Sankaracharya ji Maharaj श्री शंकराचार्य जी महाराज

0
     जगतगुरु श्री शंकराचार्य जी महाराज 



 उतश्रृंखल अग्यान जिते अनईस्वरबादी । बुद्ध कुतर्की जैन और पाखंडहि आदी ॥ बिमुखनि को दियो दंड ऐंचि सन्मारग आने । सदाचार की सींव बिस्व कीरतिहि बखाने ॥ ईस्वरांस अवतार महि मरजादा माँड़ी अघट । कलिजुग धर्मपालक प्रगट आचारज संकर सुभट ॥ ४२ ॥

  अधर्मप्रधान कलियुगमें वैदिक धर्मके रक्षक श्रीशंकराचार्यजीका अवतार हुआ आप विधर्मियाँको शास्त्रार्थ में परास्त करनेवाले वाक् - वीर थे । वैदिक मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले उद्दण्ड , ईश्वरको न माननेवाले बौद्ध , शास्त्रविरुद्ध तर्क करनेवाले जैनी और पाखण्डी आदि जो लोग भगवान्से विमुख थे , उन्हें आपने दण्ड दिया । भय दिखाकर शास्त्रार्थ में हराकर उन्हें बलात् खींचकर सनातन धर्मके मार्गपर ले आये । आप सदाचारकी सीमा अर्थात् बड़े सदाचारी थे । सारा संसार आपकी कीर्तिका वर्णन करता है । आप भगवान् शंकरके अंशावतार थे । पृथ्वीपर प्रकट होकर आपने वेदशास्त्रकी सम्पूर्ण मर्यादाओंका इस प्रकार समर्थन और स्थापन किया कि उसमें किसी प्रकारकी त्रुटि नहीं रही । वह अचल हो गयी ॥ 
 यहाँ श्रीशंकराचार्यजीका महिमामय चरित संक्षेपमें वर्णित है


 श्रीमदाद्यशंकराचार्यजी 
शंकरावतार भगवान् श्रीशंकराचार्यके जन्मसमयके सम्बन्ध में बड़ा मतभेद है । कुछ लोगोंके मतानुसार ईसासे पूर्वकी छठी शताब्दीसे लेकर नवम शताब्दीपर्यन्त किसी समय इनका आविर्भाव हुआ था , जबकि कुछ लोग आचार्यपादका जन्मसमय ईसासे लगभग चार सौ वर्ष पूर्व मानते हैं । मठों की परम्परासे भी यही बात प्रमाणित होती है । अस्तु किसी भी समय हो , केरल प्रदेशके पूर्णा नदीके तटवर्ती कलान्दी नामक गाँवमें बड़े विद्वान् और धर्मनिष्ठ ब्राह्मण श्रीशिवगुरुकी धर्मपत्नी श्रीसुभद्रा माताके गर्भसे वैशाख शुक्ल पंचमीके दिन इन्होंने जन्म ग्रहण किया था । इनके जन्मके पूर्व वृद्धावस्था निकट आ जानेपर भी इनके माता - पिता सन्तानहीन ही थे । अतः उन्होंने बड़ी श्रद्धाभक्तिसे भगवान् शंकरकी आराधना की । उनकी सच्ची और आन्तरिक आराधनासे प्रसन्न होकर आशुतोष देवाधिदेव भगवान् शंकर प्रकट हुए और उन्हें एक सर्वगुणसम्पन्न पुत्ररत्न होनेका वरदान दिया । इसीके फलस्वरूप न केवल एक सर्वगुणसम्पन्न पुत्र ही , बल्कि स्वयं भगवान् शंकरको ही इन्होंने पुत्ररूपमें प्राप्त किया नाम भी उनका शंकर ही रखा गया ।

