Namdev ji Maharaj श्री नामदेव जी गर्व से कहो हम हिंदु है ।

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    श्रीनामदेव जी महाराज 



 बालदसा बीठल्ल पानि जाके पय पीयौ । मृतक गऊ जीवाय परचौ असुरन कौं दीयौ ॥ सेज सलिल तें काढ़ि पहिल जैसी ही होती । देवल उलट्यो देखि सकुचि रहे सबही सोती ॥ पँडुरनाथ कृत अनुग ज्यों छानि स्वकर छइ घास की । नाम देव प्रतिग्या निर्बही ( ज्यों ) त्रेता नरहरिदास की ॥ 

जल - थल और अग्नि आदिमें सर्वत्र अपने इष्टका ही दर्शन करूंगा- यह प्रतिज्ञा श्रीनामदेवजीकी उसी प्रकार निभी , जैसे कि त्रेतायुगमें नरसिंहभगवान्‌के दास श्रीप्रह्लादजीकी निभी थी । बचपनमें ही उनके हाथसे विट्ठलनाथभगवान्ने दूध पिया एक मरी हुई गायको आपने जीवित करके असुर यवनोंको अपने भजनबलका परिचय दिया । फिर उस यवन राजाके द्वारा दी गयी शय्याको नदीके अथाह जलमें डाल दिया । उसके आग्रहपर उसी तरहकी अनेक शय्याएँ निकालकर दिखा दीं । पण्ढरपुरमें पण्ढरीनाथभगवान्के मन्दिरका द्वार उलटकर आपकी ओर हो गया , इस चमत्कारको देखकर मन्दिरके पुजारी सभी श्रोत्रिय ब्राह्मणलोग संकुचित और लज्जित हो गये । प्रेमके प्रभावसे पण्डरनाथभगवान् आपके पीछे - पीछे चलनेवाले सेवककी तरह कार्य करते थे । आगसे जल जानेपर अपने हाथोंसे भगवान्ने आपका छप्पर छाया ॥ 

  नामदेवजीके जन्मकी दिव्य घटना 

नामदेवजीके प्रादुर्भावकी घटनाका श्रीप्रियादासजी निम्न प्रकारसे वर्णन करते हैं -

छीपा वामदेव हरिदेव जू को भक्त बड़ो ताकी एक बेटी पतिहीन भई जानिये । द्वादश वरष मांझ भयो तब कही पिता सेवा सावधान मन नीके करि आनिये ॥ तेरे जे मनोरथ हैं पूरन करन एई जो पै दत्तचित्त है कै मेरी बात मानिये । करत टहल प्रभु बेगि ही प्रसन्न भये कीनी काम वासना सु पेखि उनमानिये ॥  विधवा को गर्भ ताकी बात चली ठौर ठौर दुष्ट शिरमौरनि की भई मन भाइयै । चलत चलत वामदेव जू के कान परी करी निरधार प्रभू आप अपनाइयै ॥ जू प्रगट बाल नाम नामदेव धर्यो कर्यो मन भायो सब सम्पति लुटाइयै । दिन दिन बढ्यो कछू और रंग चढ्यो भक्तिभाव अंग मढ्यो कठ्यो रूप सुखदाइयै ॥

 ( ख ) श्रीनामदेवजीके बचपनके भक्तिमय चरित

 श्रीनामदेवजी बचपन में खिलौनोंसे खेलते थे , आप खेलमें ही भगवान्‌की सेवा - पूजा करते थे , वे किसी काष्ठ या पाषाणकी मूर्ति बना लेते और फिर उसे बड़े प्रेमसे वस्त्र पहनाते , भोग लगाते , घण्टा बजाते तथा नेत्र बन्द करके मनमें अच्छी तरह भगवान्‌का ध्यान करते । वे जैसे - जैसे इन कार्योंको करते थे , वैसे - वैसे वे अत्यन्त सुख पाते थे । प्रेमवश उनके नेत्रोंमें जल भर जाता । नामदेवजी अपने नाना वामदेवजीसे बार बार कहते कि भगवान्‌की सेवा मुझे दे दीजिये । सेवा मुझे बहुत प्यारी लगती है । इस प्रकार नामदेवजीने बार - बार कहा । कुछ समय बाद वामदेवजीने नामदेवसे कहा कि मैं एक गाँवको जाऊँगा और तीन दिनमें लौट आऊँगा , तबतक तुम भगवान्‌की सेवा करना और भगवान्‌को दूध पिलाना , स्वयं मत पी जाना । यदि अच्छी प्रकारसे तीन दिन सेवा करोगे तो तुम्हें ही सेवा सौंप दी जायगी । 

