महाकवि श्री जयदेव जी महाराज
प्रचुर भयो तिहुँ लोक गीतगोबिंद उजागर । कोक काब्य नव रस्स सरस सिंगार को सागर ॥ अष्टपदी अभ्यास करैं तेहि बुद्धि बढ़ावैं । सुनन निश्चै तहँ आवैं ॥ संत सरोरुह षंड कों पद्मापति सुखजनक रबि । जयदेव कबी नृप चक्कवै खँडमँडलेस्वर आन कबि ॥
। राधारमन प्रसन्न एक महाकवि श्रीजयदेवजी संस्कृतके कविराजोंके राजा चक्रवर्ती सम्राट् थे । शेष दूसरे सभी कवि आपके सामने छोटे - बड़े राजाओंके समान थे । आपके द्वारा रचित ' गीतगोविन्द ' महाकाव्य तीनों लोकोंमें बहुत अधिक प्रसिद्ध एवं उत्तम सिद्ध हुआ यह गीतगोविन्द माधुर्यभावापन्न - काव्य , साहित्यके नवरसोंका और विशेषकर उज्वल एवं सरस श्रृंगाररसका सागर है । इसकी अष्टपदियोंका जो कोई नित्य अध्ययन एवं गान करे , उसकी बुद्धि पवित्र एवं प्रखर होकर दिन - प्रतिदिन बढ़ेगी । जहाँ अष्टपदियोंका प्रेमपूर्वक गान होता है , वहाँ उन्हें सुननेके लिये भगवान् श्रीराधारमणजी अवश्य आते हैं और सुनकर प्रसन्न होते हैं । श्रीपद्मावती जी के पति श्रीजयदेवजी सन्तरूपी कमलवनको आनन्दित करनेवाले सूर्यके समान इस पृथ्वीपर अवतरित हुए
श्रीजयदेवजीका चरित संक्षेपमें इस प्रकार है प्रसिद्ध भक्त कवि जयदेवका जन्म लगभग छः सौ वर्ष पूर्व बंगालके वीरभूमि जिलेके अन्तर्गत केन्दुबिल्व नामक ग्राममें हुआ । इनके पिताका नाम भोजदेव और माताका नाम वामादेवी था । ये भोजदेव कान्यकुब्जसे बंगालमें आये हुए पंच ब्राह्मणोंमें भरद्वाजगोत्रज श्रीहर्षके वंशज थे । माता पिता बाल्यकाल में ही जयदेवको अकेला छोड़कर चल बसे थे । ये भगवान्का भजन करते हुए किसी प्रकार अपना निर्वाह करते थे । पूर्व संस्कार बहुत अच्छे होनेके कारण इन्होंने कष्टमें रहकर भी बहुत अच्छा विद्याभ्यास कर लिया था और सरल प्रेमके प्रभावसे भगवान् श्रीकृष्णकी परम कृपाके अधिकारी हो गये थे ।
इनके पिताको निरंजन नामक उसी गाँवके एक ब्राह्मणके कुछ रुपये देने थे । निरंजनने जयदेवको संसारसे उदासीन जानकर उनकी भगवद्भक्तिसे अनुचित लाभ उठानेके विचारसे किसी प्रकार उनके घर - द्वार हथियानेका निश्चय किया । उसने एक दस्तावेज बनाया और आकर जयदेवसे कहा - ' देख जयदेव ! मैं तेरे राधा - कृष्णको और गोपीकृष्णको नहीं जानता या तो अभी मेरे रुपये ब्याज समेत दे दे , नहीं तो इस दस्तावेजपर सही करके घर - द्वारपर मुझे अपना कब्जा कर लेने दे ! " जयदेव तो सर्वथा निःस्पृह थे । उन्हें घर - द्वारमें रत्तीभर भी ममता नहीं थी । उन्होंने कलम उठाकर उसी क्षण दस्तावेजपर हस्ताक्षर कर दिये । निरंजन कब्जा करनेकी तैयारीसे आया ही था । उसने तुरंत घरपर कब्जा कर लिया । इतनेमें ही निरंजनकी छोटी कन्या दौड़ती हुई अपने घरसे आकर निरंजनसे कहने लगी ' बाबा ! जल्दी चलो , घरमें आग लग गयी , सब जल गया । भक्त जयदेव वहीं थे । उनके मनमें द्वेष - हिंसाका कहीं लेश भी नहीं था , निरंजनके घरमें आग लगनेकी खबर सुनकर वे भी उसी क्षण दौड़े और जलती हुई लाल - लाल लपटोंके अन्दर उसके घरमें घुस गये । जयदेवका घरमें घुसना ही था कि अग्नि वैसे ही अदृश्य हो गयी , जैसे जागते ही सपना ! '
जयदेवकी इस अलौकिक शक्तिको देखते ही निरंजनके नेत्रोंमें जल भर आया । अपनी अपवित्र करनीपर पछताता हुआ निरंजन जयदेवके चरणोंमें गिर पड़ा और दस्तावेजको फाड़कर कहने लगा - ' देव ! मेरा अपराध क्षमा करो , मैंने लोभवश थोड़े - से पैसोंके लिये जान - बूझकर बेईमानीसे तुम्हारा घर - द्वार छीन लिया है । आज तुम न होते , तो मेरा तमाम घर खाक हो गया होता । धन्य हो तुम ! आज मैंने भगवद्भक्तका प्रभाव जाना । ' उसी दिनसे निरंजनका हृदय शुद्ध हो गया और वह जयदेवके संगसे लाभ उठाकर भगवान्के भजन कीर्तनमें समय बिताने लगा ।
भगवान्की अपने ऊपर इतनी कृपा देखकर जयदेवका हृदय द्रवित हो गया । उन्होंने घर - द्वार छोड़कर पुरुषोत्तमक्षेत्र - पुरी जानेका विचार किया और अपने गाँवके पराशर नामक ब्राह्मणको साथ लेकर वे पुरीकी ओर चल पड़े । भगवान्का भजन - कीर्तन करते , मग्न हुए जयदेवजी चलने लगे । एक दिन मार्गमें जयदेवजीको बहुत दूरतक कहीं जल नहीं मिला । बहुत जोरकी गरमी पड़ रही थी , वे प्यासके मारे व्याकुल होकर जमीनपर गिर पड़े । तब भक्तवांछाकल्पतरु हरिने स्वयं गोपाल - बालकके वेषमें पधारकर जयदेवको कपड़ेसे हवा की और जल तथा मधुर दूध पिलाया । तदनन्तर मार्ग बतलाकर उन्हें शीघ्र ही पुरी पहुँचा दिया । अवश्य ही भगवान्को छद्मवेषमें उस समय जयदेवजी और उनके साथी पराशरने पहचाना नहीं ।
