24 .Avtar ki katha

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                          चौबीस अवतारोंकी कथा

 अचिन्त्य परमेश्वरकी अतक्र्य लीलासे त्रिगुणात्मक प्रकृतिद्वारा जब सृष्टि - प्रवाह होता है तो उस समय रजोगुणसे प्रेरित वे ही परब्रह्म परमात्मा सगुण होकर अवतार ग्रहण करते हैं । वस्तुतः यह जगत् परमात्माका लीला - विलास है , लीलारमणका आत्माभिरमण है , इसलिये भगवान् अपनी लीलाको चिन्मय बनाने के लिये अपने ही द्वारा निर्मित जगत्‌में अन्तर्यामीरूपसे स्वयं प्रविष्ट भी हो जाते हैं ' तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ।। से परम प्रभु अजायमान होते हुए भी बहुत रूपोंमें लीला करते हैं ' अजायमानो बहुधा विजायते । ' उनकी यह लीला उनके अपने आनन्द - विलासके लिये होती है , जिसके फलस्वरूप भक्तोंकी कामनाएँ भी पूर्ण हो जाती हैं । भगवान्‌का अपने नित्य धामसे पृथ्वीपर लीला - अवतरण ही ' अवतार ' कहा जाता है । कल्पभेदसे भगवान्ने अनेक अवतार धारणकर अपने लीला - चरितसे सन्तजन - परित्राण , दुष्टदलन और धर्मसंस्थापनके कार्य किये हैं । उनके अनन्त अवतार हैं , अनन्त चरित्र हैं और अनन्त लीला - कथाएँ हैं । यहाँ उनमेंसे चौबीस प्रमुख अवतारोंका संक्षिप्त निदर्शन प्रस्तुत किया जा रहा है ( १ ) मत्स्यावतारकी कथा- ( १ ) ब्रह्माजीके सोनेका जब समय आ गया और उन्हें नींद आने लगी , उस समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक दैत्यने उन्हें चुरा लिया । ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय होनेसे सारे लोक समुद्र में डूब गये । श्रीहरिने हयग्रीवकी चेष्टा जान ली और वेदोंका उद्धार करनेके लिये मत्स्यावतार ग्रहण किया । द्रविड़ देशके राजर्षि सत्यव्रत बड़े भगवत्परायण थे । वे मलयपर्वतके एक शिखरपर केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे । ये ही वर्तमान महाकल्पमें वैवस्वत मनु हुए । एक दिन कृतमाला नदीमें तर्पण करते समय उनकी अंजलीमें एक छोटी सी मछली आ गयी , उन्होंने उसे जलके साथ फिर नदीमें छोड़ दिया । उसने बड़ी प्रार्थना की कि मुझे जलजन्तु खा लेंगे , मेरी रक्षा कीजिये । राजाने उसे जलपात्रमें डाल लिया । वह इतनी बढ़ी कि कमण्डलुमें स्थान न रहा , तब राजाने उसे एक बड़े मटकेमें रखा दिया । दो घड़ीमें वह तीन हाथकी हो गयी तब उसे एक बड़े सरोवरमें रख दिया । थोड़ी ही देरमें उसने महामत्स्यका आकार धारण किया । जिस किसी जलाशयमें रखते , उसीसे वह बड़ी हो जाती । तब राजाने उसे समुद्रमें छोड़ दिया , उसने बड़ी करुणासे कहा- राजन् ! आप मुझको इसमें न छोड़ें मेरी रक्षा करें । तब उन्होंने प्रश्न किया ' मत्स्यरूप धारण करके मुझको मोहित करनेवाले आप कौन हैं ? आपने एक ही दिनमें ४०० कोसके विस्तारका सरोवर घेर लिया । आप अवश्य ही सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं । आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है ? ' तब भगवान्ने कहा आजसे सातवें दिन तीनों लोक प्रलयकालीन समुद्रमें डूब जायेंगे । तब मेरी प्रेरणासे एक बड़ी भारी नाव तुम्हारे पास आयेगी । उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्म शरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके समेत उसपर चढ़ जाना और समस्त औषधियों और बीजोंको साथ रख लेना । जबतक ब्रह्माकी रात्रि रहेगी , तबतक मैं तुम्हारी नौकाको लिये समुद्र में विहार करूंगा और तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर दूँगा । यह कहकर मत्स्यभगवान् अन्तर्धान हो गये । प्रलयकालमें वैसा ही हुआ , जैसा भगवान्ने कहा था । मत्स्यभगवान् प्रकट हुए । उनका शरीर सोने संमान देदीप्यमान था और शरीरका विस्तार चार लाख कोसका था । शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था । वह नाव वासुकी नागसे सींगमें बाँध दी गयी । सत्यव्रतजीने भगवान्‌की स्तुति की । भगवान्ने प्रसन्न होकर उन्हें अपने स्वरूपका सम्पूर्ण परम रहस्य और ब्रह्म - तत्त्वका उपदेश किया , जो मत्स्यपुराणमें है । ब्रह्माकी नींद टूटनेपर भगवान्ने हयग्रीवको मारकर श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं । ( श्रीमद्भागवत ) ( २ ) समुद्रका एक पुत्र शंख था । इसने देवताओंको परास्त करके उनको स्वर्गसे निकाल दिया , सब लोकपालोंके अधिकार छीन लिये । देवता मेरुगिरिकी कन्दराओंमें जा छिपे , शत्रुके अधीन न हुए । तब दैत्यने  सोचा कि देवता वेदमन्त्रोंके बलसे प्रबल प्रतीत होते हैं । अतः मैं वेदोंका अपहरण करूंगा । ऐसा निश्चय करके वह वदाको हर लाया ब्रह्माजी कार्तिककी प्रबोधिनी एकादशीको भगवान्‌की शरण गये । भगवान्ने आश्वासन दिया और मछलीके समान रूप धारण करके आकाशसे वे विध्यपर्वतनिवासी कश्यपमुनिकी अंजलिमें गिरे । मुनिने करुणावश उसे क्रमशः कमण्डल कूप , सर , सरिता आदि अनेक स्थानोंमें रखते हुए अन्तमें उसे समुद्रमें डाल दिया । वहाँ भी वह बढ़कर विशालकाय हो गया । तदनन्तर उन मत्स्यरूपधारी भगवान्ने शंखासुरका वध किया और विष्णुरूपमें उसे हाथमें लिये ये बदरीवनमें गये । वहाँ सम्पूर्ण ऋषियोंको बुलाकर आदेश दिया कि ' जलके भीतर बिखरे हुए वेदोंकी खोज करो और रहस्यसहित उनका पता लगाकर शीघ्र ही ले आओ । ' तब तेज और बलसे सम्पन्न समस्त मुनियन यज्ञ और बीजसहित वेदमन्त्रोंका उद्धार किया । जिस वेदके जितने मन्त्रोंको जिस ऋषिने उपलब्ध किया , वही उतने भागका तबसे ऋषि माना जाने लगा । ब्रह्मा समेत सब ऋषियोंने आकर प्राप्त किये हुए वेदोंको भगवान्‌को अर्पण कर दिया । ( पद्मपुराण ) ( ३ ) दितिके मकर , हयग्रीव , महाबलशाली हिरण्याक्ष , हिरण्यकशिपु जम्भ और मय आदि पुत्र हुए , मकरने ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीको मोहित करके उनसे सम्पूर्ण वेद ले लिये इस प्रकार श्रुतियाँका अपहरण करके वह महासागरमें घुस गया । फिर तो सारा संसार धर्मशून्य हो गया । व प्रार्थनासे भगवान् मत्स्य रूप धारण करके महासागरमें प्रविष्ट हुए और मकर दैत्यको थूथुनके अग्रभागसे विदीर्ण करके उन्होंने मार डाला और अंग - उपांगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंको लाकर ब्रह्माजीको समर्पित कर दिया । ( पद्मपुराण ) ( २ ) श्रीवराह अवतारकी कथा- ब्रह्मासे सृष्टिक्रम प्रारम्भ करनेकी आज्ञा पाये हुए स्वायम्भुव मनुने पृथ्वीको प्रलयके एकार्णवमें डूबी हुई देखकर उनसे प्रार्थना की कि आप मेरे और मेरी प्रजाके रहने के लिये पृथ्वीके उद्धारका प्रयत्न करें , जिससे मैं आपकी आज्ञाका पालन कर सकूँ । ब्रह्माजी इस विचारमें पड़कर कि पृथ्वी तो रसातलमें चली गयी है , इसे कैसे निकाला जाय , वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरिकी शरण गये उसी समय विचारमग्न ब्रह्माजीकी नाकसे अंगुष्ठप्रमाण एक वराह बाहर निकल पड़ा और क्षणभरमें पर्वताकार विशालरूप गजेन्द्र सरीखा होकर गर्जन करने लगा । शूकररूप भगवान् पहले तो बड़े वेगसे आकाशमें उछले । उनका शरीर बड़ा कठोर था , त्वचापर कड़े - कड़े बाल थे , सफेद दाढ़ें थीं , उनके नेत्रोंसे तेज निकल रहा था । उनकी दाढ़े भी अति कर्कश थीं । फिर अपने वज्रमय पर्वतके समान कठोर - कलेवरसे उन्होंने जलमें प्रवेश किया । बाणोंके समान पैने खुरोंसे जलको चीरते हुए वे जलके पार पहुँचे । रसातलमें समस्त जीवॉकी आश्रयभूता पृथ्वीको उन्होंने वहाँ देखा पृथ्वीको वे दाढ़ोंपर लेकर बाहर आये । जलसे बाहर निकलते समय उनके मार्ग में विघ्न डालनेके लिये महापराक्रमी हिरण्याक्षने जलके भीतर ही उनपर गदासे प्रहार करते हुए आक्रमण कर दिया । भगवान्ने उसे लीलापूर्वक ही मार डाला । श्वेत दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण किये , जलसे बाहर निकले हुए तमाल वृक्षके समान नीलवर्ण वराहभगवान्‌को देखकर ब्रह्मादिकको निश्चय हो गया कि ये भगवान् ही हैं । वे सब हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे । ( ३ ) कमठ ( कच्छप ) अवतारकी कथा- जब दुर्वासाजीके शापसे इन्द्रसहित तीनों लोक श्रीरहित हो गये । तब इन्द्रादि ब्रह्माजीकी शरणमें गये । ब्रह्माजी सबको लेकर अजित भगवान्के धामको गये और उनकी स्तुति की । भगवान्ने उनको यह युक्ति बतायी कि दैत्य और दानवोंके साथ सन्धि करके मिल - जुलकर क्षीर - सिन्धुको मथनेका उपाय करो । मन्दराचलको मधानी और वासुकी नागको नेती बनाओ । मन्थन करने पर पहले कालकूट निकलेगा , उसका भय न करना और फिर अनेक रत्न निकलेंगे , उनका लोभ न करना । अन्तमें अमृत निकलेगा , उसे मैं युक्तिसे तुम लोगोंको पिला दूंगा । देवताओंने जाकर दैत्यराज बलिमहाराजसे सन्धि कर ली । अब देवता और दैत्य मन्दराचलको उखाड़करले चले , परंतु थक गये , तब भगवान् प्रकट होकर  उसे उठाकर गरुड़पर रखकर सिन्धुतटपर पहुँचे । वासुको अमृतके लोभसे नेती बने । जब समुद्र मन्थन होने लगा , तब बड़े - बड़े देवता और असुरोंके पकड़े रहनेपर भी अपने भारकी अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा । इस प्रकार अपना सब करा - कराया मिट्टीमें मिलते देखकर उन सबका मन टूट गया । उस समय भगवान्ने यह देखकर कि यह सब विघ्नराज ( गणेशजी ) की करतूत है , उन्होंने हँसकर कहा- सब कार्योंके प्रारम्भ में गणेशजीकी पूजा करनी चाहिये । सो तो हम लोगोंने बिल्कुल भुला दिया । बिना उनकी पूजाके कार्य सिद्ध होता नहीं दीखता । अब उन्हींकी पूजा करनी चाहिये । लीलामय भगवान्‌की लीला है । वे स्वयं सर्वसमर्थ हैं , परंतु कार्यारम्भ में गणेशजीकी अग्रपूजाकी मर्यादा जो बाँध रखी है , उसका पालन करनेके लिये जब देवताओं और दैत्योंको यह परामर्श दिया तो सभी लोग उधर श्रीगणेशजीकी पूजामें लगे , इधर भगवान्ने तुरंत अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छपका रूप धारणकर समुद्र में प्रवेश करके अपनी एक लाख योजनवाली पीठपर मन्दराचलको ऊपर उठा लिया । तब देवता और दैत्य फिर बड़े वेगसे समुद्रको मथने लगे । भगवान् कच्छपरूपसे मन्दराचलको धारण किये हुए थे , विष्णुरूपसे देवताओंके साथ - साथ रहे थे । एक तीसरा रूप भी धारण करके मन्दर अपने हाथोंसे दबाये हुए थे कि कहीं उछल न जाय । मथते मथते बहुत देर हो गयी , परंतु अमृत न निकला । अब भगवान्ने सहस्रबाहु होकर स्वयं ही दोनों ओरसे मथना आरम्भ किया । उस समय भगवान्‌की बड़ी विलक्षण शोभा थी । ब्रह्मा , शिव , सनकादि जय - जयकार करते हुए आकाश मण्डलसे पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे । उन लोगोंकी ध्वनिमें ध्वनि मिलाकर समुद्र भी भगवान्‌का जय - जयकार कर रहा था । समुद्रसे सर्वप्रथम हलाहल कालकूट विष ' प्रकट हुआ , उससे त्रैलोक्य जलने लगा तो उसे देवाधिदेव महादेवने ग्रहण किया । फिर और भी रत्न निकले । उनमेंसे ' कामधेनु ' को ऋषियोंने स्वीकार किया । ' उच्चैःश्रवा ' नामक अति सुन्दर बलिष्ठ अश्वको दैत्योंने लिया । बादमें ' ऐरावत ' नामक महान् हाथी निकला , वह देवताओंके राजा इन्द्रको मिला । ' कौस्तुभमणि ' के प्रति सभी लालायित थे , उसे भगवान्ने अपने कण्ठमें धारण कर लिया । ' कल्पवृक्ष ' बिना किसीकी अपेक्षा किये स्वर्गमें चला गया । ' अप्सराएँ ' भी स्वेच्छासे स्वर्गको ही प्रस्थान कर गयीं । ' भगवती लक्ष्मी ' ने अपनी ओरसे उदासीन रहनेपर भी सर्वगुण सम्पन्न