श्रीनामदेवजीके हृदयमें सेवा प्राप्त करनेकी लालसा बढ़ी , वे नानाजीसे बार - बार पूछते कि अभी आप गये नहीं ? एक दिन नानाजीके बाहर गाँव जानेका समय आ गया , वे चले गये । नामदेवजीने अच्छी तरह देखभालकर कड़ाहीमें दो सेर दूध डाला और मनमें निश्चय किया कि दूधको औटाकर अति उत्तम बनाऊँ , जिससे प्रसन्न होकर प्रभु पी लें । श्रीनामदेवजीके हृदयमें प्रेमकी बड़ी भारी उमंग थी , उन्हें चिन्ता भी थी कि सेवामें कोई त्रुटि न हो जाय ।

 बालक नामदेवजी दूध औटाकर उसे एक सुन्दर कटोरेमें भरकर भगवान्‌के समीप ले आये । दूधमें इलायची और मिश्री मिलायी । दूध पिलानेकी आशासे परदा कर दिया । कुछ देर प्रेमकी लम्बी श्वासें भरते रहे फिर परदा हटाकर देखा तो दूधभरा कटोरा ज्यों - का - त्यों रखा था । इससे इनके मनमें बड़ी निराशा हुई और भगवान् से प्रार्थना करने लगे कि प्रभो ! आप दूध पीकर तृप्त हो जायें । 

श्रीनामदेवजी भगवान्‌को दूध - भोग लगाते और यह देखते कि भगवान्ने दूध नहीं पिया है , इस प्रकार दो दिन बीत गये । स्वयं भी उन्होंने अन्न - जल आदि कुछ भी ग्रहण नहीं किया और इस बातको अपने मनमें ही छिपाकर रखा । माताजीको भी नहीं बताया और भूखे - प्यासे ही रातको सो गये , पर चिन्ताके कारण निद्रा नहीं आयी । तीसरे दिनका सबेरा हुआ , फिर उसी प्रकार सावधानीसे दूधको औटाया इलायची , मिश्री मिलायी और आज प्रभु अवश्य ही दूध पी लेंगे — इस भावसे मनको मजबूत करके भगवान्‌के सामने दूध रखा और कहा - प्रभो ! ( नानाजी दूध पिलानेको कह गये थे ) आप दूधको पीजिये , तभी मैं प्रसन्न होऊँगा । इतनेपर भी जब भगवान्ने दूध नहीं पिया , तब श्रीनामदेवजी बोले- मैं बारम्बार आपसे दूधकी विनती करता है , परंतु आप दूध नहीं पीते हैं । कल प्रातःकाल नानाजी आ जायेंगे और वे हमपर रुष्ट होंगे , फिर कभी सेवा मुझे नहीं देंगे । इसलिये ऐसे जीनेसे तो मरना ही अच्छा है । ऐसा कहकर छुरी निकाली और भगवान्को दिखाकर अपना गला काटने के लिये गलेपर छुरी चलाना ही चाहते थे कि भगवान्ने हाथ पकड़ लिया और कहा कि अरे ! ऐसा मत करो , मैं अभी दूध पीता हूँ । यह कहकर भगवान् दूध पीने लगे । श्रीनामदेवजीने देखा कि ये तो सब दूध पी जायेंगे , तब बोले कि थोड़ा - सा प्रसाद मेरे लिये भी रहने दीजियेगा , क्योंकि नानाजीके भोग लगानेपर सदा दूध - प्रसाद पीता था । 

चौथे दिन वामदेवजी गाँवसे लौटकर आये और नामदेवजीसे ' अच्छी प्रकार सेवा की या नहीं ' यह पूछा तो इन्होंने भरकर दुग्धपानलीलाका सारा वर्णन किया । यह सुनकर वामदेवजीने कहा कि मेरे सामने फिर पिलाओं , तब हम जाने । तब श्रीनामदेवजीने उसी प्रकार दूध तैयार करके भगवान् के सामने रखा , पर भगवान्ने नहीं पिया , तब अड़ गये उसी प्रकार छुरी निकालकर गला काटनेको तैयार हो गये कि कल पीकर आज नानाजीके सामने मुझे झूठा बनाना चाहते हो । आपको दूध ह पीना ही पड़ेगा । बालकके प्रेमहठसे प्रसन्न होकर भगवान्ने वामदेवजीके देखते - देखते दूध पिया और प्रसाद नामदेवको पिलाया । वामदेवजीने सोचा कि मैंने जीवनभर सेवा की , पर दर्शन नहीं हुए आज बालकके प्रभावसे दर्शन हुए । इस प्रसंगके द्वारा भगवान्ने यह दिखला दिया कि मैं भक्तके वशमें होकर उसके प्रेमके कारण अर्पित भोगको ग्रहण करता हूँ । 