जयदेवजी प्रेममें डूबे हुए सदा श्रीकृष्णका नाम - गान करते रहते थे । एक दिन भावावेशमें अकस्मात् उन्होंने देखा मानो चारों ओर सुनील पर्वतश्रेणी है , नीचे कल - कल - निनादिनी कालिन्दी बह रही है । यमुना तीरपर कदम्बके नीचे खड़े हुए भगवान् श्रीकृष्ण मुरली हाथमें लिये मुसकरा रहे हैं । यह दृश्य देखते ही जयदेवजीके मुखसे अकस्मात् यह गीत निकल पड़ा -
मेघैर्मेंदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः ॥ पराशर इस मधुर गानको सुनकर मुग्ध हो गया । बस , यहींसे ललितमधुर ' गीत - गोविन्द ' आरम्भ हुआ ! कहा जाता है , यहाँ जयदेवजीको भगवान्के दशावतार का प्रत्यक्ष दर्शन हुए और उन्होंने ' जय जगदीश हरे ' की टेर लगाकर दसों अवतारों की क्रमशः स्तुति गायी । कुछ समय बाद जब उन्हें बाह्य ज्ञान हुआ , तब पराशरको साथ लेकर वे चले भगवान् श्रीजगन्नाथजी के दर्शन करने । भगवान के दर्शन प्राप्तकर जयदेवजी बहुत प्रसन्न हुए । उनका हृदय आनन्दसे भर गया । वे पुरुषोत्तम क्षेत्र - पुरी मे एक विरक्त संन्यासी की भाँति रहने लगे । उनका कोई नियत स्थान नहीं था । प्रायः वृक्षके नीचे ही वे रहा करते और भिक्षा द्वारा क्षुधा निवृत्ति करते दिन - रात प्रभुका ध्यान , चिन्तन और गुणगान करना ही उनके जीवनका एकमात्र कार्य था ।
( क ) जयदेवजी श्रीजगन्नाथजीके स्वरूप कविसम्राट् श्रीजयदेवजी बंगालप्रान्तके वीरभूमि जिलेके अन्तर्गत केन्दुबिल्व नामक ग्राममें उत्पन्न हुए थे । आपका वैराग्य ऐसा प्रखर था कि एक वृक्षके नीचे एक ही दिन निवास करते थे , दूसरे दिन दूसरे वृक्ष के नीचे आसक्तिरहित रहते थे । जीवन निर्वाह करने की अनेक सामग्रियोंमेंसे आप केवल एक गुदरी और एक कमण्डलु ही अपने पास रखते थे और कुछ भी नहीं सुदेव नामके एक ब्राह्मणके कोई सन्तान न थी , उसने श्रीजगन्नाथजीसे प्रार्थना की कि यदि मेरे सन्तान होगी तो पहली सन्तान आपको अर्पण कर दूँगा । कुछ समयके बाद उसके एक कन्या हुई और जब द्वादश वर्षकी विवाहके योग्य हो गयी तो उस ब्राह्मणने श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरमें उस कन्या ( पद्मावती ) को लाकर प्रार्थना की कि हे प्रभो । मैं अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार आपको भेंट करनेके लिये यह कन्या लाया हूँ । उसी समय श्रीजगन्नाथजीने आज्ञा दी कि परमरसिक जयदेव नामके जो भक्त हैं , वे मेरे ही स्वरूप हैं , अतः इसे अभी ले जाकर उन्हें अर्पण कर दो और उनसे कह देना कि जगन्नाथजीकी ऐसी ही आज्ञा हुई है ।
भगवान्की आज्ञा पाकर वह ब्राह्मण बनमें वहाँ गया , जहाँ कविराजराज भक्त श्रीजयदेवजी बैठे थे और उनसे बोला- हे महाराज ! आप मेरी इस कन्याको पत्नीरूपसे अपनी सेवामें लीजिये , जगन्नाथजीकी ऐसी आज्ञा है । जयदेवजीने कहा- जगन्नाथजीकी बात जाने दीजिये , वे यदि हजारों स्त्रियाँ सेवामें रखें तो उनकी शोभा है , परंतु हमको तो एक ही पहाड़के समान भारवाली हो जायगी । अतः अब तुम कन्याके साथ यहाँसे लौट जाओ । ये भगवान्की आज्ञाको भी नहीं मान रहे हैं यह देखकर ब्राह्मण खीज गया और अपनी लड़कीसे बोला- मुझे तो जगन्नाथजीकी आज्ञा शिरोधार्य है , मैं उसे कदापि टाल नहीं सकता हूँ । तुम इनके ही समीप स्थिर होकर रहो । श्रीजयदेवजी अनेक प्रकारकी बातोंसे समझाकर हार गये , पर वह ब्राह्मण नहीं माना और अप्रसन्न होकर चला गया । तब वे बड़े भारी सोचमें पड़ गये । फिर वे उस ब्राह्मणकी कन्यासे बोले- तुम अच्छी प्रकारसे मनमें विचार करो कि तुम्हारा अपना क्या कर्तव्य है ? तुम्हारे योग्य कैसा पति होना चाहिये ? यह सुनकर उस कन्याने हाथ जोड़कर कहा- मेरा वश तो कुछ भी नहीं चलता है । चाहे सुख हो या दुःख , यह शरीर तो मैंने आपपर न्यौछावर कर दिया है ।
