Sri Kamdwajji. ,Jaimal ji Maharaj श्री कामध्वज जी महाराज

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 कामध्वज जी महाराज के भगवद्भक्ति 


श्रीकामध्वजजी बहुत पहलेकी बात है , राजस्थानके उदयपुर राज्यमें एक सेवक - परिवार रहता था । उस परिवारमें चार भाई थे । उनमेंसे तीन भाई तो उदयपुरके शासक राणाजीके यहाँ सेवा कार्य करते थे , परंतु चौथे भाई श्रीकामध्वजजी भगवद्भक्त थे । वे वनमें रहकर भजन करते और समयपर घर आकर भोजन - प्रसाद पाकर फिर वनमें चले जाते । यही उनका नित्यका कार्य था । उनके तीनों भाई उनको ' कामके न काजके दुश्मन अनाजके ' मानकर उनसे नाराज हो रहा करते थे । एक दिन तीनों भाइयोंने कामध्वजजीसे कहा - ' भाई ! यदि तुम थोड़ी देर के लिये राणाजीके दरबारमें चलकर हाजिरी लगा दिया करो तो हमें तुम्हारा भी वेतन मिल जाया करे , जिससे घरका खर्च भी ठीकसे चल सके । ' इसपर श्रीकामध्वजजी बोले - ' मैं जिसका सेवक हूँ , उसकी सेवा करता हूँ और उसीकी हाजिरी बजाता हूँ , दूसरेसे हमे क्या काम ? ' भाई लोग उनका उत्तर सुनकर बहुत नाराज हुए और बोले – ‘ जब तुम मर जाओगे तो तुम्हें जलायेगा कौन ? ' श्रीकामध्वजजीने उत्तर दिया- ' जिसके हम सेवक हैं , वही हमें जलायेगा । ' भाइयोंने समझ लिया कि इनसे कुछ कहना - सुनना बेकार है , ये कुछ करेंगे नहीं । सो उन्हें उनके हालपर छोड़कर चले गये । इधर एक दिन भजन करते - करते श्रीकामध्वजजीका शरीर छूट गया । 


भक्तका कार्य तो अब पूरा हो चुका था , आगे भगवान्की बारी थी , क्योंकि भक्तके कथनकी पूर्ति तो भगवान्‌को ही करनी होती है । कामध्वजजीका शव वनमें पड़ा हुआ था । बन्धु - बान्धवोंको न कोई खबर थी न ही वे खोज - खबर रखनेकी जरूरत ही समझते थे , परंतु दीनबन्धु भला अपने ऐसे अनन्य सेवकको कैसे भुला सकते थे । उन्होंने अपने उस सेवक ( श्रीकामध्वजजी ) की दाहक्रियाका भार अपने सेवक श्रेष्ठ श्रीहनुमान्जीको सौंपा । 




धन्य हो गये श्रीकामध्वजजी ! उन्हें जो सौभाग्य मिला , वह तो ऋषि , मुनि , देव , मनुज - सबके लिये दुर्लभ था । स्वयं भक्तराज श्रीहनुमान्‌जी महाराजने उनके लिये चन्दनकी चिता तैयार की , उसपर श्रीकामध्वजजीका शरीर रखा और उसकी दाहक्रिया की । जिस वनमें श्रीकामध्वजजी रहते थे , वहाँ बहुत से प्रेत भी रहते थे । श्रीकामध्वजजीकी चिताग्निसे निकले परम पवित्र धुएँके स्पर्श और आघ्राणसे वे लोग उस अपवित्र प्रेतयोनिसे मुक्त हो गये । दैवयोगसे उस प्रेतमण्डलीका एक सदस्य उस समय कहीं चला गया था , वापस लौटनेपर जब उसने अपने संगी - साथियोंको गायब देखा तो रोने लगा । वहीं एक सिद्ध सन्त रहते थे , उसने उनसे पूछा तो सारा वृत्तान्त मालूम हुआ । अब तो वह लगा पछताने कि हाय ! मैं ही एक अभागा था , जो समयपर यहाँ नहीं था , अन्यथा मुझे भी इस कुत्सित पापयोनिसे मुक्ति मिल जाती । उसने उन सिद्ध सन्तसे प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरे ऊपर कृपा करें , अभी इस पुण्यात्मा महापुरुषकी चितामें अग्नि अवशिष्ट है , आप थोड़ा तृण - काष्ठ आदि इसमें डाल दें तो इसमेंसे धुआँ निकलने लगेगा और उसके स्पर्श एवं आघ्राणसे मेरी भी मुक्ति सम्भव हो जायगी । सन्तने उसके दुःख और उसकी सच्ची भावनासे द्रवित हो उस चिताग्निमें तृण - काष्ठादि डाल दिये , जिससे उसमेंसे पुनः धूम उठने लगा और उसके स्पर्श एवं आघ्राणसे वह बचा हुआ प्रेत भी मुक्त होकर भगवद्धामको चला गया । 