श्रीप्रियादासजीने नामदेवजीके इस प्रेमभावका वर्णन निम्न कवितोंमें किया है खेलत खिलौना प्रीति रीति सब सेवा ही की पट पहिरावैं पुनि भोगको लगावहीं । घंटा लै बजावैं नीके ध्यान मन लावैं त्यों - त्यों अति सुख पायें नैन नीर भरि आवहीं ॥ बार - बार कह नामदेव वामदेव जूसों देवो मोहिं सेवा मांझ अति ही सुहावहीं । जाऊँ एक गाँव फिरि आऊँ दिन तीन मध्य दूधको पिवावौ मत पीवो मोहि भावहीं ॥  कौन वह बेर जेहिं बेर दिन फेर होय फेर फेर कहें वह बेर नहीं आइये । आई वह बेर लै कराहीं मांझ हेरि दूध डार्यो युग सेर मन नीके कै बनाइये । चोपनिके ढेर लागि निपट औसेर दृग आयो नीर घेरि जिनि गिरें घूंटि जाइये । माता कहै टेरि करी बड़ी तैं अबेर अब करो मति झेरि अजू चित दै औटाइये ।। चल्यो प्रभु पास लै कटोरा छबिरास तामें दूध सो सुबास मध्य मिसरी मिलाइयै । हिये में हुलास निज अज्ञताको त्रास ऐपै करैं जो पै दास मोहि महासुख दाइये ॥ देख्यो मृदुहास कोटि चांदनी को भास कियो भावको प्रकास मति अति सरसाइयै । प्याइबेकी आस करि ओट कछु भर्यो स्वास देखिकै निरास को पीवो जू अघाइयै ।। ऐसे दिन बीते दोय राखी हिये बात गोय रह्यो निशि सोय ऐपै नींद नहीं आवहीं ।  भयो जू सबेरो फिरि वैसे ही सुधार लियौ हियौ कियौ गाढ़ौ जाय धर्यो पियो भावहीं ॥ बार बार पीवो कहूं अब तुम पीवो नाहिं आवैं भोर नाना गरे पूरी दै दिखावहीं । गहि लीनो कर जिनि करें ऐसो पीवौँ मैं तो पीवे कों लगेई नेकु राखो सदा पावहीं ॥  आये वामदेव पाछै पूछें नामदेव जू सों दूधको प्रसंग अति रंग भरि भाखियै । मोसौं न पिछानि दिनदोय हानि भई तब मानि डर प्रान तज्यो चाहाँ अभिलाधियै ॥ पीयौ सुख दीयो जब नेकु राखि लीयो मैं तो जीयो सुनि बातें कही प्यायो कौन साखियै । धर्यो पै न पीयें अर्यो प्यायौ सुख पायौ नाना यामें लै दिखायौ भक्तबस रस चाखियै ।। 

  ग ) श्रीनामदेवजीकी भगवद्भक्ति और गोभक्ति 

एक बार मुसलमानोंके राजा सिकन्दर लोदीने श्रीनामदेवजीको बुलवाकर कहा कि आप साहब से मिले हैं , उनका दर्शन करते रहते हैं- ऐसा मैंने सुना है तो हमें भी साहबसे मिला दीजिये और कुछ विचित्र चमत्कार दिखलाइये । श्रीनामदेवजीने कहा कि यदि हममें कोई शक्ति या चमत्कार होता तो फिर खानेके लिये दिनभर धंधा ही क्यों करते ? किसी प्रकार दिनभर धंधा ( सिलाई - छपाई ) करनेसे जो भी कुछ मिल जाता है , उसे सन्तोंके साथ बाँटकर खाता हूँ । उन्हीं संतोंकी सेवाके प्रतापसे लोग मुझे भक्त कहते हैं और दूर - दूरतक मेरा नाम फैल गया है , तभी आपने भी हमें यहाँ अपने दरबारमें बुलाया है । यह सुनकर बादशाहने कहा- आप इस मरी हुई गायको जीवित कर दीजिये और अपने घरको जाइये , नहीं तो कारागारमें रहना पड़ेगा ; क्योंकि तुम झूठे भगत बनकर लोगोंको ठगते हो । तब आपने सहज स्वभावसे एक प्रार्थनाका पद * गाकर गायको जीवित कर दिया और प्रभुकृपाका अनुभव  करके सुखी हुए । यह देखकर बादशाह अति प्रसन्न हुआ और श्रीनामदेवजीके चरणों में पड़ गया ।