 बालक शंकरके रूपमें कोई महान् विभूति अवतरित हुई है , इसका प्रमाण बचपनसे ही मिलने लगा । एक वर्षकी अवस्था होते - होते बालक शंकर अपनी मातृभाषामें अपने भाव प्रकट करने लगे और दो वर्षकी अवस्थामें मातासे पुराणादिकी कथा सुनकर कण्ठस्थ करने लगे । तीन वर्षकी अवस्थामें उनका चूडाकर्म करके उनके पिता स्वर्गवासी हो गये । पाँचवें वर्षमें यज्ञोपवीत करके उन्हें गुरुके घर पढ़नेके लिये भेज दिया गया और केवल सात वर्षकी अवस्थामें ही वेद , वेदान्त और वेदांगोंका पूर्ण अध्ययन करके वे घर वापस आ गये । उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन आश्चर्यचकित रह गये ।
 गुरुकुलनिवासकालकी बात है , बालक शंकर भिक्षाटन करते हुए एक निर्धन ब्राह्मणीके घर गये । उस बेचारीके घर अन्नका एक दाना भी नहीं था । कहाँसे उसे एक आँवलेका फल मिला था , उसीको उसने ब्रह्मचारी शंकरको दिया और घरमें कुछ न होनेके कारण अन्न देनेमें अपनी असमर्थता व्यक्त की । उस  ब्राह्मणीकी दशा देखकर बालक शंकरका मन करुणासे भर गया और इन्होंने ' कनकधारास्तोत्र ' का प्रणयन कर उसीसे भगवती महालक्ष्मीकी स्तुति की । भगवती महालक्ष्मीने प्रसन्न होकर ब्राह्मणीक घरको सोनेके आँवलोंसे भर दिया।    
विद्याध्ययन समाप्तकर शकरने संन्यास लेना चाहा ; परंतु जब उन्होंने मातासे आज्ञा माँगी तब उन्होंन मना कर दिया । शंकर माताके बड़े भक्त थे , ये उन्हें कष्ट देकर संन्यास लेना नहीं चाहते थे । एक दिन माताके साथ वे नदीमें स्नान करने गये । उन्हें एक मगरने पकड़ लिया । इस प्रकार पुत्रको संकटमै देखकर माताके होश उड़ गये । वह बेचैन होकर हाहाकार मचाने लगी । शंकरने मातासे कहा - ' मुझे संन्यास लेनेकी आज्ञा दे दो तो मगर मुझे छोड़ देगा । ' माताने तुरंत आज्ञा दे दी और मगरने शंकरको छोड़ दिया । इस तरह माताकी आज्ञा प्राप्तकर वे आठ वर्षकी उम्र में ही घरसे निकल पड़े जाते समय माताकी इच्छा अनुसार यह वचन देते गये कि ' तुम्हारी मृत्युके समय में घरपर उपस्थित रहूँगा । ' गये । दर बांक घरसे चलकर शंकर नर्मदा - तटपर आये और वहाँ स्वामी गोविन्द भगवत्पादसे दीक्षा ली । गुरुने इनका नाम भगवत्पूज्यपादाचार्य रखा । इन्होंने गुरूपदिष्ट मार्गसे साधना आरम्भ कर दी और अल्पकालमें ही बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा हो गये । इनकी सिद्धिसे प्रसन्न होकर गुरुने इन्हें काशी जाकर वेदान्तसूत्रका भाष्य लिखनेकी आज्ञा दी और तदनुसार ये काशी चले गये । काशी आनेपर इनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग आकर्षित होकर इनका शिष्यत्व भी ग्रहण करने लगे । इनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए , जो पीछे पद्मपादाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए । काशीमें शिष्योंको पढ़ाने के साथ - साथ ये ग्रन्थ भी लिखते जाते थे । कहते हैं , एक दिन भगवान् विश्वनाथने चाण्डालके रूपमें इन्हें दर्शन दिये , उस समय आप श्रीगंगाजीसे स्नानकर आ रहे थे । चाण्डालरूपधारी भगवान् विश्वनाथ मार्गमें खड़े थे , आप सहज रूपसे उनके स्पर्शसे बचकर निकलने लगे तो उन्होंने कहा- ' गंगा गड़ही वारिमें चन्द्र विम्य दरसाय । उनमें ऊँचो नीचको यह मोहिं देहु बताय । ' इस परम अद्वैत सिद्धान्तको सुनते ही श्रीशंकराचार्यजीने तुरंत समझ लिया कि ये श्वपच नहीं परमज्ञाननिधान साक्षात् भगवान् शिव ही हैं , फिर तो ये श्रीशिवजीके चरणोंमें पड़ गये । भगवान् शिवने इन्हें ब्रह्मसूत्रपर भाष्य लिखने और धर्मके प्रचार करनेका आदेश दिया । 