श्रीपद्मावतीजीका भावपूर्ण निश्चय सुनकर श्रीजयदेवजीने निर्वाहके लिये झोंपड़ी बनाकर छाया कर ली । अब छाया हो गयी तो उसमें भगवान् श्यामसुन्दरकी एक मूर्ति सेवा करनेके लिये पधरा ली । पश्चात् मनमें आया कि परम प्रभुकी ललित लीलाएँ जिसमें वर्णित हों , ऐसा एक ग्रन्थ बनाऊँ । उनके इस निश्चयके अनुसार अति सरस ' गीतगोविन्द ' महाकाव्य प्रकट हुआ । गीतगोविन्द लिखते समय एक बार श्रीकिशोरी राधिकाजीके मानका प्रसंग आया । उसमें भगवान् श्यामसुन्दरने अपनी प्रियाके चरणकमलोंको अपने मस्तकका भूषण बताकर प्रार्थना की कि इसे मेरे मस्तकपर रख दीजिये । इस आशयका पद आपके हृदयमें आया , पर उसे मुखसे कहते तथा पद्मावतीद्वारा ग्रन्थमें लिखाते समय सोच - विचारमें पड़ गये कि इस गुप्त रहस्यको कैसे प्रकट किया जाय ? आप स्नान करने चले गये , लौटकर आये तो देखा कि वह पद पोथीमें श्यामसुन्दरने लिख दिया है । इससे जयदेवजी अति प्रसन्न हुए और संकोच त्यागकर माधुर्यरसकी लीलाओंका गान करने लगे ।
इस घटनाका वर्णन प्रियादासजीने निम्न कवित्तोंमें इस प्रकार किया है
किन्दु बिल्लु ग्राम तामे भये कविराज राज भर्यो रसराज हिये मन मन चाखियै । दिन दिन प्रति रूख रूख तर जाइ रहें गहँ एक गूदरी कमण्डल को राखियै ॥ कही देवै विप्र सुता जगन्नाथदेव जू को भयो जव समै चल्यो दैन प्रभु भाखिये । रसिक जैदेव नाम मेरोई सरूप ताहि देवो ततकाल अहो मेरी कहि साखिये ॥ चल्यो द्विज तहां जहां बैठे कविराजराज अहो महाराज मेरी सुता यह लीजिये । कीजिये विचार अधिकार विस्तार जाके ताहीको निहारि सुकुमारि यह दीजियै ॥ जगन्नाथदेव जू की आज्ञा प्रतिपाल करो ढरो मति धरो हिये ना तो दोष भीजियै । उनको हजार सोहैं हमको पहार एक ताते फिरि जावो तुम्हें कहा कहि खीजियै ।। सुता सो कहत तुम बैठि रहौ याही ठौर आज्ञा सिरमौर मौपै नाहीं जाति टारी है । चल्यौ अनखाइ समझाइ हारे बातनि सों मन तूं समझ कहा कीजै सोच भारी है । बोले द्विज बालकी सों आपही विचार करो धरो हिये ज्ञान मोपै जात न सँभारी है । बोली करजोरि मेरो जोर न चलत कछू चाहौ सोई होहु यह वारि फेरि डारी है ।। जानी जब भई तिया कियो प्रभु जोर मोपै तो पै एक झोंपड़ी की छाया कर लीजिये । भई तब छाया श्याम सेवा पधारइ लई नई एक पोथी मैं बनाऊँ मन कीजिये ॥ भयो जू प्रगट गीत सरस गोविन्दजू को मान में प्रसंग सीसमण्डन सो दीजिये । वही एक पद मुख निकसत सोच पर्यो धर्यो कैसे जात
। गीतगोविन्द की महिमा
। जगन्नाथधामका राजा पण्डित था । उसने भी एक पुस्तक बनायी और उसका गीतगोविन्द नाम रखा । उसमें भी श्रीकृष्णचरित्रोंका वर्णन था । राजाने ब्राह्मणोंको बुलाकर कहा कि यही गीतगोविन्द है । इसकी प्रतिलिपियाँ करके पढ़िये और देश - देशान्तरों में प्रचार करिये । इस बातको सुनकर विद्वान् ब्राह्मणोंने असली गीतगोविन्दको खोलकर दिखा दिया और मुसकराकर बोले कि यह तो कोई नयी दूसरी पुस्तक है , गीतगोविन्द नहीं है । राजाका तथा राजभक्त विद्वानोंका आग्रह था कि यही गीतगोविन्द है , इससे लोगोंकी बुद्धि भ्रमित हो गयी । कौन - सी पुस्तक असली है , यह निर्णय करनेके लिये दोनों पुस्तकें श्रीजगन्नाथदेवजीके मन्दिरमें रखी गयीं । बादमें जब पट खोले गये तो देखा गया कि जगन्नाथजीने राजाको पुस्तक की दूर फेंक दिया है और श्रीजयदेवकवि कृत गीतगोविन्दको अपनी छातीसे लगा लिया है । इस दृश्यको देखकर राजा अत्यन्त लज्जित हुआ । अपनी पुस्तकका अपमान जानकर बड़े भारी शोकमें पड़ गया और निश्चय किया कि अब मैं समुद्रमें डूबकर मर जाऊँगा । जब राजा डूबने जा रहा था तो उस समय प्रभुने दर्शन देकर आज्ञा दी कि तू समुद्रमें मत डूब । श्रीजयदेवकविकृत गीतगोविन्द - जैसा दूसरा ग्रन्थ नहीं हो सकता है । इसलिये तुम्हारा शरीरत्याग करना वृथा है । अब तुम ऐसा करो कि गीतगोविन्दके बारह सगमें अपने बारह श्लोक मिलाकर लिख दो । इस प्रकार तुम्हारे बारह श्लोक उसके साथ प्रचलित हो जायेंगे , जिसकी प्रसिद्धि तीनों लोकोंमें फैल जायगी ।
श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका वर्णन अपने कवित्तोंमें इस प्रकार किया है-