 यह विचित्र चमत्कार देखकर बादशाहने श्रीनामदेवजीसे कहा कि आप कृपा करके कोई देश या गाँव ले लीजिये , जिससे मेरा भी कुछ नाम हो जाय । आपने उत्तर दिया कि हमें कुछ भी नहीं चाहिये । फिर बादशाहने एक मणिजटित शय्या आपको दी । श्रीनामदेवजी उसे अपने सिरपर रखकर चलने लगे । तब उसने कहा कि दस बीस आदमी मैं आपके साथ भेजता हूँ , वे इस पलंगको ले जायेंगे और आपके निवासस्थानतक पहुँचा देंगे । आपने बिलकुल मना कर दिया और कहा कि यह भगवान्के शयनका पलंग है , मैं उनका सेवक हूँ , अतः मुझे ही अपने सिरपर रखकर ले जाना चाहिये । फिर भी बादशाहने कुछ रक्षक भेजे । आगे आपने विचारा कि यह मूल्यवान् वस्तु है , इससे अनेक संकट आ सकते हैं । भजनमें बाधा हो सकती है । इस कारण मार्गमें श्रीयमुना नदीके अथाह जलमें उस पलंगको डाल दिया । राजाको इसकी सूचना मिली तो वह चौंककर आश्चर्यमें पड़ गया । सिपाहियोंसे कहा- उन्हें शीघ्र बुलाकर लाओ । श्रीनामदेवजी फिर आये और बोले कि अब क्यों बुलाया ? तब बादशाहने कहा कि जो पलंग मैंने आपको दे दिया है , जरा उसे यहाँ लाकर कारीगरोंको दिखा दीजिये । उसी प्रकारका नया दूसरा बनवाना है । श्रीनामदेवजी बादशाहको लेकर नदीपर आये और जलमें प्रवेश करके अनेक पलंग वैसे और उससे भी मूल्यवान् निकाल - निकालकर डाल दिये और बादशाहसे बोले आप अपना पलंग पहचान लो । यह देखकर उसकी सुधि बुधि जाती रही ।

 इस वृत्तान्तका वर्णन प्रियादासजी इन कवित्तोंमें इस प्रकार करते हैं

 नृप सो मलेच्छ बोलि कही मिले साहिब को दीजिये मिलाय करामात दिखराइयै । होय करामात तो पै काहे को कसब करें ? भरें दिन एपें बांटि सन्तन सों खाइयै ॥ ताहीके प्रताप आप इहां लौं बुलायो हमें दीजिये जिवाय गाय घर चलि जाइयै । दई लै जिवाय गाय सहज सुभाय ही में अति सुख पाय पांय पर्यो मन भाइयै ॥  लेवो देश गांव जाते मेरो कछु नांव होय चाहिये न कछु दई सेज मनि मई है । धरि लई सीस देऊँ संग दस बीस नर नाहीं करि आये जल मांझ डारि दई है ॥ भूप सुनि चौकि पर्यो ल्यावो फेरि आये कहाँ कही नेकु आनिके दिखावो कीजै नई है । जलतें निकासि बहुभांति गहि डारी तट लीजिये पिछानि देखि सुधि बुधि गई है ॥ 

 ( घ ) नामदेवजीकी भक्तिका माहात्म्य 

श्रीनामदेवजीकी करामात देखकर बादशाह भयवश उनके चरणोंमें आ गिरा और प्रार्थना करने लगा कि मुझे ईश्वरके दण्डसे बचा लीजिये । श्रीनामदेवजीने कहा- यदि क्षमा चाहते हो तो एक बात करो कि पुनः इस प्रकार कभी किसी साधुको दुःख मत देना । इसे बादशाहने स्वीकार कर लिया । फिर उन्होंने कहा कि फिर अब कभी मुझे मत बुलाना । ऐसा कहकर श्रीनामदेवजी वहाँसे चल दिये । उनकी इच्छा हुई कि पहले पण्ढरीनाथजीके मन्दिरमें चलूँ । प्रभुके नामगुण - कीर्तनका नित्य - नेम पूरा कर लूँ । मन्दिरपर गये तो द्वारपर बहुत भीड़ - भाड़ दिखायी पड़ी । ( जूतोंकी चोरीकी शंकासे शायद मन एकाग्र न हो , इसलिये कपड़ेमें लपेटकर ) जूतोंको कमरमें बाँध लिया । हाथोंसे भीड़को हटाकर भीतर गये । दर्शन करके पदगान  आरम्भ करना ही चाहते थे कि किसीने जूतोंको देख लिया और रुष्ट होकर पाँच - सात चोटें लगायीं । फिर धक्का देकर मन्दिरसे बाहर निकाल दिया । परंतु श्रीनामदेवजीके मनमें पण्डोंके इस व्यवहारसे थोड़ा भी क्रोध नहीं आया । 