भगवान् विष्णुको वरण किया । ' वारुणी देवी ' को दैत्योंने बड़े चावसे लिया । ' धनुष ' तो किसीसे उठा ही नहीं । तब भगवान् विष्णुने उसे धारण किया । ' चन्द्रमा ' को अनन्त आकाश विचरनेके लिये दिया गया । ' दिव्यशङ्ख ' को भगवान्ने स्वीकार किया । अन्तमें ' अमृत - कलश ' हाथमें लिये हुए प्रकट हुए धन्वन्तरिजी महाराज । दैत्योंने उनसे अमृत कलश छीन लिया , देवता उदास हो गये । तब भगवान्ने मोहिनी - स्वरूप धारणकर दैत्योंको व्यामोहितकर अमृत कलश उनसे लेकर अमृत देवताओंको पिला दिया । देवताओंकी पंक्तिमें सूर्य और चन्द्रमाके बीचमें एक राहु नामक दैत्य वेष बदलकर आ बैठा था । उसे अमृत पिलाया ही जा रहा था कि चन्द्रमा और सूर्यने बतला दिया और तुरंत ही भगवान्के चक्रने उसका सिर धड़से अलग कर दिया । परंतु कुछ अमृत उसे मिल चुका था , अतः सिर कटनेपर भी मरा नहीं । इसलिये उसे ग्रहों में स्थान दिया गया । राहु अब भी सूर्य - चन्द्रमासे बदला लेनेके लिये उनके पर्व अमावस्या और पूर्णिमापर आक्रमण करता है , जिसे ग्रहण कहते हैं । देवताओंने अमृत पी ही लिया था । भगवान्‌का आश्रय था ही । अतः अबकी बार संग्राममें विजय देवताओंकी हुई । ( ४ ) श्रीनृसिंह अवतारकी कथा- जब वराहभगवान्ने हिरण्याक्षका वध कर डाला था , तब उसक माता दिति , उसकी पत्नी भानुमती , उसका भाई हिरण्यकशिपु और समस्त परिवार बड़ा दुखी था । दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपुने सबको समझा - बुझाकर शान्त किया , परंतु स्वयं शान्त नहीं हुआ हृदयमें प्रतिशोधकी ज्वाला  धधकने लगी । फिर तो उसने निश्चय किया कि तपस्या करके ऐसी शक्ति प्राप्त की जाय कि त्रिलोकीका राज्य निष्कण्टक हो जाय और हम अमर हो जायें । निश्चय कर लेनेपर हिरण्यकशिपुने मन्दराचलकी घाटीमें जाकर ऐसा घोर तप किया कि जिससे देवलोक भी तप्त हो गये । देवताओंकी प्रार्थनापर ब्रह्माजीने जाकर उससे अमरत्व छोड़कर अन्य कोई भी मनचाहा वर माँगनेको कहा । उसने कहा कि मैं चाहता हूँ कि आपके बनाये हुए किसी प्राणीसे मेरी मृत्यु न हो । भीतर - बाहर , दिनमें - रातमें , आपके बनाये हुए प्राणियोंकि अतिरिक्त और भी किसी जीवसे , अस्त्र - शस्त्रसे , पृथ्वी या आकाशमें कहीं भी मेरी मृत्यु न हो । युद्धमें कोई भी मेरा सामना न कर सके । मैं समस्त प्राणियोंका एकछत्र सम्राट् बनूँ । इन्द्रादि समस्त लोकपालोंमें जैसी आपकी महिमा है , वैसी ही मेरी हो तपस्वियों और योगियों , योगेश्वरोंको जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है , वही मुझे भी दीजिये । ब्रह्माजीने ' एवमस्तु ' कहकर उसके माँगे वर उसको दिये । वह अपनी चतुराईपर बड़ा ही प्रसन्न हुआ कि मैंने ब्रह्माको भी ठग लिया । उनके न चाहनेपर भी मैंने युक्तिसे अमरत्वका वरदान ले ही लिया । यह जीवका स्वभाव है , वह अपनी चतुराईसे चतुराननकी कौन कहे , भगवान्‌को भी धोखा देनेका प्रयत्न जब चाहा तो खोल ही लिया । करता है । वैसे ही हिरण्यकशिपुने भी अपनी समझसे मृत्युका दरवाजा बन्द ही कर लिया था , किंतु भगवान्ने वर प्राप्तकर उसने सम्पूर्ण दिशाओं , तीनों लोकों तथा देवता , असुर , नर , गन्धर्व , गरुड , सर्प , सिद्ध , चारण , विद्याधर , ऋषि , पितृगणोंके अधिपति , मनु , यक्ष , राक्षस , पिशाचपति , भूत और प्रेतोंक नायक तथा सम्पूर्ण जीवोंके स्वामियोंको जीतकर अपने वशीभूत कर लिया । इस प्रकार उस विश्वजित् असुरने अपने पराक्रमसे सम्पूर्ण लोकपालॉक स्थान छीन लिये , स्वयं इन्द्रभवनमें रहने लगा । उसने दैत्योंको आज्ञा दी कि आजकल ब्राह्मणों और क्षत्रियोंकी बहुत बढ़ती हो गयी है । जो लोग तपस्या , व्रत , यज्ञ , स्वाध्याय और दानादि शुभ - कर्म कर रहे हैं , उन सबको मार डालो ; क्योंकि विष्णुकी जड़ है द्विजातियाँका कर्म - धर्म और वही धर्मका परम आश्रय है । दैत्योंने जाकर वैसा ही किया । परंतु जहाँ त्रैलोक्यमें इस प्रकार धर्मका नाश किया जा रहा था , वहाँ हिरण्यकशिपुके पुत्रोंमें प्रह्लादजी जन्मसे ही भगवद्भक्त थे । पाँच वर्षकी अवस्थामें वे अपने पिताको भगवद्भक्तिका पाठ सुना रहे थे । पुत्रको अपने शत्रु विष्णुका भक्त जानकर उसने यह निश्चय कर लिया कि यह अपना शत्रु है , जो पुत्ररूपसे प्रकट हुआ है । अतः उसे मार डालनेकी आज्ञा दी , पर दैत्योंक सब प्रयोग व्यर्थ हुए । तब हिरण्यकशिपुको बड़ी चिन्ता हुई । उसने उन्हें बड़े - बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवाया । विषधर सर्पोंसे डँसवाया , कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी कि प्रह्लादको खा ले । पहाड़ॉपरसे नीचे गिरवाया । शंबरासुरसे अनेकों प्रकारकी मायाका प्रयोग कराया । विष दिलाया । दहकती आगमें प्रवेश कराया , समुद्र में डुबाया इत्यादि अनेक उपाय मार डालनेके किये , पर उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ । गुरुपुत्रोंकी सलाहसे वे वरुणपाशसे बाँधकर रखे जाने लगे कि कहीं भाग न जायें और गुरुपुत्र इन्हें अर्थ , धर्म और कामको शिक्षा देने लगे । छुट्टीके समय प्रह्लादजीने समवयस्क असुर बालकोंको भगवद्भक्तिका स्वरूप बताया , सुनकर सब सहपाठी असुर बालक भगवन्निष्ठ हो गये । यह देखकर पुरोहितने जाकर सब हाल हिरण्यकशिपुसे कहा । सुनते ही उसका शरीर क्रोधके मारे घर - थर काँपने लगा और उसने प्रह्लादजीको अपने हाथसे मार डालनेका निश्चय किया । उन्हें बुलाकर बहुत डाँटा , झिड़का और पूछा कि तू किसके बलपर मेरी आज्ञाके विरुद्ध काम किया करता है ? जिसे प्रह्लादजीने उसे सर्वात्मा , सर्वशक्तिमान् भगवान्के स्वरूपका उपदेश दिया , वह क्रोधसे भरकर बोला देखूं वह तेरा जगदीश्वर