Silpile bhagwan सिलपिल्ले भगवान की अद्भुत लीला इस कलिकाल में

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सिलपिल्ले भगवान की लीला गाथा 


राजाकी कन्याकी कथा बहुत पहलेकी बात है , एक महात्मा एक दिन एक राजाके यहाँ पधारे । दैवयोगसे उन्हें वहाँ कई दिन रहना पड़ गया । महात्माजीके पास कुछ शालग्रामजीकी मूर्तियाँ थीं । राजाकी एक अबोध बालिका प्रतिदिन महात्माजीके समीप बैठकर उनकी पूजा देखा करती थी । एक दिन कन्याने महात्माजीसे पूछा- ' बाबाजी | आप किसकी पूजा करते हैं ? ' महात्माजीने कन्याको अबोध समझकर हँसी - हँसीमें उससे कह दिया- ' हम सिलपिल्लेभगवान्‌की पूजा करते हैं । ' कन्याने पूछा कि ' बाबाजी सिलपिल्लेभगवान्की पूजा करनेसे क्या लाभ है ? ' महात्माजीने कहा , ' सिलपिल्लेभगवान्‌की पूजा करनेसे मनचाहा फल प्राप्त हो सकता है । 

' कन्याने कहा - ' तो बाबाजी ! मुझे भी एक सिलपिल्लेभगवान् दे दीजियेगा , मैं भी आपकी भाँति उनकी पूजा किया करूंगी । ' महात्माजीने उसका सच्चा अनुराग देखकर उसे एक शालग्रामजीकी मूर्ति दे दी और पूजनका विधान भी बतला दिया । महात्माजी तो विदा हो गये । कन्या परमविश्वास तथा सच्ची लगनके साथ अपने ' सिलपिल्लेभगवान् ' की पूजा करने लगी । वह अबोध बालिका अपने उन इष्टदेवके अनुराग - रंगमें ऐसी रंग गयी कि उनका क्षणभरका भी वियोग उसे असह्य होने लगा । वह कुछ भी खाती पीती , अपने उन इष्टदेवका भोग लगाये बिना नहीं खाती - पीती । वयस्क हो जानेपर जब कन्याका विवाह हुआ , तब दुर्भाग्यसे उस बेचारीको ऐसे पतिदेव मिले , जो प्रकृत्या हरिविमुख थे । कन्या अपने ' सिलपिल्लेभगवान् ' को ससुराल जाते समय साथ ही ले गयी थी ।


 एक दिन उसके पतिदेवने पूजा करते समय उससे पूछा कि ' तू किसकी पूजा करती है ? ' उसने कहा , ' मैं सारी मनोवाञ्छा पूर्ण करनेवाले अपने ' सिलपिल्लेभगवान् ' की पूजा करती हूँ । ' पतिदेवने कहा- ' ढकोसले कर रही है ? ' यह कहकर उस मूर्तिको उठा लिया और बोले कि ' इसे नदीमें डाल दूंगा । ' कन्याने बहुत अनुनय विनयके साथ कहा - ' स्वामिन् ! ऐसा न कीजियेगा । ' किंतु स्वामी तो स्वभावतः दुष्ट ठहरे ; भला , वे कब मानने लगे । वह बेचारी साथ - ही - साथ रोती चली गयी , किंतु उन प्रकृत्या हरिविमुख पतिदेवने सचमुच उस मूर्तिको नदीमें फेंक दिया । कन्या उसी समयसे अपने सिलपिल्लेभगवान्के विरहमें दीवानी हो गयी । उसे अपने इष्टदेवके बिना सारा संसार शून्य जँचने लगा । उसका खाना - पीना सोना सब भूल गया । लज्जा छोड़कर वह निरन्तर रटने लगी- ' मेरे सिलपिल्ले भगवन् ! मुझ दासीको छोड़कर कहाँ चले गये , शीघ्र दर्शन दो ; नहीं तो दासीके प्राण जा रहे हैं । आपका वियोग असहा है । ' 


