Bhishma pitamah

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श्रीभीष्म पितामहजी 

परित्यजेयं त्रैलोक्य राज्य देवेषु यद्वाप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं वा पुनः । कथञ्चन ॥ ( महाभारत , आदिपर्व १०३।१५ ) [ भीष्मजी माता सत्यवतीसे कहते हैं- ] ' मैं त्रिलोकीका राज्य छोड़ सकता हूँ , देवताओंका राज्य भी छोड़ सकता हूँ और जो इन दोनोंसे अधिक है , उसे भी छोड़ सकता हूँ , पर सत्य कभी नहीं छोड़ सकता । ' सन्तशिरोमणि पितामह भीष्म महाराज शान्तनुके औरस पुत्र थे और गंगादेवीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे । वसिष्ठ ऋषिके शापसे आठों वसुओंने मनुष्ययोनिमें अवतार लिया था , जिनमें सातको तो गंगाजीने जन्म लेते ही जलके प्रवाहमें बहाकर शापसे छुड़ा दिया , परंतु द्यौ नामक वसुके अंशावतार भीष्मको राजा शान्तनुने रख लिया । गंगादेवी पुत्रको उसके पिताके पास छोड़कर चली गयीं । बालकका नाम देवव्रत रखा गया दासराजके द्वारा पालित सत्यवतीपर मोहित हुए धर्मशील राजा शान्तनुको विषादयुक्त देखकर युक्तिस् देवव्रतने मन्त्रियोंद्वारा पिताके दुःखका कारण जान लिया और पिताकी प्रसन्नताके लिये सत्यवतीके धर्मपित दासराजके पास जाकर उसकी इच्छानुसार ' राजसिंहासनपर न बैठने और आजीवन ब्रह्मचर्य पालनेकी ' कठिन प्रतिज्ञा करके पिताका सत्यवतीके साथ विवाह करवा दिया । पितृभक्तिसे प्रेरित होकर देवव्रतने अपन जन्मसिद्ध राज्याधिकार छोड़कर सदाके लिये स्त्रीसुखका भी परित्याग कर दिया , इसलिये देवताओंने प्रसन्न होकर कामिनी - कांचनका सर्वथा परित्याग कर देनेवाले देवव्रतपर पुष्पवृष्टि करते हुए उनका नाम भीष्म रखा पुत्रका ऐसा त्याग देखकर राजा शान्तनुने भीष्मको वरदान दिया कि ' तू जबतक जीना चाहेगा तबतक मृत्य तेरा बाल भी बाँका न कर सकेगी , तेरी इच्छामृत्यु होगी । ' निष्काम पितृभक्त और आजीवन अस्खलि ब्रह्मचारीके लिये ऐसा होना कौन बड़ी बात है । कहना न होगा कि भीष्मने आजीवन अपनी इस भीष्म प्रतिज्ञाका पालन किया ! 

भीषमजी बड़े ही वीर योद्धा थे और उनमें ' बोरखा , तेज , धैर्य , कुशलता , युद्धसे कभी न हटना ,दान और ऐश्वर्य भाव ये सभी  क्षत्रिय गुण प्रकट थे । वीरमूर्ति क्षत्रियकुलसंहारका परशुरामजीसे इन्होने शस्त्र विधा सिखी थी ।जिस समय परशुराम रामजी ने भीष्म जी से यह आग्रह किया कि तुम कौशिक राज की कन्या अम्बासे विवाह कर लो , उस समय भीष्मजीने ऐसा करनेसे बिलकुल इनकार कर दिया और बड़ी नम्रतासे गुरुका सम्मान करते हुए अपनी स्वाभाविक शूरता और तेजभरे शब्दोंमें कहा भय , दया , धनके लोभ और कामनासे मैं कभी क्षात्रधर्मका त्याग नहीं कर सकता , यह मेरा सदाका व्रत है । ' 

परशुरामजीको बहुत कुछ समझानेपर भी जब वे नहीं माने और इन्हें धमकाने देने लगे तब भीष्मने कहा - ' आप कहते हैं कि मैंने अकेले ही इस लोकके सारे क्षत्रियोंको इक्कीस बार जीत लिया था , उसका कारण यही है कि उस समय भीष्म या भीष्मके समान किसी क्षत्रियने पृथिवीपर जन्म नहीं लिया था , पर अब मैं आपके प्रसादसे आपके इस अभिमानको निःसन्देह चूर्ण कर दूंगा