श्रीप्रियादासजी महाराज श्रीकामध्वजजीके इस चरितका वर्णन अपने कवित्तमें इस प्रकार करते हैं भये चारि भाई करें चाकरी वै रानाजूकी तामैं एक भक्त करै बनमें बसेरो है । आय कै प्रसाद पावै फेरि उठि जाय तहीं कहँ नेकु चलौ तौ महीना लीजै तेरो है ॥ जाके हम चाकर हैं रहत हजूर सदा मरै तौ जरावै कौन ? वही जाको चेरो है । छूट्यो तन वन राम आज्ञा हनुमान आये कियो दाह धुआँ लगे प्रेत पार नेरो है ॥

जयमल जी महाराज के पावन चरित्र 


श्रीजयमलजी भगवान् श्रीहरि अपने अनन्य भक्तोंका न केवल योग - क्षेम वहन करते हैं , अपितु अपने भक्तोंके मुखसे निकली वाणीको भी सत्य करते हैं , पुराणोंमें तो इसके अनेक प्रमाण प्राप्त होते ही हैं , ईसाकी सोलहवीं शताब्दीमें हुए राजा जयमलका जीवन - चरित भी इसका ज्वलन्त प्रमाण है । 


राजा जयमल राजस्थानकी मेड़ता रियासतके राजा थे , इनके परदादा राव जोधाजीने प्रसिद्ध जोधपुर नगर बसाया था । आप रसिकशिरोमणि सन्त श्रीहितहरिवंशजीके शिष्य और श्रीराधा - माधवजीके अनन्य भक्त थे । श्रीठाकुरजीकी सेवा - पूजामें उनका बड़ा भारी अनुराग था , उसमें उन्हें जरा भी व्यवधान स्वीकार नहीं था । यहाँतक कि उस समय कोई कितनी भी महत्त्वपूर्ण राजकीय सूचना क्यों न हो , वे उसे नहीं सुनते थे और सन्देश लेकर आनेवालेको मृत्युदण्ड दे दिया करते थे । उनकी पूजा सेवाका समय भी थोड़ा नहीं था , मन्दिरमें नित्य पूरे दस घड़ीतक वे भगवान्‌की सेवा किया करते थे । राजाका एक भाई था , परंतु वह राजासे ठीक विपरीत स्वभावका था । उसे भगवान्‌की सेवा - पूजासे कोई मतलब नहीं था , साथ ही जयमलसे द्वेष भी करता था । यद्यपि वह मँडोवर - जैसे समृद्ध राज्यका राजा था , पर उसकी महत्त्वाकांक्षा राजा जयमलके भी राज्यको हस्तगत कर लेनेकी थी । उसे किसी प्रकार राजाके सेवा - पूजाके नियमकी जानकारी हुई तो उसने एक कुटिल योजना बनायी । उस दुष्टने सोचा कि जब राजा जयमल पूजा कर रहे हों , तभी मेड़तापर आक्रमण कर देना चाहिये ; क्योंकि मृत्युदण्डके भयसे उन्हें कोई आक्रमणकी सूचना देने नहीं जायगा और आसानीसे राज्य हस्तगत हो जायगा । ऐसा सोचकर उसने मेड़तापर आक्रमण कर दिया । राज्यपर आये इस प्रकारके संकटको देखकर मन्त्रियोंने विचार - विमर्श करके राजमातासे निवेदन किया कि आप ही महाराजको सूचना देनेमें समर्थ हैं , क्योंकि आपके प्रति पूज्य भावसे राजा आपको कुछ नहीं कहेंगे और उनतक सूचना भी पहुँच जायगी , फिर वे जैसा आदेश देंगे , हम लोग वैसा ही करेंगे , दूसरे किसीको भेजनेपर महाराज उसकी बात भी न सुनेंगे और प्राणदण्ड भी दे देंगे ।

