श्री गरूर जी महाराज 2
प्रजापति दक्षकी तेरह कन्याएँ महर्षि कश्यपसे ब्याही गयी थीं , इनमेंसे कद्रू और विनता पुत्र क बड़े अनुरागपूर्वक पतिकी सेवा करने लगीं । सेवासे सन्तुष्ट महर्षि कश्यपने जब दोनोंको मनभाव माँगनेको कहा तो कद्रूने समान शक्तिवाले एक हजार नागोंको पुत्ररूपमें पानेका वर माँगा । विनताने पुत्रोंसे सभी गुणों में श्रेष्ठ केवल दो पुत्रोंका वर माँगा । ऋषिने एवमस्तु कहा । फलस्वरूप कालान्तर में एक हजार और विनताने दो अण्डे दिये । पाँच सौ वर्षतक अण्डोंके सेवन करनेके अनन्तर कद्रूके नागपुत्र तो अण्डोंसे बाहर आ गये , परंतु विनताके अण्डे ज्यों - के - त्यों रहे । अधीर होकर विनताने एक स्वयं फोड़ डाला तो देखा कि पुत्रके शरीरका ऊपरी भाग पूर्णरूपसे विकसित एवं पुष्ट था किंतु नी आधा अंग अभी अधूरा गया था । माताकी इस नादानीसे क्रुद्ध होकर पुत्रने शाप दिया कि तूने सौतकी ईर्ष्यावश आतुरताके कारण मुझे अधूरे शरीरवाला बना दिया , उसीकी पाँच सौ वर्षोतक दासी रहेगी और यह तुम्हारा दूसरा पुत्र तुम्हें दासीभावसे मुक्त करेगा । परंतु धैर्य रखना , कहीं आतुरतामें इस अण्डे भी नहीं फोड़ देना ।
तेजोमय अरुणकान्तिके कारण विनताके उस प्रथम पुत्रका नाम अरुण पड़ा अ ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे सूर्यके सारथी बने । तदनन्तर समय पूरा होनेपर श्रीगरुड़जीका जन्म हुआ । उस समय हरिवल्लभ ( भगवान्के प्रिय भक्त ) ९ ५ वे प्रलयकालको अग्निके समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे । श्रीगरुड़जीके तेजको न सह सकनेके कारण देवताओंने उनको स्तुति की तो इन्होंने अपना तेज समेट लिया । कद्रू और कद्रू - पुत्र नागोंके द्वारा बार - बार दासवत् व्यवहार किये जानेपर श्रीगरुड़जीने जब इसका हेतु पूछा तो विनताने कद्रूके कपटकी कथा सुनायी । बात यह हुई कि एक बार दोनोंमें सूर्यके घोड़ेको अथवा क्षीरसमुद्रसे निकले हुए उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेकी पूँछके रंगके विषयमें वाद - विवाद हुआ , कडू काली बताती और विनंता श्वेत । अन्ततोगत्वा यह निश्चय हुआ कि जिसकी बात झूठी निकले , वह दूसरेकी दासी होकर रहे । कद्दूकी आज्ञानुसार उसके पुत्र नाग घोड़ेकी पूँछसे जा लिपटे , जिससे वह काली दीख पड़ी । इस चालाकीसे कडूने विनताको दासी बना लिया और अनेकों कष्ट दिया करती थी । यह सब जानकर श्रीगरुड्जीने नागोंसे कहा कि हम तुम्हारा क्या काम कर दें , जिससे कि मैं और मेरी माता दासभावसे छुटकारा पा जायँ ? उन्होंने कहा कि हमें अमृत ला दो । श्रीगरुडुजी माताको प्रणामकर , आज्ञा और आशीर्वाद पाकर स्वर्गमें जाकर देवताओंको पराजितकर अमृतके पात्रको लेकर बड़ी तेजीसे वहाँसे उड़ चले । अमृत अपने अधिकारमें होनेपर भी श्रीगरुड्जी स्वयं उसे नहीं पीये । उनकी यह निःस्पृहता देखकर भगवान् विष्णुने प्रसन्न होकर उन्हें बिना अमृत - पानके ही अजर - अमर होनेका तथा अपनी ध्वजापर स्थित रहनेका एवं अपना वाहन बननेका परम दुर्लभ वरदान दिया । अमृतका अपहरण करके लिये जाते देखकर देवेन्द्रने रोषमें भरकर श्रीगरुड़जीके ऊपर वज्रका आघात किया परंतु भगवान्से वर पाकर अजर - अमर हुए