Bhuvan singh & Deva panda _भुवन सिंह की कथा

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  महाराज भुवनसिंह के जीवन चरित्र 


 उदयपुर के महाराणा के एक दरबारी भुवनसिंह चौहान बड़े शूरवीर , साहसी और युद्ध कला मे निष्णात थे । इसके साथ ही श्रीनाथजी के चरणों में भी उनका परम अनुराग था । एक भार महाराणा शिकार के लिये गये । महाराणा के साथ सभी प्रमुख सामन्त थे । कई पशुओं का शिकार किया गया , पर भुवन सिंह द्वारा किसी जीव ने प्राणों से हाथ नहीं धोया । अकस्मात महाराणा को एक सुन्दर हिरणी दिखायी दी और उन्होंने उसके पीछे अपना घोड़ा लगा दिया । उस पर्वतीय प्रदेशों मे हिरणी कहीं छिप गयी । महाराणा क्लांत थे । उन्होंने अपने विश्वसनीय शूर भुवनसिंह चौहानको संकेत किया । अपने स्वामीका संकेत पाकर अपनी शूरवीरताका गर्व रखनेवाले खोजने लगे । वे उसे ढूँढ़ने में सफल ही नहीं हुए प्रत्युत उन्होंने अपनी बिजली सी चमकती खड्गसे एक वृक्षके पीछे छिपी हुई उस निरीह हिरणी के पलक झपकते दो टुकड़े भी कर डाले । पर उसके नेत्रोंकी करुणा भुवनसिंह चौहानका हृदय विध गया । उनके नेत्रों के मूक पशु अपने उदरस्थ शावक सहित तड़पकर शान्त हो गया ।


 भुवनसिंहका हृदय उन्हें धिक्कार उठा - ' अरे अभिमानी योद्धा तूने एक गर्भवती हिरणीका वधकर कौन - सी शूरवीरता दिखायी क्या तेरी यही भगवद्भक्ति है ? जीवघाती चौहान तुझे धिक्कार है ।। " आत्मग्लानि से दगध होते हुए भुवनसिंह चौहान घर लौट आये । उन्होंने आठ - आठ आँसू रोकर भगवान से अपने अपराध के लिये क्षमा माँगी । उसी समय उन्होंने तलवारका त्याग कर दिया और काष्ठ ( दार ) की तलवार म्यानमें डाल ली ।


 महाराणाको भुवनसिंहके हृदयकी बातका क्या पता ? वे तो उनका और भी अधिक सम्मान करने लगे । शूरवीरताके लिये उन्हें पुरस्कृत किया गया ; पर भक्त तो शूरवीरताका अभिमान छोड़ चुका था । एक ईर्ष्यालु सामन्तने उनके काठकी तलवार ग्रहण करनेके भेदका पता लगाकर महाराणासे चुगली की दरबारका एक मुकुटमणि सरदार दारकी तलवार रखे , यह असम्भव था । राजाको विश्वास नहीं हुआ , परंतु बार - बार राणाके कानोंमें जब यही बात दुहरायी गयी तो वे भ्रमित हो गये । अन्तमें उन्होंने एक युक्ति निकाली , जिससे भुवनसिंहजीकी तलवार भी देख ली जाय और वे अपमानित भी न हों ।

 राणाने एक दिन वनभोजका आयोजन किया और उसमें सभी दरबारियोंको आमन्त्रित किया नाना प्रकारके मनोरंजक कार्यक्रमोंके बीच महाराणा सहसा बोले - ' अच्छा , सभी सामन्त अपनी - अपनी तलवार दिखायें । देखें , किसकी तलवारमें अधिक चमक है ? " ऐसा कहकर सबसे पहले महाराणाने अपनी तलवार निकाली । उसके बाद तो बारी - बारीसे सभी अपनी - अपनी तलवारें म्यानोंसे निकालते और रख देते । भुवनसिंह चौहान बड़े धर्म - संकटमें पड़े । सभीके नेत्र उन्हींकी ओर लगे थे । उन्होंने कहना चाहा - ' मेरी तलवार तो दार ( काठ ) की है , पर भगवत्कृपासे उनसे कहते यह बन पड़ा कि ' मेरी तलवार तो सार ( असली लौह धातु ) की है और जैसे ही विकम्पित हाथसे उन्होंने तलवार म्यानसे निकाली तो उनके सहित सबके नेत्र आश्चर्यसे फटे - से रह गये । वह तलवार सचमुच सारकी थी और वही सबसे अधिक चमक रही थी । लगता था , जैसे बिजली काँध गयी हो । भगवान्ने अपने भक्तकी लाज रखी , उसके वचनको सत्य किया । अब राणासे नहीं रहा गया । वे रोषसे आग - बबूला हो गये और भरी सभामें उन्होंने भुवनसिंहजीको सारी घटना सुनानेके बाद उस चुगलखोर सामन्त का सिर उड़ा देनेकी घोषणा की । 