कहाँ है ? अच्छा , क्या कहा- वह सर्वत्र है तो इस खम्भेमें क्यों नहीं दीखता ? अच्छा , तुझे इस खम्भेमें भी दीखता है । मैं अभी तेरा सिर अलग करता हूँ , देखता हूँ , तेरा वह हरि तेरी कैसे रक्षा करता है ? वे मेरे सामने आयें तो सही इत्यादि कहते कहते जब वह क्रोधको सँभाल न सकर तब सिंहासनपर से खड्ग लिये कूद पड़ा और प्रह्लादजीके यह कहते हो कि हाँ , वह खम्भेमें भी है , उस बड़े जोरसे खम्भेको एक घूँसा मारा । उसी समय खम्भेसे बड़ा भारी शब्द हुआ । घूँसा मारकर वह प्रह्लादशीको मारने के लिये झपटा था परंतु उस अपूर्व घोर शब्दको सुनकर वह भबड़ाकर देखने लगा कि शब्द करनेवाला कौन ? इतनेमें उसने खम्भेसे निकले हुए एक अद्भुत प्राणीको देखा । वह सोचने लगा- अहो , यह न तो मनुष्य है न सिंह फिर यह नृसिंहरूपमें कौन अलौकिक जीव है । वह इस उधेड़ - बुनमें लगा ही हुआ था कि उसके बिल्कुल सामने नृसिंहभगवान् खड़े हो गये । भगवान् उससे बड़ी देरतक खेलवाड़ करते रहे , अन्तमें सन्ध्या समय उन्होंने बड़े उच्च स्वरसे प्रचण्ड भयंकर अट्टहास किया , जिससे उसकी आँखें बन्द हो गयीं । उसी समय झपटकर भगवान्ने उसे राजसभा द्वारकी ड्योढ़ीपर ले जाकर अपनी जंघाओंपर गिराकर अपने नखोंसे उसके पेटको चीरकर उसे मार डाला । 

( ५ ) श्रीवामनावतारकी कथा- 

भगवान्की कृपासे ही देवताओं की विजय हुई । स्वर्गक सिंहासन पर इन्द्रका अभिषेक हुआ । परंतु अपनी विजयके गर्वमें देवता लोग भगवान्‌को भूल गये , विषयपरायण हो गये । इधर हारे हुए दैत्य बड़ी सावधानी से अपना बल बढ़ाने लगे । वे गुरु शुक्राचार्यजी के साथ - साथ समस्त भृगुवंशो ब्राह्मणों की सेवा करने लगे , जिससे प्रभावशाली भृगुवंशी अत्यन्त प्रसन्न हुए और दैत्यराज बलिसे उन्होंने विश्वजित् यज्ञ कराया ब्राह्मणों की कृपासे यज्ञमें स्वयं अग्निदेवने प्रकट होकर रथ - घोड़े आदि दिये और अपना आशीर्वाद दिया । शुक्राचार्यजीने एक दिव्य शंख और प्रह्लादजीने एक दिव्य माला दी । इस तरह सुसज्जित हो सेनासहित उन्होंने जाकर अमरावतीको घेर लिया । देवगुरु बृहस्पतिके आदेशानुसार देवताओंसहित इन्द्रने स्वर्गको छोड़ दिया और कहीं जा छिपे विश्वविजयी हो जानेपर भृगुवंशियोंने बलिसे सौ अश्वमेध यज्ञ कराये । इस तरह प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मीका उपभोग वे बड़ी उदारतासे करने लगे । अपने पुत्रोंका ऐश्वर्य राज्यादि छिन जानेसे माता अदिति बहुत दुखी हुईं , अपने पति कश्यपजीके उपदेशसे उन्होंने पयोव्रत किया । भगवान्ने प्रकट होकर कहा कि ब्राह्मण और ईश्वर बलिके अनुकूल हैं । इसलिये वे जीते नहीं जा सकते । मैं अपने अंशरूपसे तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारे सन्तानकी रक्षा करूंगा । इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । फिर भाद्रपद शुक्ल द्वादशीको मध्याह्नकालमें अभिजित मुहूर्त में भगवान् विष्णु महर्षि कश्यपके अंशद्वारा अदितिके गर्भसे प्रकट हुए और कश्यप - अदितिके देखते - देखते उसी शरीरसे वामन ब्रह्मचारीका रूप धारण कर लिया । ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अपना भेष बदल ले । भगवान्‌को वामन ब्रह्मचारीके रूपमें देखकर महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ । उन लोगोंने कश्यप प्रजापतिको आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये । जब उनका उपनयन संस्कार होने लगा तब सूर्यने उन्हें गायत्रीका उपदेश दिया । बृहस्पतिने यज्ञोपवीत और कश्यपने मेखला दी । पृथ्वीने कृष्णमृग चर्म , वनस्पतियोंके स्वामी चन्द्रमाने दण्ड , माता अदितिने कौपीन और उत्तरीयवस्त्र , आकाशके अभिमानी देवताने छत्र , ब्रह्माने कमण्डलु , सप्तर्षियोंने कुश और सरस्वतीने रुद्राक्षकी माला समर्पित की । कुबेरने भिक्षापात्र और साक्षात् जगन्माता अन्नपूर्णाने भिक्षा दी । इस प्रकार उनकी ब्रह्मचर्य - दीक्षा पूर्ण हुई । उसी समय भगवान्ने सुना कि सब प्रकारकी सामग्रियों से सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मणोंके आदेशानुसार बहुत से अश्वमेधयज्ञ कर रहे हैं , तब उन्होंने वहाँके लिये यात्रा की । राजा बलि नर्मदा नदीके उत्तर तटपर भृगुकच्छ नामक क्षेत्रमें भृगुवंशियोंके आदेशानुसार एक श्रेष्ठ यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे । ठीक उसी समय हाथमें छत्र , दण्ड और जलसे भरा कमण्डलु लिये वामन   भगवान्ने अश्वमेधयज्ञके मण्डपमें प्रवेश किया । वे कमरमें मूँजकी मेखला और गलेमें यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे , बगलमें मृगचर्म और जटा सिरपर थी । राजा बलिने स्वागत - वाणीसे उनका अभिनन्दन किया और चरणोंको पखारकर चरणतीर्थको मस्तकपर रखा । फिर बटुरूपधारी भगवान्से बोले- ब्राह्मणकुमार ! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं । आप जो कुछ भी चाहते हैं , अवश्य ही वह सब आप मुझसे माँग लीजिये । भगवान्ने प्रसन्न होकर बलिका अभिनन्दन किया और कहा - राजन् ! आपने जो कुछ कहा , वह धर्ममय होनेके साथ - साथ आपकी कुल परम्पराके अनुरूप है । फिर यह कहकर उन्होंने बलिके पूर्वजाँका यशोगान किया - बलिके पिता विरोचनकी उदारता , पितामह प्रह्लादकी भक्ति - निष्ठा , प्रपितामह हिरण्यकशिपु हिरण्याक्षके अमित पराक्रमकी प्रशंसा की और बोले- मैं केवल अपने डगसे तीन डग पृथ्वी चाहता हूँ । बलिजी हँसने लगे- ' जथा दरिद्र विबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥ ' वही हाल आपका है । भगवान्ने कहा- नहीं , कम माँगनेमें दरिद्रता हेतु नहीं है । सन्तोष हेतु है । यथा गो धन गज धन बाजि धन और रतन धन खान । जब आवै सन्तोष धन , सब धन धूरि समान ॥ बलिने कहा- अच्छा , तीन पग लेना है तो मेरे दैत्योंके पगसे लीजिये । देखिये एक - एक योजनके इनके पाँव हैं । भगवान् भी पूरे हठी हैं , बोले- नहीं मुझे तो अपने ही पाँवसे नाप लेने हैं ; क्योंकि धनका उतना ही संग्रह करना चाहिये , जितनेकी आवश्यकता हो । जो ब्राह्मण स्वयंप्राप्त वस्तुसे ही सन्तोष कर लेता है , उसके तेजकी वृद्धि होती है , नहीं तो पतन हो जाता है । शुक्राचार्यजीके बहुत समझानेपर भी कि ये बटुरूपधारी तुम्हारे शत्रु भगवान् विष्णु हैं , ये सब छीननेके लिये आये हैं । अपनी जीविका छिनती देख असत्य बोलकर उसकी रक्षा करना निन्दनीय नहीं है । राजाने असत्य बोलना - देनेको कहकर फिर नकार जाना स्वीकार न किया , तब शुक्राचार्यजीने बलिको राज्यभ्रष्ट होनेका शापतक दे दिया तो भी महात्मा बलि अपने निश्चय से हटे नहीं और हाथमें जल लेकर तीन पग पृथ्वीका संकल्प कर दिया । संकल्प होते ही भगवान्का वामनरूप बढ़ते - बढ़ते इतना बढ़ा कि भगवान्‌की इन्द्रियोंमें और शरीरमें सभी चराचर प्राणियोंका दर्शन होने लगा । सर्वात्मा भगवान्‌में यह सारा ब्रह्माण्ड देखकर सब दैत्य भयभीत हो गये । उन्होंने एक डगसे बलिकी सारी पृथ्वी नाप ली । शरीरसे नभ और भुजाओंसे सभी दिशाएँ घेर लीं । दूसरे पगसे स्वर्ग नाप लिया । तीसरा पग रखनेके लिये बलिकी कोई भी वस्तु न बची । भगवान्‌का दूसरा पग ही ऊपरको जाता हुआ महर्लोक , जनलोक और तपलोकसे भी ऊपर सत्यलोकमें पहुँच गया । श्रीब्रह्माजीने विश्वरूप भगवान्‌के ऊपर उठे हुए चरणका अर्घ्य पाद्यसे पूजन और प्रक्षालन किया । ब्रह्माके कमण्डलुका वही जल विश्वरूपभगवान्के पद - प्रक्षालनसे पवित्र होनेके कारण गंगाजीके रूपमें परिणत हो गया । बलिके सेनापतियोंने यह जानकर कि यह भिक्षुक ब्रह्मचारी तो हम लोगोंका बैरी है , जो अपनेको छिपाकर देवताओंका काम करना चाहता है और राजा तो यज्ञमें दीक्षित होनेसे कुछ कहेंगे नहीं , वामन भगवान्पर अस्त्र चलाया , पर भगवत्पार्षदोंने उन्हें खदेड़ा । बलिने दैत्योंको समझा - बुझाकर लड़ाई करनेसे रोक दिया । भगवान्का इशारा पाकर गरुड़ने वरुणपाशसे बलिको बाँध दिया । तत्पश्चात् भगवान् बलिसे बोले- दो पगमें तो मैंने तुम्हारी सब पृथ्वी और सब लोकोंको नाप लिया , तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी न होनेसे अब तुम नरक भोगोगे इत्यादि रीतिसे वामनजीने बहुत तिरस्कार किया , परंतु राजा बलि धैर्यसे विचलित न हुए । उन्होंने बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया , प्रभो ! मैं आपसे एक बात पूछता हूँ । धन बड़ा है कि धनी ? भगवान्ने कहा— चूँकि धन धनीके अधीन रहता है , इसलिये धनी धनसे बड़ा होता है । बलिजीने कहा- प्रभो ! आपने मेरा धन तो दो पगमें नाप लिया है । रही एक पगकी बात , सो वह पग आप मेरे सिरपर रख दीजिये । यद्यपि  भगवान्ने अश्वमेधयज्ञके मण्डपमें प्रवेश किया । वे कमरमें मूँजकी मेखला और गलेमें यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे , बगलमें मृगचर्म और जटा सिरपर थी । राजा बलिने स्वागत - वाणीसे उनका अभिनन्दन किया और चरणोंको पखारकर चरणतीर्थको मस्तकपर रखा । फिर बटुरूपधारी भगवान्से बोले- ब्राह्मणकुमार ! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं । आप जो कुछ भी चाहते हैं , अवश्य ही वह सब आप मुझसे माँग लीजिये । भगवान्ने प्रसन्न होकर बलिका अभिनन्दन किया और कहा - राजन् ! आपने जो कुछ कहा , वह धर्ममय होनेके साथ - साथ आपकी कुल परम्पराके अनुरूप है । फिर यह कहकर उन्होंने बलिके पूर्वजाँका यशोगान किया - बलिके पिता विरोचनकी उदारता , पितामह प्रह्लादकी भक्ति - निष्ठा , प्रपितामह हिरण्यकशिपु हिरण्याक्षके अमित पराक्रमकी प्रशंसा की और बोले- मैं केवल अपने डगसे तीन डग पृथ्वी चाहता हूँ । बलिजी हँसने लगे- ' जथा दरिद्र विबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥ ' वही हाल आपका है । भगवान्ने कहा- नहीं , कम माँगनेमें दरिद्रता हेतु नहीं है । सन्तोष हेतु है । यथा गो धन गज धन बाजि धन और रतन धन खान । जब आवै सन्तोष धन , सब धन धूरि समान ॥ बलिने कहा- अच्छा , तीन पग लेना है तो मेरे दैत्योंके पगसे लीजिये । देखिये एक - एक योजनके इनके पाँव हैं । भगवान् भी पूरे हठी हैं , बोले- नहीं मुझे तो अपने ही पाँवसे नाप लेने हैं ; क्योंकि धनका उतना ही संग्रह करना चाहिये , जितनेकी आवश्यकता हो । जो ब्राह्मण स्वयंप्राप्त वस्तुसे ही सन्तोष कर लेता है , उसके तेजकी वृद्धि होती है , नहीं तो पतन हो जाता है । शुक्राचार्यजीके बहुत समझानेपर भी कि ये बटुरूपधारी तुम्हारे शत्रु भगवान् विष्णु हैं , ये सब छीननेके लिये आये हैं । अपनी जीविका छिनती देख असत्य बोलकर उसकी रक्षा करना निन्दनीय नहीं है । राजाने असत्य बोलना - देनेको कहकर फिर नकार जाना स्वीकार न किया , तब शुक्राचार्यजीने बलिको राज्यभ्रष्ट होनेका शापतक दे दिया तो भी महात्मा बलि अपने निश्चय से हटे नहीं और हाथमें जल लेकर तीन पग पृथ्वीका संकल्प कर दिया । संकल्प होते ही भगवान्का वामनरूप बढ़ते - बढ़ते इतना बढ़ा कि भगवान्‌की इन्द्रियोंमें और शरीरमें सभी चराचर प्राणियोंका दर्शन होने लगा । सर्वात्मा भगवान्‌में यह सारा ब्रह्माण्ड देखकर सब दैत्य भयभीत हो गये । उन्होंने एक डगसे बलिकी सारी पृथ्वी नाप ली । शरीरसे नभ और भुजाओंसे सभी दिशाएँ घेर लीं । दूसरे पगसे स्वर्ग नाप लिया । तीसरा पग रखनेके लिये बलिकी कोई भी वस्तु न बची । भगवान्‌का दूसरा पग ही ऊपरको जाता हुआ महर्लोक , जनलोक और तपलोकसे भी ऊपर सत्यलोकमें