Agradas ji _Maharaj अग्रदास जी महाराज

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                            श्रीअग्रदास जी महाराज 



 सदाचार ज्यों संत प्राप्त जैसे करि आए । सेवा सुमिरन सावधान ( चरन ) राघव चित लाए ॥ प्रसिध बाग सों प्रीति सुहथ कृत करत निरंतर । रसना निर्मल नाम मनहुॅ बर्षत धाराधर। ।

 श्री कृष्णदास कृपा करि भक्ति दत मन बच क्रम करि अटल दयो  ।।

 श्री अग्रदास हरि भजन बिन काल बृथा नहिं बित्तयो ॥ 

 श्रीस्वामी अग्रदासजीने भगवद्भजनके बिना क्षणमात्र भी समयको व्यर्थ नहीं बिताया । आपका वैष्णव सदाचार पूर्ववर्ती आचार्योंके समान ही था । आप सदा मानसी सेवा एवं प्रकट विग्रहसेवामें तथा भगवन्नामस्मरणमें सावधान रहते थे । सदा राघवेन्द्रसरकारके श्रीचरणोंमें मनको लगाये रहते थे । ( सीताराम विहार ) प्रसिद्ध बागमें आपकी बड़ी प्रीति थी , उसे सींचने , बुहारने आदिकी सब सेवाएँ सदा आप अपने हाथसे ही करते थे । आपकी जिह्वासे परम पवित्र श्रीसीताराम नामकी ध्वनि इस प्रकार होती रहती थी , मानो मधुर गर्जनके साथ मन्द - मन्द वर्षा हो रही है । गुरुदेव पयहारी श्रीकृष्णदासजीने परमकृपा करके मन - वचन - कर्मसे सम्बन्धित अचल भक्तिका भाव आपको प्रदान किया था ॥ 

 श्रीनाभादासजीके गुरुमहाराज श्रीअग्रदासजीका चरित संक्षेपमें यहाँ प्रस्तुत है-

 महात्मा श्रीअग्रदासजी श्रीकृष्णदास पयहारीजी महाराजके शिष्य थे , जिन्होंने जयपुरमें गलता नामक प्रसिद्ध स्थानपर पधारकर तत्कालीन जयपुर - नरेशको वैष्णव बनाया और वहींपर पहाड़में धूनी स्थापित की , जो अभीतक चालू है । श्रीपयहारीजी महाराजके बड़े शिष्य श्रीकील्हने तो श्रीगुरुदेवके परमधामगमनके बाद गलताकी गद्दी सँभाली और अग्रदासजीने जयपुरके पास ही लगभग ३० मील दूर गोरयाँ स्टेशनके निकट रैवासा नामक स्थानपर गद्दी स्थापित की । 

श्री अग्रदासजीका प्रादुर्भाव फाल्गुन शु ० २ , सं ० १५५३ वि ० को राजस्थानके एक गाँवमें ब्राह्मणकुलमें हुआ था । इनमें भक्तिके संस्कार बचपनसे ही विद्यमान थे , अतः अत्यन्त अल्पवयमें ही आपने घर छोड़कर श्रीपयहारीजी महाराजकी शरण ग्रहण कर ली । श्रीपयहारीजीने इन्हें योग्य जानकर श्रीराम मन्त्रकी दीक्षा दी और उपासना- रहस्य एवं शरणागति - माहात्म्यका उपदेश दिया । 

श्रीपयहारीजीकी ही भाँति श्रीअग्रदासजी भी सिद्ध सन्त थे । एक बारकी बात है , राजा मानसिंह कहीं युद्ध करने जा रहे थे । मार्गमें श्रीपयहारीजी महाराजका आश्रम पड़ता था । मानसिंहकी श्रीपयहारीजी महाराजपर बड़ी श्रद्धा थी , अतः वे अपनी दस हजार सेनाके साथ आश्रम आ गये और श्रीमहाराजजीके चरणों में प्रणिपात किया । श्रीपयहारीजी महाराजने मानसिंहको आशीर्वाद दिया और श्रीअग्रदासजीको सेनासहित राजाका अतिथ्य करनेको कहा । उस समय कुटीमें मात्र दस केले रखे थे , अग्रदासजी उन दस केलोंको लेकर आये । श्रीपयहारीजीने कहा- दस - दस केले सबको बाँट दो । श्री अग्रदासजीने बिना कोई प्रश्न किये गुरु - आज्ञाका पालन किया और दस हजार लोगोंको दस - दस केले बाँट दिये , तब भी उनके हाथमें दस केले बचे ही रहे ।

 श्रीअग्रदासजी सन्तोंकी मण्डली लेकर भगवद्भक्तिका प्रचार - प्रसार करनेके लिये भ्रमण किया करते थे ।