एक दिन वह अपने उक्त भगवान्‌के विरहमें उसी नदीमें डूबनेपर तुल गयी । लोगोंने उसे बहुत कुछ समझाया , किंतु उसने एक न सुनी । वह पागल - सी बनी नदीके किनारे पहुँच गयी । उसने बड़े ऊँचे स्वरसे पुकारा- ' मेरे प्राणप्यारे सिलपिल्ले भगवन् । शीघ्र बाहर आकर दर्शन दो , नहीं तो दासीका प्राणान्त होने जा रहा है । ' इस करुण पुकारके साथ ही एक अद्भुत शब्द हुआ कि ' मैं आ रहा हूँ । ' फिर उस कन्याके समक्ष वही शालग्रामजीकी मूर्ति उपस्थित हो गयी । जब वह मूर्तिको उठाकर हृदयसे लगाने लगी , तब उसी मूर्तिके अन्दरसे चतुर्भुजरूपमें भगवान् प्रकट हो गये , जिनके दिव्य तेजसे अन्य दर्शकोंकी आँखें झप गयीं । इतनेमें एक प्रकाशमान गरुडध्वज विमान धामको लिये चले गये । उसके वे हरिविमुख पतिदेव आँखें फाड़ते हुए रह गये । उस राजकन्याके सास और ससुर आदिने भी यह चमत्कार देखातो बड़े प्रभावित हुए राजकन्याने अपनी भक्तिसे सबको भक्त बना दिया । वे सभी भक्त भगवान्‌की सेवामें लग गये थे सभी कहने लगे कि हम सबके भाग्य जग गये , जो ऐसी बहू घर आयी ।


 श्रीप्रियादासजी महाराज राजकन्याकी इस प्रीतिका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं-

 सुनौ नृप सुता बात भक्ति गात गात पगी भगी सब विषै वृत्ति सेवा अनुरागी है । व्याही ही विमुख घर आयो लैन वह घर खरी अरवरी कोऊ चित चिन्ता लागी है । करि दई संग भरी अपने ही रंग चली अली हूँ न कोई एक वही जासौं रागी है । आयो ढिग पति बोलि कियो चाहै रति वाकी और भई गति मति आवौ विधा पागी है ।  कौन वह विधा ताकौं कीजिये जतन वेगि बड़ो उदवेग नेकु बोलि सुख दीजिये । बोलिबों जौ चाहौ तौपै चाहौ हरिभक्ति हिये बिन हरिभक्ति मेरो अंग नहीं छीजिये । आयो रोष भारी अब मन मैं विचारी वा पिटारीमें जु कछु सोई लैकै न्यारो कीजिये । करी वही बात मूसि जल मांझ डारि दई नई भई ज्वाला जियो जात नहीं खीजिये ।।  तज्यो जल अन्न अब चाहत प्रसन्न कियो होत क्यों प्रसन्न जाको सरबस लियौ है । पहुँचे भवन आय दई सो जताई बात गात अति छीन देखि कहा हठ किया है । सासु समुझावै कछु हाथ सों खवावै याकौं बोलि हू न भावै तब धरकत हियौ है । कहँ सोई करें अब पांय तेरे पर हम बोली जब वेई आवैं तौ ही जात जियौ है ॥ आये वाही ठौर भौंर आई तनु भूमि गिरयो ढरयो जल नैन सुर आरत पुकारी है । भक्तिबस श्याम जैसे कामबस कामी नर धाइ लागे छातीसों जु संग सो पिटारी है ॥ देखि पति सासु आदि जगत विवाद मिट्यो बाद ही जनम गयो नेकु न सँभारी है । किये सब भक्त हरि साधु सेवा मांझ पगे जगे कोऊ भाग घर बधू यों पधारी है ॥  


