Garur puran part 10 गरुड पुराण सारोद्धार दसवां अध्याय

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                               tenth  chapter 

                          saroddhar garuda purana 
           



The rituals after death, the fruits of the six offerings of bodies named corpses, etc., the method of cremation, the prohibition of cremation in the Panchaka, the rituals performed after cremation, the ritual of the funeral of infants, etc 

The eagle said 
 O almighty one, please tell me the method of burning the body of a pious person. If you are a chaste wife, please tell me the glories of her. 1. 1. 1.

 Garudji said - Oh dear. Now you tell the law of cremation of the body of virtuous men and if the wife is sati then also describe her glory. 1
 The Lord said 
 O Tārkṣya, please hear me. I shall now explain to you everything that happens in the upper body. By doing this, one’s sons and grandsons are freed from the debt owed to their parents. 2 ॥ 

  What is the use of performing the funeral of one’s father with the many gifts one has given? By doing so a son will obtain the same results as the Agniṣṭoma sacrifice 3 ॥   

Sri Bhagavan said - O Tarkshya, by doing all the other physical acts, sons and grandsons are freed from the debt of the father, I tell him, listen. 2

 What is the benefit of giving a lot? If one performs the funeral rites of his parents properly, his son will obtain the same rewards as the sacrifice of the fire. 3 ॥
   Then, instead of grieving, the son should perform the Sundana. He is endowed with all blind enemies for the liberation from all sins

 How can it be understood that a man who has shaved his head in the urine of his parents is not his son? He has delivered him from the ocean of material existence. 5 ॥ 

 Therefore, it is necessary to shave without the nail chamber. Then one should take a bath with his relatives and put on clean clothes. 6 ॥

 Bringing water immediately one should bathe the dead body and decorate it with sandalwood paste or Ganges clay. 7 ॥ 

Then he covered the body with new clothes and offered him gifts After reciting the name and surname of the Lord with resolve, turn to the left. 8 ॥
 At the place of death, the body should be given in his name. By this process the earth will be satisfied and the deity who rules it will be satisfied. 9 ॥

 माता - पिताकी मृत्यु होनेपर पुत्रको शोकका परित्याग करके सभी पापोंसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये समस्त बान्धवोंके साथ मुण्डन कराना चाहिये ॥४ ॥ 
माता - पिताके मरनेपर जिसने मुण्डन नहीं कराया , वह संसारसागरको तारनेवाला पुत्र कैसे समझा जाय ? ॥ ५ ॥

 अतः नख और काँखको छोड़कर मुण्डन कराना आवश्यक है । इसके बाद समस्त बान्धवोंके सहित स्नान करके धौत वस्त्र धारण करे ॥ ६ ॥ 
तब तुरंत जल ले आकर उस जलसे शवको स्नान करावे और चन्दन अथवा गङ्गाजीकी मिट्टीके लेपसे तथा मालाओंसे उसे विभूषित करे ॥ ७ ॥
 उसके बाद नवीन वस्त्रसे ढककर अपसव्य होकर नाम - गोत्रका उच्चारण करके संकल्पपूर्वक दक्षिणासहित पिण्डदान देना चाहिये ॥ ८ ॥

 ( केशों में कामका वास होता है , इसलिये मुण्डन कराना चाहिये )

 मृत्युके स्थानपर ' शव ' नामक पिण्डको मृत व्यक्तिके नाम - गोत्रसे प्रदान करे । ऐसा करनेसे भूमि और भूमिके अधिष्ठातृ देवता प्रसन्न होते हैं ॥ ९ ॥ 

द्वारदेशे भवेत्पान्थस्तस्य नाम्ना प्रदापयेत् । तेन नैवोपघाताय भूतकोटिषु दुर्गताः ॥ १० ॥

  ततः प्रदक्षिणां कृत्वा पूजनीयः स्नुषादिभिः । स्कन्धः पुत्रेण दातव्यस्तदाऽन्यैर्बान्धवैः सह ॥ ११ ॥ 

धृत्वा स्कन्धे स्वपितरं यः श्मशानाय गच्छति । सोऽश्वमेधफलं पुत्रो लभते च पदे पदे ॥ १२ ॥ 

इसके पश्चात् द्वारदेशपर ' पान्थ ' नामका पिण्ड मृतकके नाम - गोत्रादिका उच्चारण करके प्रदान करे । ऐसा करनेसे भूतादि कोटिमें दुर्गतिग्रस्त प्रेत मृत प्राणीकी सद्गतिमें विघ्न - बाधा नहीं कर सकते ॥ १० ॥
 इसके बाद पुत्रवधू आदि शवकी प्रदक्षिणा करके उसकी पूजा करें । तब अन्य बान्धवोंके साथ पुत्रको ( शवयात्राके निमित्त ) कंधा देना चाहिये ॥ ११ ॥ 
अपने पिताको कंधेपर धारण करके जो पुत्र श्मशानको जाता है , वह पग - पगपर अश्वमेधका फल प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ 

नीत्वा स्कन्धे स्वपृष्ठे वा सदा तातेन लालितः । तदैव तदृणान्मुच्येन्मृतं स्वपितरं वहेत् ॥ १३ ॥

 ततोऽर्धमार्गे विश्रामं सम्मार्ज्याभ्युक्ष्य कारयेत् । संस्नाप्य भूतसंज्ञाय तस्मै तेन प्रदापयेत् ॥ १४ ॥ 

पिशाचा राक्षसा यक्षा ये चान्ये दिक्षु संस्थिताः । तस्य होतव्यदेहस्य नैवायोग्यत्वकारकाः ॥ १५ ॥

पिता अपने कंधे अथवा पीठपर बैठाकर पुत्रका सदा लालन - पालन करता है , उस ऋणये पुत्र सभी मुक्त होता है जब वह अपने मृत पिताको अपने कंधेपर होता है । १३ ।।

 इसके बाद आप मार्ग पहुँचकर भूमिका मार्जन और प्रोक्षण करके शवको विश्राम कराये और उसे स्नान कराकर भूतसंज्ञक पितरको गोत्र नामादिके द्वारा ' भूत ' नामक पिण्ड प्रदान करे ॥ १४॥

 इस पिण्डदानसे अन्य दिशाओंमें स्थित पिशाच , राक्षस , यक्ष आदि दस हवन करने योग्य देहकी हवनीयतामें अयोग्यता नहीं उत्पन्न कर सकते ॥ १५ ॥ 

