Haripal ji हरिपाल विप्र की कहानी

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         श्री हरिपाल विप्र की अद्भुत भगवद्भक्ति 



संतो के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन तो संभव नही है । क्योकि सौ वर्ष क के  जीवनकाल का इतिहास लिखना पढना औचित्यपूर्ण नही है ।कुछ महत्वपूर्ण लीला ही काफी है । संतो के जीवन काल मे नित्य नये नये लीला होते ही रहते है । क्यों न हो भक्त के साथ जब चराचर जगत के स्वामी साथ-साथ रहते है ।तो भक्तो का कौन सा मनोरथ पूर्ण नही होगा। धर्मात्मा महापुरूषों के जीवन मे नित्य चमत्कार होता है । तभी सर्वस्व न्योछावर कर सन्त प्रसन्नता पूर्वक अकिंचन भाव से जीवन यापन करते है।

निहकिंचन इक दास तासु के हरिजन आए । बिदित बटोही रूप भए हरि आपु लुटाए । साखि देन कौ स्याम खुरदहा प्रभुहि पधारे । रनछोर सिधारे ॥ के सदन राय आयुध छत तन अनुग के बलि बंधन अपु बपु धेरै । भक्तनि सँग भगवान नित ( ज्यों ) गऊ बच्छ गोहन फिरें ॥ 

 भगवान् सर्वदा अपने भक्तोंके साथ इस प्रकार घूमा करते हैं , जैसे बछड़ेके पीछे - पीछे गाय । ( श्रीहरिपाल नामक ) एक भगवान्‌के भक्त अति निष्किंचन थे , उनके यहाँ भक्तगण पधारे । घरमें सेवायोग्य कुछ भी नहीं था । स्वयं भगवान् लक्ष्मीजीको साथ ले यात्री बनकर आये और उस निष्किंचन भक्तके हाथोंसे लुटे । साक्षी देनेके लिये भगवान् वृन्दावनसे एक भक्तके साथ खुर्दहा ग्रामको पधारे । श्रीरणछोड़रायजी द्वारकासे श्रीरामदासजीके घर डाकौरको आये और अपने सेवक रामदासजीके ऊपर पड़ी हथियारोंकी चोटको अपने शरीरपर ले लिया । राजा बलिको बाँधनेवाले भगवान्ने अपने श्रीविग्रहको कानकी सोनेकी बालीसे भी हलका कर लिया । ये चरित्र सर्वविदित हैं ॥ 


यहाँ इन भगवतप्रेमी भक्तोंका चरित्र संक्षेपमें प्रस्तुत है 

निष्किंचन भक्त श्रीहरिपालजी

 श्रीहरिपालजीका जन्म ब्राह्मण कुलमें हुआ था , आप श्रीभगवान्‌के अकिंचन भक्त थे । सन्त - सेवामें आपकी बड़ी प्रीति थी । प्रतिदिन आपके यहाँ साधुओंकी पंगत हुआ करती थी । धीरे - धीरे जब घरका सारा धन समाप्त हो गया , तब आप बाजारसे उधार ला - लाकर सन्तोंके भोजन - प्रसादकी व्यवस्था करने लगे । थोड़े दिनमें बाजार में भी जब हजारों रुपयेका कर्ज हो गया तो वहाँसे भी उधार मिलना बन्द हो गया । पास पड़ोसके लोग इसलिये उधार देनेसे कतराते थे कि ये दिनभर तो साधु - सेवा करते हैं , कुछ काम - धन्धा तो करते नहीं , फिर वापस कहाँसे करेंगे । सन्त - सेवाके लिये जब कहींसे भी धनकी व्यवस्था न हो सकी तो ये अत्यन्त दुखी रहने लगे । ये सदैव यही सोचते कि धनकी व्यवस्थाका क्या उपाय किया जाय , जिससे सन्त - सेवा निर्बाध होती रहे । इसी क्रममें ये एक बार किसी वैश्यके यहाँ चोरी करनेके उद्देश्यसे घुसे थे । आधी रातका समय था , अचानक खटपट होनेसे वैश्यकी पुत्रीकी नींद टूट गयी । उसने अपने पितासे कहा ' पिताजी ! लगता है , घरमें कोई चोर घुसा है । वैश्यने कहा- चिन्ता न करो , हमारे गाँवमें न कोई चोर है , न कभी चोरी होती है । अगर कोई होगा भी तो हरिपाल ही होंगे , वे सन्त - सेवाके लिये ही कुछ ले जाने आये होंगे , इसलिये तू चुपचाप सो जा । ' 

