श्री कुलशेखर जी महाराज
के पावन लीला
सभी लोग जानते हैं और सन्तजन इस बातके साक्षी हैं कि कलियुगमें केवल प्रेमसे ही भगवान् प्रकट होते हैं , अतः प्रेम ही प्रधान है । भक्तोंका दास कुलशेखर नामका एक राजा था । उसने रामायणकी कथामें रावणद्वारा श्रीसीताजीका हरण सुना सुनते ही उसे आवेश आ गया और वह तुरन्त हाथमें तलवार लेकर घोड़ेपर चढ़कर ' मारो - मारो ' चिल्लाता हुआ दौड़ा और घोड़ेको समुद्रमें कुदा दिया । दूसरे एक प्रेमी भक्तने नृसिंहलीलाके अनुकरणमें नृसिंह बनकर हिरण्यकशिपु बने हुए व्यक्तिको सचमुच मार डाला । पुनः रामलीलामें उसी भक्तने दशरथ बनकर श्रीरामजीके वियोगमें अपने शरीरका त्याग कर दिया । श्रीरतिवन्तीबाईने श्रीभागवतकी कथामें सुना कि माता यशोदाने रस्सीसे श्रीकृष्णको बाँध दिया । सुनते ही अपने प्राण त्याग दिये । इन भक्तिचरित्रोंसे कलियुगमें प्रेमकी प्रधानता प्रकट एवं सिद्ध हुई ॥ ४ ९ ॥ इन भगवत्प्रेमी भक्तोंका पावन चरित्र संक्षेपमें इस प्रकार है
श्रीकुलशेखरजी महाराज
कोल्लिनगर ( केरल ) के राजा दृढव्रत बड़े धर्मात्मा थे , किंतु उनके कोई सन्तान न थी । उन्होंने पुत्रके लिये तप किया और भगवान् नारायणकी कृपासे द्वादशी के दिन पुनर्वसु नक्षत्रमें उनके घर एक तेजस्वी बालकने जन्म लिया । बालकका नाम कुलशेखर रखा गया ये भगवान्की कौस्तुभमणिके अवतार माने जाते हैं । राजाने कुलशेखरको विद्या , ज्ञान और भक्तिके वातावरणमें संवर्धित किया । कुछ ही दिनों में कुलशेखर तमिल और संस्कृत भाषामें पारंगत हो गये और इन दोनों प्राचीन भाषाओंके सभी धार्मिक ग्रन्थोंका उन्होंने आलोडन कर डाला । उन्होंने वेद - वेदान्तका अध्ययन किया और चौंसठ कलाओंका ज्ञान प्राप्त किया । यही नहीं , वे राजनीति , युद्धविद्या , धनुर्वेद , आयुर्वेद , गान्धर्ववेद तथा नृत्यकलामें भी प्रवीण हो गये । जब राजाने देखा कि कुलशेखर सब प्रकारसे राज्यका भार उठानेमें समर्थ हो गया है , तब कुलशेखरको राज्य देकर वे स्वयं मोक्षमार्गमें लग गये ।
कुलशेखरने अपने देशमें रामराज्यको पुनः स्थापना की । प्रत्येक गृहस्थको अपने - अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार शिक्षा देनेका समुचित प्रबन्ध किया । उन्होंने व्यवसायों तथा उद्योगधन्धोंको सुव्यवस्थित रूप देकर प्रजाके दारिद्र्यको दूर किया । अपने राज्यको धन , ज्ञान और सन्तोषकी दृष्टि से एक प्रकारसे स्वर्ग ही बना दिया । यद्यपि वे हाथमें राजदण्ड धारण करते थे , पर उनके हृदयने भगवान् विष्णुके चरण - कमलोंको दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा था । उनका शरीर यद्यपि सिंहासनपर बैठता था , पर हृदय भगवान् श्रीरामका सिंहासन बन गया था । राजा होनेपर भी उनकी विषयोंमें तनिक भी प्रीति नहीं थी । वे सदा यही सोचा करते ' वह दिन कब होगा , जब ये नेत्र भगवान्के त्रिभुवन सुन्दर मंगलविग्रहका दर्शन पाकर कृतार्थ होंगे ? मेरा मस्तक भगवान् श्रीरंगनाथके चरणोंके सामने कब झुकेगा ? मेरा हृदय भगवान् पुण्डरीकाक्षके मुखारविन्दको देखकर कब द्रवित होगा , जिनकी इन्द्रादि देवता सदा स्तुति करते रहते हैं ? ये नेत्र किस कामके हैं , यदि इन्हें भगवान् श्रीरंगनाथ और उनके भक्तोंके दर्शन नहीं प्राप्त होते ? ' भक्तकी सच्ची पुकार भगवान् अवश्य सुनते हैं ।
