Sridhar swami श्री श्रीधर स्वामी गर्व से कहो हम हिंदु है

0

                श्री धरस्वामी जी महाराज 



तीनि कांड एकत्व सानि कोउ  अग्य बखानत । कर्मठ ग्यानी ऐंचि अर्थ कौ अनरथ बानत ॥ परमहंस संहिता बिदित टीका बिसतारयो । षट सास्त्रनि अबिरुद्ध बेद संमतहि बिचारयो । परमानंद तें माधौ सुकर सुधार दियो । श्रीधर श्रीभागवत में परम धरम निरनय कियो ॥

 श्रीश्रीधरस्वामी ने श्रीमद्भागवत में परम धर्म का निर्णय किया । श्रीभागवत धर्म के रहस्यों को ठीक प्रकारसे न जानने के कारण कुछ विद्वानों ने तीनो ( कर्म , ज्ञान , उपासना ) काण्डोंको एकमें मिश्रित करके श्रीमद्भागवतकी व्याख्या की कर्मकाण्डी और शुष्क ज्ञानी लोग खींचातानी एवं कठिन कल्पनाएँ करके अर्थका विपरीत अर्थ ( अर्थ ) करते थे जिज्ञासु भक्तगण शंकित हो जाते थे , वास्तविक तात्पर्य , ओझल हो जाता था ऐसी स्थिति में विश्वविख्यात ' परमहंससंहिता ' की विद्वानोंमें प्रसिद्ध टीका ' भावार्थ- दीपिका ' की रचना स्वामी श्रीधराचार्यजीने की  उसमें षट्शास्त्र एवं षड् - दर्शनोंके सर्वथा अनुकूल तथा वेदोपनिषद् - सम्मत सिद्धान्तका समर्थन किया । श्रीधरस्वामीके गुरुदेव श्रीपरमानन्द सरस्वतीपादजी को कृपा से भगवान् विन्दुमाधवने श्रीधरकृत टीकाको अपने हस्तकमल से सुधार दिया , हस्ताक्षरित करके सर्वोत्तम सिद्ध किया यहाँ-


 श्रीश्रीधरस्वामीजीके विषय में संक्षेपमें कुछ विवरण प्रस्तुत है-

वागोशा यस्य बढ़ने लक्ष्मीर्यस्य च वक्षस्थल । यस्यास्ते हृदये संवित तं नृसिंहमहं भजे ॥ -

श्रीधरस्वामी प्रामाणिक सामग्री तो कोई है नहीं , जो किंवदन्तियाँ हैं । उन्होंके आधारपर कुछ कहना है । महापुरुषों के जीवनके सत्यको ऐसी किंवदन्तियाँ ही कुछ प्रकट कर पाती हैं । ईसाकी दसवीं या ग्यारहवीं सदीकी बात होगी । दक्षिण भारत के किसी नगरमें वहाँके राजा और मन्त्रीमें मार्ग चलते समय भगवान्‌की कृपा तथा प्रभावके सम्बन्ध में बात हो रही थी । मन्त्री कह रहे थे — ' भगवान्‌को उपासनासे उनकी कृपा प्राप्त करके अयोग्य भी योग्य हो जाता है , कुपात्र भी सत्पात्र हो जाता है , मूर्ख भी विद्वान् हो जाता है । ' संयोगकी बात या दयामय भगवान्की इच्छा - राजाने देखा कि एक बालक फूटे पात्रमें तेल लिये जा रहा है । राजाने मन्त्रीसे पूछा - क्या यह बालक भी बुद्धिमान् हो सकता है ? ' मन्त्रीने बड़े विश्वासके साथ कहा – ' भगवान्की कृपासे अवश्य हो सकता है । ' बालक बुलाया गया । पता लगा कि वह ब्राह्मणका बालक है । उसके माता पिता उसे बचपन में ही छोड़कर परलोक चले गये थे । परीक्षाके लिये नृसिंहमन्त्रकी दीक्षा दिलाकर उसे आराधनामें लगा दिया गया । बालक भी सब प्रकारसे भगवान्के भजनमें लग गया । उस अनाथ बालकको देखकर अनाथोंकि वे एकमात्र नाथ प्रकट हो गये । नृसिंहरूपमें दर्शन देकर भगवान्ने बालकको वरदान दिया - ' तुम्हें वेद , वेदांग , दर्शनशास्त्र आदिका सम्पूर्ण ज्ञान होगा और मेरी भक्ति तुम्हारे हृदयमें निवास करेगी । बालक और कोई नहीं वे हमारे चरित्रनायक श्रीधर स्वामी ही थे । 