नीलाचल धाम तामै पण्डित नृपति एक करी यही नाम धरि पोथी सुखदाइयै । द्विजन बुलाइ कही यही है प्रसिद्ध करो लिखि लिखि पढ़ो देश देशनि चलाइयै ॥ बोले मुसकाइ विप्र छिप्रसों दिखाई दई नई यह कोऊ मति अति भरमाइयै । मैं धरी दोऊ मन्दिर में जगन्नाथ देवजू के दीनी यह डारि वह हार लपटाइयै ।। पर्यो सोच भारी नृप निपट खिसानों भयो गयो उठि सागर मैं बूड़ों वही बात है । अति अपमान कियो , कियो मैं बखान सोई गोई जात कैसे ? आंच लागी गात गात है ॥ आज्ञा प्रभु दई मत बूड़े तूं समुद्र मांझ दूसरो न ग्रंथ ऐसो वृथा तनुपात है । में द्वादश सुश्लोक लिखि दीजै सर्ग द्वादश में ताहि संग चलै जाकी ख्याति पात पात है ॥
( २ ) एक बार एक मालीकी लड़की बैंगनके खेतमें बैंगन तोड़ते समय गीतगोविन्दके पाँचवें सर्गकी ' धीरसमीरे यमुनातीरे वसति वने वनमाली ' इस अष्टपदीको गा रही थी । उस मधुर गानको सुननेके लिये श्रीजगन्नाथजी जो उस समय अपने श्रीअंगपर महीन एवं ढीली पोशाक धारण किये हुए थे , उसके पीछे - पीछे डोलने लगे । प्रेमवश बेसुध होकर लड़कीके पीछे - पीछे घूमनेसे काँटोंमें उलझकर श्रीजगन्नाथजीके वस्त्र फट गये । उस लड़कीके गान बन्द करनेपर आप मन्दिरमें पधारे । फटे वस्त्रोंको देखकर पुरीके राजाने आश्चर्यचकित होकर पुजारियोंसे पूछा अरे ! यह क्या हुआ , ठाकुरजीके वस्त्र कैसे फट गये ? पुजारियोंने कहा कि हमें तो कुछ भी मालूम नहीं है । तब स्वयं ठाकुरजीने ही सब बात बता दी । राजाने प्रभुकी रुचि जानकर पालकी भेजी , उसमें बिठाकर उस लड़कीको बुलाया । उसने आकर ठाकुरजीके सामने नृत्य करते हुए उसी अष्टपदीको गाकर सुनाया । प्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए । तबसे राजाने मन्दिरमें नित्य गीतगोविन्दगानकी व्यवस्था की । उक्त घटनासे गीतगोविन्दके गायनको अति गम्भीर रहस्य जानकर पुरीके राजाने सर्वत्र यह ढिंढोरा पिटवाया कि कोई राजा हो या निर्धन प्रजा हो , सभीको उचित है कि इस गीतगोविन्दका मधुर स्वरोंसे गान करें । उस समय ऐसी भावना रखें कि प्रियाप्रियतम श्रीराधाश्यामसुन्दर समीप विराजकर श्रवण कर रहे हैं ।
गीतगोविन्दके महत्त्वको मुलतानके एक मुगलसरदारने एक ब्राह्मणसे सुन लिया । उसने घोषित रीतिके अनुसार गान करनेका निश्चय करके अष्टपदियोंको कण्ठस्थ कर लिया । जब वह घोड़ेपर चढ़कर चलता था तो उस समय घोड़ेपर आगे भगवान् विराजे हैं ऐसा ध्यान कर लेता था , फिर गान करता था । एक दिन उसने घोड़ेपर प्रभुको आसन नहीं दिया और गान करने लगा , फिर क्या देखा कि मार्गमें घोड़ेके आगे - आगे मेरी ओर मुख किये हुए श्यामसुन्दर पीछेको चलते हैं और गान सुन रहे हैं । घोड़ेसे उतरकर उसने प्रभुके चरणस्पर्श किये तथा नौकरी छोड़कर विरक्त वेश धारण कर लिया । गीतगोविन्दका अनन्त प्रताप है , स्वर्गकी देवांगनाएँ भी इसका गान करती हैं । इसकी महिमाका वर्णन कौन कर सकता है , जिसपर स्वयं रीझकर भगवान्ने उसमें अपने हाथ से पद लिखा है ।
श्रीप्रियादासजी इस घटनाका वर्णन इस प्रकार करते हैं-
सुता एक मालीकी जू बैंगनकी वारी मांझ तोरै वनमाली गावै कथा सर्ग पांच की । डोलैं जगन्नाथ पांछे काछें अंग मिहीँझँगा आछे कहि घूमैं सुधि आवै विरहांच की ॥ फट्यो पट देखि नृप पूछी अहो भयो कहा ? जानत न हम अब कहो बात सांच की । प्रभु ही जनाई मनभाई मेरे वही गाथा ल्याये वही बालकी कौँ पालकी में नाच की ॥
फेरी नृप डाँड़ी यह औँड़ी बात जानि महा कही राजा रंक पढ़ें नीकी ठौर जानिकैं । अक्षर मधुर और मधुर स्वरनि ही सों गावै जब लाल प्यारी ढिग हिलें आनिकै ॥ सुनि यह रीति एक मुगल ने धारि लई पढ़ चढ़ घोड़े आगे श्यामरूप ठानि कँ । पोथी को प्रताप स्वर्ग गावत हैं देव वधू आप ही जू रीझि लिख्यो निजकर आनि कँ ।
। श्री जयदेव जी की साधुता
श्रीजयदेवजीको एक बार एक सेवकने अपने घर बुलाया । दक्षिणामें आग्रह करके कुछ मुहरें देने लगा , आपके मना करनेपर भी उसने आपकी चद्दरमें मुहरें बाँध दीं । आप अपने आश्रमको चले , तब मार्गमें उन्हें ठग मिल गये । आपने उनसे पूछा कि तुमलोग कहाँ जाओगे ? ठगोंने उत्तर दिया- जहाँ तुम जा रहे हो , वहीं हम भी जायँगे । श्रीजयदेवजी समझ गये कि ये ठग हैं । आपने गाँठ खोलकर सब मुहरें उन्हें दे दीं और कहा कि इनमेंसे जितनी मोहर आप लेना चाहें ले लें । उन दुष्टोंने अपने मनमें सोच - समझकर कहा कि इन्होंने मेरे साथ चालाकी की है । अभी तो भयवश सब धन बिना माँगे ही हमें सौंप दिया है । परंतु इनके मनमें यही है कि यहाँसे तो चलने दो , आगे जब नगर आयेगा तो शीघ्र ही इन सबोंको पकड़वा दूंगा ।