 परशुरामजी कुपित हो गये । युद्ध छिड़ गया और लगातार तेईस दिनतक गुरु - शिष्यमें भयानक युद्ध होता रहा , परंतु परशुरामजी भीष्मको परास्त न कर सके । ऋषियों और देवताओंने आकर दोनोंको समझाया परंतु भीष्मने क्षत्रियधर्मके अनुसार शस्त्र नहीं छोड़े । वे बोले '

 मेरी यह प्रतिज्ञा है कि मैं युद्धमें पीठ दिखाकर पीछेसे बाणोंका प्रहार सहता हुआ कभी निवृत्त नहीं होऊँगा । लोभ , दीनता , भय और अर्थ आदि किसी कारणसे भी मैं अपना सनातनधर्म नहीं छोड़ सकता , यह मेरा दृढ़ निश्चय है । 

" इक्कीस बार पृथिवीको क्षत्रियहीन करनेवाले अमित तेजस्वी परशुराम भीष्मको नहीं जीत सके ; अन्तमें देवताओंने बीचमें पड़कर युद्ध बन्द करवाया , परंतु भीष्मकी प्रतिज्ञा भंग न हुई ।

 जब सत्यवतीके दोनों पुत्र मर गये , भरतवंश और राज्यका कोई आधार न रहा , तब सत्यवतीने भीष्मसे राजगद्दी स्वीकार करने या पुत्रोत्पादन करनेके लिये कहा । भीष्म चाहते तो निष्कलंक कहलाकर राज्य और स्त्रीका सुख अनायास भोग सकते थे , परंतु विषयोपभोगसे विमुख परम संयमी महात्मा भीष्मने स्पष्ट कह दिया- ' माता ! तू इसके लिये आग्रह न कर पंचमहाभूत चाहे अपना गुण छोड़ दें , सूर्य और चन्द्रमा चाहे अपने तेज और शीतलता त्याग दें , इन्द्र और धर्मराज अपना बल और धर्म छोड़ दें , परंतु तीनों लोकोंक राज्यसुख या उससे भी अधिकके लिये मैं अपना प्रिय सत्य कभी नहीं छोड़ सकता । 

भीष्मजीने दुर्योधनकी अनीति देखकर उसे कई बार समझाया था , पर वह नहीं समझा और जब युद्धका समय आया तब पाण्डवोंकी ओर मन होनेपर भी भीष्मने बुरे समयमें आश्रयदाताकी सहायता करना धर्म समझकर कौरवोंके सेनापति बनकर पाण्डवोंसे युद्ध किया । वृद्ध होनेपर भी उन्होंने दस दिनतक तरुण योद्धाकी तरह लड़कर रणभूमिमें अनेक बड़े - बड़े वीरोंको सदाके लिये सुला दिया और अनेकोंको घायल किया । कौरवोंकी रक्षा असलमें भीष्मके कारण ही कुछ दिनोंतक हुई । महाभारतके अठारह दिनोंके संग्राममें दस दिनोंका युद्ध अकेले भीष्मजीके सेनापतित्वमें हुआ , शेष आठ दिनोंमें कई सेनापति बदले । इतना होनेपर भी भीष्मजी पाण्डवोंके पक्षमें सत्य देखकर उनका मंगल चाहते थे और यह मानते थे कि अन्तमें जीत पाण्डवॉकी ही होगी ।