अब श्रीनामदेवजी मन्दिरके पिछवाड़े जाकर बैठ गये और भगवान्से कहने लगे कि प्रभो ! आपने यह बहुत ही अच्छा किया जो मुझमें मार लगायी । मेरे अपराधका दण्ड तुरंत ही दे दिया । अब नित्य - नियमके अनुसार पद गाता हूँ , सुनो । यह कहकर नामदेवजी पद गाने लगे , जिसे सुनते ही भगवान्का हृदय करुणासे भर गया । भक्तको विरह - व्यथित एवं दीन देखकर प्रभु व्याकुल हो गये । सम्पूर्ण मन्दिरको घुमाकर श्रीनामदेवकी ओर द्वार कर दिया । यह देखकर जितने भी वेदपाठी पण्डा - पुजारी थे , सबके मुखकी कान्ति क्षीण हो गयी , सब ऐसे फीके पड़ गये , जैसे पानी उतरनेसे मोती फीका हो जाता है । अब उनके हृदयमें श्रीनामदेवजीके प्रति बड़ी भारी श्रद्धा - भक्ति उत्पन्न हो गयी । सबोंने श्रीनामदेवजीके सुख देनेवाले चरणों में गिरकर क्षमा याचना की । उन्हें प्रसन्न देखकर सबको शान्ति प्राप्त हुई

     इस घटनाका वर्णन प्रियादासजी इस प्रकार करते हैं 

अन आनि पर्यो पांय प्रभु पास तें बचाय लीजै कीजै एक बात कभू साधु न दुखाइयै । लई यही मानि फेरि कीजिये न सुधि मेरी लीजिये गुननि गाय मन्दिर लौं जाइये ॥ देखि द्वार भीर पग दासी कटि बांधी धर कर सों उछीर करि चाहें पद गाइये । देखि लीनी वेई काहू दीनी पांच सात चोट कीनी धका धकी रिस मनमें न आइयै ।। बैठे पिछवारे जाइ कीनी जू उचित यह लीनी जो लगाइ चोट मेरे मन भाइयै । कान दैकै सुनो अब चाहत न और कछु ठौर मोकों यहीं नित नेम पद गाइयै ॥ सुनत ही आनि करि करुना विकल भये फेर्यो द्वार इतै गहि मन्दिर फिराइयै । जेतिक वे सोती मोती आब - सी उतरि गई भई हिये प्रीति गहे पाँव सुखदाइयै ॥ 

( ङ ) सर्वत्र भगवद्दर्शन

 एक बार अकस्मात् ही सायंकालमें श्रीनामदेवजीके घरमें आग लग गयी । पर आप तो जल , थल और अग्निमें सर्वत्र अपने प्यारे प्रभुको ही देखते थे । अतः अपने घरमें जो दूसरे सुन्दर पदार्थ घी , गुड़ आदि जलनेसे रह गये थे , उन्हें भी उठा - उठाकर जलती हुई आगमें डालते हुए प्रार्थना करने लगे- हे नाथ ! इन सब वस्तुओंको भी स्वीकार कीजिये । भक्तकी ऐसी सुन्दर भावना देखकर भगवान्ने प्रकट होकर दर्शन दिया और हँसकर बोले कि अत्यन्त कोमल मुझ श्यामसुन्दरको तीक्ष्ण , असह्य अग्निकी ज्वालामें भी देखते हो । श्रीनामदेवजीने कहा - प्रभो ! यह आपका भवन है , आपके अतिरिक्त दूसरा कौन यहाँ आ सकता है । यह सुनकर प्रभु प्रसन्न हो गये और अग्नि शीतल हो गयी । प्रसन्न हुए भगवान्ने अपने हाथोंसे नामदेवजीका सुन्दर छप्पर छा दिया । सुबह होते ही लोगोंने वैसा सुन्दर छप्पर देखा तो आश्चर्यमें पड़ गये और नामदेवजीसे पूछने लगे कि " यह किसने छाया है ? ' जिसने यह छाया है , उसे बता दो तो हम भी छवा लें । जितनी मजदूरी वह माँगेगा , हम उतनी दे देंगे । " नामदेवजीने कहा- ऐसे छप्परकी छवाईके लिये तन , मन , प्राण- सब देने पड़ते हैं ।

 इस घटनाके सम्बन्धमें श्रीप्रियादासजी निम्न कवित्तमें इस प्रकार कहते हैं -

औचक ही घर माँझ सांझ ही अगिनि लागी बड़ो अनुरागी रहि गई सोऊ डारियै । कहैं अहो नाथ सब कीजिये जु अंगीकार हँसे सुकुमार हरि मोहीको निहारियै ॥ तुम्हरो भवन और सकै कौन आइ इहाँ भये यों प्रसन्न छानि छाई आप सारियै । पूछे आनि लोग कौन छाई हो छवाइ दीजै लीजै जोई भावै तनमन प्राण वारियै ॥