यह सोचकर उन ठगोंने श्रीजयदेवजीके हाथ - पैर काटकर बड़े गड्ढे में डाल दिये और अपने - अपने घरोंको चले गये । थोड़े समय बाद ही वहाँ एक राजा ( लक्ष्मणसेन ) आया । उसने देखा कि श्रीजयदेवजी संकीर्तन कर रहे हैं और गड्ढे में दिव्य प्रकाश छाया है तथा हाथ - पैर कटे होनेपर भी वे परम प्रसन्न हैं । तब उन्हें गड्ढेसे बाहर निकालकर राजाने हाथ - पैर कटनेका प्रसंग पूछा । जयदेवजीने उत्तर दिया कि मुझे इस प्रकारका ही शरीर प्राप्त हुआ है ।
श्रीजयदेवजीके दिव्य दर्शन एवं मधुर वचनामृतको सुनकर राजाने मनमें विचारा कि मेरा बड़ा भारी सौभाग्य है कि ऐसे सन्तके दर्शन प्राप्त हुए । राजा उन्हें पालकीमें बिठाकर घर ले आया । चिकित्साके द्वारा कटे हुए हाथ पैरोंके घाव ठीक करवाये , फिर श्रीजयदेवजीसे प्रार्थना की कि अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि कौन - सी सेवा करूँ ? श्रीजयदेवजीने कहा कि राजन् ! भगवान् और भक्तोंकी सेवा कीजिये । ऐसी आज्ञा पाकर राजा साधु - सेवा करने लगा । इसकी ख्याति चारों ओर फैल गयी । एक दिन वे ही चारों ठग सुन्दर कण्ठी - माला धारणकर राजाके यहाँ आये । उन्हें देखते ही श्रीजयदेवजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा देखो , आज तो मेरे बड़े गुरु भाई लोग आये हैं । ऐसा कहकर उन्होंने सबका बड़ा ही स्वागत किया ।
श्रीजयदेवजीने शीघ्र राजाको बुलवाकर कहा कि इनकी प्रेमसे यथोचित सेवा करके संत - सेवाका फल प्राप्त कर लो । आज्ञा पाकर राजा उन्हें भीतर महलमें ले गया और अनेक सेवकोंको उनकी सेवामें लगा दिया , परंतु उन चारोंके मन अपने पापसे व्याकुल थे , उन्हें भय था कि यह हमें पहचान गया है , राजासे कहकर मरवा देगा । वे राजासे बार - बार विदा माँगते थे , पर राजा उन्हें जाने नहीं देता था । तब श्रीजयदेवजीके कहनेपर राजाने अनेक प्रकारके वस्त्र - रत्न- आभूषण आदि देकर उन्हें विदा किया । सामानको ढोनेके लिये साथमें कई मनुष्योंको भी भेजा ।
राजाके सिपाही गठरियोंको लेकर उन ठग - सन्तोंको पहुँचाने के लिये उनके साथ - साथ चले , कुछ दूर जानेपर राजपुरुषोंने उन सन्तोंसे पूछा कि भगवन् ! राजाके यहाँ नित्य संत - महात्मा आते - जाते रहते हैं , परंतु स्वामीजीने जितना सत्कार आपका किया और राजासे करवाया है , ऐसा किसी दूसरे साधु - सन्तका सेवा सत्कार आजतक नहीं हुआ । इसलिये हम प्रार्थना करते हैं कि आप बताइये कि स्वामीजीसे आपका क्या सम्बन्ध है ? उन्होंने कहा- यह बात अत्यन्त गोपनीय है , मैं तुम्हें बताता हूँ , पर तुम किसीसे मत कहना ।पहले तुम्हारे स्वामीजी और हम सब एक राजाके यहाँ नौकरी करते थे । वहाँ इन्होंने बड़ा भारी अपराध किया । राजाने इन्हें मार डालनेको आज्ञा दी । परंतु हमने अपना प्रेमी जानकर इनको मारा नहीं । केवल हाथ पैर काटकर राजाको दिखा दिया और कह दिया कि हमने मार डाला । उसी उपकारके बदलेमें हमारा सत्कार विशेषरूपसे कराया गया है ।
उन कृतघ्नी साधु - वेषधारियोंके इस प्रकार झूठ बोलते ही पृथ्वी फट गयी और वे सब उसमें समा गये । इस दुर्घटनासे राजपुरुष लोग आश्चर्यचकित हो गये । वे सब के सब दौड़कर स्वामीजीके पास आये और जैसा हाल था , कह सुनाया । उसके सुनते ही श्रीजयदेवजी दुखी होकर हाथ - पैर मलने लगे । उसी क्षण उनके हाथ - पैर बड़े सुन्दर जैसे थे , वैसे ही फिर हो गये । राजपुरुषोंने दोनों आश्चर्यजनक घटनाओंको राजासे कह सुनाया । हाथ - पैर पूरे हो जानेकी घटना सुनकर राजा अति प्रसन्न हुआ । उसी समय वह दौड़कर स्वामीजीके समीप आया और चरणोंमें सिर रखकर पूछने लगा - प्रभो ! कृपा करके इन दोनों चरित्रोंका रहस्य खोलकर कहिये कि क्यों धरती फटी और उसमें सब साधु कैसे समाये ? आपके ये हाथ - पैर कैसे निकल आये ?