 भीष्मजी ज्ञानी , दृढ़प्रतिज्ञ , धर्मविद् , सत्यवादी , विद्वान् , राजनीतिज्ञ , उदार , जितेन्द्रिय और अप्रतिम योद्धा होनेके साथ ही भगवान्के अनन्य भक्त थे । श्रीकृष्णमहाराजको साक्षात् भगवान्‌के रूपमें सबसे पहले भीष्मजीने ही पहचाना था । धर्मराजके राजसूय यज्ञमें युधिष्ठिरके यह पूछनेपर कि ' अग्रपूजा किसकी होनी चाहिये ? ' भीष्मजीने स्पष्ट शब्दोंमें कह दिया कि ' तेज , बल , पराक्रम तथा अन्य सभी गुणोंमें श्रीकृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रथम पूजा पानेयोग्य हैं । ' भीष्मकी आज्ञासे सहदेवके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा होने पर  जब शिशुपाल आदि राजा बिगड़े और उत्तेजित होकर कहने लगे कि ' इस घमण्डी बूढेको पशुकी तरह काट डालो या इसे खौलते हुए तेलकी कड़ाहीमें डाल दो तब भीष्मने कुछ भी न घबड़ाकर स्वाभाविक तेजसे तमककर कहा - ' हम जानते हैं श्रीकृष्ण ही समस्त लोकोंकी उत्पत्ति और विनाशके कारण हैं , इन्हींके द्वारा यह चराचर विश्व रचा गया है , यही अव्यक्त प्रकृति , कर्ता , सर्वभूतोंसे परे सनातन ब्रह्म हैं , यही सबसे बड़े पूजनीय हैं और जगत्के सारे सद्गुण इन्हीं में प्रतिष्ठित हैं । सब राजाओंका मान मर्दनकर हमने श्रीकृष्णकी अग्रपूजा की है , जिसे यह मान्य न हो वह श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेको तैयार हो जाय । श्रीकृष्ण सबसे बड़े हैं , सबके गुरु हैं , सबके बन्धु हैं और सब राजाओंसे पराक्रममें श्रेष्ठ हैं ; इनकी अग्रपूजा जिन्हें अच्छी नहीं लगती , उन मूर्खोको क्या समझाया जाय ? 

यज्ञमें विघ्नकी सम्भावना देखकर जब धर्मराजने भीष्मसे यज्ञरक्षाका उपाय पूछा तब भीष्मने दृढ़ निश्चयके साथ कह दिया- ' युधिष्ठिर ! तुम इसकी चिन्ता न करो , शिशुपालकी खबर श्रीकृष्ण आप ही ले लेंगे । ' अन्तमें शिशुपालके सौ अपराध पूरे होनेपर भगवान् श्रीकृष्णने वहीं उसे चक्रसे मारकर अपने में मिला लिया ! 

महाभारत युद्धमें भगवान् श्रीकृष्ण शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा करके सम्मिलित हुए थे । वे अपनी भक्तवत्सलताके कारण सखाभक्त अर्जुनका रथ हाँकनेका काम कर रहे थे । एक बार भीष्मने दुर्योधनके कहने - सुननेपर पाँचों पाण्डवोंको पाँच बाणोंसे मारनेकी प्रतिज्ञा की । भगवान्ने कौशलसे भीष्मकी यह प्रतिज्ञा भंग करवा दी , तब भगवान् श्रीकृष्णकी ही शपथ करके उन्हींके बलपर भीष्मने यह प्रतिज्ञा की कि मैं कल ' भगवान्‌को शस्त्र ग्रहण करवा दूंगा । 

' भीष्मके प्रणकी रक्षाके लिये दूसरे दिन भक्तवत्सल भगवान्‌को अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी । जगत्पति पीताम्बरधारी वासुदेव श्रीकृष्ण बार - बार सिंहनाद करते हुए हाथमें रथका टूटा चक्का लेकर भीष्मकी ओर ऐसे दौड़े , जैसे वनराज सिंह गरजते हुए विशाल गजराजकी ओर दौड़ता है । भगवान्का पीला दुपट्टा कन्धेसे गिर पड़ा । पृथ्वी काँपने लगी । सेनामें चारों ओरसे ' भीष्म मारे गये , भीष्म मारे गये ' की आवाज आने लगी । परंतु इस समय भीष्मको जो असीम आनन्द था , उसका वर्णन करना सामर्थ्यके बाहरकी बात है । भगवान्की भक्तवत्सलतापर मुग्ध हुए भीष्म उनका स्वागत करते हुए बोले 

