श्री किल्ह जी महाराज
सुमेरदेव सुत जग बिदित भू बिस्तारयो बिमल जस । गांगेय मृत्यु गंज्यो नहीं त्यों कील्ह करन नहि काल बस ॥
जिस प्रकार गंगाजीके पुत्र श्रीभीष्म पितामहजीको मृत्युने नष्ट नहीं किया , उसी प्रकार स्वामी श्रीकील्हदेवजी भी साधारण जीवोंकी तरह मृत्युके वशमें नहीं हुए , बल्कि उन्होंने अपनी इच्छासे प्राणोंका त्याग किया । कारण कि आपकी चित्तवृत्ति दिन - रात श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंका ध्यान करने में लगी रहती थी । आप मायाके षड्विकारोंपर विजय प्राप्त करनेवाले महान् शूरवीर थे । सदा भगवद्भजनके आनन्दमें मग्न रहते थे । सभी प्राणी आपको देखते ही नतमस्तक हो जाते थे और आप सभी प्राणियों में अपने इष्टदेवको देखकर उन्हें सिर झुकाते थे । सांख्यशास्त्र तथा योगका आपको सुदृढ़ ज्ञान था और योगकी क्रियाओंका आपको इतना सुन्दर अनुभव था कि जैसे हाथमें रखे आँवलेका होता है । ब्रह्मरन्धके मार्गसे प्राणोंको निकालकर आपने शरीरका त्याग किया और अपने योगाभ्यासके बलसे भगवद्रूप पार्षदत्व प्राप्त किया । इस प्रकार श्रीसुमेरुदेवजीके सुपुत्र श्रीकील्हदेवजीने अपने पवित्र यशको पृथ्वीपर फैलाया , आप विश्वविख्यात सन्त हुए ॥
श्रीकील्हदेवजी महाराजका जीवन चरित संक्षेपमें इस प्रकार है-
श्रीकील्हदेवजी महाराज श्रीपयहारी श्रीकृष्णदासजी महाराज के प्रधान शिष्योंमेंसे एक थे । श्रीपयहारीजीके परमधामगमनके बाद गलतागादी ( जयपुर ) के महन्त आप ही हुए । आप दिव्यदृष्टिसम्पन्न परम वैष्णव सिद्ध सन्त थे । कहते हैं कि भक्तमाल ग्रन्थके रचनाकार श्रीनाभादासजी महाराजके नेत्र क्या , नेत्रके चिह्न भी नहीं थे , श्रीकील्हदेवजीने अपने कमण्डलुके जलसे उनके नेत्र - स्थानको धुला , जिससे उनके बाह्य चक्षु प्रकट हो गये ।
कहते हैं कि एक बार श्रीकील्हदेवजी मधुरापुरी आये हुए थे और श्रीयमुनाजीमें स्नानकर एकान्तमें समाधिस्थ हो भगवद्ध्यान करने लगे । उसी समय बादशाहके दिल्लीसे मधुरा - आगमनकी सूचना मिली । सेना तुरंत व्यवस्थामें लग गयी , रास्ता साफ किया जाने लगा , सब लोग तो हट गये , परंतु ध्यानावस्थित होनेके कारण श्रीकील्हदेवजी महाराजको बाह्य जगत्की कुछ खबर ही नहीं थी , वे समाधिमें स्थिर होकर बैठे थे । किसी सिपाहीने जाकर बादशाहको बताया कि हुजूर ! एक हिन्दू फकीर रास्ते में बैठा है और हमारे शोर मचानेपर भी नहीं उठ रहा है । उसने फौरन हुक्म दिया कि उस काफिरके माथेमें लोहेकी कील ठोंक दो । हुक्म मिलते ही दुष्ट सिपाहियोंने लोहेकी एक कील लेकर कील्हजीके माथेमें ठोंकना शुरू किया । परंतु आश्चर्य कील्हदेवजी तो वैसे ही शान्त , निर्विकार बने रहे , परंतु उनके माथेका स्पर्श करते ही वह लोहेकी कील गलकर पानी हो गयी । यह आश्चर्य देख सिपाही भागकर बादशाहके पास गये । बादशाहको भी यह विचित्र घटना सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ , उसे लगा कि मैंने बादशाहतके नशेमें चूर होकर किसी सिद्ध सन्तका अपमान कर दिया है और इसका दण्ड भी भोगना पड़ सकता है , अतः भागता हुआ जाकर श्रीकील्हदेवजी महाराज के चरणोंमें गिर पड़ा और बार - बार क्षमा माँगने लगा । थोड़ी देर बाद जब कौल्हदेवजीकी समाधि टूटा और वे अन्तःजगत्से बाह्य जगत्में आये तो उन्हें इस घटनाका ज्ञान हुआ । श्रीकील्हदेवजी महाराज परम सन्त थे , उनके मनमें क्रोधके लिये कहीं स्थान ही नहीं था , उन्होंने बादशाहको तुरंत क्षमा तो कर दिया ।