पिता - पुत्रीकी इस वार्ताको जब श्रीहरिपालजीने सुना तो उन्हें इस बातकी बड़ी ग्लानि हुई कि वे एक भगवद्भक्तके यहाँ चोरी करने घुसे हुए हैं । उन्होंने सारा सामान तो वहाँ छोड़ ही दिया , साथ ही वह चादर भी छोड़ दी , जिसमें उन्होंने चोरीका सामान बाँधा था । इस घटनाके बाद उन्होंने चोरी करना भी छोड़ दिया ; क्योंकि इसमें इस बातका भय था कि कहीं गलतीसे किसी भक्तके यहाँ न चोरी हो जाय और अपराध बन जाय । परंतु साधु - सेवाके लिये धनकी भी व्यवस्था करनी थी , अतः उन्होंने जंगलमें जाकर वेशभूषा ( तिलक , माला , कण्ठी आदि ) से परीक्षाकर अभक्तोंको लूटना शुरू किया और उसी धनसे सन्त - सेवा करते ।



 एक दिन द्वारपर बड़ी - सी सन्त मण्डली आ पहुँची । इन्होंने पत्नीसे कहा- देवि ! आज हमारे बड़े भाग्य हैं , जो इतने सन्त घरपर आये हैं । तुम इनके लिये भोजनका कुछ उपाय करो । पत्नीने कहा- स्वामी ! घरमें तो एक दाना नहीं है , मैं क्या इन्तजाम करूँ ? हरिपालजीने कहा - कहीं पास - पड़ोससे ही कुछ माँग लाओ । पत्नी बोली- पास - पड़ोसवाले कोई कुछ नहीं देते , यहाँतक कि मुझे देखकर ही लोग द्वार बन्द कर लेते हैं । अब तो भगवान् ही कोई उपाय कर सकते हैं । मैं तो यही कहूँगी कि हम दोनों बैठकर भगवान्से ही प्रार्थना करें , वे ही हम लोगोंकी सुनेंगे । 


पत्नीकी बात सुनकर भक्त हरिपाल कुछ क्षणके लिये उदास हो गये , फिर बोले ठीक है , तू जैसा कहती है , वैसा ही करूँगा । फिर क्या था , भक्त दम्पतीने अत्यन्त दीन भावसे भगवान्‌की शरण ली और बोले- प्रभो ! बाहर सन्त - मण्डली खड़ी है , दीनानाथ ! अब लाज तुम्हारे ही हाथ है । 


इधर अपने निष्किंचन और सन्त - सेवी भक्त हरिपालको चिन्तित जान द्वारकानाथ भगवान् श्रीकृष्ण व्याकुल हो गये ; भक्तकी चिन्ता ही भगवान्‌की चिन्ता होती है और उसका निवारण करना ही उनका कार्य । भगवान्ने तुरंत सेठका रूप धारण किया , मूल्यवान् वस्त्र - आभूषण धारण किये और चलनेको तैयार हुए तो रुक्मिणीजीने पूछा- प्रभो ! आप अचानक कहाँ चल दिये और यह क्या भेष बना रखा है ? भगवान्ने कहा- एक भक्तके घर जा रहा था , पर तुमने टोक दिया , अब कुशल नहीं दीखती । श्रीरुक्मिणीजी किंचित् रोष व्यक्त करते हुए बोलीं - आपको तो जहाँ जाना होता है , अकेले ही चल देते हैं , मुझे तो पूछतेतक नहीं और जब आज मैंने पूछा तो आप कह रहे हैं कि टोक दिया । भगवान्ने मुसकराते हुए कहा- अच्छा , आज तुम भी चलो । बड़ा भारी भक्त है , अतः खूब सज - धज लो , देखो , मैंने भी खूब सुन्दर वस्त्र और मूल्यवान् आभूषण धारण कर लिये हैं । भगवान्‌का प्रोत्साहन पाकर श्रीरुक्मिणीजीने नखसे शिखतक मणिरत्नजटित आभूषणोंसे शृंगार किया और चलनेके लिये तैयार हो गयीं ।