  त्वं ततो नीत्वा श्मशानेषु स्थापयेदुत्तरामुखम् तत्र देहस्य दाहार्थं स्थलं संशोधयेद्यथा ॥ १६ ॥

 सम्मार्थ भूमि संलिप्योत्लिख्योधृत्य च वेदिकाम् अभ्युक्ष्योपसमाधाय यहिं तत्र विधानतः ॥ १७ ॥

पुष्पाक्षतैरथाभ्यर्च्य  देवं क्रव्यादसंज्ञकम् । लोमभ्यस्त्वनुवाकेन होर्म कुर्याद्यथाविधि ॥ १८ ॥  

त्वं भुतभूज्जगद्योनिस्त्वं  देवं भूतपरिपालकः । मृतः सांसारिकस्तस्मादेनं त्वं स्वर्गतिं नय ॥ १ ९ ॥

 इति सम्प्रार्थयित्वाऽग्रि चितां तत्रैव कारयेत् । श्रीखण्डतुलसीकाष्ठैः पलाशाश्वत्थदारुभिः ॥ २० ॥

 उसके बाद श्मशानमें ले जाकर उत्तराभिमुख स्थापित करे । वहाँ देहके दाहके लिये यथाविधि भूमिका संशोधन करे ॥ १६ ॥ 

भूमिका संमार्जन और लेपन करके उल्लेखन करे ( अर्थात् दर्भमूलसे तीन रेखाएँ खींचे ) और उल्लेखन क्रमानुसार ही उन रेखाओंसे उभरी हुई मिट्टीको उठाकर ईशान दिशामें फेंककर उस वेदिकाको जलसे प्रोक्षित करके उसमें विधि - विधानपूर्वक अग्नि - स्थापन करे ॥ १७ ॥

 पुष्प और अक्षत आदिसे क्रव्यादसंज्ञक अग्रिदेवकी पूजा करे और अध्याय *** ' लोमभ्यः ( स्वाहा ) " इत्यादि अनुवाकसे यथाविधि होम करना चाहिये ॥ १८ ॥ 

( तब उस क्रव्याद - मृतकका मांसभक्षण करनेवाली - अग्रिकी इस प्रकार प्रार्थना करे- ) तुम प्राणियोंको धारण करनेवाले , उनको उत्पन्न करनेवाले तथा प्राणियोंका पालन करनेवाले हो , यह सांसारिक मनुष्य मर चुका है , तुम इसे स्वर्ग ले जाओ ॥ १ ९ ॥

इस प्रकार क्रव्याद संज्ञक अग्रिकी प्रार्थना करके वहीं चन्दन , तुलसी , पलाश और पिप्पलकी लकड़ियोंसे चिताका निर्माण करे ॥ २० ॥

  चितायां शवहस्ते च चितामारोप्य तं प्रेतं पिण्डौ द्वौ तत्र दापयेत् । प्रेतनाम्ना खगेश्वर चितामोक्षप्रभृतिकं प्रेतत्वमुपजायते ॥ २१ ॥ 

 केऽपि तं साधकं प्राहुः प्रेतकल्पविदो जनाः । चितायां तेन नाम्ना वा प्रेतनाम्नाऽथवा करे ॥ २२ ॥

 हे खगेश्वर उस शवको चितापर रख करके वहाँ दो पिण्ड प्रदान करे । प्रेतके नामसे एक पिण्ड चितापर तथा दूसरा शवके हाथमें देना चाहिये चितामें रखनेके बादसे उस शयमें प्रेतत्व आ जाता है ॥ २१ ॥

 प्रेतकल्पको जाननेवाले कतिपय विद्वज्जन चितापर दिये जानेवाले पिण्डको ' साधक ' नामसे सम्बोधित करते है ं । अत : चितापर साधक नामसे तथा शवके हाथपर ' प्रेत ' नामसे पिण्डदान करे ॥ २२ ॥

इत्येवं पञ्चभिः पिण्डै शवस्याहुतियोग्यता अन्यथा चोपघाताय पूर्वोक्तास्ते भवन्ति हि ॥ २३ ॥

 प्रेते दावा पश पिण्डान् हुतमादाय तं तृणैः अग्निं पुत्रस्तदा दद्यान्न भवेत्पञ्चकं यदि ॥ २४ ॥ 

इस प्रकार पाँच पिण्ड प्रदान करनेसे में आहुति योग्यता सम्पन्न होती है । अन्यथा श्मशान में स्थित पूर्वोक पिशाच , राक्षस तथा यक्ष आदि उसकी आहुति योग्यताके उपघातक होते हैं ॥ २३॥

 प्रेतके लिये पाँच पिण्ड देकर हवन किये हुए उस प्रत्याद अग्निको तिनकॉपर रखकर यदि पथक न हो तो पुत्र अग्नि प्रदान करे ॥ २४ ॥

  पञचकेषु मृतो यस्तु न गति लभते नरः । दाहस्तत्र न कर्तव्यः कृतेऽन्यमरणं भवेत् ॥ २५ ॥

 आदौ कृत्वा धनिष्ठार्थतन्त्रक्षत्रपञ्चकम् । रेवत्यन्तं न दाहेऽहं दाहे च न शुभं भवेत् ॥ २६ ॥ 

गृहे हानिर्भवेत्तस्य त्राक्षेष्वेषु मृतो हि यः पुत्राणां गोत्रिणां चापि कश्चिद्विघ्नः प्रजायते ॥ २७ ॥ 

अथवा त्राक्षमध्ये हि दाहः स्याद्विधिपूर्वकः । तद्विधिं ते प्रवक्ष्यामि सर्वदोषप्रशान्तये ॥ २८ ॥

 शवस्य निकटे तार्क्ष्य निक्षिपेत् पुत्तलास्तदा । दर्भमर्याश्च चतुर त्राक्षमन्त्राभिमन्त्रितान् ॥ २ ९ ॥ 

 तप्तहेमं प्रकर्तव्यं वहन्ति  ॠक्षनामभिः । ' प्रेताजयत ' मन्त्रेण पुनहर्होमस्तु सम्पुटैः ।। ३० ।।


 ( ये पांच नक्षत्र पंचक कहलाते है- ( १ ) ,धनिषठा ( २ ) शतभिषा , ( ३ ) पूर्वाभाद्रपदा ( ४ ) उत्तराभाद्रपदा और ( ५ ) रेवती । इन नक्षत्रों के स्वामी क्रमश : ( १ ) वसु  ( २ ) वरूण( ३ ) अवचरण ( अपात ) , ( ४ )  अहिर्बुध्न और ५ पुषा है ।