 ( च ) श्रीनामदेवजीद्वारा तुलसीदल और रामनामकी महिमाका प्राकट्य-

 पण्डरपुरमें एक बहुत बड़ा धनी सेठ रहता था । उसके यहाँ तुलादानका उत्सव हुआ । उसने अपनेको सोनेसे तौलकर नगरके सभी लोगोंको सोना दिया । सेठने लोगोंसे पूछा कि कोई रह तो नहीं गया ? तब लोगोंने कहा- श्रीनामदेवजी भगवान्‌के बड़े प्रेमी सन्त हैं , वे रह गये हैं । सेठने कहा- उन्हें बुलाकर लाओ । सेठके नौकर , मुनीम बुलाने गये । दान ब्राह्मणोंको दो , हमें कुछ भी नहीं चाहिये , यह कहकर बड़भागी श्रीनामदेवजीने पहली और फिर दूसरी बार लोगोंको वापस लौटा दिया , जानेसे मना कर दिया । पर तीसरी बार अति आग्रह देखकर आप सेठके घरपर आये और सेठसे बोले- तुम बड़े भाग्यशाली हो । कहो - हमसे क्या कहते हो ? सेठजीने कहा - आप मेरे द्वारा दिये गये कुछ धनको स्वीकार कीजिये , जिससे मेरा कल्याण हो । नामदेवजीने कहा- तुम्हारा कल्याण तो हो गया , अब मुझे कुछ देनेकी आपकी प्रबल इच्छा है तो दीजिये ।

श्रीनामदेवजीका एकमात्र प्रिय सर्वस्व तो श्रीगोविन्दचरणप्रिय श्रीतुलसी हैं , ऐसे श्रीतुलसीके पत्ते आधा अर्थात् केवल ' रा ' लिखकर उसे दिया और कहा कि इसके बराबर तौलकर दे दीजिये । सेठने अभिमानपूर्वक कहा - महाराज ! क्यों हँसी करते हो , इतने थोड़ेसे सोनेसे क्या होगा ? कृपा करके कुछ अधिक लीजिये । जिससे मुझ दाताकी हँसी न हो । नामदेवजीने कहा- इसके बराबर सोना तौलकर देखो तो सही , फिर देखो कि क्या विचित्र खेल होता है । यदि तुम इसके बराबर पूरा करके सोना दे दोगे तो मैं तुमपर प्रसन्न होऊँगा । यह सुनकर सेठजी एक तौलनेका काँटा ले आये और एक ओर तुलसीपत्र तथा दूसरी ओर सोना चढ़ाया । उस समय बड़ा विचित्र आश्चर्य हुआ , सोनेका ढेला तुलसीपत्रसे बराबर नहीं हुआ । सेठजी उदास हो गये , जिससे पाँच - सात मन तौला जा सके- ऐसा बड़ा तराजू मँगवाया । उसपर एक ओर तुलसीपत्र दूसरी ओर घरभरका सम्पूर्ण ना - चाँदी आदि रखा । पूरा न पड़नेपर जाति - कुटुम्बवालों के घरोंसे ला लाकर बहुत - सा धन रखा , परंतु वह सब तुलसीपत्रके बराबर नहीं हुआ । 

श्रीरामनामलिखित तुलसीपत्रके महत्त्वको देखकर घरके सभी स्त्री - पुरुषोंके समेत सेठजीको बड़ा शोक तथा दुःख हुआ । श्रीनामदेवजीने विचारा कि अभी इन्हें तुलसीपत्र एवं श्रीरामनामकी महिमाका पूरा अनुभव नहीं हुआ है , इसलिये वे बोले- आपलोगोंने जितने व्रत - दान और तीर्थस्नान आदि पुण्यकर्म किये हों , उनका संकल्प करके जल डाल दीजिये । सभी लोगोंने पुण्योंका स्मरण कर - करके संकल्प पढ़कर जल डाला , पर इस उपायके करनेसे भी काम न चला । जिधर तुलसीपत्र रखा था , वह पलड़ा अपने पैर भूमिमें गाड़ रहा था । यह देखकर सभी लोग लज्जित गये और प्रार्थना करने लगे कि इतना ही ले लीजिये । श्रीनामदेवजीने कहा- हम इस तुच्छ धनको लेकर क्या करें ? हमारे पास तो रामनाम - धन है , यह धन उसकी बराबरी नहीं कर सकता है । इस धनसे कल्याण होना सम्भव नहीं है । नामकी और तुलसीकी महिमा देखकर आजसे इस धनको तुच्छ समझो और रामनामरूपी धनसे प्रेम करो , गलेमें तुलसी धारण करो , रामनाम जपो । यह कहकर श्रीनामदेवजीने सबके हृदयमें भक्तिका भाव भर दिया । सबकी बुद्धि प्रेमरसमें भीग गयी ।