अब इस बालककी विद्वत्ताका क्या पूछना ! भगवान्की दी हुई विद्याकी लोकमें भला कौन बराबरी कर सकता था । बड़े - बड़े विद्वान् इनका सम्मान करने लगे । राजा इन्हें आदर देने लगे । धनका अभाव नहीं रहा । विवाह हुआ और पत्नी आयी । परंतु भगवान्के भक्त विषयोंमें उलझा नहीं करते और न दयामय भगवान् ही भक्तोंको संसारके विषयों में आसक्त रहने देते हैं । गृहस्थ होकर भी इनका चित्त घरमें लगता नहीं था । सब कुछ छोड़कर केवल प्रभुका भजन किया जाय , इसके लिये इनके प्राण तड़पते रहते थे । इनकी स्त्री गर्भवती हुई , प्रथम सन्तानको जन्म देकर वह परलोक चली गयी । स्त्रीको मृत्युसे इन्हें दुःख नहीं हुआ । इन्होंने इसे प्रभुकी कृपा ही माना । परंतु अब नवजात बालकके पालन - पोषणमें ही व्यस्त रहना इन्हें अखरने लगा । ये विचार करने लगे- ' मैं मोहवश ही अपनेको इस बच्चेका पालन - पोषण करनेवाला मानता हूँ । जीव अपने कर्मोंसे ही जन्म लेता है और अपने कर्मोंका ही फल भोगता है । विश्वम्भर भगवान् ही सबका पालन तथा रक्षण करते हैं । ये शिशुको भगवान्‌की दयापर छोड़कर भजनका निश्चय करके घर छोड़नेको उद्यत हुए , पर बच्चेके मोहने एक बार रोका । लीलामय प्रभुकी लीलासे इनके सामने घरकी छतसे एक पक्षीका अण्डा भूमिपर गिर पड़ा और फूट गया । अण्डा पक चुका था । उससे लाल - लाल बच्चा निकलकर अपना मुख हिलाने लगा । इनको ऐसा लगा कि इस बच्चेको भूख लगी है ; यदि अभी कुछ न मिला तो यह मर जायगा । उसी समय एक छोटा कीड़ा उड़कर फूटे अण्डेके रसपर आ बैठा और उसमें चिपक गया । पक्षीके बच्चेने उसे खा लिया । भगवान्की यह लीला देखकर श्रीधर स्वामीके हृदयमें बल आ गया । ये वहाँसे काशी चले आये । विश्वनाथपुरीमें आकर ये भगवान्के भजनमें तल्लीन हो गये । 

श्री श्रीधर स्वामीजी श्रीबिन्दुमाधवजीके बड़े ही भक्त थे । काशीवास करते समय एक विद्यार्थी आपकी सेवामें रहा करता था , संयोगसे उसका भी नाम माधव ही था । एक बारकी बात है , आप बीमार पड़ गये , उस समय माधव आपकी सेवामें था । उसी बीच माधवके पिताजी भी बीमार पड़ गये और उसके घरसे बुलानेके लिये आदमी आ गया । परदुःखकातर श्रीस्वामीजीने स्वयं अस्वस्थ रहते हुए भी माधवको उसके पिताकी सेवामें आग्रहपूर्वक भेज दिया । माधव गुरुकी आज्ञा मानकर चला गया , इधर स्वामीजी ज्वरकी अधिकतासे अचेतावस्था में हो गये और माधव ! माधव ! कहकर उसे बुलाने लगे । भक्तवत्सल भगवान् अपने भक्तकी पुकार सुनकर इस स्थितिमें भला कैसे अनसुनी कर सकते थे । भगवान् श्रीबिन्दुमाधवने विद्यार्थी माधवका रूप बनाया और आ गये सेवा करने । अब विद्यार्थी बने भगवान् बिन्दुमाधव श्रीधर स्वामीकी परिचर्या करते , उनके लिये भोजन बनाते तथा गुरुकी समस्त आज्ञाओंका पालन करते । इस प्रकार कई दिन बीत गये । श्रीस्वामीजी स्वस्थ हो गये थे , उधर विद्यार्थी माधवके पिता भी स्वस्थ हो गये थे , अतः वह गुरुजीके पास लौट आया । उसे आया देख भगवान् अन्तर्धान हो गये । आनेपर माधवने देखा कि चूल्हा जल रहा है और उसपर खिचड़ी बन रही है , पर कोई बनानेवाला न दिखायी दिया । श्रीस्वामीजी विश्राम कर रहे थे । बालक माधवने गुरुजीको अपने पिताके स्वस्थ हो जानेकी सूचना दी और पूछा- गुरुदेव ! मेरी अनुपस्थितिमें आश्रमकी व्यवस्था कौन कर रहा था ? आपकी सेवामें कौन था ? और यह खिचड़ी कौन पका रहा है ? श्रीस्वामीजी उसके प्रश्नोंको सुनकर आश्चर्यचकित हो गये और बोले- बेटा माधव ! तू ही तो मेरे पास था , तू ही तो आश्रमकी व्यवस्था भी कर रहा था और तूने ही मेरी सेवा भी की और अभी - अभी तूने ही तो चूल्हा जलाकर खिचड़ी चढ़ायी है , फिर मुझसे ऐसे प्रश्न क्यों कर रहा है ? 