पञ्चकमें जिसका मरण होता है , उस मनुष्यको सद्गति नहीं प्राप्त होती ( पचकशान्ति किये बिना ) उसका दाह नहीं करना चाहिये अन्यथा अन्यकी मृत्यु हो जाती है ॥ २५ ॥

 धनिष्ठाके उत्तरार्धसे रेवतीपर्यन्त पाँच नक्षत्र पञ्चकसंज्ञक हैं । इनमें मृत व्यक्ति दाहके योग्य नहीं होता और उसका दाह करनेसे परिणाम शुभ नहीं होता ॥ २६ ॥ 

इन नक्षत्रों में जो मरता है , उसके घरमें कोई हानि होती है , पुत्र और सगोत्रियोंको भी कोई विघ्न होता है ॥ २७ ॥ 

अथवा इस पञ्चकमें भी दाहविधिका आचरण करके मृत व्यक्तिका दाह संस्कार हो सकता है । ( पञ्चकमरण प्रयुक्त ) सभी दोषॉको शान्तिके लिये उस दाह - विधिको कहूँगा ॥ २८॥

 हे तार्क्ष्य कुशसे निर्मित चार पुतलोंको नक्षत्र - मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके शवके समीपमें स्थापित करे ॥ २ ९ ॥

 तब उन पुत्तलोंमें प्रतप्त सुवर्ण रखना चाहिये । और फिर नक्षत्रों के नाम मन्त्रोंसे होम करना चाहिये । पुनः ' प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु ' ( ० १० / २०३।१३ , यजु ० १७।४६ ) इस मन्त्रसे उन नक्षत्र मन्त्रोंको सम्पुटित करके होम करना चाहिये ॥ ३० ।।

 ततो दाहः प्रकर्तव्यस्तैश्च पुत्तलकैः सह सपिण्डनदिने कुर्यात्तस्य शान्तिविधिं सुतः ॥ ३ ९ ॥ 

तिलपात्रं हिरण्यं च रूप्यं रत्वं यथाक्रमम् । घृतपूर्ण कांस्यपात्रं दद्यादोषप्रशान्तये ॥ ३२ ॥

 एवं शान्तिविधानं तु कृत्या दाहं करोति यः । न तस्य विघ्नो जायेत प्रेतो याति परां गतिम् ॥ ३३ ॥

 एवं पञ्चकदाहः स्यात् तद्विना केवलं दहेत् । सती यदि भवेत्पत्नी तथा सह विनिर्दहेत् ॥ ३४ ॥ 

इसके बाद उन पुतलोंके साथ शवका दाह करे , सपिण्डी श्राद्धके दिन पुत्र यथाविधि पञ्चकशान्ति का अनुष्ठान करे ॥ ३१ ॥ 

पञ्चकदोषकी शान्तिके लिये क्रमशः तिलपूर्णपात्र , सोना , चाँदी , रत्न तथा घृतपूर्ण कांस्यपात्रका दान करना चाहिये ॥ ३२॥

 इस प्रकार ( पञ्चक- ) शान्ति विधान करके जो ( शव ) दाह करता है , उसे ( पञ्चकजन्य ) कोई विघ्र बाधा नहीं होती और प्रेत भी सद्गति प्राप्त करता है ॥ ३३ ॥ 

इस प्रकार पञ्चकमें मृत व्यक्तिका दाह करना चाहिये और पञ्चकके बिना मरनेपर केवल शवका दाह करना चाहिये । यदि मृत व्यक्तिकी पत्नी सती हो रही हो तो उसके दाहके साथ ही शवका दाह करना चाहिये ॥ ३४ ॥

 पतिव्रता यदा नारी भर्तुः प्रियहिते रता इच्छेत्सहैव गमनं तदा स्नानं समाचरेत् ॥ ३५ ॥

  कुंकुमाञ्जनसद्वस्त्रभूषणैर्भूषितां तनुम् । दानं दद्याद् द्विजातिभ्यो बन्धुवर्गेभ्य एव च ॥ ३६ ।। 

 गुरुं नमस्कृत्य तदा निर्गच्छेन्मन्दिराद्वहिः । ततो देवालयं गत्वा भक्त्या तं प्रणमेद्धरिम् ॥ ३७ ॥

  समर्प्याभरणं  तत्र श्रीफलं परिगृह्य च । लजां मोहं परित्यज्य श्मशानभवनं व्रजेत् ॥ ३८ ॥

 
तत्र सूर्य नमस्कृत्य परिक्रम्य चितां तदा । पुष्पशय्यां तदाऽऽरोहेन्निजाङ्के स्वापयेत्पतिम् ॥ ३ ९ ॥

सखिभ्यः श्रीफलं दद्याद्दाहमाज्ञापयेत्ततः । गङ्गास्नानसमं ज्ञात्वा शरीरं परिदाहयेत् ॥ ४० ॥ 

(१. शुद्धिमयूख तथा निर्णयसिन्धु आदि ग्रन्थोंमें उद्धृत ब्रह्मपुराणके एक वचनके अनुसार पञ्चकॉमें मृत मनुष्यके साथ दाहहेतु दर्भकी हो पाँच प्रतिमाएँ ( पुतलें ) बनाकर उन्हें सफेद ऊनके धागेसे लपेटकर और जौके आटेसे उनका लेपन करके उनमें क्रमश : - ( १ ) प्रेतवाह , ( २ ) प्रेतसख , ( ३ ) प्रेतप , ( ४ ) प्रेतभूमि और ( ५ ) प्रेतहर्ता- इन पाँच नाम मन्त्रोंसे आवाहन - पूजन करके उनमेंसे प्रथमको प्रेतके सिरमें , दूसरेको नेत्रोंमें , तीसरेको वामकुक्षिमें , चौथेको नाभिमें और पाँचवेंको पैरोंमें रखकर घुतहोमके पश्चात् शवदाह करना चाहिये ।)