              भुवनसिंहने इस सारे घटनाचक्रमें श्रीनाथजीकी अहेतुकी कृपाका दर्शन किया और अपराधी सामन्तके लिये प्राणदानकी याचना करते हुए आर्द्रवाणीसे कहा - ' राणाजी ! वास्तवमें गर्भवती हिरणीका प्राण लेनेके पश्चात् मैंने दारकी तलवार ही धारण कर ली थी । यह त ो भगवत्कृपा है कि आपको यह सारकी दृष्टिगोचर हुई । ' उन्होंने फिर म्यानसे तलवार निकाली तो वह इस बार दारकी ही थी । सब लोग और भी चकित हुए । राणा उनकी भगवद्भक्ति और अहिंसा भावना से बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने कहा- ' सरदार भुवनसिंह । अब आपको दरबारमें आनेकी आवश्यकता नहीं । मैं नहीं चाहता कि आपकी भगवदाराधनामें विघ्न पड़े । आवश्यकता होनेपर मैं ही आपके पास आऊँगा , जिससे मेरा भी इस संसार सागरसे उद्धार हो जायगा । आप तो भगवान् त्रिलोकीनाथके ही दरबारी होनेयोग्य हैं । आजसे आपकी जागीर दो लाखके स्थानपर चार लाख रुपये वार्षिक की जाती है । आप धन्य हैं । "


 विनयावनत भुवनसिंहजीने निवेदन किया- ' राणाजी मुझे जागीर नहीं चाहिये । आपसे यही प्रार्थना है कि आप भी शिकारका व्यसन छोड़कर सभी भूत - प्राणियोंके प्रति दयाका भाव अपनायें । ' राणाने उनकी सम्मति स्वीकार कर ली । जिसे अनन्त ब्रह्माण्डोंके अधिपतिकी कृपा प्राप्त हो गयी हो , उसे सांसारिक सम्पत्ति- जागीरसे क्या काम ! भुवनसिंहजीकी भक्ति - भावना दिनोंदिन पुष्ट होती गयी । वे शेष जीवनमें भगवदाराधन करते हुए अन्तमें दिव्य भगवद्धामको प्राप्त हुए ।


 श्रीप्रियादासजी भगवान्‌की इस भक्तवत्सलताका वर्णन अपने कवित्तोंमें इस प्रकार करते हैं -

सुनौ कलिकाल बात और है पुराण ख्यात ' भुवन चौहान ' जहाँ राना की दुहाई है । पट्टा युग लाख खात सेवा अभिलाष साधु चल्यो सो सिकार नृप संग भीर धाई है ॥