माधवने कहा- गुरुजी ! मैं तो आपकी आज्ञासे ही अपने अस्वस्थ पिताकी सेवामें गाँव गया था , फिर मैंने कैसे आपकी सेवा की ? अब श्रीश्रीधर स्वामीजीके समक्ष सारी बात स्पष्ट हो गयी कि मेरे ' माधव माधव ' पुकारनेपर आकर मेरी सेवा करनेवाले स्वयं भक्तवत्सल भगवान् बिन्दुमाधवजी ही थे ।

 कुछ कालतक काशीवास करनेके बाद आप श्रीधाम श्रीवृन्दावन चले आये । इधर संन्यासकी बात सुनकर आपके संगके बहुत से पण्डित विद्वान् , विद्यार्थी तथा आपके गाँवके लोग आपसे मिलने आये । बातचीत करते - करते दोपहरका समय हो गया । श्रीस्वामीजी इतने सारे लोगोंके भोजनकी चिन्ता करते हुए मध्याहनकालिक स्नानके लिये श्रीयमुनाजीकी ओर चले । इधर श्रीभगवान् श्यामसुन्दर अपने धाममें अपने भक्तको चिन्तित देख ग्वाल बालकका रूप धारणकर तथा बहुतसे ग्वाल बालोंको संग लेकर श्रीस्वामीजीकी कुटियापर पधारे । प्रत्येकके सिरपर एक - एक गठरी थी और सबमें विभिन्न प्रकारकी खाद्य सामग्री थी । आते ही उन्होंने लोगोंसे पूछा- श्रीस्वामीजी कहा हैं ? लोगोंके यह बतानेपर कि श्रीयमुनाजी स्नान करने गये हैं , उन्होंने कहा कि आयें तो हमारा दण्डवत् कह देना और कहियेगा कि सारा सामान साधु - ब्राह्मणोंकी सेवाके लिये आया है , खूब सेवा करें । चिन्ता ही करना था तो घर क्यों छोड़ा ?

 श्रीस्वामीजीके आनेपर लोगोंने सारी बात बतायी और सीधा - सामग्री दिखायी । श्रीस्वामीजी समझ गये कि ग्वालके रूपमें आनेवाले और कोई नहीं , बल्कि भक्तोंका योग - क्षेम वहन करनेवाले उनके श्यामसुन्दर ही थे । 

गीता , भागवत , विष्णुपुराणपर श्रीधर स्वामीकी टीकाएँ मिलती हैं । इनकी टीकाओंमें भक्ति तथा प्रेमका अखण्ड प्रवाह है । एकमात्र श्रीधर स्वामी ही ऐसे हैं कि जिनकी टीकाका सभी सम्प्रदाय के लोग आदर करते हैं । कुछ लोगोंने इनकी भागवतकी टीकापर आपत्ति की , उस समय इन्होंने वेणीमाधवजीके मन्दिरमें भगवान्के पास ग्रन्थ रख दिया । कहते हैं कि स्वयं भगवान्ने अनेक साधु - महात्माओंके सम्मुख वह ग्रन्थ उठाकर हृदयसे लगा लिया । भगवान् के ऐसे लाड़ले भक्त ही पृथ्वीको पवित्र करते हैं ।

इस घटनाका वर्णन भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने अपने एक कवित्तमें इस प्रकार किया-

 पंडित समाज बड़े बड़े भक्तराज जिते भागवत टीका करि आपसमें रीझिये । भयो जू विचार काशीपुरी अविनाशी मांझ सभा अनुसार जोई सोई लिखि दीजिये ॥ ताको तो प्रमान भगवान बिन्दुमाधौजी हैं साधौ यही बात धरि मन्दिर में लीजिये । धरे सब जाय प्रभु सुकर बनाय दियो कियो सर्व ऊपर लै चल्यो मति धीजिये ॥

मित्र

हिंदु धर्म मे इन हजार वर्ष के अंदर कितने महान संत हुए है ।इनकी गिनती तो असंभव ही है ।इनकी लीला भी एक दुसरे से सर्वथा भिन्न है । सबने अपने ढंग से लीलाएं की है । और इसी अवधि मे यवन आया ,ईसाई आया  ।जिनका इतिहास तो मिल जाता है ।लेकिन इन महापुरूषों का इतिहास गुमनाम हो रहा है । इन आततायी के बीच मे भी ये महापुरुष मौज मस्ती करते रहे ।इनका बाल भी बांका नही कर सका । वास्तव मे ,आज जो भी हिंदु बचे है ।वो तो इनकी ही  कृपा है । आज तो अपने ही धर्मावलम्बियों को भी नही बकसते है ।

तात्पर्य यह है कि इन महापुरूष के चरित्र ही संसार सागर से पार करने वाला सर्वोत्तम नौका है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

Please Select Embedded Mode To show the Comment System.*

pub-8514171401735406
To Top