अपने पुत्रको विष देनेवाली दो भक्तिमती नारियाँ 


एक राजा बड़ा भक्त था । उसके यहाँ बहुत से साधु - सन्त आते रहते थे । राजा उनकी प्रेमसे सेवा करता था । एक बार एक महान् सन्त अपने साथियोंसमेत पधारे । राजाका सत्संगके कारण उनसे बड़ा प्रेम हो गया । वे सन्त राजाके यहाँसे नित्य ही चलनेके लिये तैयार होते , परंतु राजा एक - न - एक बात ( उत्सव आदि ) कहकर प्रार्थना करके उन्हें रोकता और कहता कि प्रभो ! आज रुक जाइये , कल चले जाइयेगा । इस प्रकार उनको एक वर्ष और कुछ मास बीत गये । एक दिन उन सन्तोंने निश्चय कर लिया कि कल हम अवश्य ही चले जायेंगे । राजाके रोकनेपर किसी भी प्रकारसे नहीं रुकेंगे । यह जानकर राजाकी आशा टूट गयी , वह इस प्रकार व्याकुल हुआ कि उसका शरीर छूटने लगा । रानीने राजासे पूछकर सब जान लिया कि राजा सन्तवियोगसे जीवित न रहेगा । तब उसने सन्तोंको रोकनेके लिये पुत्रको विष दे दिया क्योंकि सन्त तो स्वतन्त्र हैं , इन्हें कैसे रोककर रखा जाय , इसका और कोई उपाय नहीं है । प्रातः काल होनेसे पहले ही रानी रो उठी , अन्य दासियाँ भी रोने लगीं , राजपुत्रके मरनेकी बात फैल गयी । राजमहलमें कोलाहल मच गया । सन्तने सुना तो शीघ्र ही राजभवन में प्रवेश किया और जाकर बालकको देखा । उसका शरीर विषके प्रभावसे नीला पड़ गया था , जो इस बातका साक्षी था कि बालकको विष दिया गया है । महात्माजीने रानीसे पूछा कि सत्य कहो , तुमने यह क्या किया ? रानीने कहा- आप निश्चय ही चले जाना चाहते थे और हमारे नेत्रोंको आपके दर्शनों की  अभिलाषा है । आपको रोकने के लिये ही यह उपाय किया गया है । राजा और रानीकी ऐसी अद्भुत भक्तिको देखकर वे महात्मा जोरसे रोने लगे । उनका कण्ठ गद्गद हो गया , उन्हें भक्तिकी इस विलक्षण रीतिसे भारी सुख हुआ । इसके बाद महात्माजीने भगवान्के गुणोंका वर्णन किया और उस बालकको जीवित कर दिया । उन्हें वह स्थान अत्यन्त प्रिय लगा । अपने साथियों को जो जाना चाहते थे , उन्हें विदा कर दिया और जो प्रेमरसमें मग्न सन्त थे , वे उनके साथ ही रह गये । इस घटनाके बाद महात्माजीने कहा कि अब यदि हमें आप मारकर भगायेंगे तो भी हम यहाँसे न जायेंगे । 


श्रीप्रियादासजी भक्तिमयी रानीकी इस अलौकिक संत - निष्ठाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं -


भक्तन के हित सुत विष दियौ उभै बाई कथा सरसाई बात खोलिकै बताइये । भयो एक भूप ताके भक्तहूँ अनेक आवैं आयो भक्त भूप तासौं लगन लगाइयै ॥ नितहीं चलत ए पै चलन न देत राजा बितयो बरष मास कहैं भोर जाइये । गई आस टूटि तन छूटिबे की रीति भई लई बात पूछि रानी सबै लै जनाइयै ।। दियो सुत विष रानी जानी नृप जीवै नाहिं सन्त हैं स्वतन्त्र सो इन्हेंहि कैसे राखियै । भये बिन भोर बधू शोर करि रोय उठी भोय गई रावले में सुनि साधु भाखियै ॥ खोलि डारि कटिपट भवन प्रवेश कियो लियो देखि बालक को नील तनु साखियै । पूछ्यो भूप तियासौं जू साँचे कहि कियो कहा ? कही तुम चल्यौ चाहौ नैन अभिलाखियै ।। छाती खोलि रोए किहूँ बोलिहूँ न आवै मुख सुख भयो भारी भक्ति रीति कछु न्यारियै । जानीऊं न जाति , जाति पाँति को विचारि कहा अहो रससागर सो सदा उर धारियै ॥ हरि गुण गाय साखी सन्तनि बताय दियौ बालक जिवाय लागी ठौर वह प्यारियै । संग के पठाय दिये रहे वे जे भींजे हिये बोले आप जाऊँ जौ न मारि के विडारियै ॥ 