राजाने स्वामीजीसे जब अत्यन्त हठ किया । तब उन्होंने सब बात खोलकर कह दी , फिर बोले कि देखो राजन् ! यह सन्तोंकी बड़ी भारी महिमा है । सन्तोंके साथ कोई चाहे जैसी और चाहे जितनी बुराई करे तो भी वे उस बुराई करनेवालेका बुरा न सोचकर बदलेमें उसके साथ भलाई ही करते हैं । साधुताका त्याग न करनेपर सन्त , महापुरुष एवं भगवान् श्रीश्यामसुन्दर मिल जाते हैं । राजाने श्रीजयदेवजीका नाम तो सुना था , पर उसने कभी दर्शन नहीं किया था । आज जब उसने श्रीजयदेवजीके नाम - गाँवको जाना तो प्रसन्न होकर कहने लगा कि आप कृपाकर यहाँ विराजिये । आपके यहाँ विराजनेसे मेरे पूरे देशमें प्रेमभक्ति फैल गयी है ।
श्रीप्रियादासजीने इन घटनाओंका वर्णन इन कवित्तोंमें किया है -
पोथी की तो बात सब कही मैं सुहात हिये सुनो और बात जामें अति अधिकाइये । गाँठि में मुहर मग चलत में ठग मिले कहो कहाँ जात जहाँ तुम चलि जाइये ॥ जानि लई बात खोलि द्रव्य पकराय दियो , लियो चाहो जोई जोई सोइ मोकों ल्याइये । दुष्टनि समुझि कही कीनी इन विद्या अहो आवै जो नगर इन्हें बेगि पकराइये ॥ १५२ ॥ एक कहै डारो मार भलो है विचार यही एक कहै मारौ मत धन हाथ आयो है । पैले पिछान कहूँ , कीजिये निदान कहा ? हाथ पाँव काटि बड़े गाढ़ पधरायो है ॥ आयो तहाँ राजा एक देखिकै विवेक भयो छायो उजियारो औ प्रसन्न दरसायो है । बाहर निकासि मानो चन्द्रमा प्रकास राशि पूछ्यो इतिहास कह्यो ऐसो तनु पायो है ॥ १५३ ॥ बड़ेई प्रभाववान सबै को बखान अहो मेरे कोऊ भूरि भाग दरशन कीजिये । पालकी बिठाय लिये किये सब ठूठ नीके जीके भाये भये कछु आज्ञा मोहिं दीजियै ॥ करौ हरि साधु सेवा नाना पकवान मेवा आवैं जोई सन्त तिन्हें देखि देखि भीजियै । आये वेई ठग माला तिलक चिलक किये किलकि के कही बड़े बन्धु लखि लीजियै ॥ १५४ ॥ नृपति बुलाय कही हिये हरि भाय भरि ढरे तेरे भाग अब सेवा फल लीजिये । गयो लै महल माँझ टहल लगाये लोग लागे होन भोग जिय शंका तन छीजियै ॥ माँगें बार बार विदा राजा नहीं जान देत अति अकुलाये कही स्वामी धन दीजियै । दैकै बहु भाँति सो पठाये संग मानुष हूँ आवौ पहुँचाय तब तुम पर रीझियै ।। १५५ ।।
पूछें नृप नर कोऊ तुम्हरी न सरवर जिते आये साधु ऐसी सेवा नहीं भई है । स्वामीजू सौं नातौ कहा ? कहाँ हम खांइ हा हा राखियो दुराइ यह बात अति नई है ॥ हूते एक ठौर नृप चाकरीमें तहाँ इन कियोई बिगार ' मारि डारो ' आज्ञा दई है । राखे हम हितू जानि लै निदान हाथ - पाँव वाही के इसान अब हम भरि लई है ।। १५६ ॥ फाटि गई भूमि सब ठग वे समाइ गये भये ये चकित दौरि स्वामी जू पै आये हैं । कही जिती बात सुनि गात गात कांपि उठे हाथ - पांव मीझैँ भये ज्योंके त्यों सुहाये हैं । अचरज दोऊ नृप पास जा प्रकाश किये जिये एक सुनि आये वाही ठौर धाये हैं । पूछें बार - बार सीस पांयनि पै धारि रहे कहिये उघारि कैसे मेरे मन भाये हैं ॥ १५७ ॥ राजा अति आरि गही कही सब बात खोलि निपट अमोल यह सन्तन को वेस है । कैसो अपकार करै तऊ उपकार करै ढौं रीति आपनी ही सरस सुदेस है । साधुता न तजैं कभुं , जैसे दुष्ट दुष्टता न यही जानि लीजै मिले रसिक नरेस है । जान्यो जब नांव ठांव रहो इहा बलि जांव भयो मैं सनाथ प्रेम भक्ति भई देस है ॥ १५८ ॥
( घ ) जयदेवजीकी पत्नी पद्मावतीजीका पतिप्रेम श्रीजयदेवजीकी आज्ञासे राजा किन्दुबिल्व आश्रमसे उनकी पत्नी श्रीपद्मावतीजीको लिवा लाये । श्रीपद्मावतीजी रानीके निकट रनिवासमें रहने लगीं । एक दिन जब रानी पद्मावतीके निकट बैठी थीं । उसी समय किसीने आकर रानीको सूचित किया कि तुम्हारा भाई शरीर छोड़कर देवलोकवासी हुआ और तुम्हारी भावजोंमेंसे एक सती हो गयी । यह सुनकर रानीको अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि हमारी भाभी कितनी बड़ी सती साध्वी थीं । श्रीपद्मावतीजीको इससे कुछ भी आश्चर्य न हुआ । उन्होंने रानीको समझाया कि स्वर्गवासी होनेपर उनके मृत शरीरके साथ जल जाना उत्तम पातिव्रत - सूचक है , परंतु अनन्य प्रीतिकी यह रीति है कि प्रियतमके प्राण छूट जायँ तो अपने प्राण भी उसी समय शरीरको छोड़कर साथ चले जायें ।
पद्मावतीजीने रानीकी भाभीकी प्रशंसा नहीं की , इससे रानीने व्यंग्य करते हुए कहा कि आपने जैसी पतिव्रता बतायी - ऐसी तो केवल आप ही हो । समय पाकर सब बात रानीने राजासे कहकर फिर यों कहा आप स्वामीजी ( श्रीजयदेवजी ) को थोड़ी देरके लिये बागमें ले जाओ , तब मैं यह देखूँगी कि इनकी पतिमें कैसी प्रीति है । राजाने रानीका विचार सुनकर कहा कि यह उचित नहीं है । जब रानीने बड़ा हठ किया , तब राजाने उसकी बात मानकर वैसा ही किया , राजाके साथ जयदेवजीके बागमें चले जानेपर रानीकी सिखायी हुई एक दासीने आकर पद्मावतीजीको सुनाया कि आपके स्वामीजी भगवान्के धामको चले गये । यह सुनते ही रानी और समीप बैठी हुई स्त्रियाँ दुःख प्रकट करनेके ढोंगको रचकर धरतीपर लोटने और रोने लगीं । ध्यानद्वारा जानकर थोड़ी देर बाद भक्तवधू श्रीपद्मावतीजी बोलीं- अजी रानीजी ! मेरे स्वामीजी तो बहुत अच्छी तरहसे हैं , तुम अचानक ही इस प्रकार क्यों धोखेमें आकर डर रही हो ?