' हे पुण्डरीकाक्ष ! आओ , आओ ! हे देवदेव !! तुमको मेरा नमस्कार है । हे पुरुषोत्तम ! आज इस महायुद्धमें तुम मेरा वध करो ! हे परमात्मन् ! हे कृष्ण ! हे निष्पाप ! हे गोविन्द ! तुम्हारे हाथसे युद्धमें मरनेपर मेरा अवश्य ही सब प्रकारसे परम कल्याण होगा । मैं आज त्रैलोक्यमें सम्मानित हूँ । हे पापरहित ! मुझपर तुम युद्धमें इच्छानुसार प्रहार करो मैं तुम्हारा दास हूँ । ' अर्जुनने पीछेसे दौड़कर भगवान्‌के पैर पकड़ लिये और उन्हें बड़ी मुश्किलसे लौटाया । 

अन्तमें शिखण्डीके सामने बाण चलानेके कारण अर्जुनके बाणोंसे बिंधकर भीष्म शरशय्यापर गिर पड़े । भीष्म वीरोचित शय्यापर सोये थे , उनके सारे शरीरमें बाण बिंधे थे , केवल सिर नीचे लटकता था । उन्होंने तकिया माँगा , दुर्योधनादि नरम नरम तकिया लाने लगे । भीष्मने अन्तमें अर्जुनसे कहा- ' वत्स ! मेरे योग्य तकिया दो । ' अर्जुनने शोक रोककर तीन बाण उनके मस्तकमें नीचे इस तरह मारे कि सिर तो ऊँचा उठे गया और वे बाण तकियाका काम देने लगे । इससे भीष्म बड़े प्रसन्न हुए और बोले 

शयनस्यानुरूपं मे पाण्डवोपहितं त्वया । यद्यन्यथा प्रपद्येथाः शपेयं त्वामहं रुषा ॥

 एवमेव महाबाहो धर्मेषु परितिष्ठता ।

 अर्थात् ' हे पुत्र अर्जुन ! तुमने मेरे रणशय्याके योग्य ही तकिया देकर मुझे प्रसन्न कर लिया । यदि तुम मेरी बात न समझकर दूसरी तकिया देते तो मैं नाराज होकर तुम्हें शाप दे देता । क्षात्रधर्ममं दृढ़ रहनेवाले क्षत्रियोंको रणांगणमें प्राणत्याग करनेके लिये इसी प्रकारकी बाणशय्यापर सोना चाहिये । ' भीष्मजी शरशय्यापर बाणोंसे घायल पड़े थे , यह देखकर अनेक कुशल शस्त्रवैद्य बुलाये गये कि ये बाण निकालकर मरहम - पट्टी करके घावोंको ठीक करें , पर अपने इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णको सामने देखते हुए मृत्युकी प्रतीक्षामें वीरशय्यापर शान्तिसे सोये हुए भीष्मजीने कुछ भी इलाज न कराकर वैद्योंको सम्मानपूर्वक लौटा दिया । धन्य वीरता और धन्य धीरता ।

 ! आठ दिनके बाद युद्ध समाप्त हो गया । धर्मराजका राज्याभिषेक हुआ । एक दिन युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णके पास गये और दोनों हाथ जोड़कर पलंगके पास खड़े हो गये । प्रणाम करके मुसकराते हुए युधिष्ठिरने भगवान्से कुशलक्षेम पूछी , परंतु उनके प्रश्नका कोई उत्तर नहीं मिला । भगवान्‌को इतना ध्यानमग्न देखकर धर्मराज बोले - ' प्रभो ! आप किसका ध्यान करते हैं ? मुझे बतलाइये , मैं आपके शरणागत हूँ । " भगवान्ने उत्तर दिया- ' धर्मराज शरशय्यापर सोते हुए नरशार्दूल भीष्म मेरा ध्यान कर रहे थे , उन्होंने स्मरण किया था , इसलिये मैं भी भीष्मका ध्यान कर रहा था । भाई । इस समय मैं मनद्वारा भीष्मके पास गया था । 

' फिर भगवान्ने कहा- ' युधिष्ठिर वेद और धर्मके सर्वोपरि ज्ञाता , नैष्ठिक ब्रह्मचारी , महान् अनुभवी , कुरुकुलसूर्य पितामहके अस्त होते ही जगत्का ज्ञानसूर्य भी निस्तेज हो जायगा । अतएव वहाँ चलकर कुछ उपदेश ग्रहण करना हो तो कर लो । 