 काशीमें निवास करते समयकी बात है , एक दिन आप मणिकर्णिकाघाटपर स्नान कर रहे थे , उसी समय भगवान् वेदव्यास एक वयोवृद्ध ब्राह्मणके रूपमें प्रकट होकर ब्रह्मसूत्रके किसी सूत्रपर विचार - विमर्श करने लगे , परंतु होते - होते वह विचार - विमर्श शास्त्रार्थ के रूपमें परिणत हो गया और आठ दिनतक लगातार गंगातटपर ही शास्त्रार्थ होता रहा । अन्तमें आपने सोचा कि सामान्य मनुष्यके वशकी बात नहीं है कि वह मुझसे इतने लम्बे समयतक शास्त्रार्थ कर सके , अतः ज्ञानदृष्टिसे देखा तो ज्ञात हुआ कि ये ब्राह्मणदेवता और कोई नहीं , साक्षात् नारायणके अवतार भगवान् वेदव्यास हैं । उसी समय आपके शिष्य पद्मपादाचार्यने भी आपको इस श्लोकके माध्यमसे संकेत किया-
 शंकर : शंकरः साक्षात् व्यासो नारायणः स्वयम ।तयोर्विवादे सम्प्राप्ते  न जाने किं करोम्यहम् ॥
 यह सुनकर श्रीव्यासजीने प्रकट होकर दर्शन दिया और आपके वेदान्तभाष्यकी भूरि - भूरि प्रशंसाकर अन्तर्धान हो गये ।
    इसके बाद इन्होंने काशी , कुरुक्षेत्र , बदरिकाश्रम आदिकी यात्रा की , विभिन्न मतवादियोंको परास्त किया ( बहुत - से ग्रन्थ लिखे । प्रयाग आकर कुमारिलभट्टसे उनके अन्तिम समयमें भेंट की और उनकी सलाहसे माहिष्मती मण्डनमिश्र के पास जाकर शास्त्रार्थ किया । शास्त्रार्थ मे मण्डन मिश्र की पत्नी भारती मध्यस्था थी । शास्त्रार्थ मे शंकराचार्य जी ने मिश्रजी को हरा दिया , तब भारतीने कहा कि मुझ अधौगिनीको हराये बिना आप विजयी नहीं हो सकते । तब आपने भारती से शास्त्रार्थ किया । उसने रतिशास्त्र सम्बन्धी प्रश्न किये , उनके उत्तरके लिये इन्होंने छ : मासका समय माँगा और अपने शिष्योंसे कहा कि मैं मृत राजा अमरूक के शरीर में प्रवेशकर शृंगार रसका अध्ययन करूंगा । तबतक मेरे भौतिक शरीरकी रक्षा करना । यदि यहाँसे वापस लौटने मे मुझे विलम्ब हो जाय तो मेरे पास आकर मुझे मोहमुद्गरके श्लोक सुनाना । उस राजा अमरूक के मृत शरीर प्रवेश कर शंकराचार्यजी ने रतिशास्त्रका अध्ययन किया । तत्पश्चात् उनके शिष्यों ने मोहमुदुगर के श्लोक उन्हें सुनाये और वे राजा अमरूक का शरीर छोड़कर पुन : अपने शरीर में आ गये तथा भारतीके प्रश्नका उत्तर दे उसे निरूतर किया । 

अन्तमें मण्डनमिश्रने शंकराचार्यका शिष्यत्व ग्रहण किया और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा । इससे आपकी ख्याति बहुत फैल गयी ।