गरुड़जीने तो वज्रको मर्यादा रखनेके लिये मुसकराकर अपना एक पंखमात्र गिरा दिया । वैनतेयके इस अद्भुत पराक्रमसे प्रभावित होकर इन्द्रने वैरभावका परित्यागकर दृढ़ मैत्री कर ली । श्रीगरुड्जीने अमृतके सम्बन्धमें अपना भाव व्यक्त किया कि मुझे इसको पीना नहीं है । माताको दासीपनेसे मुक्त करानेके लिये मैं इसे सर्पोंको सौंपूँगा , आप उनसे ले लेना । इन्द्रने इस बातसे सन्तुष्ट होकर गरुड़जीका सपको भक्षण करनेमें समर्थ होनेका अभीष्ट वर प्रदान किया । श्रीगरुड्जीने अमृत - पात्र सर्पोंको प्रदान किया । माताको दासीपनेसे मुक्त किया , स्वयं स्वच्छन्द हुए । सर्प अमृतको कुशों में छिपाकर स्नान करने चले गये , इसी बीचमें इन्द्र वह अमृत लेकर पुनः स्वर्गको चले गये । अमृतके अभाव में सपने लोभवश कुशोंको हो चाटना शुरू किया , जिससे उनकी जीभके दो भाग हो गये । तभीसे सर्प द्विजिह्वा हो गये तथा तभीसे कुशा अमृतका स्पर्श होनेके कारण परम पवित्र हो गया । बोगरुड़जीने भगवान् सूर्यके पास जाकर वेद पढ़ानेकी प्रार्थना की । परंतु इन्हें पक्षी होनेके कारण अनधिकारी जानकर सूर्यने वेद पढ़ानेसे इनकार कर दिया ये बड़े ही उदास तथा अप्रसन्न होकर वहाँसे लौटे । इनकी अप्रसन्नता देखकर सूर्य डर गये कि इनके बड़े भाई अरुण मेरे सारथी हैं , कहीं यह उन्हें भी लेकर चले गये तो मेरा सब काम ही बन्द हो जायगा , अतः पुनः गरुड़जीको बुलाया , परंतु इन्होंने तो उपके वेद - ज्ञान प्राप्त करनेका निश्चय कर लिया था अतः वापस नहीं लौटे । तब सूर्यने स्वयं बिना तप किये वर - फलस्वरूप समस्त वेदका बोध होनेका वरदान दिया और यह भी कहा कि आपके पंखोंसे निरन्तर साम-गानकी ध्वनि होती रहेगी । श्रीगरूरजी सर्वात्मना भगवान्की सेवामें तत्पर रहते हैं । आपको सेवाओंका स्मरण करते हुए श्रीस्वामी यमुनाचार्य जी कहते है - दासः सखा वाहनमासनं ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयः । उपस्थितं तेन पुरो गरुत्मता त्वदङ्घ्रिसम्महकिणांकशोभिना ॥ अर्थात ऋक् , यजुः , सामवेदरूप ( वेदत्रयी ) जिनका स्वरूप है , जो आपके चरण - कमलोंके संघर्षक चिह्नसे अंकित शरीरवाले हैं , जो समय - समयपर आपके दास , सखा , वाहन , आसन , ध्वजा , वितान तथा पंखा बनकर आपकी सेवा करनेके लिये सदा तत्पर रहते हैं , वे गरुड़जी आपके आगे खड़े रहते हैं । गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने भी श्रीगरुड़जीको महाज्ञानी - गुणराशि , हरि - सेवक , हरिके अत्यन्त निकट निवास करनेवाला कहा है । यथा- ' गरुड़ महाग्यानी गुनरासी । हरि सेवक अति निकट निवासी ॥ भगवान्ने अपनी विभूतियाँका वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीतामें अपने - आपको पक्षियोंमें वैनतेय बताया है । यथा- ' वैनतेयश्च पक्षिणाम् । '
सुनन्द आदि
सुनन्द भगवान् विष्णुके सोलह प्रधान पार्षदोंमेंसे एक हैं । इनका स्वरूप भगवान् विष्णुके ही सदृश नवघनश्याम , चतुर्भुज और पीताम्बरालंकृत है । भगवान्के दिव्य वैकुण्ठधाममें ये उनकी सेवामें सदा सन्नद्ध रहते हैं ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA
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