एक दिन रात्रिके समय भगवान् नारायण अपने दिव्य विग्रहमें भक्त कुलशेखरके सामने प्रकट हुए । कुलशेखर उनका दर्शन प्राप्तकर शरीरकी सुध - बुध भूल गये , उसी समयसे उनका एक प्रकारसे कायापलट ही हो गया । वे सदा भगवद्भावमें लीन रहने लगे । उनका सारा समय सत्संग , कीर्तन , भजन , ध्यान और भगवान्के अलौकिक चरित्रोंके श्रवणमें ही व्यतीत होता । उनके इष्टदेव श्रीराम थे और वे दास्यभावसे उनकी उपासना करते थे । एक दिन वे बड़े प्रेमके साथ श्रीरामायणकी कथा सुन रहे थे । प्रसंग यह था कि भगवान् श्रीराम सीताजी की रक्षाके लिये लक्ष्मणको नियुक्तकर स्वयं अकेले खर - दूषणकी विपुल सेनासे युद्ध करनेके लिये उनके सामने जा रहे हैं । पण्डितजी कह रहे थे
चतुर्दशसहस्त्राणि रक्षसां भीमकर्मणाम् । एकश्च रामो धर्मात्मा कथं युद्धा भविष्यति।।
अर्थात् धर्मात्मा श्रीराम अकेले चौदह हजार राक्षसोंसे युद्ध करने जा रहे हैं , इस युद्धका परिणाम क्या होगा ? कुलशेखर कथा सुननेमें इतने तन्मय हो रहे थे कि उन्हें यह बात भूल गयी कि यहाँ रामायणकी कथा हो रही है । उन्होंने समझा कि ' भगवान् वास्तवमें खर - दूषणकी सेनाके साथ अकेले युद्ध करने जा रहे हैं । ' यह बात उन्हें कैसे सह्य होती , वे तुरंत कथामॅसे उठ खड़े हुए । उन्होंने उसी समय शंख बजाकर अपनी सारी सेना एकत्र कर ली और सेनानायकको आज्ञा दी कि ' चलो , हमलोग श्रीरामकी सहायताके लिये राक्षसोंसे युद्ध करने चलें । ' ज्यों ही वे वहाँसे जानेके लिये तैयार हुए , उन्होंने पण्डितजीके मुँहसे सुना कि ' श्रीरामने अकेले ही खर - दूषणसहित सारी राक्षससेनाका संहार कर दिया । ' तब कुलशेखरको शान्ति मिली और उन्होंने सेनाको लौट जानेका आदेश दिया ।
श्रीप्रियादासजी कुलशेखरके इस भक्तिभावका अपने दो कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं सन्त साखि जानै कलिकाल में प्रगट प्रेम बड़ोई असन्त जाके भक्ति में अभाव है । हुतो एक भूप राम रूप ततपर महा राम ही की लीला गुन सुनै करि भाव है ॥ विप्र सों सुनावै सीता चोरी को न गावै हियो खरो भरि आवै वह जानत सुभाव है । परयो द्विज दुखी निज सुवन पठाइ दियो जानै न सुनायौ भरमायौ कियो घाव है ॥ मार - मार करि कर खड्ग निकासि लियौ दियौ घोरौ सागर मैं सो आवेस आयो है । मारौं याहि काल दुष्ट रावन बिहाल करौं पांवन को देखौँ सीता भाव दूंग छायो है । जानकी रवन दोऊ दरशन दियो आनि बोले बिन प्रान कियौ नीच फल पायो है । रह सुनि सुख भयौ गयौ शोक हृदै दारुन जो रूप को निहारि नयो फेरिकै जिवायो है ॥
