतापूजा य करोति द्विजाधम स वै देवलको नाम हव्यकव्येषु गर्हितः ॥ १३ ॥ 

गुदा गमन करनेवाला विषठाभोगी सूअर तथा शुद्रागामी बैल होता है जो महाकामी होता है , वह कामलम्पट घोड़ा होता है ॥ ३ ९ ॥ 

किसोके मरणाशौच एकादशाहतक भोजन करनेवाला कुत्ता होता है । देवद्रव्यभोक्ता देवलक ब्राह्मण मुर्गे की योनि प्राप्त करता है ॥ ३२ ॥ 

जो ब्राह्मणाम द्रव्यार्जनके लिये देवता की पूजा करता है , वह देवलक कहलाता है । यह देवकार्य तथा पितृकार्यके लिये निन्दनीय है ॥ ३३ ॥ 

महापातकजान घोरान्नरकान् प्राप्य दारुणान् । कर्मक्षये प्रजायन्ते महापातकिनस्त्विह ॥ ३४ ॥

 खरोष्टमहिषीणां हि ब्राहा योनिमृच्छति । वृकश्वान शृगालानां सुरापा यान्ति योनिषु ॥ ३५ ।।

 कृमिकीटपतङ्गत्वं स्वर्णस्तेयी समाप्नुयात् । तृणगुल्मलतात्वं च क्रमशो गुरुतल्पगः ॥ ३६ ॥ 

महापातकसे प्राप्त अत्यन्त भोर एवं दारुण नरकोंका भोग प्राप्त करके महापातकी ( व्यक्ति ) कर्मके क्षय होनेपर पुन : इस ( मर्त्य ) लोकमें जन्म लेते हैं ॥ ३४ ॥

 ब्रह्महत्यारा गधा , ऊँट और महिषीकी योनि प्राप्त करता है तथा सुरापान करनेवाले भेड़िया कुत्ता एवं सियारकी योनिमें जाते हैं ॥ ३५ ॥

 स्वर्ण चुरानेवाला कृमि , कोट तथा पतंगकी योनि प्राप्त करता है । गुरुपानी के साथ गमन करनेवाला क्रमश गुण , गुल्म तथा लता होता है । 

परस्य योषितं हत्वा न्यासापहरणेन च ब्रह्मस्वहरणाच्चैव जायते ब्रह्मराक्षसः ।। ३७ ।। 

ब्रहास्वं प्रणयाद्भुक्तं दहत्यासप्तमं कुलम् । बलात्कारेण चौर्येण दहत्याचन्द्र तारकम् ॥ ३८ ॥ 

परस्त्रीका हरण करनेवाला , धरोहरका हरण करनेवाला तथा ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला ब्रह्मराक्षस होता है ॥ ३७ ॥ 

ब्राह्मणका धन कपट- सनेह से खानेवाला सात पीढ़ियोंतक अपने कुलका विनाश करता है और बलात्कार तथा चोरीके द्वारा खानेपर जबतक चन्द्रमा और तारकोंकी स्थिति होती है तबतक वह अपने कुलको जलाता है ।

 लौहचूर्णाश्मचूर्णे च विषं च जरयेन्नरः । ब्रह्मस्वं त्रिषु लोकेषु कः पुमाञ्जरयिष्यति ॥ ३ ९ ॥ 

ब्रह्मस्वरसपुष्टानि वाहनानि बलानि च। युद्धकाले विशीर्यन्ते सैकताः सेतवो यथा ॥ ४० ॥ 

 देवद्रव्योपभोगेन ब्रह्मस्वहरणेन च । कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च ॥ ४१ ॥ 

लोहे और पत्थरके चूर्ण तथा विषको व्यक्ति पचा सकता है , पर तीनों लोकोंमें ऐसा कौन व्यक्ति है , जो को पचा सकता है ? ॥ ३ ९ ॥ 