पहुँच गया । श्रीब्रह्माजीने विश्वरूप भगवान्‌के ऊपर उठे हुए चरणका अर्घ्य पाद्यसे पूजन और प्रक्षालन किया । ब्रह्माके कमण्डलुका वही जल विश्वरूपभगवान्के पद - प्रक्षालनसे पवित्र होनेके कारण गंगाजीके रूपमें परिणत हो गया । बलिके सेनापतियोंने यह जानकर कि यह भिक्षुक ब्रह्मचारी तो हम लोगोंका बैरी है , जो अपनेको छिपाकर देवताओंका काम करना चाहता है और राजा तो यज्ञमें दीक्षित होनेसे कुछ कहेंगे नहीं , वामन भगवान्पर अस्त्र चलाया , पर भगवत्पार्षदोंने उन्हें खदेड़ा । बलिने दैत्योंको समझा - बुझाकर लड़ाई करनेसे रोक दिया । भगवान्का इशारा पाकर गरुड़ने वरुणपाशसे बलिको बाँध दिया । तत्पश्चात् भगवान् बलिसे बोले- दो पगमें तो मैंने तुम्हारी सब पृथ्वी और सब लोकोंको नाप लिया , तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी न होनेसे अब तुम नरक भोगोगे इत्यादि रीतिसे वामनजीने बहुत तिरस्कार किया , परंतु राजा बलि धैर्यसे विचलित न हुए । उन्होंने बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया , प्रभो ! मैं आपसे एक बात पूछता हूँ । धन बड़ा है कि धनी ? भगवान्ने कहा— चूँकि धन धनीके अधीन रहता है , इसलिये धनी धनसे बड़ा होता है । बलिजीने कहा- प्रभो ! आपने मेरा धन तो दो पगमें नाप लिया है । रही एक पगकी बात , सो वह पग आप मेरे सिरपर रख दीजिये । यद्यपि  हूं तो मैं दो पगसे भी अधिक , परंतु एक ही पगमें मैं आपके चरणोंमें आत्मसमर्पण करता है । भगवान् बहु प्रसन्न होकर ब्रह्माजीसे बोले- मैं जिसपर बहुत प्रसन्न होता हूँ , उसका धन छीन लिया करता हूँ । मैंने इस धन छीन लिया , राजपदसे अलग कर दिया , तरह - तरहके आक्षेप किये , शत्रुओंने इसे बाँध लिया , भाई बन्धु छोड़कर चले गये , इतनी यातनाएँ इसे भोगनी पड़ीं - यहाँतक कि इसके गुरुदेवने भी इसे शाप दे दिया । परंतु इस दृढव्रतीने प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी । मैंने इससे छलभरी बातें कीं , मनमें छल रखकर धर्मोपदेश कि परंतु इस सत्यवादीने अपना धर्म न छोड़ा । फिर राजा बलिको सुतललोकमें रहनेकी आज्ञा दी और अपूर्व वर दिये । राजा बलिके आप द्वारपाल बन गये । इस तरह भगवान् वामनने बलिसे स्वर्गका राज्य लेकर इन्द्रको देकर अदितिकी कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर सारे जगत्का शासन करने लगे ।  

           6.  श्रीपरशुरामावतास्की कथा - 

वाल्मीकि रामायणके अनुसार ,साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र राजा कुशके चार पुत्रोंमेंसे कुशनाभ दूसरे पुत्र थे । राजा कुशनाभने पुत्रप्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ किया , जिसके फलस्वरूप गाधि नामक परम धर्मात्मा पुत्र हुआ । राजा गाधिके एक सत्यवती नामकी कन्या थी , जो महर्षि ऋचीकको ब्याही गयी थी । एकबार सत्यवती और सत्यवतीकी माताने ऋचीकजीके पास पुत्र कामनासे जाकर उसके लिये प्रार्थना की । ऋचीकने दो चरु सत्यवतीको दिये और बता दिया कि यह तुम्हारे लिये है और यह तुम्हारी माँके लिये है , इनका तुम यथोचित उपयोग करना यह कहकर वे स्नानको चले गये । उपयोग करनेके समय माताने कहा - बेटी ! सभी लोग अपने ही लिये सबसे अधिक गुणवान् पुत्र चाहते हैं , अपनी पत्नीके भाईके गुणोंमें किसीकी विशेष रुचि नहीं होती । अतः तू अपना चरु मुझे दे दे और मेरा तू ले ले ; क्योंकि मेरे पुत्रको तो सम्पूर्ण भूमण्डलका पालन करना होगा और ब्राह्मणकुमारोंको तो बल , वीर्य तथा सम्पत्ति आदिसे लेना - देना ही क्या है ? ऐसा कहनेपर सत्यवतीने अपना चरु माताको दे दिया । जब ऋषिको यह बात ज्ञात हुई तब उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा कि तुमने यह बड़ा अनुचित किया ऐसा हो जानेसे अब तुम्हारा पुत्र घोर योद्धा होगा और तुम्हारा भाई ब्रह्मवेत्ता होगा । सत्यवतीके बहुत प्रार्थना करने पर कि मेरा पुत्र ऐसा न हो , उन्होंने कहा कि अच्छा , पुत्र तो वैसा न होगा किंतु पौत्र उस स्वभावका होगा । यही कारण है कि राजा गाधिकी स्त्रीने जो चरु खाया उसके प्रभावसे विश्वामित्रजी हुए , जो क्षत्रिय होते परंतु यमदग्निपुत्र परशुराम बड़े ही घोर योद्धा हुए । हुए भी तपस्वी और ब्रह्मर्षि हुए और श्रीऋचीकजीके पुत्र श्रीयमदग्निजी तो परम शान्त , दान्त ब्रह्मर्षि हुए एकबार यमदग्नि ऋषिने अपनी स्त्री रेणुकाजीको नदीसे जल लानेको भेजा । वहाँ गन्धर्व - गन्धर्विणी विहार कर रहे थे । ये जल लेने गयीं तो उनका विहार देखने लगीं । इसमें उन्हें लौटनेमें देर हुई । ऋषि देरीका कारण जान लिया और यह समझकर कि स्त्रीको पर- पुरुषकी रति देखना महापाप है , अपने पुत्रोंको बुलाकर ( एक - एक करके ) आज्ञा दी कि माताको मार डालो । परंतु मातृ - स्नेहवश सातों पुत्रोंने इस कामको करना अंगीकार न किया । तब आठवें पुत्र परशुरामको आज्ञा दी कि इन सब भाइयोसहित माताका वध करो । इन्होंने तुरंत सबका सिर काट डाला । इसपर पिताने प्रसन्न होकर इनसे वर माँगनेको कहा । तब इन्होंने कहा कि मेरे सब भाई और माताजी जी उठें और इन्हें यह भी न मालूम हो कि मैंने इन्हें मारा था । हमको परशुरामको सभी वर दिये । पापका स्पर्श न हो । युद्धमें कोई मेरी बराबरी न कर सके , मैं दीर्घकालतक जीवित रहूँ । महातपस्वी यमदग्निने माहिष्मती नगरीका राजा सहस्रार्जुन भगवान् दत्तात्रेयजीसे , युद्धमें कोई सामना न कर सके , युद्धके समय हजार भुजाएँ प्राप्त हो जायँ , सर्वत्र अव्याहत गति हो आदि वरदान प्राप्तकर उन्मत्त हो गया । वह रथ और वरके प्रभावसे देवता , यक्ष और ऋषि सभीको कुचले डालता था । उसके द्वारा सभी प्राणी पीड़ित हो रहे