" युधिष्ठिर श्रीकृष्ण महाराजको साथ लेकर भीष्मके पास गये । बड़े - बड़े ब्रह्मवेत्ता ऋषि - मुनि वहाँ उपस्थित थे । भीष्मने भगवान्‌को देखकर प्रणाम और स्तवन किया । श्रीकृष्णने भीष्मसे कहा- ' उत्तरायण आनेमें अभी तीस दिनकी देर है , इतनेमें आपने धर्मशास्त्रका जो ज्ञान सम्पादन किया है , वह युधिष्ठिरको सुनाकर इनके शोकको दूर कीजिये । ' भीष्मने कहा - ' प्रभो ! मेरा शरीर बाणोंके घावोंसे व्याकुल हो रहा है , मन - बुद्धि चंचल है , बोलनेकी शक्ति नहीं है , बारम्बार मूर्छा आती है ; केवल आपकी कृपासे ही अबतक जी रहा हूँ , फिर आप जगद्गुरुके सामने मैं शिष्य यदि कुछ कहूँ तो वह भी अविनय ही है । मुझसे बोला नहीं जाता , क्षमा करें । ' प्रेमसे छलकती हुई आँखोंसे भगवान् गद्गद होकर बोले - ' भीष्म ! तुम्हारी ग्लानि , मूर्च्छा , दाह , व्यथा , क्षुधा , क्लेश और मोह सब मेरी कृपासे अभी नष्ट हो जायेंगे , तुम्हारे अन्तःकरणमें सब प्रकारके ज्ञानकी स्फुरणा होगी , तुम्हारी बुद्धि निश्चयात्मिका हो जायगी , तुम्हारा मन नित्य सत्त्वगुण में स्थिर हो जायगा , तुम धर्म या जिस किसी भी विद्याका चिन्तन करोगे , उसीको तुम्हारी बुद्धि बताने लगेगी । ' श्रीकृष्णने फिर कहा- ' मैं स्वयं उपदेश न करके तुमसे इसलिये करवाता हूँ कि जिससे मेरे भक्तकी कीर्ति सावधान और बुद्धि सर्वथा जाग्रत् हो गयी । और यश बढ़े । ' भगवत्प्रसादसे भीष्मके शरीरकी सारी वेदनाएँ उसी समय नष्ट हो गयीं , उनका अन्तःकरण सावधान और 

बुद्धि सर्वथा जाग्रत हो गयी ।

  ब्रह्मचर्य , अनुभव , ज्ञान और भगवद्भक्तिके प्रतापसे अगाध ज्ञानी भीष्म जिस प्रकार दस दिनतक रणमें तरुण उत्साहसे झूमे थे , उसी प्रकारके उत्साहसे उन्होंने युधिष्ठिरको धर्मके सब अंगोंका पूरी तरह उपदेश  दिया और उनके शोकसन्तप्त हृदयको शान्त कर दिया । इस प्रकार भगवान के सामने , ऋषियक समूह घिर धर्मचर्चा करते करते जब उत्तम उत्तरायणकाल आया तो भीष्मजी मौत हो गये और उन्होंने भगवान श्रीकृष्णमें पूरी तरह मन लगा दिया और फिर उनकी स्तुति करते हुए बोले '