 इस भक्तिभावका वर्णन श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार किया है-

 सुनौ और परचै जे आये न कवित्त मांझ बांझ भई माता क्यों न जौ न मति पागी है । हुतो एक साह तुलादान को उछाह भयो दयो पुर सबै रह्यौ नामदेव रागी है । ल्यावो जु बुलाइ एक दोड़ तौ फिराइ दिये तीसरे सों आये कहा कहो बड़भागी है । कीजिये जु कछु अङ्गीकार मेरो भलो होय भयो भलो तेरो दीजै जो पै आस लागी है जाके तुलसी है ऐसे तुलसी के पत्र मांझ लिख्यो आधो राम नाम यासों तोल दीजियै । कहा परिहास करो ढरो है दयाल देखि होत कैसो ख्याल याकों पूरो करो रीझियै ॥ ल्यायो एक कांटो लै चढ़ायो पात सोना संग भयो बड़ो रंग सम होत नाहिं छीजिये । लई सो तराजू तासों तुलै मन पांच सात जाति पांतिहू को धन धर्यो पै न धीजियै ॥ पर्यो शोच भारी दुःख पावैं नर - नारी नामदेवजू विचारी एक और काम कीजिये । जिते व्रतदान औ स्नान किये तीरथमें करियै संकल्प यापै जल डारि दीजिये ॥ करेऊ उपाइ पात पला भूमि गाड़े पांय रहे वे खिसाय कह्यौ इतनोई लीजिये । लैकै कहा करें सरवरहू न करै भक्तिभावसों लैं भरै हिये मति अति भीजिये ॥

 ( छ ) श्रीनामदेवजीकी एकादशी व्रतके प्रति निष्ठा 

एक बार भगवान्के मनमें यह उमंग उठी कि श्रीनामदेवजीकी एकादशीव्रत - निष्ठाका परिचय लिया जाए ।यह विचारकर उन्होंने एक अत्यन्त दुर्बल ब्राह्मणका रूप धारण किया । एकादशीव्रतके दिन श्रीनामदेवजीके पास पहुँचकर बड़ी दीनता करके अन्न माँगने लगे कि मैं बहुत भूखा हूँ , कई दिनसे भोजन प्राप्त नहीं हुआ है , कुछ अन्न दो । श्रीनामदेवजीने कहा- आज तो एकादशी है , ( दूध फलाहारादि कर लीजिये ) अन्न न दूँगा । प्रातःकाल जितनी इच्छा हो उतना अन्न लीजियेगा । दोनों अपनी - अपनी बातपर बड़ा भारी हठ कर बैठे । इस बातका शोर चारों ओर फैल गया । लोग इकट्ठे हो गये और श्रीनामदेवजीको समझाने लगे कि इस भूखे ब्राह्मणपर क्रोध क्यों करते हो , तुम्हीं मान जाओ , इसे कुछ अन्न दे दो । श्रीनामदेवजी नहीं माने , दिनके चौथे पहरके बीतनेपर उस भूखे ब्राह्मणदेवने इस प्रकार पैर फैला दिये कि मानो मर गये । गाँवके लोग श्रीनामदेवजीके भावको नहीं जानते थे । अतः उन लोगोंने नामदेवजीके सिर ब्राह्मण - हत्या लगा दी और उनका समाजसे बहिष्कार कर दिया । पर नामदेवजी बिलकुल चिन्तित नहीं हुए । 

अपने नियमके अनुसार जागरण और कीर्तन करते हुए श्रीनामदेवजीने रात बितायी , प्रातःकाल चिता बनाकर उस ब्राह्मणके मृतक शरीरको गोदमें लेकर उसपर बैठ गये कि हत्यारे शरीरको न रखकर प्रायश्चित्तस्वरूप उसे भस्म कर देना ही उत्तम है । उसी समय भगवान् प्रकट हो गये और मुसकराकर कहने लगे कि मैंने तो तुम्हारी परीक्षा ली थी , तुम्हारी एकादशीव्रतकी सच्ची निष्ठा मैंने देख ली , वह मेरे मनको बहुत ही प्यारी लगी , मुझे बड़ा सुख हुआ । इस प्रकार दर्शन देकर भगवान् अन्तर्धान हो गये । लोगोंने जब यह लीला देखी तो श्रीनामदेवजीके चरणोंमें आकर गिरे और प्रीतिमय चरित्र देखकर सभी भक्त हो गये ।