ब्राह्मणके धनसे पोषित की गयी सेना तथा वाहन युद्धकालमें बालूसे बने सेतु - बाँधके समान नष्ट - भ्रष्ट हो जाते हैं ॥ ४०

 देवद्रव्यका उपभोग करनेसे अथवा ब्रह्मस्वका हरण करनेसे या ब्राह्मणका अतिक्रमण करनेसे कुल पतित हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

 स्वमाश्रितं परित्यज्य वेदशास्त्रपरायणम् । अन्येभ्यो दीयते दानं कथ्यतेऽयमतिक्रमः ॥ ४२ ॥ 

 ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रे वेदविवर्जिते । ज्वलन्तमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि हूयते ॥ ४३ ।।

 अतिक्रमे कृते तार्क्ष्य भुक्त्वा च नरकान् क्रमात् । जन्मान्धः सन्दरिद्रः स्यान्त्र दाता किंतु याचकः ॥ ४४ ॥ 

अपने आश्रित वेद - शास्त्रपरायण ब्राह्मणको छोड़कर अन्य ब्राह्मणको दान देना ( ब्राह्मणका ) अतिक्रमण करना कहलाता है ॥ ४२ ॥ 

वेदवेदाङ्गके ज्ञानसे रहित ब्राह्मणको छोड़ना अतिक्रमण नहीं कहलाता है , क्योंकि जलती हुई आगको छोड़कर भस्ममें आहुति नहीं दी जाती ॥ ४३ ॥ 

हे तार्क्ष्य ब्राह्मणका अतिक्रमण करनेवाला व्यक्ति नरकोंको भोगकर क्रमशः जन्मान्ध एवं दरिद्र होता है , वह कभी दाता नहीं बन सकता अपितु याचक ही रहता है ॥ ४४ ॥ 

 स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेच्च वसुन्धराम् । षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ ४५ ॥ 

स्वयमेव च यो दत्त्वा स्वयमेवापकर्षति । स पापी नरकं याति यावदाभूतसम्प्लवम् ॥ ४६ ॥ 

दत्त्वा वृत्तिं भूमिदानं यत्नतः परिपालयेत् । न रक्षति हरेद्यस्तु स पग्ङु श्वाऽभिजायते ॥ ४७ ॥ 

अपने द्वारा दी हुई अथवा दूसरे द्वारा दी गयी पृथ्वीको जो छीन लेता है , वह साठ हजार वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है ॥ ४५ ॥ 

जो स्वयं ( कुछ ) देकर पुनः स्वयं ले भी लेता है , वह पापी एक कल्पतक नरकमें रहता है ॥ ४६॥

 जीविका अथवा भूमिका दान देकर यत्नपूर्वक उसकी रक्षा करनी चाहिये , जो रक्षा नहीं करता प्रत्युत उसे हर लेता है , वह पंगु ( लँगड़ा ) कुत्ता होता है ॥ ४७ ॥

 विप्रस्य वृत्तिकरणे लक्षधेनुफलं भवेत। विप्रस्य वृत्तिहरणान्मर्कटः श्वा कपिर्भवेत् ।।एवमादीनि चिह्नानि योनयश्च एवं दुष्कर्मकर्तारो भुक्त्वा भवेत् । खगेश्वर स्वकर्मविहिता र्मविहिता लोके दृश्यन्तेऽत्र शरीरिणाम् ॥ ४ ९ ॥ 

एवं दुष्कर्मकर्तारो भुक्त्वा निरययातनाम् । जायन्ते पापशेषेण प्रोक्तास्वेतासु योनिषु ॥ ५० ॥

 ब्राह्मणको आजीविका देनेवाला व्यक्ति एक लाख गोदानका फल प्राप्त करता है और ब्राह्मणकी वृत्तिका हरण करनेवाला बन्दर , कुत्ता तथा लंगूर होता है ॥ ४८॥

 हे खगेश्वर ! प्राणियोंको अपने कर्मके अनुसार लोकमें पूर्वोक्त योनियाँ तथा शरीरपर चिह्न देखने को मिलते हैं ॥ ४ ९ ॥ 