रानीकी मायाका श्रीपद्मावतीजीपर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ , भेद खुल गया , इससे रानीको बड़ी लज्जा हुई । जब कुछ दिन बीत गये फिर दूसरी रानीने उसी प्रकारकी तैयारी करके माया जाल रचा । श्रीपद्मावतीजी अपने मनमें समझ गयीं कि रानी परीक्षा लेना चाहती है तो परीक्षा दे ही देना चाहिये । इस बार जैसे ही किसी दासीने आकर कहा- अजी ! स्वामीजी तो प्रभुको प्राप्त हो गये । वैसे ही झट पतिप्रेमसे परिपूर्ण होकर श्रीपद्मावतीजीने अपना शरीर छोड़ दिया । इनके मृतक शरीरको देखकर रानीका मुख कान्तिहीन सफेद हो गया । राजा आये और उन्होंने जब यह सब जाना तो कहने लगे कि इस स्त्रीके चक्करमें आकर मेरी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गयी , अब इस पापका यही प्रायश्चित्त है कि मैं भी जल मरूँ । श्रीजयदेवजीको जब यह समाचार मिला तो वे दौड़कर वहाँपर आये और मरी हुई पद्मावतीको तथा मरनेके लिये तैयार राजाको देखा । राजाने कहा कि इनको मृत्यु मैंने दी है । जयदेवजीने कहा- तो अब तुम्हारे जलनेसे ये जीवित नहीं हो सकती हैं । अतः तुम मत जलो ।
राजाने कहा - महाराज ! अब तो मुझे जल ही जाना चाहिये ; क्योंकि मैंने आपके सभी उपदेशोंको धूलमें मिला दिया । श्रीजयदेवजीने राजाको अनेक प्रकारसे समझाया , परंतु उसके मनको कुछ भी शान्ति नहीं मिली , तब आपने गीतगोविन्दकी एक अष्टपदीका गान आरम्भ किया । संगीत - विधिसे अलाप करते ही पद्मावतीजी जीवित हो गयीं । इतनेपर भी राजा लज्जाके मारे मरा जा रहा था और आत्महत्या कर लेना चाहता था । वह बार - बार मनमें सोचता था कि ऐसे महापुरुषका संग पाकर भी मेरे मनमें भक्तिका लेशमात्र भी नहीं आया । श्रीजयदेवजीने समझा - बुझाकर राजाको शान्त किया और किन्दुबिल्व ग्रामको चले आये ।
श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है-
गये जा लिवाय ल्याय कविराज राजतिया किया लै मिलाप आप रानी ढिग आई हैं । मरयो एकभाई वाकी भई यों भौजाई सती कोऊ अंग काटि कोऊ कूदि परी धाई हैं । सुनत ही नृप बधू निपट अचम्भो भयो इनकें न भयो फिरि कही समुझाई हैं । प्रीति की न रीति यह बड़ी विपरीत अहो छुटै तन जबै प्रिया प्रान छूटि जाई हैं ॥ १५ ९ ॥ ' ऐसी एक आप ' कहि राजा सूं यूं बात कही लैके जाओ बाग स्वामी नेकु देखौँ प्रीतिकों । छुरी तिया हठ मानि करी वैसे ही प्रतीति करें ॥ निपट बिचारी बुरी देत मेरे आनि कहें आपु पाये कही यही भांति आय बैठी ढिग तिया देखि लोटि गई रीति करें । बोलीं भक्तबधू अजू वे तो हैं बहुत नीके तुम कहा औचक ही पावति हो भीति करें ॥ १६० ॥ भई लाज भारी पुनि फेरि कै सँवारी दिन बीति गये कोऊ जब तब वही कीनी है । जानि गई भक्त बधू चाहति परीछा लियो कही अजू पाये सुनि तजी देह भीनी है ॥ स्वेत रानी राजा आये जानी यह रची चिता जरौँ मति भई मेरी हीनी है । भयो मुख भई सुधि आपकौं सु आये बेगि दौरि इहाँ देखि मृत्युप्राय नृप कह्यो मेरी दीनी है ॥ १६१ ॥ बोल्यो नृप अजू मोहिं जरेई बनत अब सब उपदेश लैकै धूरिमें मिलायौ है । कह्यौ बहु भांति ऐपै आवति न शांति किहूँ गाई अष्टपदी सुर दियौ तन ज्यायौ है ॥ लाजनिको मार्यो राजा चहै अपघात कियौ जियो नहिं जाति भक्ति लेसहूं न आयौ है । करि समाधान निज ग्राम आये किंदुबिल्लु जैसो कछु सुन्यौ यह परचै लै गायौ है ॥ १६२ ॥ ( ङ )
श्रीजयदेवजीकी गंगाजीके प्रति निष्ठा
श्रीजयदेवजीका जहाँ आश्रम था , वहाँसे गंगाजीकी धारा अठारह कोस दूर थी । परंतु आप योगबलसे नित्य गंगा स्नान करते थे । जब आपका शरीर अत्यन्त वृद्ध हो गया , तब भी आप अपने गंगा स्नानके नित्य - नियमको कभी नहीं छोड़ते थे । इनके बड़े भारी प्रेमको देखकर इन्हें सुख देनेके लिये रातको स्वप्नमें श्रीगंगाजीने कहा- अब तुम स्नानार्थ इतनी दूर मत आया करो , केवल ध्यानमें ही स्नान कर लिया करो । धारामें जाकर स्नान करनेका हठ मत करो । श्रीजयदेवजीने इस आज्ञाको स्वीकार नहीं किया । तब फिर गंगाजीने स्वप्नमें कहा- तुम नहीं मानते हो तो मैं ही तुम्हारे आश्रमके निकट सरोवरमें आ जाऊँगी । तब आपने कहा- मैं कैसे विश्वास करूंगा कि आप आ गयी हैं ? गंगाजीने कहा- जब आश्रमके समीप जलाशय में कमल खिले देखना , तब विश्वास करना कि गंगाजी आ गयीं । ऐसा ही हुआ , खिले हुए कमलोंको देखकर श्रीजयदेवजीने वहीं स्नान करना आरम्भ कर दिया ।
श्रीप्रियादासजी महाराजने इस घटनाका अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है -
देवधुनी सोत हो अठारै कोस आश्रम तैं सदाई स्नान करें धरै जोगताई काँ भयो तन वृद्ध तऊँ छोड़ें नहीं नित्य नेम प्रेम देखि भारी निशि कही सुखदाई काँ ॥ आवौ जिनि ध्यान करौ , करौ मत हठ ऐसो मानी नहीं आऊँ मैं ही जानौं कैसे आई काँ । फूले देखौ कंज तब कीजियो प्रतीति मेरी भई वही भांति सेवैं अबलौं सुहाई कौं ॥ १६३ ॥ ( च )
जयदेव - दम्पतीपर कृष्णकृपा
एक दिन श्रीजयदेवजी ' गीत गोविन्द ' का एक गीत लिख रहे थे , परंतु वह पूरी ही नहीं हो पाती थी । पद्मावतीने कहा- ' देव स्नानका समय हो गया है , अब लिखना बन्द करके आप स्नान कर आयें तो ठीक हो । ' जयदेवजीने कहा – ' पद्मा ! जाता हूँ । क्या करूँ , मैंने एक गीत लिखा है ; परंतु उसका शेष चरण ठीक नहीं बैठता । तुम भी सुनो -
स्थलकमलगञ्जनं मम हृदयरञ्जनं भण मसृणवाणि करवाणि चरणद्वयं स्मरगरलखण्डनं मम शिरसि जनितरतिरङ्गपरभागम् । सरसलसदलक्तकरागम् ॥ मण्डनम् .........