  अपने पतिके प्रियसम्पादनमें संलग्न पतिव्रता नारी यदि उसके साथ परलोकगमन करना चाहे तो ( पतिकी मृत्यु होनेपर ) स्नान करे और अपने शरीरको कुंकुम , अंजन , सुन्दर वस्त्राभूषणादिसे अलंकृत करे , ब्राह्मणों और बन्धु बान्धवोंको दान दे । गुरुजनोंको प्रणाम करके तब घरसे बाहर निकले । इसके बाद देवालय ( मन्दिर ) जाकर भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुको प्रणाम करे । वहाँ अपने आभूषणोंको समर्पित करके वहाँसे श्रीफल ( नारियल ) लेकर लुज्जा और मोहका परित्याग करके श्मशानभूमिमें जाय । तब वहाँ सूर्यको नमस्कार करके , चिताकी परिक्रमा करके पुष्पशय्यारूपी चितापर चढ़े और अपने पतिको अपनी गोदमें लिटाये । तदनन्तर सखियोंको श्रीफल देकर दाहके लिये आज्ञा प्रदान करे और शरीरदाहको गङ्गाजलमें स्नानके समान मानकर अपना शरीर जलाये ॥ ३५-४० ॥ 

न दहेद् गर्भिणी नारी शरीरं पतिना सह । जनयित्वा प्रसूतिं च बालं पोष्य सती भवेत् ॥ ४१ ॥ 

नारी भर्तारमासाद्य शरीरं दहते यदि । अग्निर्दहति गात्राणि नैवात्मानं प्रपीडयेत् ॥ ४२ ॥

दह्यते ध्यायमानानां धातूनां च यथा मलः । तथा  नारी दहेत्पापं हुताशे ह्यमृतोपमे ॥ ४३ ॥ 

 दिव्यादौ सत्ययुक्तश्च शुद्धो धर्मयुतो नरः । यथा न दह्यते तप्तलौहपिण्डेन कर्हिचित् ॥ ४४ ॥

तथा सा पतिसंयुक्ता दह्यते न  कदाचन । अन्तरात्मात्मना भर्तुर्मृतस्यैकत्वमाप्नुयात् ॥ ४५ ॥ १. यदि । 
 मलः ।  


( १. सती होना स्त्रीकी इच्छापर निर्भर करता है । सतीके नामपर बलात् दाह करनेका विधान नहीं है । जैसे कौसल्या आदि दशरथपनियों , पाण्डुपत्नी कुन्ती तथा जडभरतकी सापल्य माता आदिके सती न होनेके उदाहरण प्राप्त होते हैं ।)

गर्मिणी स्त्रीको अपने पतिके साथ अपना दाह नहीं करना चाहिये । प्रसव करके और उत्पन्न बालकका पोषण करनेके अनन्तर उसे सती होना चाहिये ॥ ४१ ॥ 

यदि स्त्री अपने मृत पतिके शरीरको लेकर अपने शरीरका दाह करती है तो अग्नि उसके शरीरमात्रको जलाते हैं , उसकी आत्माको कोई पीड़ा नहीं होती ॥ ४२ ॥ 

धौंके जाते हुए ( स्वर्णादि ) धातुओंका मल जैसे अग्रिमें जल जाता है , उसी प्रकार ( पतिके साथ जलनेवाली ) नारी अमृतके समान अग्निमें अपने पापको जला देती है ॥ ४३॥

 जिस प्रकार सत्यपरायण धर्मात्मा पुरुष शपथके समय तपे हुए लोहपिण्डादिको लेनेपर भी नहीं जलता , उसी प्रकार चितापर पतिके शरीरके साथ संयुक्त वह नारी भी कभी नहीं जलती अर्थात् उसे दाहप्रयुक्त कष्ट नहीं होता । प्रत्युत उसकी अन्तरात्मा मृत व्यक्तिकी अन्तरात्माके साथ एकत्व प्राप्त कर लेती है ॥ ४४-४५ ॥ 

यावच्याग्नौ मृते पत्य स्त्री नात्मानं प्रदाहयेत् । तावत्र मुच्यते सा हि स्त्री शरीरात्कथञ्चन ॥ ४६ ॥ 

 तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्वपतिं सेवयेत्सदा । कर्मणा मनसा याचा मृते जीवति तद्गता ॥ ४७ ॥

 मृते भर्तरि या नारी समारोहेन्दुताशनम् । साऽरुन्धतीसमा भूत्वा स्वर्गलोके महीयते ॥ ४८ ॥ 

पतिकी मृत्यु होनेपर जबतक स्त्री उसके शरीरके साथ अपने शरीरको नहीं जला लेती , तबतक वह किसी प्रकार भी    
(• इस विषय में और्य ऋषिका यह वचन उल्लेखनीय है बालापत्याश्च गर्भिण्यो यस्तथा रजस्वला राजसुते नारोहन्ति चिर्ता शुभे ॥ 

( नारदपुराण ० पू ०७५२ ) कल्याणमयी राजपुत्री । जिनकी संतान बहुत छोटी हो , जो गर्भवती हों , जिन्होंने अभी ऋतुकाल न देखा
 हो तथा जो रजस्वला हॉ ऐसी स्त्रियाँ पतिके साथ चितापर नहीं चढ़ती - उनके लिये चितारोहणका निषेध है । )

 स्त्रीशरीर प्राप्त करनेसे मुक्त नहीं होती ॥ ४६॥ 

इसलिये सर्वप्रयत्नपूर्वक मन , वाणी और कर्मसे जीवितावस्थामें अपने पतिकी सदा सेवा करनी चाहिये और मरनेपर उसका अनुगमन करना चाहिये । पतिके मरनेपर जो स्त्री अग्रिमें आरोहण करती है , वह ( महर्षि वसिष्ठकी पत्नी ) अरुन्धतीके समान होकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होती है ॥ ४७-४८ ।। 

तत्र सा भर्तृपरमा स्तूयमानाउप्सरोगणैः । रमते पतिना सार्धं यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ४ ९ ॥

   मातृकं पैतृकं चैव यत्र सा च प्रदीयते । कुलत्रयं पुनात्यत्र भर्तारं याऽनुगच्छति ॥ ५० ॥ 

वहाँ वह पतिपरायणा नारी अप्सरागणोंके द्वारा स्तूयमान होकर चौदह इन्द्रोंके राज्यकालपर्यन्त अर्थात् एक कल्प तक अपने पतिके साथ स्वर्गलोकमें रमण करती है ॥ ४ ९ ॥ 

जो सती अपने भर्ताका अनुगमन करती है , वह अपने मातृकुल , पितृकुल और पतिकुल - इन तीनों कुलोंको पवित्र कर देती है ॥ ५०।।