              देवा पंडा जी महाराज 


      उदयपुर के पास श्रीरूप चतुर्भुज स्वामी का मंदिर है। देवाजी पांडा इसमें पुजारी थे। वह बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन बड़ी भक्ति और विधिपूर्वक भगवान की पूजा करते थे। एक दिन की बात है - उदयपुर - राजा एक रात बीत जाने के बाद मंदिर में आए। शयन आरती समाप्त हुई। भगवान को सुलाने के बाद देवजी ने भगवान के गले से माला उतारकर अपने सिर पर रख ली थी, और आंतरिक-गृह के दरवाजे बंद करके मंदिर से बाहर आ रहे थे - इस समय महाराणा वहाँ पहुँचे। दरवाजे पर अचानक महाराणा को देखकर देवजी घबरा गए और मंदिर में प्रवेश कर गए और भगवान की माला पहनने लगे। उस दिन दूसरी माला नहीं थी, इसलिए महाराणा को क्रोध नहीं आना चाहिए, इसलिए देवजी ने अपने सिर पर जो माला पहनी थी, उसे उतारकर बाहर जाकर महाराणा के गले में डाल दिया। सोचने और सोचने का समय कहाँ था, देवजी के सिर के सारे बाल सफेद हो चुके थे और बाल लंबे थे। दोनों सफेद बालों की माला में महाराणा के गले में आ गए। बाल देखकर राणा ने व्यंग्य करते हुए कहा- 'पुजारीजी! ऐसा लगता है कि भगवान के सारे बाल सफेद हो गए हैं। ' देवजी ने इसका उत्तर देने के लिए और कुछ नहीं सोचा, उन्होंने जल्दबाजी में और भयभीत होकर कहा - 'हाँ सरकार! ठाकुरजी के बाल सफेद हो गए हैं। ' राणा पुजारी के जवाब पर हँसे। उसी समय पुजारी के मन में क्रोध आ गया। उसने गंभीरता से कहा - 'मैं कल सुबह आकर खुद देखूंगा। ' यह कहकर वह लौट गये। 


देवाजी ने आनन-फानन में राणा को बताया, लेकिन अब वह बहुत चिंतित हो गया। राणा सुबह आएगा और न जाने भगवान के सफेद बाल न मिले तो क्या करेगा। देवाजी की आँखों से नींद उङ गई। खाया तो कुछ नहीं था। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। देवाजी ने कहा - 'मेरे स्वामी !  मेरे मुंह से ऐसी  बात निकल गई। तुम तो नित्य नव किशोर हो । आपके सफेद बाल कैसे हैं? लेकिन जब महाराणा सुबह आकर तुम्हारे काले बालों को देखेंगे तो तुम्हारे इस सेवक का क्या हाल होगा? 

यों कहकर देवा जी फफक फफकर रो पङे । इसी प्रकार भगवान को पुकारते और रोते कल्पते रात बीती।   प्रात:काल नहा धोकर, काँपते-काँपते उसका हृदय भय से धड़क रहा था। दरवाजा खोलते ही मैंने देखा - कल्याण की कृपा - कल्पतरु श्री देवता के सभी बाल ठीक हो गए हैं। देवा के हृदय की अजीब स्थिति है - क्या यह स्वप्न है? करुणा - वरुणालय की इस अतुलनीय कृपा और नम्रता को देखकर प्रेमी और आनंदमय देव की बाहरी चेतना चलती रही। असहाय महसूस कर वह जमीन पर गिर पड़े ।

बहुत देरके बाद देवाकी समाधि टूटी । उनके दोनों नेत्रोंसे आनन्द और प्रेमके शीतल आँसुओंकी वर्षा हो रही थी । इसी समय महाराणा परीक्षाके लिये पधारे । देवाजीको विकलतासे रोते देखकर उन्होंने समझा कि ' रात्रिको मुझसे कह तो दिया , पर अब भयके मारे रो रहा है । ' इतनेमें ही उनकी दृष्टि भगवान्के श्रीविग्रहकी ओर गयी , देखते ही राणा आश्चर्य - सागरमें डूब गये- श्यामसुन्दरके समस्त केश सफेद चाँदीसे चमक रहे हैं । महाराणाको विश्वास नहीं हुआ । उन्होंने समझा - ' पुजारीने अपनी बात रखनेके लिये कहींसे सफेद बाल लाकर चिपका दिये हैं । ' राणाके मनमें परीक्षा करनेकी आयी और उन्होंने अपने हाथसे चट भगवान्के सिरका एक बाल बलपूर्वक उखाड़ लिया । राणाने देखा - बाल उखाड़ते समय श्रीविग्रहको मानो दर्द हुआ और उनकी नाकपर सिकुड़न आ गयी । इतना ही नहीं , बाल उखड़ते ही सिरसे रक्तकी बूँद निकली और वह राणाके अंगरखेपर आ पड़ी । राणा यह देखते ही मूर्छित होकर जमीनपर गिर पूरा एक पहर बीतनेपर महाराणाको चेत हुआ । उन्होंने देवाजीके चरण पकड़कर कहा- ' प्रभो ! मैं अत्यन्त मूढ़ , अविश्वासी और नीचबुद्धि हूँ । मैंने बड़ा अपराध किया है । भक्त क्षमाशील होते हैं - ऐसा मैंने सुना है । आप मेरा अपराध क्षमा कीजिये- मेरी रक्षा कीजिये । ' यों कहते - कहते महाराणा अपने आँसुओंसे देवाजीके चरण धोने लगे ।