                

 राज्यपर आये संकटकी गम्भीरताको देखते हुए राजमाता मन्त्रियोंके परामर्शसे मन्दिरमें गयीं और भगवान्‌की सेवा - पूजामें रत राजा जयमलको उन्होंने आक्रमणकी सूचना दी । राजा जयमलने माताकी बात सुनकर सिर्फ इतना कह दिया कि ' भगवान् सब अच्छा ही करेंगे ' और स्वयं नित्यकी ही भाँति सेवा - पूजामें लगे रहे । इतने बड़े संकटकी सूचना भी उनके मनको सेवा - पूजासे न विचलित कर सकी और न ही उन्हें उद्विग्न कर सकी ।


 अब मन्त्रियों के समक्ष समस्या थी , वे किंकर्तव्यविमूढ़ थे ; क्योंकि राजाकी ओरसे कोई स्पष्ट आदेश उन्हें नहीं प्राप्त हो सका था । आक्रमणकर्ता राजाका भाई ही था , ऐसेमें साम - दामसे भी कार्य हो सकता था । राजाका स्पष्ट आदेश होता तो दण्डनीति अर्थात् युद्धके लिये सेनाको कूच कराया जाता । इधर राजमन्त्रियोंके समक्ष यह समस्या थी , उधर राजमन्त्रियोंकी यह किंकर्तव्यविमूढ़ता भगवान्‌के लिये समस्या बन रही थी , क्योंकि राजाने कहा था कि ' भगवान् सब अच्छा ही करेंगे ' , ऐसेमें सारा उत्तरदायित्व भगवान्का ही हो जाता था । आखिर भक्तके राज्य और उसके वचनकी रक्षा भी तो उन्हींका दायित्व है ।


 शत्रुसेना निर्बाध रूपसे बढ़ी चली आ रही थी ; जब सेना मेड़ताके एकदम निकट पहुँच गयी तो भगवान्से रहा न गया । उन्होंने झट सैनिकका वेश बनाया ; एक हाथमें तलवार ली , दूसरेमें भाला धारण किया । पीठपर ढाल बाँधी और राजाकी घुड़सालमें जाकर राजाकी सवारीका अश्व खोल लाये , फिर उसपर सवार होकर अकेले ही युद्धभूमिकी ओर चल दिये । भगवान्के सवार होते ही अश्व सरपट दौड़ चला , मानो उसमें भगवान् श्रीहरिके शाश्वत वाहन गरुड्जीका आवेश हो गया हो । पहले तो अकेले एकमात्र सैनिकको आते देखकर

शत्रु राजाने सोचा कि सम्भवतः यह सन्धि प्रस्ताव लेकर आ रहा होगा , परंतु थोड़ी ही देरमें उसका वह भ्रम दूर हो गया , जब सैनिक बने श्रीभगवान् तलवार चलाते हुए शत्रुसेनामें घुस गये । उस समय उनकी तलवार बिजलीकी भाँति काँधकर शत्रुओंको सिरविहीन कर रही थी और भालेका एक ही प्रहार हाथियोंके गण्डस्थलको फाड़कर उन्हें धराशायी कर दे रहा था । प्रथम तो शत्रुसेनाने उस सैनिकको घेरनेका प्रयास किया , पर वायुवेगसे दौड़ते अश्व और विद्युत्‌की भाँति चमकती तलवारके पास आनेका उनका साहस न हुआ और थोड़ी ही देरमें मैदान खाली हो गया । भला , जिसके भ्रूसंचालनमात्रसे प्रलय होता हो , उसके लिये थोड़ी - सी सेनाका क्या अस्तित्व अब युद्धक्षेत्रमें सिर्फ शत्रु राजा ही अकेला बच रहा , उसकी सेना भाग खड़ी हुई थी । शत्रु भी मेरे भक्तका भाई ही है , यह सोचकर भगवान्ने उसका वध करनेके स्थानपर उसे अपनी उसी भुवनमोहिनी छविके दर्शन कराये , जिसका कि दर्शनकर खर - दूषण और त्रिशिरा मोहित हो गये थे । उस छवि और तेजको देखते ही राजाके भाईका शत्रुभाव नष्ट हो गया और वह मूर्च्छित होकर वहीं रणभूमिमें गिर पड़ा । संकट समाप्त हुआ देखकर भगवान् रणभूमिसे वापस लौट आये और घोड़ेको पुनः घुड़सालमें बाँध दिया ।