  तित्रः कोट्योऽर्द्धकोटी च यानि रोमाणि मानुषे । तावत्कालं वसेत्स्वर्गे पतिना सह मोदते ॥ ५१ ॥

 विमाने सूर्यसंकाशे क्रीडते रमणेन सा । यावदादित्यचन्द्रौ च भर्तृलोके चिरं वसेत् ॥ ५२ ॥

 पुनश्चिरायुः सा भूत्वा जायते विमले कुले । पतिव्रता तु या नारी तमेव लभते पतिम् ॥ ५३ ॥

( १. चौदह मनुओंका राज्यकाल एक कल्प कहलाता है । यही ब्रह्माजोका एक दिन है । इसमें एक हजार बार चारों युग आ जाते हैं । स्वायम्भुव , स्वारोचिष , उत्तम , तामस , रैवत , चाक्षुष , वैवस्वत , सूर्यसावर्णि , दक्षसावर्णि , ब्राह्ममावर्णि , धर्मसावर्णि , रुद्रसावर्णि , रौच्य तथा भौत्य ये चौदह मनु कहे गये हैं ।)


मनुष्य के शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोमकूप हैं , उतने कालतक वह नारी अपने पति के साथ स्वर्ग में आनन्द करती है ॥५१

 वह सूचक समान प्रकाशमान विमानमें अपने पति के साथ क्रोम करती है और जबतक सूर्य और चन्द्रको स्थिति रहती है तबतक पविलोक में निवास करती है ॥५२ ॥ 

इस प्रकार दीर्घ आयु प्राप्त करके पवित्र कुलमें पैदा होकर पतिरूपमें वह पवित्रता नारी उसी ( जन्मान्तरीय ) पतिको पुनः प्राप्त करती है ॥ ५३ ॥ 

या क्षणं दाहदुःखेन सुखमेतादृशं त्यजेत् । सा मूढा जन्मपर्यन्तं दह्यते विरहाग्निना ॥ ५४ ॥

 तस्मात् पतिं शिवं ज्ञात्वा सह तेन दहेजनुम् । यदि न स्यात्सती तार्क्ष्य तमेव प्रदहेत्तदा ॥ ५५ ॥ 

अर्धे दग्धेऽथवा पूर्ण स्फोटवेत्तस्य मस्तकम् । गृहस्थानां तु काष्ठेन यतीनां श्रीफलेन च ॥ ५६ ॥

 जो स्त्री मात्र के लिये होनेवाले दाह - दुःखके कारण इस प्रकारके सुखाँको छोड़ देती है , वह मूर्खा जन्मपत रिसे जलती रहती है ॥५४ ॥

 इसलिये पतिको शिवस्वरूप जानकर उसके साथ अपने शरीरको जला देना चाहिये । हे वा यदि पत्नी सती नहीं होती तो केवल ( पतिके ) शवका दाह करना चाहिये ॥ ५५ ॥

 सबके आधे या पूरे जल जानेपर उसके मस्तकको फोड़ना चाहिये । गृहस्योंके मस्तकको काष्ठसे और यतियोंके मस्तकको श्रीफलसे फोड़ देना चाहिये ॥५६ ॥ 

 प्राप्तये पितृलोकानां भित्त्वा तद्ब्रह्मरन्धकम् । आन्याहुतिं ततो दद्यान्मन्त्रेणानेन तत्सुतः ॥ ५७ ॥ 

अस्मात्त्वमभिजातोऽसि त्वदर्य जायतां पुनः । असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ज्वलतु पावक ॥ ५८ ॥ 

 एवमान्याहुतिं दत्त्वा तिलमिश्रां समन्त्रकाम् । रोदितव्यं ततो गाढं येन तस्य सुखं भवेत् ॥ ५ ९ ॥ 

पितृलोकको प्राप्ति के लिये उसके ब्रह्मरन्ध्रका भेदन करके उसका पुत्र निम्न - मन्त्रसे अग्निमें घी की आहुति दे- ॥५७ ॥

 हे अग्निदेव ! तुम भगवान् वासुदेव के द्वारा उत्पन्न किये गये हो । पुनः तुम्हारे द्वारा इसकी ( तेजोमय दिव्य शरीरकी ) उत्पत्ति हो । स्वर्गलोक गमन करनेके लिये इसका ( स्थूल ) शरीर जलकर तुम्हारा हवि हो , एतदर्थ तुम प्रज्वलित होओ ॥ ५८॥ 

इस प्रकार मन्त्रसहित तिलमिश्रित घोकी आहुति देकर जोरसे रोना चाहिये , उससे मृत प्राणी सुख प्राप्त करता है ॥ ५ ९ ॥ 

दाहादनन्तरं कार्य स्त्रीभिः स्नानं ततः सुतैः । तिलोदकं ततो दद्यात्रामगोत्रोपकल्पितम् ।। ६० ।। 

प्राशयेत्रिम्बपत्राणि मृतकस्य गुणान् वदेत् । स्त्रीजनोऽग्रे गृहं गच्छेत्पृष्ठतो नरसञ्चयः ।। ६१ ॥

 दाहके अनन्तर स्त्रियोंको स्नान करना चाहिये । तत्पश्चात् पुत्रोंको स्नान करना चाहिये । तदनन्तर मृत प्राणीके गोत्र - नामका उच्चारण करके तिलाञ्जलि देनी चाहिये ॥ ६० ॥ 

फिर नीमके पत्तोंको चबाकर मृतकके गुणोंका गान करना चाहिये । आगे - आगे स्त्रियोंको और पीछे पुरुषोंको घर जाना चाहिये ॥ ६१ ॥

गृहे स्नानं पुनः कृत्वा गोग्रासं च प्रदापयेत् । पत्रावल्यां च भुञ्जीयाद् गृहानं नैव भक्षयेत् ॥ ६२ ॥

मृतकस्थानमालिप्य दक्षिणाभिमुखं  ततः । द्वादशाहकपर्यन्तं दीपं कुर्यादहर्निशम् ॥६३ ॥

 सूर्येऽस्तमागते  तार्क्ष्य श्मशाने वा चतुष्पथे । दुग्धं च मृण्मये पात्रे तोयं दद्याद दिनत्रयम् ॥ ६४ ॥ 

अपक्क्रमृण्मय पात्रं क्षीरनीरप्रपूरितम् । काष्ठत्रयं गुणैर्वद्धं धृत्वा मन्त्र पढेदिमम् ॥ ६५ ।। 