थे । एकबार उसने केवल धनुष और बाणकी सहायतासे , अपने बलके घमण्डमै आकर समुद्रको आच्छादित कर दिया । तब समुद्रने प्रकट होकर उसके आगे मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा चीरवर बोलो , मैं तुम्हारी किस आजाका पालन करें ? उसने कहा- यदि कहाँ मेरे समान धनुर्धर वीर मौजूद हो , जो युद्धमें मेरा मुकाबला कर सके तो उसका पता बताओ । फिर मैं तुझे छोड़कर चला जाऊँगा । तब समुद्रने कहा- महर्षि यमदग्निके पुत्र परशुराम युद्धमै तुम्हारा अच्छा सत्कार कर सकते हैं । तुम वहीं जाओ । ऋषिके आश्रमपर पहुंचे । यह सुनकर राजाने वहाँ जानेका निश्चय किया । अपनी अक्षौहिणी सेनासहित राजा सहस्रार्जुन श्रीयमदग्नि ऋषिने इनका यथोचित आतिथ्य सत्कार किया , जिससे वह चकित हो गया कि वनवासीके पास ऐसा ऐश्वर्य कहाँसे आया ? यह मालूम होनेपर कि यह सब कामधेनुकी महिमा है , उसने मुनिसे गऊ माँगी , न देनेपर जबर्दस्ती उसे छीन लिया और मुनिके प्राण भी ले लिये । उस समय परशुरामजी घरपर नहीं थे । घरपर आनेपर उन्होंने माताको विलाप करते हुए पाया । कारण जाननेपर उन्होंने पृथ्वीको निःक्षत्रिय करने का संकल्प किया । कहते हैं कि विलापमें माताने २१ बार छाती पीटी थी , अतः इन्होंने इक्कीस बार पृथ्वीको निःक्षत्रिय किया । इक्कीसवीं बार क्षत्रियोंका नाश करके परशुरामजीने अश्वमेधयज्ञ किया और उसमें सारी पृथ्वी कश्यपजीको दानमें दे दी । पृथ्वी क्षत्रियोंसे सर्वथा रहित न हो जाय - इस अभिप्रायसे कश्यपजीने उनसे कहा अब यह पृथ्वी हमारी हो चुकी , अब तुम दक्षिण समुद्रकी ओर चले जाओ । चूँकि परशुरामजीके पूर्वजनि भी यह संहार कार्य अनुचित कहकर परशुरामजीको इससे निवृत्त होनेका अनुरोध किया था और कश्यपजीने भी पृथ्वी छोड़ देनेको कहा , अतः परशुरामजी दक्षिण समुद्रकी ओर ही चले गये । समुद्रने अपने अन्तर्गत स्थित महेन्द्राचलपर इनको स्थान दिया । श्रीपरशुरामजी कल्पान्त - स्थायी हैं । किसी - किसी भाग्यशाली पुण्यात्माको उनके दर्शन भी हो जाते हैं

              7. श्रीरामावतारकी कथा

 जब जब होइ धरम के हानी बाहिं असुर अधम अभिमानी ॥ करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥ असुर तब तब प्रभु धरि विविध सरीरा मारि थापहि सुरन्ह विस्तारहिं बिसद जस हरहिं कृपानिधि सन्जन पीरा ॥ राखहिं निज श्रुति सेतु । हेतु ॥ राम जन्म कर जग अपनी इस प्रतिज्ञाके अनुसार अकारण करुण , करुणावरुणालय भक्तवत्सल भगवान् श्रीरामचन्द्रजी चार रूप धारण करके श्रीअयोध्यापति चक्रवर्ती महाराजाधिराज श्रीदशरथजीके पुत्ररूपमें चैत्र शुक्ल ९ रामनवमीको अवतरित हुए । महारानी श्रीकौशल्याजीकी कुक्षिसे श्रीराम , श्रीकैकेयीजीकी कुक्षिसे श्रीभरत , श्रीसुमित्राजीकी कुक्षिसे श्रीलक्ष्मण और शत्रुघ्न प्रकट हुए । यथासमय जातकर्म , नामकरण , चूड़ाकरण , यज्ञोपवीतादि संस्कार सानन्द सम्पन्न हुए । श्रीराम किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं और ' जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा । करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा । ॥ आयसु मागि करहिं पुर काजा । देखि चरित हरषइ मन राजा ॥ ' इसी हर्षोल्लासके बोच एक दिन श्रीविश्वामित्रजी आते हैं और श्रीदशरथजी महाराजसे अपने यज्ञरक्षणार्थ श्रीरामजी एवं श्रीलक्ष्मणजीको माँग ले जाते हैं । यज्ञमें विघ्न डालनेवाले ताड़का , मारीच , सुबाहु आदि असंख्यों राक्षसोंका सहज ही श्रीराम और लक्ष्मणने वध कर डाला । यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हुआ । फिर श्रीविश्वामित्रजीके साथ जनकपुरमें श्रीसीताजीका स्वयंवर देखनेके निमित्त जाकर विशाल शम्भु - धनु , जिसे त्रैलोक्यके भटमानी वीर  डिगा भी न सके थे , उसे श्रीरामने मध्यसे ऐसे तोड़ डाला , जैसे मतवाला हाथी कमलनालको तोड़ डालता है । पश्चात् यह शुभ समाचार श्रीअयोध्या भेजा गया और श्रीदशरथजी आये तो बारात लेकर श्रीरामके ब्याहके लिये , परंतु ब्याह हो गया चारों राजकुमारोंका । अपनी वृद्धावस्थाका आभास पाकर श्रीदशरथजी महाराजने उत्तम गुणोंसे युक्त और सत्य पराक्रमवाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम , ज्येष्ठ , श्रेष्ठ पुत्र श्रीरामको , जो प्रजाके हितमें संलग्न रहनेवाले थे , प्रजावर्गका हित करनेकी इच्छासे प्रेमवश युवराज - पदपर अभिषिक्त करना चाहा । तदनन्तर श्रीरामके राज्याभिषेककी तैयारियाँ देखकर रानी कैकेयीने जिसे पहले ही वर दिया जा चुका था , देवमायासे मोहित होकर , मन्थरासे उकसायी जाकर , राजासे यह वर माँगा कि श्रीरामका निर्वासन ( वनवास ) और भरतका राज्याभिषेक हो । कैकेयीका प्रिय करनेके लिये , पिताकी आज्ञाके अनुसार इनकी प्रतिज्ञाका पालन करते हुए वीर श्रीराम वनको चले । विदेहवंशवैजयन्ती मिथिलेशराजनन्दिनी श्रीरामप्रिया श्रीजानकी एवं श्रीसुमित्रानन्दन लक्ष्मण भी प्रेमवश प्रभुके साथ चल दिये । उस समय पिता श्रीदशरथजीने अपना सारथि भेजकर एवं पुरवासियोंने स्वयं साथ जाकर दूरतक उनका अनुसरण किया । श्रीश्रृंगवेरपुरमें गंगातटपर अपने प्रिय सखा निषादराज गुहके पास पहुँचकर धर्मात्मा श्रीरामने सारथि ( सुमन्त्रजी ) को अयोध्याके लिये विदा कर दिया । निषादराज गुह , लक्ष्मण और सीताके साथ श्रीराम मार्गमें बहुत जलवाली अनेकों नदियोंको पार करके एक वनसे दूसरे वनको गये । महर्षि भरद्वाजजीका दर्शनकर गुहको वापसकर उन्होंने महर्षि वाल्मीकिजीका दर्शन किया और उनकी आज्ञासे , चित्रकूट पहुँचकर वहाँ वे तीनों देवता और गन्धर्वोंके समान वनमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बनाकर उसमें सानन्द