             

महिपति राव जी महाराज 

महाराष्ट्रके राजा महीपतिरावजी परम भक्त थे । उनकी कन्या कहाड़के राजा रामरायके साथ व्याही थी , लेकिन घरके सभी लोग महा अभक्त थे । भक्तिमय वातावरणमें पलनेवाली उस राजपुत्रीका मन घबढ़ाने लगा । अन्तमें जब उसे कोई उपाय नहीं सूझा तो उसने अपनी एक दासीसे कह दिया कि इस नगरमें जब कभी भगवान्‌के प्यारे भक्त आयें तो मुझे बताना ।


 एक दिन दैवयोगसे उस नगरमें साधुओंकी ( श्रीज्ञानदेवजीकी ) जमात आयी । उनके आनेका समाचार दासीने उस राजपुत्रीको दिया । अब उस भक्तासे सन्त - अदर्शन कैसे सहन होता । उसने अपने पुत्रको विष दे दिया । वह मर गया , अब वह राजकन्या तथा दूसरे घरके लोग रोने तथा विलाप करने लगे । तब उस भक्ताने व्याकुल होकर उन लोगोंसे कहा कि अब इसके जीवित होनेका एक उपाय है , यदि वह किया जाय तो पुत्र अवश्य जीवित हो सकता है । रोते - रोते सबोंने कहा- जो भी उपाय बताओगी , उसे हम करेंगे । तब उस बाईने कहा कि सन्तोंको बुला लाइये । उन लोगोंने पूछा कि सन्त कैसे होते हैं ? इसपर भक्ताने कहा कि यह दासी मेरे पिताके घरमें सन्तोंको देख चुकी है , कैसे होते हैं , कहाँ मिलेंगे आदि सब बातोंको यह बतायेगी । पूछनेपर दासीने कहा कि आज इस नगरमें कुछ सन्त पधारे हैं और अमुक स्थानपर ठहरे हैं । 


वह दासी राजाको साथ लेकर चली और सन्तोंसे बोलना सिखा दिया और कहा कि उनको देखते ही पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए उनके चरणोंको पकड़ लीजियेगा । राजाने दासीके कथनानुसार ही कार्य किया । शोकवश राजाकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह रही थी , परंतु उस समय ऐसा लगा कि मानो ये सन्तप्रेमक्श रो रहे हैं । सहज विश्वासी उन सन्तोंने भी विश्वास किया कि ये लोग प्रेमसे रुदन कर रहे हैं । राजाने प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरे घर पधारकर उसे पवित्र कीजिये । राजाकी विनती स्वीकारकर सन्तजन प्रसन्नतापूर्वक उसके साथ चले । दासीने आगे ही आकर भक्तारानीको साधुओंके शुभागमनको सूचना दे दी । वह रानी पौरीमें आकर खड़ी हो गयी । सन्तोंको देखते ही वह उनके चरणों में गिर पड़ी और प्रेमवश गद्गद हो गयी । आँखों में आँसू भरकर धीरेसे बोली- आप लोग मेरे पिता - माताको जानते ही होंगे , क्योंकि वे बड़े सन्तसेवी हैं । आपलोगोंका दर्शन पाकर आज ऐसा मनमें आता है कि अपने प्राणोंको आपके श्रीचरणों में न्यौछावर कर दूँ । 