 इधर जब राजाने भगवान्की सेवा पूजा कर ली तो उन्हें माताद्वारा दी गयी आक्रमणकी सूचनाकी याद आयी , फिर तो वे राजाके कर्तव्यका ध्यानकर युद्धभूमिमें जानेको उद्यत हो गये । उन्होंने सईसको तुरंत घोड़ा तैयारकर लानेके लिये कहा । सईसने घुड़सालमें जाकर देखा तो घोड़ा पसीनेसे पूरी तरह लथपथ था , ऐसा लगता था , जैसे उसे बहुत दौड़ाया गया हो । सईसने तुरंत जाकर राजाको इस बातकी सूचना दी । राजाने घुड़सालमें जाकर देखा तो सचमुच घोड़ा पसीनेसे लथपथ था । फिलहाल युद्धभूमिमें तो जाना ही था , अतः राजा दूसरे घोड़ेपर सवार हुए और युद्धभूमिकी ओर चल दिये । वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि आक्रमणकारी राजाकी सारी सेना घायल पड़ी है , आगे जानेपर देखा कि आक्रमण करनेवाला भाई भी घायल पड़ा है । उसने राजा जयमलको देखते ही सिर झुका लिया और बोला - आपको जो दण्ड देना हो , मुझे स्वीकार है । राजा जयमलने कहा कि पहले यह तो बताओ कि तुम्हारी सेनाका विनाश किसने किया और तुम कैसे घायल हो गये ? उसने कहा तुम्हारी ओरसे मात्र एक साँवला - सा सिपाही घोड़ेपर बैठकर आया था , उसने ही मेरी सेनाका विनाश किया और उसकी दृष्टि पड़ते ही मैं घोड़ेसे गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया । राजा जयमलको अब सब समझते देर न लगी कि वह साँवला सिपाही कौन था ? वे तो उनके आराध्यदेव श्यामसुन्दर ही थे । राजाने सोचा जब उन्होंने इस शत्रुको क्षमा कर दिया तो मुझे दण्ड देनेका क्या हक है ? अतः उन्होंने भाईसे कुशल प्रश्नकर उसे वापस घर भेज दिया । उधर भाईके मनमें भी पश्चात्ताप हुआ कि मैंने अपने सन्तप्रकृति भाईसे इस प्रकारका द्रोह किया । उसने बार - बार क्षमा माँगी और स्वयं भी भगवद्भक्त हो गया । 


इधर राजा जयमलके मनमें बड़ा दुःख हुआ कि मेरे कारण भगवान्‌को इतना कष्ट उठाना पड़ा । मैंने मातासे जो यह कह दिया था कि ' भगवान् सब अच्छा ही करेंगे ; ' इसीलिये भगवान् मेरे राज्यकी रक्षाके लिये स्वयं युद्ध करने गये । इस प्रकार करुणामय प्रभुने अपने भक्त राजा जयमलके वचनकी रक्षा की ।


 श्रीप्रियादासजी महाराज इस घटनाका अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन करते हैं 



' मेरतै ' प्रथम बास ' जैमल ' नृपति ताकौं सेवा अनुराग नेकु खटकौं न भावहीं । कर घरी दस तामैं कोऊ जो खबर देत लेत नहीं कान और ठौर मरवावहीं ॥ हुतो एक भाई बैरी भेद यह पाइ लियो कियो आनि घेरौ माता जाइकै सुनावहीं । ' करें हरि भली ' प्रभु घोरा असवार भये मारी फौज सब कहैं लोग सचु पावहीं 



हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म कर्म 

Bhupalmishra35620@gmail.com 

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