श्मशानानलदग्धोऽसि परित्यक्तोऽसि बान्धवैः । इदं नीरमिदं क्षीरमत्र स्नाहि इर्द पिव ॥६६ ॥ 

चतुर्थे सञ्चयः कार्य : साग्निकैच निरग्निकैः । तृतीयेऽह्नि द्वितीये वा कर्तव्यश्चाविरोधतः ॥ ६७ ।। 

और घरमें पुनः स्नान करके गोग्रास देना चाहिये । पत्तलमें भोजन करना चाहिये और घरका अन्न नहीं खाना चाहिये ॥ ६२ ॥ 

मृतकके स्थानको लीपकर वहाँ बारह दिनतक रात - दिन दक्षिणाभिमुख अखण्ड दीपक जलाना चाहिये ॥ ६३॥

 हे तार्क्ष्य ! ( शवदाहके दिनसे लेकर ) तीन दिनतक सूर्यास्त होनेपर श्मशानभूमिमें अथवा चौराहेपर मिट्टीके पात्रमें दूध और जल देना चाहिये ॥ ६४॥ 

काठकी तीन लकड़ियोंको दृढ़तापूर्वक सूतसे बाँधकर ( अर्थात् तिगोड़िया बनाकर ) उसपर दूध और जलसे भरे हुए कच्चे मिट्टीके पात्र ( घड़ा आदि ) को रखकर यह मन्त्र पढ़े- ॥ ६५ ॥

 ( हे प्रेत ! ) तुम श्मशानकी आगसे जले हुए हो , बान्धवोंसे परित्यक्त हो , यह जल और यह दूध ( तुम्हारे लिये ) है , इसमें स्नान करो और इसे पीओ ॥ ६६ ॥ 

साग्रिक ( जिन्होंने अग्न्याधान किया हो ) को चौथे

( १४२ १. याज्ञवल्य स्मृति ३।१७ की मिताक्षरामें विज्ञानेश्वरने कहा है कि प्रेठके लिये जल और दूध पृथक - पृथक् पात्र रखना चाहिये और ' प्रेत अत्र आह ' कहकर जल तथा ' पिव दम् ' कहकर दूध रखना चाहिये ।)
दिन अस्थिसञ्चय करना चाहिये और निषिद्ध वार - तिथिका विचार करके निरनिकको तीसरे अथवा दूसरे दिन अस्थिसञ्चय करना चाहिये ॥ ६७ ॥ 

 गत्वा श्मशानभूमिं च स्नानं कृत्वा शुचिर्भवेत् । ऊर्णासूत्रं वेष्टयित्या पवित्र परिधाय च ॥ ६८ ॥ 

दद्याच्छ्मशानवासिभ्यस्ततो माषवलिं सुतः । यमाय त्वेतिमन्त्रेण तिस्त्रः कुर्यात्परिक्रमाः ॥ ६ ९ ॥

 ततो दुग्धेन चाभ्युक्ष्य चितास्थानं खगेश्वर जलेन सेचयेत्पश्चादुद्धरेदस्थिवृन्दकम् ॥ ७० ॥

  कृत्वा पलाशपत्रेषु क्षालयेहुग्धवारिभिः । संस्थाप्य मृण्मये पात्रे श्राद्धं कुर्याद्यथाविधि ॥ ७ ९ ॥ 

त्रिकोणं स्थण्डिलं कृत्वा गोमयेनोपलेपितम् । दक्षिणाभिमुखो दिक्षु दद्यात्पिण्डत्रयं त्रिषु ॥ ७२ ।। 

पुञ्जीकृत्य चिताभस्म तत्र धृत्वा त्रिपादुकाम् । स्थापयेत्तत्र सजलमनाच्छाद्य मुखं घटम् ॥ ७३ ।।

 ( अस्थि - सञ्चयके लिये ) श्मशानभूमिमें जाकर स्नान करके पवित्र हो जाय । ऊनका सूत्र लपेटकर और पवित्री धारण करके ॥६८ ॥


 श्मशानवासियों ( भूतादि ) के लिये पुत्रको ' यमाय त्या ' ( यजु ० ३८१ ९ ) इस मन्त्रसे माप ( उड़द ) की बलि देनी चाहिये और तीन बार परिक्रमा करनी चाहिये ॥ ६ ९ ॥ 

हे खगेश्वर । इसके बाद चितास्थानको दूधसे सींचकर जलसे सींचे तदनन्तर अस्थिसञ्चय करे और उन अस्थियोंको पलाशके पत्तेपर रखकर दूध और जलसे धोये और पुनः मिट्टीके पात्रपर रखकर यथाविधि श्राद्ध ( पिण्ड दान ) करे ।। ७०-७१ ।

 त्रिकोण स्थण्डिल बनाकर उसे गोबरसे लीपे । दक्षिणाभिमुख होकर स्थण्डिलके तीनों कोनोंपर तीन पिण्डदल करे ।।७२ ।।

चिताको एकत्र करके उसके ऊपर तिपाई ( तिगोड़िया ) रखकर उसपर खुले मुखवला जलपूर्ण घटस्थापित करे ॥७३ ॥

ततस्तडुलपाकेन दधिघृतसमन्वितम् । बलिं प्रेताय सजलं दद्यामिष्टं यथाविधि ॥ ७४ ॥

 पदानि दश चोत्तरस्यां दिशि ब्रजेत् । गतं विधाय तत्रास्थिपात्रं संस्थापयेत्खग ॥ ७५ ।।

 तस्योपरि ततो दद्यापिण्ड दाहार्तिनाशनम् । गतदुद्धृत्य तत्पात्रे नीत्वा गच्छेजलाशयम् ॥ ७६ ॥

 तत्र प्रक्षालयेद्दुग्धजलादस्थि पुनः पुनः । चर्चयेच्चन्दनेनाथ कुंकुमेन विशेषतः ॥ ७७ ॥

 तत्र सम्पुटके तानि कृत्वा च हृदि मस्तके । परिक्रम्य नमस्कृत्य गङ्गामध्ये विनिक्षिपेत् ॥ ७८ ॥ 

अन्तर्दशाहं यस्यास्थि गडातोये निमज्जति । न तस्य पुनरावृत्तिर्ब्रह्मलोकात्कदाचन ॥ ७ ९ ॥

  यावदस्थि मनुष्यस्य गंग्ङातोयेषु तिष्ठति । तावदुर्षसहस्त्वाणि स्वर्गलोके महीयते ॥ ८० ॥ 