 देवाजीने महाराणाको उठाकर हृदयसे लगा लिया और गद्गद वाणीसे कहा ' यह सब मेरे प्रभुकी महिमा है । मैं अशिक्षित गँवार केवल पेटकी गुलामीमें लगा था । भगवान्‌की पूजाका तो नाम था । पर मेरे नाथ कितने दयालु हैं , जो मेरी मिथ्या पूजापर इतने प्रसन्न हो गये और मुझ नालायककी बात रखनेके लिये उन्होंने अपने नित्यकिशोर सुकुमार विग्रहपर श्वेत केशोंकी विचित्र रचना कर ली । मैं क्या क्षमा करूँ मैं तो स्वयं अपराधी हूँ ! राजन् ! मैंने तो झूठ बोलकर आपका तथा भगवान्‌का भी अपराध किया था । पर वे ऐसे दीनवत्सल हैं कि अपराधीके अपराधपर ध्यान न देकर उसकी दीनतापर ही रीझ जाते हैं । ' राणा तथा देवा दोनों ही भगवान्‌की कृपालुताका स्मरण करते हुए रो पड़े !


 श्रीचतुर्भुजजीने राणाको आज्ञा की- तुम्हारे लिये यही दण्ड है कि जो भी राजगद्दीपर बैठे , वह दर्शनोंके लिये मेरे मन्दिरमें न आये । इस आज्ञाके अनुसार उनकी आन मानकर जो भी राजा उदयपुरकी राजगद्दीपर बैठते हैं , वे दर्शन करने मन्दिरमें नहीं आते हैं ।


 श्रीप्रियादासजी भगवान्की इस भक्तवत्सलताका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं दरसन आयो राना रूप चतुर्भुज जू कैं रहे प्रभु पौढ़ि हार सीस लपटाये हैं । वेगि ही उतारि कर लैकै गरे डारि दियो देखि धौरौ बार कही धौरे आये ? आये हैं ॥ कहत तो कही गई सही नहीं जात अब महीपति डारै मारि हरिपद ध्याये हैं । अहो हृषीकेश करौ मेरे लिये सेतकेस लेसहूँ न भक्ति कही किये देखो छाये हैं ॥ मानि राजा त्रास दुखरासि सिंधु बूड्यौ हुतो सुनिकै मिठास बानी मानौं फेरि जियौ है । देखे सेत बार जानी कृपा मो अपार करी भरी आँखें नीर सेवा लेस मैं न कियौ है ॥ बड़ेई दयाल सदा भक्त प्रतिपाल करें मैं तो हौं अभक्त ऐपै सकुचायौ हियौ है । झूठे सनबन्धहूँ तै नाम लाजै मेरोई जू तातैं सुख साजै यह दरसाय दियौ है ॥ आयो भोर राना सेत बार सो निहारि रह्यो कह्यौ केस काहूके लै पंडाने लगाये हैं । ऐंचि लियो एक तामैं खँचिकै चढ़ाई नाक रुधिरकी धार नृप अंग छिरकाये हैं । गिरयो भूमि मुरछा है तनकी न सुधि कछू जाग्यो जाम बीते अपराध कोटि गाये हैं । यही अब दण्ड राज बैठे सो न आवै इहाँ अब लौं हूँ आनि मानि करें जो सिखाये हैं ॥ 

मित्र 

इन चरित्रों को पढने लिखने के बाद इतना सामर्थ्य नही रहता है कि ,कोई गलत काम करे, या सही काम कर सके ।चीत की स्थिति भगवनमय हो जाता है ।संतो के महिमामय जीवन चरित्र ही कराल कलिकाल मे  दिव्य पुष्पक विमान के समान है । अपने सम्पूर्ण हितैसी समेत आरूढ हो जांए। 

 हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

BHOOPAL Mishra 

Sanatan vedic dharma karma 

Bhupalmishra35620@gmail.com 



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