Sri Gwalbhakt ji श्री ग्वालभक्त भक्त जी

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              ग्वालभक्त  जी के भव्य चरित्र 



बात पुरानी है , किसी गाँवमें एक ग्वालभक्त रहते थे । सन्त - सेवामें उनकी बड़ी प्रीति थी । घरमें जो भी उत्तम सामग्री बनती , उसे वे चुपचाप ले जाकर वनमें सन्तों - महात्माओंको निवेदित कर आते । ग्वालभक्तके पास बहुत - सी भैंसें थीं , दिनभर उन्हें चराना ही उनका नित्यकार्य था और उन्हींसे उनकी आजीविका चलती थी । घरमें उनकी माता और वे कुल दो ही प्राणी थे । 

एक बारकी बात है , उत्सवका दिन था । मां ने घरमें अनेक प्रकारके स्वादिष्ट व्यंजन बनाये थे । रसोईसे भीनी - भीनी मधुर सुगन्ध ग्वालभक्तके अन्तःकरणको रससिक्त कर रही थी । वे सोच रहे थे कि माँ जब भोजन परोसें और मैं कब लेकर जाऊँ । जब उनसे रहा न गया तो माँसे बोले - ' मैया ! तू मेरे लिये पकवान अंगौछेमें बाँध दे , मैं वन में जाकर खा लूँगा , आखिर भैंसें भी भूखी होंगी , उन्हें भी तो चराना है । ' भोली माँने अंगौछेमें ढेर सारे पकवान बाँध दिये , कुछ पकवान और भी ग्वालभक्तने माँकी नजरें बचाकर बाँध लिये और एक बड़ी - सी गठरी बना ली । 


आज घरपर उत्सव होनेके कारण वन जानेमें विलम्ब हो गया था , बाहर द्वारपर बँधी भैंसें भी रँभा रही थीं । किलभक्तजीने शीघ्रतापूर्वक भैंसोंको बन्धनमुक्त किया और सिरपर व्यंजनोंकी गठरी रख चल दिये वनकी ओर । वन में पहुँचनेपर जब भैंसें चरनेमें मग्न हो गयीं तो आपने सिरपर गठरी उठायी और भैंसोंको छोड़कर चल दिये सन्तोंके आश्रमकी ओर । वहाँ पहुँचकर सन्तोंके चरणोंमें शीश रखकर विनय की कि प्रभो ! घरमें उत्सव होने और अकेली बूढ़ी माँद्वारा ही व्यंजन बनानेके कारण देर हो गयी ; कृपाकर क्षमा करें , क्योंकि बिना आप लोगोंके प्रसाद ग्रहण किये , मैं भी सीथ प्रसादी नहीं पाऊँगा । ग्वालभक्तजीका ऐसा प्रेमभाव और ऐसी निष्ठा देखकर सन्तलोग भी गद्गद हो गये , भला हों भी क्यों न ! इस भावके तो भगवान् भी भूखे रहते हैं । 


सन्तोंकी पंगत बैठी ; ' सिय हरि नारायण गोविन्दे ' का कीर्तन हुआ , बड़ी जय बोली गयी , फिर सबने धीरे - धीरे प्रसाद पाया । जब सब सन्तोंने प्रसाद पा लिया तो श्रीग्वालभक्तजीने सब पात्र धोये और स्वयं भी सीध - प्रसादी पायी और तब पुनः वहाँ आये , जहाँ भैंसोंको चरनेके लिये छोड़ गये थे । वहाँ आकर देखा तो सभी भैंसें गायब ! हुआ यह कि जब ये सन्तोंके पास चले गये थे , तो चोरोंने भैंसोंको बिना चरवाहेके चरते देखा और हाँक ले गये । 


ग्वालभक्तजीको न तो भैंसोंकी चोरीका दुःख था , न ही सन्त सेवा करनेका पछतावा । समस्या सिर्फ यह थी कि भैंसोंके बारेमें माँको क्या बतायेंगे ? पर उन्होंने उसका भी उपाय सोच लिया । रोजकी तरह शामको लौटकर आप घर आये तो माँने पूछा - भैंसें कहाँ हैं ? भक्तजीने सोचा कि सच्ची बात बता देंगे तो माँको बहुत दुःख होगा ; जब - जब माँको भैंसोंकी याद आयेगी तब - तब वह मुझे डाँटें - फटकारेंगी , साथ ही सन्तोंको भी चार खरी - खोटी सुनायेंगी , इस तरह नित्यका क्लेश हो जायगा ; अतः उन्होंने सच्ची बात छिपा ली और बोले माँ ! एक बेचारा गरीब ब्राह्मण भूखों मर रहा था , मैंने सब भैंसें उसे दे दी हैं । वह भैंसोंको चरायेगा और दूधसे घी बनाकर इकट्ठा कर लेगा तथा छाछ - मट्ठेसे अपन काम चलायेगा । कुछ दिनों बाद वह घी और भैंसोंको वापस कर जायगा । माँकी ब्राह्मणोंके प्रति विशेष भक्ति थी , अतः कुछ नहीं कहा और बेटेके इस कार्यको उचित ही माना । 