इस प्रकार दुष्कर्म ( पाप ) करनेवाले जीव नारकीय यातनाओंको भोगकर अवशिष्ट पापोंको भोगनेके लिये इन पूर्वोक्त योनियोंमें जाते हैं ॥ ५० ॥

 ततो जन्मसहस्त्रेषु प्राप्य तिर्यक्शरीरताम् । दुःखानि भारवहनोद्भवादीनि लभन्ति ते ॥५१ ॥

 पक्षियों ततो भुक्त्वा वृष्टिशीतातपोद्भवम् । मानुषं लभते पश्चात् समीभूते शुभाशुभे ॥ ५२ ॥ 

 स्त्रीपुंसोऽस्तु प्रसङ्गेन भूत्वा गर्भे क्रमादसौ । गर्भादिमरणान्तं च प्राप्य दुःखं म्रियेत्पुनः ॥ ५३ ॥ 

इसके बाद हजारों जन्मोंतक तिर्यक् ( पशु - पक्षी ) का शरीर प्राप्त करके वे बोझा ढोने आदि कार्योंसे दुःख प्राप्त करते हैं ॥ ५१ ॥

 फिर पक्षी बनकर वर्षा , शीत तथा आतप ( घाम ) से दुःखी होते हैं । इसके बाद अन्त में जब पुण्य और पाप बराबर हो जाते हैं तब मनुष्यकी योनि मिलती है ॥ ५२॥

 स्त्री - पुरुषके सम्बन्धसे ( वह ) गर्भ में उत्पन्न होकर क्रमशः गर्भसे लेकर मृत्युतकके दुःख प्राप्त करके पुनः मर जाता है ॥ ५३ ॥ 

समुत्पत्तिर्विनाशश्च जायते सर्वदेहिनाम् । एवं प्रवर्तितं चक्रं भूतग्रामे चतुर्विधे ॥ ५४ ॥ 

घटीयन्त्रं यथा मर्त्या भ्रमन्ति मम मायया भूमौ कदाचिन्नरके कर्मपाशसमावृताः ॥ ५५ ॥

 इस प्रकार सभी प्राणियोंका जन्म और विनाश होता है । यह जन्म - मरणका चक्र चारों प्रकारकी सृष्टिमें चलता रहता है ॥ ५४॥ 

मेरी मायासे प्राणी रहट ( घटीयन्त्र ) की भाँति ऊपर - नीचेकी योनियोंमें भ्रमण करते रहते हैं । कर्मपाशसे बँधे रहकर कभी वे नरकमें और कभी भूमिपर जन्म लेते हैं ॥ ५५ ॥ 

अदत्तदानाच्च भवेद् दरिद्रो दरिद्रभावाच्च करोति पापप्रभावान्त्ररके प्रयाति पुनरेव पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ।। ५६।।

 अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ॥ ५७ ॥

 इति गरुडपुराणे सारोद्वारे पापचिह्ननिरूपणं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

* चतुर्विध प्राणिसमूहमें ( १ ) उद्भिज्ज ( गृध , लठा , गुल्म आदि ) , ( २ ) स्वेदज ( खटमल , जूं आदि ) , ( ३ ) अण्डज ( पक्षी आदि ) या ( ४ )जरायुज ( मनुष्य आदि ) की गणना होती है । 

दान न देनेसे प्राणी दरिद्र होता है । दरिद्र हो जानेपर फिर पाप करता है । पापके प्रभावसे नरकमें जाता है और नरकसे लौटकर पुनः दरिद्र और पुनः पापी होता है ॥ ५६॥

 प्राणीके द्वारा किये गये शुभ और अशुभ कर्मोंका फलभोग उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है ; क्योंकि सैकड़ों कल्पोंके बीत जानेपर भी बिना भोगके कर्मफलका नाश नहीं होता ॥ ५७ ॥ 

इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धारमें ' पापचिहनिरूपण ' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

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