 एक बार एकादशीकी रात्रिको जागरण - कीर्तन हो रहा था । भगवद्भक्तोंको बड़ी प्यास लगी । तब श्रीनामदेवजी जल लानेके लिये नदीपर गये , प्रेतभयसे दूसरोंको जानेका साहस न था । श्रीनामदेवजीको आया देखकर महाविकरालरूपधारी प्रेतराज अपने साथियों समेत आकर चारों ओर फेरी लगाने लगा । उसका स्वरूप एवं उसकी माया देखकर श्रीनामदेवजी थोड़ा भी भयभीत न हुए , उसे अपने इष्टका ही स्वरूप माना और उन्होंने फेंटसे झाँझ निकालकर तत्काल एक पद गाया और प्रणाम किया । भगवान् तो बड़े ही दयालु हैं , प्रेतरूप न जाने कहाँ गया ! शोभाधाम श्यामसुन्दर प्रकट हो गये , जिनका दर्शन करके श्रीनामदेवजी परम प्रसन्न हुए और जल लाकर भक्तोंको पिलाया । • भले पधारे लंबकनाथ धरनी पाँव स्वर्ग लौं माथा , जोजन भरके लाँबे हाथ ॥ सिव सनकादिक पार न पायें अनगिन साज सजायें साथ नामदेव के तुमही स्वामी , कीजै प्रभुजी मोहि सनाथ ॥ 

श्रीप्रियादासजीने इन घटनाओं का वर्णन इस प्रकार किया है -

कियौ रूप ब्राह्मण को दूबसे निपट अंग भयो हिये रंग व्रत परिचैको लीजिये । भई एकादशी अन्न मांगत बहुत भूखो आशु तीन देहाँ भोर चाही जितौ दीजिये । को हठभारी मिलि दोकताको शोर पर्यो समझावै नामदेव याको कहा खीझिये । बीते जाम चारि गरि रहे थी पसार पांव भाव पै न जाने दुई हत्या नहीं छीजिये ।। रचिकै चिताको विप्र गोद लेकै बैठे जाइ दियो मुसुकाइ में परीक्षा जीनी तेरी है । देखि सो सचाई सुखदाई मन भाई मेरे भये अन्तधन परे पाँच प्रीति हेरी है । जागरन मांझ हरि भक्तनको प्यास लगी गये लैन जल प्रेत आनि कीनी फेरी है । फेंट से निकासि ताल गायो पद ततकाल बड़ेई कृपाल रूप छवि ढेरी है ।।

 एक बार नामदेवजीने जंगलों पेड़के नीचे रोटी बनायी , भोजन बनाकर लघुशंका करने गये । लौटकर देखते हैं तो एक कुत्ता मुख में रोटी दबाये भागा जा रहा है । आपने घी की कटोरी उठावी और दौड़े उसके पीछे यह पुकारते हुए ' प्रभो । ये रोटियाँ रूखी है । आप रूखी रोटी न खायें । मुझे घी चुपड़ लेने दें , फिर भोग लगायें । ' भगवान् उस कुत्ते के शरीर से  ही प्रकट हुए , अपने चतुर्भुज रूप मे ।नामदेव उनके चरणीपर गिर पड़े । । 

पंजाबमें चारकरी पन्थके एक प्रकार नामदेवजी ही आदिप्रचारक है । अनेक लोग उनकी प्रेरणा से भक्ति के पावन - पथमें प्रवृत्त हुए । ८० वर्षकी अवस्थामें संवत १४०७ वि ० में नश्वर देह त्यागकर ये परमधाम पधारे ।       

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

मित्र

यह सब दिव्य कथा मैने मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेन्द्र दास जी महाराज के मुख से यूट्यूब पर सुनी थी ।मेरे मन मे प्रेरणा हुई कि कथा का प्रचार-प्रसार किया जाए। तो मैं बहुत कठिन परिश्रम करके गीताप्रेस के भक्तमाल ग्रन्थ की सहायता से इन सभी कथा का प्रचार-प्रसार करने की घृष्टता कर रहा हूं ।यह निष्काम कर्म ही है । सोचा कलिकाल के इस समय मे लोग धर्म के नाम पर लङते झगङते तो है । लेकिन धर्म को जानने का अवकाश नही मिलता है । इसलिए, यह प्रयास किया है । यह कितना उपयोगी सिद्ध होगा? मुझे मालूम नही है । नामदेव जी महाराज के महान चरित्र का कौन बखान कर सकता है ? कुछेक चरित्र का ही विवरण उपलब्ध है । आशा है आपको जरूर पसंद आएगा ।

आपका 

BHOOPAL MISHRA 

Sanatan vedic dharma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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