इसके बाद चलाकर उसमें दही और भी तथा मिटान्न मिलाकर जलके सहित प्रेतको यथाविधि बलि प्रदान करें । फिर उक्चरदिशामें पंद्रह कदम जाय और वहाँ गड्ढा बना करके अस्थिपात्रको स्थापित
करे । उसके ऊपर दाहजनक पौड़ा करनेवाला पिण्ड प्रदान करे और गड्ढेसे उस अस्थिपात्रको निकालकर उसे सेकर जलापको वाय॥७५-७६ 

वहाँ दूध और जलसे उन अस्थियोंको बार - बार प्रक्षालित करके चन्दन और कुंकुशेषरूपलेपित करे ॥७७ ॥ 

फिर उन्हें एक दोनेमें रखकर हृदय और मस्तकमें लगाकर उनकी परिक्रमा करे तथा उन्हें नमस्कार करके गङ्गाजीमें विसर्जित करे ( छोड़ दे ) ॥ ७८॥

 जिस मृत प्राणीको आस्मिदस दिनके विसर्जित हो जाती है , उसका ब्रह्मलोकसे कभी भी पुनरागमन नहीं होता ॥ ७ ९ ॥ 

गंगाजल मे मनुष्यकी  अस्थि जबतक रहती है , उतने हजार वर्षातक वह स्वर्गलोकमें विराजमान रहता है ॥ ८० ॥

 गङ्गाजलोर्मि संस्पृस्य मृतकं पवनों यदा स्पृशते पातकं तस्य सद्य एव विनश्यति ॥ ८१ ॥

 अराध्य तपसोग्रेण गङ्गादेवी भगीरथः। उद्धारा पूर्वजानां आनयद बहालोकतः ॥ ८२ ॥ 


त्रिषु लोकेषु विख्यातं गङ्गायाः पावनं यशः । या पुत्रान्सगरस्यैतान्भस्माख्याननयद्मिवम ॥ ८३ ॥

 गङ्गाजलकी लहरोंको छूकर हवा जब मृतकका स्पर्श करती है तब उस मृतकके पातक तत्क्षण ही नष्ट हो जाते हैं ।। ८१ ।।
महाराज भगीरथ उग्र तपसे ( गङ्गादेवीकी आराधना करके अपने पूर्वजोंका उद्धार करनेके लिये गङ्गादेवीको ब्रह्मलोकसे ( भूलोक ) ले आये थे ॥ ८२ ॥

 जिनके जलने भस्मीभूत राजा सगरके पुत्रोंको स्वर्गपहुंचा दिया , उनका पवित्र यश तीनों लोकोंमें विख्यात है ॥ ८३ ॥ 

 पूर्व वयसि पापानि ये कृत्वा मानवाः गताः । गङ्गायामस्थिपतनात्स्वर्गलोकं प्रयान्ति ते ॥ ८४ ॥

 कश्र्चिद व्याधो महारण्ये सर्वप्राणिविहिंसकः तस्यास्थि सिंहेन निहतो यावत्प्राति नरकालये ॥ ८५ ॥ 

 तावत्कालेन तस्यास्थि गङ्गायाः पतित तदा । दिव्य विमानमा स गतो देवमन्दिरम् ॥ ८॥

 ॥ अतः स्वयं हि सत्पुत्रो गङ्गास्थि पातयेत् । अस्थिसञ्चनादुर्ध्व दशगात्रं समाचोत् ॥ ८७ ॥

 जो मनुष्य अपनी पूर्वावस्था में पाप करके मर जाते हैं , उनकी  अस्थियों को गंगाजी   में छोड़नेपर वे स्वर्गलोक चले जाते हैं ॥४ ॥

 किसी महा अरण्यमें सभी प्राणियोंको हत्या करनेवाला कोई व्याथ सिंहके द्वारा मारा गया और जब वह नरकको जाने लगा तभी उसकी अस्थि गङ्गाजी में गिर पड़ी , जिससे वह दिव्य विमानपर चढकर देवलोकको चला गया । ८५-८६ । 

इसलिये सत्पुप्तको स्वतः ही अपने पिताकी अस्थियोंको गङ्गाजी में विसर्जित करना चाहिये । अस्थिसञ्चयन के अनन्तर दशगात्रविधिका अनुष्ठान करना चाहिये ॥ ८७ ॥

 अथ कक्षिद्विदेश वा बने चौरभये मृतः । न लब्धस्तस्य देहशेच्छृणुयाद्यहि तदा ॥ ८८ ॥

 दर्भपुत्तलकं कृत्वा पूर्ववत्केवलं दहेत् । तस्य भस्म समादाय गङ्गातोये विनिक्षिपेत् ॥ ८ ९ ॥

दशगात्रादिक कर्म ताद्दिनादेव  कारयेत् । स एव दिवसो ग्राह्यः श्राद्धे सांवत्सरादिके ॥ ९ ० ॥

पूर्ण गर्ने मृता नारी विदार्थ जठरं तदा । बालं 
 निष्कास्य निक्षिप्य भूमौ तामेव दाहयेत् ॥ ९ १ ॥

 गङ्गातीरे मृत बाल गङ्गायामेव पातयेत् । अन्य देशे क्षिपेद् भूमौ सप्तविंशतिमासजम् ॥ ९ २ ॥ 

अतः पर दहेत्तस्य गङ्गायामस्थि निक्षिपेत् । जलकुम्भक्ष दातव्यं बालानामेव भोजनम् ॥ ९ ३ ॥ 

  यदि कोई व्यक्ति विदेशमें या वनमें अथवा चोरोंके भयसे मरा हो और उसका शव प्राप्त न हुआ हो तो जिस दिन उसके निधनका समाचार सुने , उस दिन कुशका पुतल बनाकर पूर्वविधिके अनुसार केवल उसीका दाह करे और उसकी भस्मको लेकर गङ्गाजलमें विसर्जित करे ॥ ८८-८९ ॥ 
दशगात्रादि कर्म भी उसी दिनसे आरम्भ करना चाहिये और सांवत्सरिक लाद्धमें भी उसी ( सूचना प्राप्त होनेवाले ) दिनको ग्रहण करना चाहिये । ९ ० ॥ 

यदि गर्भकी पूर्णता हो जानेके अनन्तर नारीकी मृत्यु हो गयी हो तो उसके पेटको चीरकर बालकको निकाल ले . ( यदि वह भी मर गया हो तो उसे भूमिमें गाड़कर केवल मृत स्त्रीका दाह करे ॥ ९ १ ॥