भक्तिका मार्ग भी बाधाओंसे शून्य नहीं है । मन्त्रियों और दरबारियोंने जब यह देखा कि महाराज राजकाजको भुलाकर रात - दिन भक्तिरसमें डूबे रहते हैं और उनके महलोंमें चौबीसों घण्टे भक्तोंका जमाव रहता है , तब उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी । उन्होंने सोचा - ' कोई ऐसा उपाय रचना चाहिये , जिससे राजाका इन भक्तोंकी ओरसे मन फिर जाय । ' परंतु यह कब सम्भव था ? एक दिनकी बात है , राज्यके रत्नभण्डारसे एक बहुमूल्य हीरा गुम हो गया । दरबारियोंने कहा - ' हो न हो , यह काम उन भक्तनामधारी धूर्तों का ही काम है । ' राजाने कहा- ' ऐसा कभी हो नहीं सकता । ' मैं इस बातको प्रमाणित कर सकता हूँ कि ' वैष्णव भक्त इस प्रकारका आचरण कभी नहीं कर सकते । ' उन्होंने उसी समय अपने नौकरोंसे कहकर एक बर्तन में बन्द कराकर एक विषधर सर्प मँगवाया और कहा - ' जिस किसीको हमारे वैष्णव भक्तोंके प्रति सन्देह हो , वह इस बर्तनमें हाथ डाले , यदि उसका अभियोग सत्य होगा तो साँप उसे काट नहीं सकेगा । ' उन्होंने यह भी कहा - ' मेरी दृष्टिमें वैष्णव भक्त बिल्कुल निरपराध हैं । किन्तु यदि वे अपराधी हैं तो सबसे पहले इस बर्तनमें मैं हाथ डालता हूँ । यदि ये लोग दोषी नहीं हैं तो साँप मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता ।
' यों कहकर उन्होंने अपना हाथ झट उस बर्तनके अन्दर डाल दिया और लोगोंने आश्चर्यके साथ देखा कि साँप अपने स्थानसे हिला भी नहीं , वह मन्त्रमुग्धकी भाँति ज्यों - का - त्यों बैठा रहा । दरबारीलोग इस बातपर बड़े लज्जित हुए और अन्तमें वह हीरा भी मिल गया । इधर कुलशेखर तीर्थयात्राके लिये निकल पड़े और अपनी भक्तमण्डलीके साथ भजन - कीर्तन करते हुए भिन्न - भिन्न तीर्थोंमें घूमने लगे । वे कई वर्षोंतक श्रीरंगक्षेत्रमें रहे । उन्होंने वहाँ रहकर ' मुकुन्दमाला ' नामक संस्कृतका एक बहुत सुन्दर स्तोत्र - ग्रन्थ रचा , जिसका संस्कृत जाननेवाले अब भी बड़ा आदर करते हैं । इसके बाद ये तिरुपतिमें रहने ।लगे और वहाँ रहकर इन्होंने बड़े सुन्दर भक्तिरससे भरे हुए पदोंकी रचना की । श्री कृष्ण तथा श्रीरामकी लीलाओंपर भी कई पद रचे थे ।
श्रीलीलानुकरणजी
एक बार जगन्नाथधाममें नृसिंहलीला हुई , उसमें एक प्रेमी भक्तने नृसिंहका वेश धारणकर लीलाका अनुकरण किया और आवेशमें आकर उसने हिरण्यकशिपुको सचमुच ही मार डाला । कुछ लोग कहने लगे कि इसने द्वेषवश मारकर बदला चुकाया है तो कुछ लोग कहते थे कि इसने आवेशमें आकर मारा है । अन्तमें परीक्षा करनेके लिये लोगोंने कहा कि इन्हें रामलीलामें दशरथ बनाओ , तब पता लग जायगा । रामलीलाकी तैयारी हुई । इन्हें दशरथ बनाया गया । श्रीरामजीके वन चले जानेपर उनके वियोगमें व्याकुल होकर विलाप करते - करते इन्होंने अपना शरीर त्यागकर भावको पूरा कर दिया ।
श्रीरतिवन्तीजी