 मैंने इस तरह उन यादवपुंगव एवं सर्वश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण बुद्धि अर्पित कर दी है , जिन आनन्दमय ब्रह्मरी प्रकृतिका संयोग होनेपर यह संसार चलता है । त्रिभुवनसुन्दर पर्व माल के समान स्वामशरीर और सूर्य किरणके से गौरवर्ण सुन्दर वस्त्रको धारण किये और अलकावतीय आवृत सुशोभित मुख कमलयाले अर्जुनके मित्र श्रीकृष्णमें मेरी निष्काम भक्ति हो । युद्धमै घोड़ाँकी रज पहलेसे धूम्रवर्ण पर्व चंचल अलकावती और श्रमजनित प्रस्वेद विन्दुओंसे अलंकृत जिनका मुख है और मेरे कट जानेपर जिनकी त्वचा भिन्न हो रही है , ऐसे भगवान श्रीकृष्णमें मेरा मन रमण करे । सखाके कहनेपर शीघ्र ही अपनी - परायी दोनों सेनाओं के बीच में रथ स्थापित करके शत्रुपक्षकी सेना बोकी आयु उनकी और देखकर ही जिन्होंने हर ली , दन अर्जुनके मित्र श्रीकृष्णम मेरा मन रमे । सम्मुख स्थित शत्रुसेना आगे स्वजनको मरते मारनेपर उद्यत देखकर जब अर्जुन स्वजन - वथको दोष समझकर धनुष - बाण त्यागकर वजन बधसे निवृत्त हो गये , तब जिन्होंने आत्मज्ञानका उपदेश करके अर्जुनकी कुबुद्धिको हर लिया , उन परमेश्वर श्रीकृष्णके चरण कमलीम मेरी रति हो । युद्धमै ' मैं शस्त्र नहीं ग्रहण करूँगा ' अपनी इस प्रतिको त्यागकर में श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण करा दूंगा ' मेरी इस प्रतिज्ञाको सत्य करने के लिये रथये कूदकर का चक्का हाथमे लेकर जो मुझे मारनेको इस तरह वैगसे दौड़ जैसे हाथीक मारनेकी सिंह दौड़ता है , तब पृथ्वी उनके प्रतिपदम काँपने लगी और कत्येसे दुपट्टा गिर गया , वैसी शोभाको प्राप्त हुए उन श्रीकृष्णकी में शरण है । मेरे पैने बाणकि प्रहारसे कवच टूट गया और श्यामसुन्दरका शरीर रुधिरसे लाल हो गया , तब जी मुद्र सशस्त्रको मारने के लिये वेगसे दौड़े , वे भवत्सल भगवान् मेरी गति हो । अर्जुनके रथपर स्थित होकर एक हाय चाबुक उठाये और एक हाथसे घोड़ोंकी लगाम पकड़े जो शोभायुक्त श्रीकृष्णभगवान् दर्शनीय है , उनमें मुझे मरनेवालेकी रति हो , जिस छविको देखकर महाभारत युद्धमें मरे हुए सब शूरवीर सायमुक्तिको प्राप्त हुए अपनी ललित गति , विलास , मनोहर हास , प्रेममय निरीक्षण आदिये गोपियाँक मान करने पर जब अन्तत हो गये तब विरहसे व्याकुल गोपियों भी जिनकी लीलाका अनुकरण करके तन्मय हो गयीं , ऐसे भक्ति प्राप्त होनेवाले श्रीकृष्णमें मेरी दूद भक्ति हो । युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें अनेक ऋषि मुनि और महिपालोंसे सुशोभित सभाभवनके बीच जिनकी प्रथम पूजा हुई , वही सर्वश्रेष्ठ जगत्पूज्य परब्रहा इस समय मेरे नेत्रकि सामने हैं । अहोभाग्य ! मैं कृतार्थ हो गया । अब जन्म कर्मरहित और अपने ही उत्पन्न किये प्राणियोंकि हृदयमें जो एक होकर भी अनेक पात्रेमि पढ़े हुए , प्रतिबिम्बद्वारा अनेकरूप प्रतीत होनेवाले की भाँति अनेकरूप प्रतीत होते हैं , उन ईश्वर श्रीकृष्णको भेददृष्टि और मोहसे शून्यचित द्वारा मैं  प्राप्त हुआ हुं ।

एक सौ पैंतीस वर्षकी अवस्थामै उत्तरायणक समय सैकड़ों ब्रह्मवेत्ता ऋषि मुनियोंकि बीच इस प्रकार भगवान श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए

  आत्मरूप भगवान श्रीकृष्णमें मन , वाणी और दृष्टिको स्थिर करके भीष्मजी परम शान्तिको प्राप्त हो गए। 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL MISHRA 
SANATAN VEDIC DHARMA KARMA 

BHUPALMISHRA35620@GMAIL.COM 

मित्र 

भीष्म पितामह के दिव्य परम पावन चरित का वर्णन तो इस कलिकाल मे असंभव है । फिर भी यथा मति मैने प्रचार प्रसार हेतू अनुवाद कर दिए है ।

मेरा यह प्रयास धर्म का प्रचार प्रसार करना है ।आप भी इस पुण्य कार्य मे सहयोग कर सकते है । शेयर करे ।

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