 एक बारकी बात है , आप सन्तमण्डली लेकर एक गाँवमें पहुँचे । वहाँका एक सेठ धनवान् होनेके साथ साथ बड़ा भगवद्भक्त भी था । उसने सन्तमण्डलीसे रुकनेका आग्रह किया और एक माहतक बड़ी सेवा की । संयोगकी बात , जिस दिन सन्तलोग वहाँसे चलनेको हुए , उसी दिन उस सेठके पुत्रको एक विषधर सपने काट लिया , जिससे उसकी मृत्यु हो गयी । सेठके यहाँ कुहराम मच गया । उस गाँवमें बहुतसे ऐसे भी लोग थे , जो सन्त - सेवा और भगवद्भक्तिको व्यर्थकी बात मानते थे । ऐसे द्वेषी और भगवद्विमुख लोगोंके लिये मौका मिल गया और वे कहने लगे कि ' देख लिया न इन साधुओंकी सेवाका फल । ' यह बात जब श्री अग्रदासजीके कानों में पड़ी तो उन्हें बहुत दुःख हुआ । उन्होंने सन्त - सेवा और भगवद्भक्तिकी महिमाको प्रकट करनेके लिये भगवच्चरणामृतकी कुछ बूँदें मृत बालकके मुखमें डालीं और अपने इष्टदेवका ध्यान किया । फिर क्या था ! नींदसे जगेकी भाँति मृत बालकने आँखें खोल दीं । चारों ओर सन्त - भगवन्तकी जय जयकार होने लगी । जो लोग सन्तोंकी निन्दा कर रहे थे , वे भी आकर चरणोंमें गिर पड़े और सदा - सदाके लिये भगवद्भक्त बन गये । 

भक्तमालके रचनाकार परमभागवत श्रीनाभादासजी महाराज श्रीअग्रदासजीके कृपापात्र थे और श्रीकील्हदेवजी महाराजके प्रति आपका अग्रजका भाव था । भगवती जगज्जननी जनकलली जानकीजीकी प्रिय सखी चन्द्रकलाके आप अवतार माने जाते हैं , अग्रअलीके नामसे आपने मधुररसोपासना और मधुर भावकी भक्ति की । अपने रेवासा आश्रमके पास ही आपने श्रीरामबाग और श्रीसियमनरंजिनीवाटिकाका निर्माण किया । रेवासा गाँवके लोगोंको पीनेके लिये जलकी समस्या थी , आपने अपना चिमटा गाड़कर पृथ्वीसे जलस्रोत प्रकट कर दिया , जो आज भी कुएँके रूपमें विद्यमान है ।

     श्रीप्रियादासजीने आपकी महिमा निम्न कवित्तमें प्रकट की है-

 दरशन काज महाराज मानसिंह आयो छायो , बाग मांझ बैठे द्वार द्वारपाल हैं । झारि कै पतौवा गये बाहिर लै डारिबे को , देखी भीर भार रहे बैठि ये रसाल हैं । आये देखि नाभाजू ने उठि साष्टांग करी , भरी जल आँखें चली आँसुवनि जाल हैं । राजा मग चाहि हारि आनिकै निहारि नैन , जानी आप जानी भये दासनि दयाल हैं ॥ 

    एक बारकी बात है - जयपुरके राजा मानसिंह स्वामी श्रीअग्रदेवजीके दर्शन करनेके लिये आये । उस समय स्वामीजी बागमें ही थे । बागके द्वारपर राजाके द्वारपाल बैठ गये । अन्य कुछ व्यक्तियोंके साथ राजा बागके भीतर गये । इसी बीच स्वामीजी बागके सूखे पत्तोंको झाड़कर बाहर फेंकने गये । राजाके साथ हुई भीड़भाड़को देखकर स्वामीजी लौटकर नहीं आये । बाहर ही बैठ गये और माधुर्यरसरूप श्रीस्वामीजी मधुर ध्यान - रसमें लीन हो गये । स्वामीजीको आया देखकर श्रीनाभाजी स्वामीजीके निकट आये और उन्होंने उनके प्रेममग्न स्वरूपका दर्शन करके उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया । श्रीनाभाजीकी आँखें तर हो आयीं और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह चली । राजाने बागमें देरतक बाट देखी , फिर उससे न रहा गया , हारकर वह भी वहीं आ गया और उसने स्वामीजीके दर्शन करके यह जाना कि श्रीरामचन्द्रजीने ही दासोंपर दया की है , वे ही श्रीअग्रदेवजीके रूपमें सामने विराजमान हैं ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

मित्र 

भारतवर्ष का अपना जो विशिष्ट इतिहास है ।वो तो आज भी गोपनीय ही है ।कुछ लोग ही भारतवर्ष के इन गुप्त इतिहास को जानते है । जिन्हने इन महापुरूष के इतिहास को जान लिया ,फिर उसे कुछ जानने की आवश्यकता ही नही रही ।

इस प्रकार के कार्य निष्काम भाव से ही किए जाते है ।फिर भी प्रार्थना है कि यदि यह पोस्ट अच्छी लगे तो प्रचार प्रसार के लिए शेयर करें ।अपनी राय जाहिर करें। 

आपका 

BHOOPAL MISHRA 

Sanatan vedic dharma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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