धीरे - धीरे समय बीतता गया , भैंसोंकी बात भी आयी गयी हो गयी । बीचमें कभी माँ पूछतीं भी तोभक्तजी कह देते कि ब्राह्मण बेचारा गरीब है , जैसे ही उसकी आजीविकाकी कोई अन्य व्यवस्था हो जायगी , वह भैंसोंको वापस कर जायगा । भक्तजी यह बात केवल माँको समझाने के लिये ही नहीं कहते थे , बल्कि उनके मनमें यह दृढ़ विश्वास भी था कि सन्तोंकी सेवाके प्रतापसे मुझे भैस अवश्य वापस मिल जायेंगी । अब उनके इस भावकी रक्षाका भार भगवान

पर था , क्योंकि सन्त तो भगवान्के प्रतिनिधि ही होते हैं । कुछ दिन और बीत गये , दीवालीका त्यौहार आ गया । चारों ओर पटाखों , मिठाइयों और पकवानोंकी धूम थी , मस्तीका माहौल था । भगवान्की प्रेरणा ! चोर भी उत्सवकी धुनमें उन्मत्त थे , उन्होंने भैंसोंका खूब शृंगार किया , उन्हें चाँदीकी हँसुलियाँ पहनायाँ ; सींग - पूँछ सब अलंकृत किये । उनकी प्रवृत्ति थी तामसी , अतः उनके लिये यही उत्सव था । रातभर आतिशबाजियाँ और पटाखे छूटते रहे , अचानक किसी बालकने भैंसोंके पास जाकर पटाखेकी एक लड़ी जला दी और वे चारों ओर धायँ धायँ करके दगने लगे । भैंसकि लिये यह एकदम नयी स्थिति थी । फिर क्या वे सब रस्सी तोड़कर और खूँटे उखाड़कर भाग भक्तजीको भैंसोंने कुछ दूर जानेके बाद भक्तजीके घरका रास्ता पकड़ा और उन्हींके पीछे चोरोंकी अन्य भैंसोंने भी अनुसरण किया । सुबह होते - होते सभी भैंसें आभूषणोंसे सजी - धजी भक्तजीके दरवाजेपर उपस्थित हो गयीं । और रँभाने लगीं । भक्तजीकी माँने जब भैंसोंके रँभानेकी आवाज सुनी तो भक्तजीसे कहा- बेटा ! ये तो अपनी भैंसोंकी आवाज है , जा - जाकर देख भक्तजीने जब बाहर आकर देखा तो ठगे से खड़े रह गये । उन्होंने माँको आवाज दी - माँ ! देखो , अपनी भैंसें आ गयी हैं , बेचारे ब्राह्मणने भैंसोंको ड्योढ़ा- दूनाकर भेजा है । और घी बेंचकर आभूषण बनवा दिये हैं । माँने देखा तो आश्चर्यसे कहने लगीं - बेटा ! जिसके पास खानेका भी इन्तजाम नहीं था , उसने भला आभूषण कैसे बनवा दिये ! घी बेचनेसे इतना पैसा कैसे इकट्ठा हो सकता है ? माँकी बात सुनकर भक्तजीके सारी सच्ची घटना सुना दी । मौने खुश होकर कहा- बेटा ! यह सारा धनसे सन्त - सेवा कर दे । धन सन्तोंको कृपासे मिला है , मुझे तो मेरी भैंसें मिल गयीं , यही बहुत है ; तू इन आभूषणोंको बेंचकर प्राप्त इस प्रकार भगवान्ने सन्तोंकी कृपा और सच्ची सन्त - भक्तिका प्रभाव दरशाया ।


 भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने इस घटनाका एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है 


भयौ एक ग्वाल साधु सेवा सो रसाल करै परै जोई हाथ लैकै सन्तन खवावहीं । पायो पकवान वन मध्य गयो ख्वाइबे कौं आइबे की ढील चोर भैंस सो चुरावहीं ॥ जानिकै छिपाई बात माता सौं बनाइ कही दई विप्र भूखो घृत संग फेरि आवहीं । श्री श्रीधर स्वामीजी दिन हो दिवारी कौ सु उन्हि पहिरायौ हाँस आइ घर जाम लिये रांभकै सुनावहीं ॥

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