 गङ्गाके किनारे मरे हुए बालकको गङ्गाजी में ही प्रवाहित कर दे और अन्य स्थानपर मरे सत्ताईस महीनेतकके बालकको भूमिमें गाड़ दे ॥ ९ २ ॥ 
इसके बादकी अवस्थावाले बालकका दाहसंस्कार करे और उसको अस्थियाँ गङ्गाजमें विसर्जित करे तथा जलपूर्ण कुम्भ प्रदान करे एवं केवल बालकोंको हो भोजन कराये ॥ ९ ३ ॥ 

गर्भे  नष्टे क्रिया नास्ति दुग्धं देये मृते शिशौ। घंटं च पायसं भोज्य दद्याद्वालविपत्तिषु ॥ १४ ॥ 

कुमारे च मृते बालान् कुमारानेव भोजयेत् । सबालान्भोजयेद्विप्रान्यौगण्डे सव्रते मृते ॥ ९ ५ ॥

मृतश्च   पक्षमादूर्ध्वमञ्चतः सव्रतोऽपि वा । पायसेन गुडेनापि पिण्डान्दद्याद्दश क्रमात् ॥ १६ ॥

 एकादर्श द्वादशं च वृषोत्सर्गविधि विना । महादानविहीनं च पौगण्डे कृत्यमाचरेत् ॥ ९ ७ ॥

And while the father is alive, there is no co-incarnation in the youth. Therefore, one should perform the twelve days mentioned above. . 18 ।।

No action is taken on the termination of pregnancy. But on the death of a child (before teething or at the age of three years), water should be donated to him and he should eat kheer. 14॥
 On the death of a Kumar, the Kumar boys should be fed and the Brahmins should be fed food at the same stage as the child in the same stage.
 For five years or Anupanit (who has been Gnopaveet), the mother-in-law and ten Pinds of Gud should be given respectively. 96 
When there is a fourfold stage, except the method of Polarg and Mahadan, one should perform the Ekadshah Kriya. 17॥

 When the father is alive, there is no Sapindan Shradh for the deceased child in the Poganda stage. Therefore, on the fourth day, do it only after one day. 9 8. 
Marriage between a woman and a śūdra is performed in the place of vows, as described in the Vedas. 99 


And while the father is alive, there is no co-incarnation in the youth. Therefore, one should perform the twelve days mentioned above. . 18 ।।

No action is taken on the termination of pregnancy. But on the death of a child (before teething or at the age of three years), water should be donated to him and he should eat kheer. 14॥ 

On the death of a Kumar, the Kumar boys should be fed and the Brahmins should be fed food at the same stage as the child in the same stage. 

For five years or Anupanit (who has been Gnopaveet), the mother-in-law and ten Pinds of Gud should be given respectively. 96

 When there is a fourfold stage, except the method of Polarg and Mahadan, one should perform the Ekadshah Kriya. 17॥ 

When the father is alive, there is no Sapindan Shradh for the deceased child in the Poganda stage. Therefore, on the fourth day, do it only after one day. 9 8.

 Marriage between a woman and a śūdra is performed in the place of vows, as described in the Vedas. 99 

After satisfying himself with a little action he desires even a little action at a young age and in the body because of the bondage of sense gratification 100 ।। 

When a young person is young, one should give him a bed, a tent, food, footprints, great charity and cows. 101 ।। 

 The sons and others of the ascetics should not perform the ritualistic ceremonies of offering modaka to the demigods. 102 ॥

 By merely taking the rod, a man becomes Nārāyaṇa. By taking the three staffs, they do not become dead. 103 ।। 

For women and Shudras, marriage is called Vratbandh - a local sacrament. Equal action should be done for the dead of all the varnas who die before the fast i.e. Upanayana according to their condition (.. 99.. 

One who has done little work, who has been related to a few objects, has a low state and is self-formed, his action should also be small when such a living being dies. 100

 When a person dies in adolescence or youth, one should perform ritualistic ceremonies such as giving him a bed, offering him a footstool, giving him a cow, and giving him a cow. 101 ॥

 On the death of all types of sannyasis, their sons (Adike) should neither be cremated nor should they be sacrificed, and I should only perform their Dashgatradi Kriya. 102.. 

Because by taking the penalty (sannyasagrahana) the man becomes Narayana-swaroop. By taking the Tridanda ( after death that ) living being does not attain the status of a ghost. 103 ।। ● The wise are always liberated by the experience of the Self and therefore do not desire the bodies offered to them. 104 ।। 

Therefore, one should not offer any water to them, such as the body. One should perform shrāddha at holy places and shrāddha at Gāya with devotion to one’s forefathers. 105 ॥ 

 The wise are always liberated because they have realized their nature. That is why they do not have any desire for the objects given for their purpose. 104 

अतः उनके लिये पिण्डदान और उदकक्रिया नहीं करनी चाहिये , किंतु पितृभक्तिके कारण तीर्थश्राद्ध और गयाश्राद्ध करने चाहिये ॥ १०५ ॥ 

 परमहंस च कुटीचकबहूदकौ । एतान् संन्यासिनस्तार्क्ष्य पृथिव्यां स्थापयेन्मृतान् ॥ १०६ ॥

 गङ्गादीनामभावे हि पृथिव्यां स्थापनं स्मृतम् । यत्र सन्ति महानद्यस्तदा तास्वेव निक्षिपेत् ॥ १०७ ॥ 

इति गरुडपुराणे सारोद्धारे दाहास्थिसंचयकर्मनिरूपणं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

 हे तार्क्ष्य ! हंस , परमहंस , कुटीचक और बहूदक - इन चारों प्रकारके संन्यासियोंकी मृत्यु होनेपर उन्हें पृथिवीमें गाड़ देना चाहिये ॥ १०६ ॥

 गङ्गा आदि नदियोंके उपलब्ध न रहनेपर ही पृथिवीमें गाड़नेकी विधि है , यदि वहाँ कोई महानदी हो तो उन्होंमें उन्हें जलसमाधि दे देनी चाहिये ॥ १०७ ॥ ॥

 इस प्रकार गरुडपुराण के अन्तर्गत सारोद्धारमें ' दाहास्थिसंचयकर्मनिरूपण ' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥ 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL Mishra 
Bhupalmishra108.blogspot.com 

        धन्यवाद 

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