श्रीरतिवन्तीजी परम भगवद्भक्त थीं । इन्हें भगवान् श्रीकृष्णका बालरूप अत्यन्त प्रिय था । ये प्रतिदिन बड़ी ही श्रद्धा और प्रेमसे यशोदानन्दनकी पूजा करतीं और हर समय उनके भोगकी सामग्री जुटानेमें ही लगी रहतीं । ये चाहे कोई भी काम करतीं , परंतु मन इनका हर समय नन्द - नन्दनके ध्यानमें ही निमग्न रहता था । श्रीकृष्ण चरित्रकी कथा कहीं भी होती तो पूजाके अतिरिक्त सारा काम छोड़कर ये दौड़ती हुई चली जातीं । कथा अत्यन्त श्रद्धा - भक्तिसे ध्यानपूर्वक सुनतीं तथा अन्तमें सबके चले जानेपर ही वहाँसे उठती थीं ।
एक दिनकी बात है , व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के लिये वे भोग - सामग्री तैयार कर रही थीं । अतः कथा सुनने ये नहीं जा सकीं । इन्होंने उस समय अपने पुत्रको कथा सुननेके लिये भेज दिया ।
. उस दिन ऊखल - बन्धन लीलाका प्रकरण था । बच्चेने लौटकर अपनी मातासे सारी कथा संक्षेपमें इस प्रकार सुना दी- '
व्रजबालाओंने श्रीकृष्णकी माखनचोरीकी शिकायत नन्दरानीसे पहले ही कर दी थी । एक दिन यशोदाने स्वयं अपनी आँखोंसे कन्हैयाको माखन चुराते और उसे ग्वालबालों तथा बन्दरोंमें वितरण करते देख लिया । इसपर मैया क्रोधित हो गयी और उसने सुकुमार कन्हैयाको पकड़कर ऊखलसे बाँध दिया । ' श्रीकृष्णचन्द्रके ऊखलमें बाँधनेकी बात सुनते ही श्रीरतिवन्तीजी अधीर हो गयीं । वे दुःखसे घबरा उठीं और उन्होंने तुरंत अपने प्राण छोड़ दिये । नश्वर देह छोड़ते समय उनके मुँहसे इतना ही निकला था कि ' यशोदारानी - सरीखी निष्ठुर स्त्री जगत्में नहीं होगी । उसने कुसुम - सुकुमार कन्हैयाको ऊखलसे ....... !
श्रीप्रियादासजीने श्रीलीलानुकरणजी श्रीरतिवन्तीजीके इस का अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है -
नीलाचल धाम तहाँ लीला अनुकर्न भयो नरसिंह रूप धरि साँचे मारि डारयो है । कोऊ कहैं द्वेष कोउ कहत आवेस तो पै करो दशरथ कियो भाव पूरो पारयो है ॥ हुती एक बाई कृष्णरूप सों लगाई मति कथा में न आई सुत सुनी कह्यो धारयो है । बाँधे जसुमति सुनि और भई गति करि दई साँची रति तन तज्यो मन वारयो है ॥ भक्तिसे भगवान्को वशमें करनेवाले भक्त हौं कहा कहौं बनाइ बात सबही जग जानै । करतैं दौना भयो स्याम सौरभ मन मानै ॥
मित्र
परिवर्तन संसार का नियम है । हर क्षण परिवर्तन होते ही रहता है ।सबमे परिवर्तन, संसार के सभी जङ चेतन मे परिवर्तन। कैसा परिवर्तन, कौन कर रहा है परिवर्तन? परिवर्तन यानि गति । सद्गति और दुर्गति । सद्गति के लिए सत्कर्म दुष्कर्म। सद्गति के लिए सत्संग। सत्संग के लिए शास्त्र की स्वाध्याय जरूर करनी चाहिए। मेरे इस ब्लॉग 'सनातन वैदिक धर्म कर्म मे इन्ही विषयों पर लेख है ,जो मैने संतो के मुख से सूनी किताबों मे पढा और जो आज भी प्रामाणिक और प्रासंगिक है । उन्ही लेख का प्रकाशन करता हूं ।कोई कल्पना नही है ।जो सच है वो सच है ।
सत्यमेव जयते
हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम
BHOOPAL Mishra
Sanatan vedic dharma karma
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