रहने लगे । पुत्रशोकमें श्रीदशरथजीके स्वर्गगमनके पश्चात् श्रीवसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणोंद्वारा राज्य संचालनके लिये नियुक्त किये जानेपर भी महाबलशाली वीर भरतने राज्यकी कामना न करके , पूज्य श्रीरामको प्रसन्न करनेके लिये वनको ही प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचकर ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामसे यों प्रार्थना की - धर्मज्ञ ! आप ही राजा हों । परंतु महान् यशस्वी श्रीरामने भी पिताके आदेशका पालन करते हुए राज्यकी अभिलाषा न की और भरतके माँगनेपर उन भरताग्रजने राज्यके लिये न्यास ( चिह्न ) -रूपमें अपनी खड़ाऊँ भरतको देकर उन्हें बार - बार आग्रह करके लौटा दिया । श्रीभरतने श्रीरामके चरणोंका स्पर्श किया और श्रीरामके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए वे नन्दिग्राममें रहकर राज्यकार्य सँभालने लगे । श्रीभरतके लौट जानेपर सत्यप्रतिज्ञ श्रीरामने , वहाँपर नागरिकोंका पुनः आना - जाना देखकर उनसे बचनेके लिये दण्डकारण्य में प्रवेश किया । उस महान् वनमें पहुँचनेपर महावीर श्रीरामने विराध नामक राक्षसको मारकर श्रीशरभंग , सुतीक्ष्ण , अगस्त्य आदि मुनियोंका दर्शन किया । श्रीरामने दण्डकारण्यवासी अग्निके समान तेजस्वी उन ऋषियोंको राक्षसोंके मारनेका वचन दिया और संग्राममें उनके वधकी प्रतिज्ञा की । इसके पश्चात् वहाँ ही रहते हुए श्रीरामने इच्छानुसार रूप बनानेवाली जनस्थाननिवासिनी सूर्पणखा नामकी राक्षसीको लक्ष्मणके द्वारा उसके नाक - कान कटाकर कुरूप कर दिया । पश्चात् सूर्पणखाके द्वारा प्रेरित होकर चढ़ाई करनेवाले खर दूषण , त्रिशिरादि चौदह हजार राक्षसोंको श्रीरामने युद्धमें मार डाला । तदनन्तर राक्षसेन्द्र रावणने प्रतिशोधकी भावनासे मारीचकी सहायतासे श्रीजानकीजीका अपहरण कर लिया और श्रीजानकीजीको लेकर जाते समय मार्गमें विघ्न डालनेके कारण श्रीजटायुजीको आहत कर दिया । पितृवत् पूज्य जटायुके द्वारा ही श्रीरामजीको श्रीजानकीजीका पता मिला । तब अपनी गोदमें प्राण त्यागे हुए श्रीजटायुजीका अग्नि - संस्कारकर वनमें श्रीसीताजीको ढूँढ़ते हुए उन्होंने कबन्ध नामक राक्षसको देखा तो उसे भी तत्काल मारकर शुभगति प्रदान की । कबन्धके द्वारा संकेत पाकर श्रीराम परम भागवती शबरीजीके  यहाँ गये । उसने इनका पूजन किया । श्रीरामने शबरीका मातृवत् सम्मान किया । उत्तम गति प्रदान की । फिर शबरीके संकेतानुसार श्रीहनुमान्जीसे मिलकर सुग्रीवजीसे मित्रता की और सुग्रीवके कथनानुसार संग्राम में बालीको मारकर उसके राज्यपर श्रीरामने सुग्रीवको ही बिठा दिया । तब उन वानरराज सुग्रीवने भी सभी वानरोंको बुलाकर श्रीजानकीजीका पता लगानेके लिये भेजा । सम्पाती नामक गृध्रके पता बतानेपर महाबलवान् श्रीहनुमान्जी सौ योजन विस्तारवाले क्षारसमुद्रको कूदकर लाँघ गये । वहाँ रावणपालित लंकापुरीमें पहुँचकर उन्होंने अशोक वाटिकामें श्रीसीताजीको चिन्तामग्न देखा । तब उन विदेहनन्दिनीको पहचान ( मुद्रिका ) देकर श्रीरामका सन्देश सुनाया और उन्हें सान्त्वना देकर उन्होंने वाटिकाका विध्वंस कर डाला , साथ ही अक्षयकुमारादि असंख्य राक्षसोंका संहार कर डाला , इसके बादमें वे जान - बूझकर पकड़में आ गये । श्रीब्रह्माजीके वरदानसे अपनेको ब्रह्मपाशसे छूटा हुआ जानकर भी वीर हनुमान्जीने अपनेको बाँधनेवाले उन राक्षसोंका अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया । तत्पश्चात् मिथिलेशकुमारी सीताके स्थानके अतिरिक्त समस्त लंकाको जलाकर वे महाकपि श्रीहनुमान्जी , श्रीरामको प्रिय सन्देश सुनाने लिये लंकासे लौट आये और श्रीरामजीकी प्रदक्षिणाकर श्रीजानकीजीका पता बताया । इसके अनन्तर असंख्य वानर सेनाको साथ लेकर श्रीरामने महासागरके तटपर सूर्यके समान तेजस्वी बाणोंसे समुद्रको क्षुब्ध किया । तब नदीपति समुद्रने अपनेको प्रकट कर दिया , फिर समुद्रके ही कहनेसे श्रीरामने नल - नीलसे पुलका निर्माण कराया । उसी पुलसे लंकापुरीमें जाकर रावणको सदल - बल मारकर भगवान् रामने श्रीजानकीजीको प्राप्त किया । साध्वी सीताने अपनी अग्निपरीक्षा दी । इसके बाद अग्निके कहनेसे श्रीरामने श्रीसीताको निष्कलंक माना । महात्मा श्रीरामचन्द्रके इस कर्मसे देवता और ऋषियोंसहित चराचर त्रिभुवन सन्तुष्ट हो गया । फिर सभी देवताओंसे पूजित होकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुए और राक्षसराज विभीषणजीको लंकाके राज्यपर अभिषिक्त करके तथा स्वयं देवताओंसे वर पाकर और मरे हुए वानरोंको जीवन दिलाकर अपने सभी साथियोंके साथ पुष्पक विमानपर चढ़कर अयोध्याके लिये प्रस्थित हुए । भरद्वाजमुनिके आश्रमपर पहुँचकर सबको आराम देनेवाले सत्य - पराक्रमी श्रीरामने भरतके पास हनुमान्जीको भेजा , पुनः श्रीहनुमान्‌जीसे श्रीअवधका समाचार पाकर भरद्वाज आश्रमसे अयोध्याके लिये प्रस्थित हुए । श्रीअयोध्या पहुँचकर श्रीअवधवासियोंके उमड़ते हुए अनुरागको देखकर ' अमित रूप प्रगटे तेहि काला जथा जोग मिले सबहिं कृपाला ॥ ' पश्चात् श्रीवसिष्ठजीके आदेशानुसार शुभघड़ीमें श्रीरामभद्रजू राज्यसिंहासनासीन हुए । श्रीरामजीके सिंहासनपर बैठते ही त्रैलोक्य परम आनन्दित हो गया । भगवान् श्रीरामने सुदीर्घकालतक पृथ्वीपर अभूतपूर्व सुशासन स्थापित किया , उनके राज्यमें प्रजामात्र तापत्रयसे सर्वथा मुक्त थी , आज भी रामराज्यको आदर्श माना जाता है । 

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 
BHOOPAL Mishra 
Sanatan vedic dharma karma 
Bhupalmishra35620@gmail.com 
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