 एक बारकी बात है , शास्त्रार्थ में आपने सेवड़ी ( प्रतिपक्षियों ) को परास्त किया , पराजित सेवड़ा लोग अपने राजाके पास पहुँचे । राजाने सेवड़ॉकी बात नहीं मानी , तब सेवङों को यह भय सताने लगा कि कहीं हमारा राजा शंकराचार्यका शिष्य न बन जाय , अत : उन्होंने राजा तथा शंकराचार्यको मार डालनेका एक षड्यन्त्र रचा सेवड़ाँका गुरु राजा एवं शंकराचार्यको लेकर एक ऊँची छतपर चढ़ गया और उसने तन्त्र बलसे ऐसी माया रची कि चारों और जल ही जल हो गया । धीर - धीरे जल बढ़ता हुआ छततक आ गया । सेवड़ो के गुरु ने माया की नाव भी बना दी और राजासे कहा कि इसपर चढ़ जाओ , नहीं तो जलमें डूब जाओगे । राजा जैसे ही नावपर चढ़ने लगे शंकराचार्यजीने उन्हें नावपर बैठने से मना कर दिया और पहले सेवड़ो को चढ़ाने को कहा । सेवड़े जैसे ही नावपर चढ़े , मायाकी नाव और जल गायब हो गया और ये लोग छतसे नीचे गिर गये । उन सेवड़ों कि शरीर भग्न हो गये । राजा उनकी चाल और शंकराचार्यजीका प्रभाव समझ गये और उनके चरणोपर गिर पड़े । 
श्रीप्रियादासजी महाराज इन घटनाओंका अपने कवितोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं -
विमुख समूह लैके किये सनमुख स्याम , अति अभिराम लीला जग विसतारी है । सेवरा प्रबल वास केवरा ज्याँ फैलि रहे , गहे नहीं जाहिँ यादी सुचि यात धारी है । तजिकै शरीर काहू नृपमें प्रवेश कियो , दियौ करि ग्रन्थ मोह मुद्गर सुभारी है । शिष्यनि सो कह्यौ कभू देहमें आयेश जानो तब ही बखानो आप सुनि कीजै न्यारी है ।।  जानिकै आवेश तन शिष्यने प्रवेश कियो रावलेमें देखि सो श्लोक लै उचार्यों है । सुनत ही तज्यौ तन निज तन आय लियौ कियो यो प्रनाम दास पन पूरो पार्यो है । सेवरा हराये बादी आये नृप पास ऊँचे छातपर बैठि एक माया फन्द डारयो है । जल चढ़ि आयो नाव भाव लै दिखायौ कहँ चढ़ाँ नहीं यूड़ी आप कौतुक सो धारयो है ।। आचारज कही यों चढ़ाओ इन सेवरानि राजाने चढ़ाये गिरे टूक उड़ि गये हैं । तब तौ प्रसन्न नृप पाँव परयो नृप भाव भरयो कहो जोई कर्यो धर्म भागवत लये हैं । भक्ति ही प्रचार पाछै मायावाद डारि दीनों कीनों प्रभु कह्यौ किते विमुख हू भये हैं । ऐसे सो गंभीर सन्त धीर वह रीति जानें प्रीति ही में साने हरिरूप गुन नये हैं ।। 

 तत्पश्चात् आचार्यने विभिन्न मठोंकी स्थापना की और उनके द्वारा औपनिषद सिद्धान्तकी शिक्षा - दीक्षा होने लगी ।

आचार्यने अनेक मन्दिर बनवाये , बहुत से लोगोंको सन्मार्गमें लगाया और कुमार्गका खण्डन करके भगवान्के वास्तविक स्वरूपको प्रकट किया । आपने भारतवर्षके चारों कोनोंपर चार मठोंकी स्थापना की और वहाँ अपने शिष्यों को नियुक्त किया । पूर्वमें श्रीजगन्नाथपुरी ( उड़ीसा ) में गोवर्धन मठ , दक्षिणमें शृंगेरी मठ , पश्चिममें द्वारकापुरीमें शारदामठ और उत्तरमें ज्योतिर्मठकी आपने स्थापना की । इन मठाँके मठाधीश आज भी श्रीमद् आद्य शंकराचार्यके नामपर शंकराचार्य कहे जाते हैं । यद्यपि आपका लौकिक जीवनकाल अत्यन्त अल्प मात्र ३२ वर्ष ही रहा , परंतु इतने कम समय में ह आपने छोटे - बड़े  ग्रन्थोंकी रचना की , जिनमें प्रस्थानत्रय ( ब्रह्मसूत्र , उपनिषद् और गीता ) पर भाषण ही आपके यशको अमर रखने में पर्याप्त है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
मित्र 
महापुरुष के जीवन ही सार्थक जीवन है । बाकी तो जन्म लेकर गढा ही भरते रहते है ।सांसारिक मनुष्य को पता ही नही चलता कि छोटी सी पेट रुपी गढा कितना बङा है । महापुरुष अपना तो कल्याण कर ही लेते है ,और सांसारिक जीवो का  भी अपने दिव्य चरित के माध्यम से कल्याण करते रहते है । संसार मे स्थाई रूप से जीने के लिए महापुरुषों के चरित्र ही अनुकरणीय है ।
  BHOOPAL MISHRA 
Sanatan vedic dharma 
Bhupalmishra35620@gmail.com 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

Please Select Embedded Mode To show the Comment System.*

pub-8514171401735406
To Top