इसके बाद क्या लिखूँ , कुछ निश्चय नहीं कर पाता ! ' पद्मावतीने कहा - ' इसमें घबरानेकी कौन - सी बात है । गंगास्नानसे लौटकर शेष चरण लिख लीजियेगा । ' ' अच्छा , यही सही । ग्रन्थको और कलम - दावातको उठाकर रख दो , मैं स्नान करके आता हूँ । ' जयदेवजी इतना कहकर स्नान करने चले गये । कुछ ही मिनटों बाद जयदेवका वेष धारणकर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण पधारे और बोले - ' पद्मा ! जरा ' गीत गोविन्द ' देना । ' पद्मावतीने विस्मित होकर पूछा , ' आप स्नान करने गये थे न ? बीचसे ही कैसे लौट आये ? ' महामायावी श्रीकृष्णने कहा- ' रास्तेमें ही अन्तिम चरण याद आ गया , इसीसे लौट आया । ' पद्मावतीने ग्रन्थ और कलम - दावात ला दिये । जयदेव - वेषधारी भगवान्ने
' देहि पदपल्लवमुदारम् '
लिखकर पादपूर्ति कर दी । तदनन्तर पद्मावतीसे जल मँगाकर स्नान किया और पूजादिसे निवृत्त होकर भगवान्के निवेदन किया हुआ पद्मावतीके हाथसे बना भोजन पाकर पलँगपर लेट गये । पद्मावती पत्तलमें बचा हुआ प्रसाद पाने लगीं । इतनेमें ही स्नान करके जयदेवजी लौट आये । पतिको इस प्रकार आते देखकर पद्मावती सहम गयी और जयदेव भी पत्नीको भोजन करते देखकर विस्मित हो गये । जयदेवजीने कहा- ' यह क्या ? पद्मा , आज तुम श्रीमाधवको भोग लगाकर मुझको भोजन कराये बिना ही कैसे जीम रही हो ? तुम्हारा ऐसा आचरण तो मैंने कभी नहीं देखा । '
पद्मावतीने कहा - ' आप यह क्या कह रहे हैं ? आप गीतका शेष चरण लिखनेके लिये रास्तेसे ही लौट आये थे , पादकी पूर्ति करनेके बाद आप अभी - अभी तो स्नान - पूजन - भोजन करके लेटे थे । इतनी देर में मैं आपको नहाये हुए - से आते कैसे देख रही हूँ । ' जयदेवजीने जाकर देखा , पलँगपर कोई नहीं लेट रहा है । वे समझ गये कि आज अवश्य ही यह भक्तवत्सलकी कृपा हुई है । फिर कहा - ' अच्छा , पद्मा ! लाओ तो देखें , गीतकी पूर्ति कैसे हुई है ? '
पद्मावती ग्रन्थ ले आयी । जयदेवजीने देखकर मन - ही - मन कहा- ' यही तो मेरे मनमें था , पर मैं संकोचवश लिख नहीं रहा था । फिर वे दोनों हाथ उठाकर रोते - रोते पुकारकर कहने लगे - ' हे कृष्ण । हे नन्दनन्दन । हे राधावल्लभ हे व्रजांगनाधव हे गोकुलरत्न ! हे करुणासिन्धु हे गोपाल ! हे प्राणप्रिय आज किस अपराधसे इस किंकरको त्यागकर आपने केवल पद्माका मनोरथ पूर्ण किया । ' इतना कहकर जयदेवजी पद्मावतीकी पत्तलसे श्रीहरिका प्रसाद उठाकर खाने लगे । पद्मावतीने कितनी ही बार रोककर कहा - ' नाथ ! आप मेरा उच्छिष्ट क्यों खा रहे हैं ? ' परंतु प्रभु प्रसादके लोभी भक्त जयदेवने उसकी एक भी नहीं सुनी ।
इस घटनाके बाद उन्होंने ' गीत गोविन्द ' को शीघ्र ही समाप्त कर दिया । तदनन्तर वे उसीको गाते मस्त हुए घूमा करते । वे गाते - गाते जहाँ कहीं जाते , वहीं भक्तका कोमलकान्त गीत सुननेके लिये श्रीनन्दनन्दन छिपे हुए उनके पीछे - पीछे रहते । धन्य प्रभु ।
अन्तकालमें श्रीजयदेवजी अपनी पतिपरायणा पत्नी पद्मावती और भक्त पराशर , निरंजन आदिको साथ लेकर वृन्दावन चले गये और वहाँ भगवान् श्रीकृष्णकी मधुर लीला देख - देखकर आनन्द लूटते रहे । कहते हैं कि वृन्दावनमें ही दम्पती देह त्यागकर नित्यनिकेतन गोलोक पधार गये ।
किसी - किसीका कहना है कि जयदेवजीने अपने ग्राममें शरीर छोड़ा था और उनके घरके पास ही उनका समाधिमन्दिर बनाया गया । उनके स्मरणार्थ प्रतिवर्ष माघकी संक्रान्तिपर केन्दुबिल्व गाँवमें अब भी मेला लगता है , जिसमें प्रायः लाखसे अधिक नर - नारी एकत्र होते हैं ।
मित्र
मै आपको यहा तक पढने के लिए किस प्रकार आभार प्रकट करूं ?
समझ मे नही आता है ,फिर भी अल्पज्ञ ता के कारण त्रुटिपूर्ण है ।क्षमा करें । इन चरित्र के बारे मे मेरे जैसा मूढ क्या लिख सकता है?
फिर भी मेरा मन कह रहा है कि इस धोर कलिकाल मे यह चरित्र मनुष्य मात्र को संसार सागर से तारने मे समर्थ है। लाखों-लाख शंका का समाधान इस चरित मे सन्निहित है ।
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हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma
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