बादशाह यद्यपि श्रीकील्हदेवजी महाराजसे प्रभावित तो बहुत हुआ , परंतु मुसलमान मुल्ला - मौलवियों के निरन्तर सम्पर्कमें रहनेसे उसने हिन्दुओंका धर्म परिवर्तनकर उन्हें मुसलमान बनानेका अभियान चला रखा था । अब हिन्दुओंने मिलकर श्रीकील्हजीकी शरण ली और धर्मरक्षा करनेकी प्रार्थना की । श्रीकील्हदेवजीने सबको आश्वासन दिया और स्वयं बादशाहके दरबारमें गये । बादशाहने श्रीकील्हदेवजीके चरणोंमें प्रणाम किया और आगेसे ऐसा न करनेकी शपथ ली ।
श्रीकील्हदेवजी महाराज दिव्यदृष्टिसम्पन्न थे , जिस समय आपके पिता श्रीसुमेरुदेवजीका भगवद्धामगमन हुआ , उस समय आप श्रीमथुराजीमें विराजमान थे और आपके समीप ही राजा मानसिंह बैठे थे । आपने जब आकाशमार्गसे विमानस्थ पिताजीको भगवद्धाम जाते देखा तो उठकर प्रणाम किया और पिताने भी इन्हें आशीर्वाद दिया । इनके अतिरिक्त अन्य किसीको इनके पिता नहीं दिखायी दिये , इसीलिये राजा मानसिंहको बहुत आश्चर्य हुआ । उन्होंने श्रीकोल्हजीसे पूछा कि प्रभो ! आप क्यों उठे और हाथ जोड़कर किसे प्रणाम किया ? श्रीकील्हजीने उन्हें पिताजीके परमधामगमनकी बात बतायी । मानसिंहको बहुत आश्चर्य हुआ ; क्योंकि श्रीकील्हदेवजीके पिताजीका शरीर छूटा था गुजरातमें और श्रीकील्हदेवजी थे मथुरामें - ऐसेमें श्रीकील्हदेवजीको पिताका दर्शन कैसे हुआ , यह मानसिंहके लिये आश्चर्यकी बात थी । उन्होंने तुरंत ही अपने दूतोंको गुजरात भेजकर सत्यताकी जानकारी की । श्रीकील्हदेवजीकी बात अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुई , इससे राजा मानसिंहको इनपर बहुत ही श्रद्धा हो गयी ।
इस घटनाका श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है
श्रीसुमेर देव पिता सूबे गुजरात हुते भयो तनुपात सो विमान चढ़ि चले हैं । बैठे मधुपुरी कील्ह मानसिंह राजा ढिंग देखे नभ जात उठि कही भले भले हैं ॥ पूछे नृप बोले कांसों ? कैसे कै प्रकासों , कहाँ , कह्यौ हठ परे सुनि अचरज रले हैं । मानुस पठाये सुधि ल्याए सांच आंच लागी कारी साष्टाङ्ग बात मानी भाग फले हैं ।।
उनके संतत्वकी एक दूसरी घटना इस प्रकार है - एक बारकी बात है , आप अपने आराध्य प्रभु श्रीसीतारामजी महाराजकी सेवा कर रहे थे । आपने माला निकालनेके लिये पिटारीमें जैसे ही हाथ डाला , वैसे ही उसमें बैठे एक विषधर सर्पने आपके हाथमें काट लिया । करुणाविग्रह आपने उस अपकारी सर्पपर भी दया की और उसे भूखा जानकर पुनः अपना हाथ पिटारीमें डाल दिया । इस प्रकार आपने तीन बार पिटारीमें हाथ डाला और सर्पने तीन बार काटा , चौथी बार वह स्वयं पिटारीसे बाहर चला गया । इस प्रकार आपने सर्पको भी अतिथि मानकर उसका सत्कार किया और उसकी क्षुधापूर्ति की । श्रीरामकृपासे उस विषधरके तो लौकिक व्यालका विष क्या व्यापेगा । विषका आपपर कोई प्रभाव भी नहीं हुआ । सत्य है , जब भजनके प्रभावसे काल - व्यालका विष नही व्यापता तो लौकिक विष क्या व्यापेगा।
श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने कवित्तमें इस प्रकार वर्णन करते हैं
ऐसे प्रभु लीन नहिं कालके अधीन बात सुनिये नवीन चाहँ रामसेवा कीजिये । धरी ही पिटारी फूलमाला हाथ डार्यो तहाँ व्याल कर काट्यो कह्यो फेरि काटि लीजिये ॥ ऐसे ही कटायो बार तीनि हुलसायो हियो कियो न प्रभाव नेकु सदा रस पीजिये । करिक समाज साधु मध्य या विराज प्रान तजे दश द्वार योगी थके सनि जीजिये ॥ १२२ ।। श्रीकील्हदेवजी महाराज सिद्ध सन्त थे , भविष्य की बातें जान लेनेकी उनमें सामर्थ्य थी । जब उन्हें भहगवद्धाम जाना हुआ तो पहलेसे ही सन्तोंके पास इस आशयका सन्देश भेज दिया और सन्तोंसे संकीर्तन करनेको कहा । संकीर्तन सुनते हुए ही आपने ब्रह्मरन्धसे अपने प्राणोंका उत्क्रमण किया ।
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL MISHRA
Sanatan vedic dharma
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