उस भक्तारानीकी अति विशेष प्रीति देखकर सन्तजन अति प्रसन्न हो गये और बोले कि तुमने जो प्रतिज्ञा की है , वह पूरी होगी । राजमहलमें जाकर सन्तोंने मरे हुए बालकको देखकर जान लिया कि इसे निश्चय ही विष दिया गया है । उन्होंने भगवान्का चरणामृत उसके मुखमें डाला । वह तुरंत जीवित हो गया । इस विलक्षण चमत्कारको देखते ही राजा एवं उसके परिवारके सभी लोग जो भक्तिसे विमुख थे , सभीने सन्तोंके चरण पकड़ लिये और प्रार्थना की कि हमलोग आपकी शरणमें हैं । तब सन्तोंने उन सभीको दीक्षा देकर शिष्य बनाया । उन लोगोंने वैष्णव बनकर सन्तोंकी ऐसे प्रेमसे सेवा करना आरम्भ कर दिया , जिसे देखकर लोग प्रेमविभोर हो जाते थे । श्रीप्रियादासजी रानीकी संतनिष्ठाकी इस घटनाका अपने कवित्तोंमें वर्णन करते हुए कहते हैं सुनौ चित लाई बात दूसरी सुहाई हिये जिये जग माहिं जौ लौं सन्त संग कीजियै । भक्त नृप एक सुता ब्याही सो अभक्त महा जाके घर माँझ जन नाम नहीं लीजियै ॥ पल्यौ साधु सीथ सौं शरीर दृग रूप पले जीभ चरणामृतके स्वाद ही सों भीजिये । रह्यों कैसे जाय अकुलाय न बसाय कछु आवैं पुर प्यारे तब विष सुत दीजियै ॥ 

 आये पुर सन्त आइ दासी ने जनाइ कही सही कैसे जाइ सुत विष लैकै दियो है । गये वाके प्रान रोय उठी किलकानि सब भूमि गिरे आनि टूक भयो जात हियो है ॥ बोली अकुलाय एक जीबे कौ उपाय जोपै कियो जाय पिता मेरे कैयो बार किया है । कहै सोई करें दूंग भरै ल्यावो सन्तनिकौ , कैसे होत सन्त ? पूछ्यो चेरी नाम लियो है ॥ चली लै लिवाइ चेरी बोलियौ सिखाय दियो देखिकै धरनि परि पाँय गहि लीजिये । कीनी वही रीति दृगधारा मानौ प्रीति सन्त करी यौं प्रतीति गृह पावन कौ कीजियै ॥ चले सुख पाय दासी आगे ही जनाई जाय आय ठाढ़ी पौरि पाँय गहे मति भीजियै । कही हरे बात मेरे जानौ पिता मात मैं तो अंग में न माति आज प्राण वारि दीजियै ॥ रीझि गये सन्त प्रीति देखिकै अनन्त को होयगी जु वही सो प्रतिज्ञा तैं जो करी है । बालक निहारि जानी विष निरधार दियो दियो चरनामृत कौं प्रान संज्ञा धरी है ॥ देखत विमुख जाय पाँय ततकाल लिये किये तब शिष्य साधु सेवा मति हरी है । ऐसे भूप नारि पति राखी सब साखी जन रहे अभिलाखी जोपै देखौ याही घरी है ॥

        इस कलिकाल मे लोग धर्म को पाखंड भी कहते है ।ढोंग भी कहते है ।अपने ही धर्म के लोग भक्त का अपमान, धर्म का अपमान करने से नही चूकते है । लेकिन जो लोग धर्म पर विश्वास कर लिए, ऊनका जीवन धन्य हो गया है । मुगलों और अंग्रेजों के इस कराल कलिकाल मे भारतवर्ष की इसी धरती पर अनेकों महामानव हुए जो धर्म का शरण लेकर अपने जीवन को तो धन्य किया ही साथ ही सनातन धर्म की रक्षा बिना किसी दंगा फसाद के की है । आज अगर हिन्दू धर्म का अस्तित्व है तो इन्ही महापुरुष के भक्ति का फल है ।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL MISHRA 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com. 


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