 भगवान् श्रीद्वारकानाथ और श्रीरुक्मिणीजी- दोनों सेठ - सेठानी बने भक्त हरिपालके द्वारपर आये और उनसे कहा- भाई ! हमें अमुक गाँव जाना है , मार्गमें जंगल पड़ता है और मेरे पास रत्न आभूषण आदि मूल्यवान् वस्तुएँ हैं , सो हमें कोई पहुँचा दे तो उसे हम मजदूरी दे देंगे । भला अन्धा क्या चाहे - दो आँखें ; हरिपालजीको तो मुँहमाँगी मुराद ही मिल गयी थी । उन्होंने कहा- मेरे दरवाजेपर सन्तजन बैठे हैं , इनके लिये व्यवस्था करनी है , सो आप अगर मजदूरीके पैसे पहले दे दीजिये तो मैं आपके साथ - साथ चला चलूँ । भगवान् तो तैयार बैठे ही थे , उन्होंने तुरंत रुपये दे दिये । हरिपालजीने रुपये देकर पत्नीसे कहा कि इन रुपयोंसे तुम सन्तोंको बालभोग कराओ , मैं इन्हें पहुँचाकर अभी आता हूँ । 


अब श्रीहरिपालजी आगे - आगे और सेठ - सेठानी बने भगवान् तथा रुक्मिणीजी पीछे । हरिपालजी सोचते चले जा रहे थे कि सेठके पास माल तो बहुत है , परंतु भक्त है कि नहीं । क्योंकि भक्तोंको लूटना नहीं है । अतः ये बार - बार पीछे मुड़कर सेठ - सेठानीको देख लेते और वेशके आधारपर परीक्षा करते । इन्हें इन लोगोंके शरीर पर नतिलक दिखायी दे रहा था , न ही माला - कण्ठी । रास्ते में चर्चा भी केवल धन - दौलत और व्यापार वाणिज्यकी ही हो रही थी । हरिपालजीके मनमें यह बात दृढ़ हो गयी कि ये लोग अवैष्णव और पक्के दुनियादारी व्यक्ति ही हैं , अतः इन्हें लूटना अनुचित नहीं है । यह विचारकर जब निर्जन सुनसान जंगलमें पहुँचे तो सेठ सेठानीके गर्दनपर भाला रख दिया और गरजकर बोले- जो भी तुम लोगोंके पास हो , उसे निकालकर रख दो , नहीं तो बे - मौत मारे जाओगे , तुम लोगोंको मालूम नहीं , मेरा नाम हरिपाल है । 


भगवान्ने काँपते हाथों चुपचाप जल्दी - जल्दी सारे आभूषण उतार दिये , आखिर वे तो आये ही इसीलिये थे । इसके बाद उन्होंने रुक्मिणीजीको भी संकेत किया कि जल्दीसे तुम भी सारे आभूषण उतार दो , नहीं तो अनावश्यक विपत्तिमें पड़ जाओगी । रुक्मिणीजीको बड़ा आश्चर्य हुआ कि आज प्रभु कैसी लीला कर रहे हैं । जिसके डरसे काल भी डरता हो , वे सर्वशक्तिमान् प्रभु इस मर्त्य मानवसे क्यों डर रहे हैं ? फिर भी प्रभुकी इच्छा समझ उन्होंने सारे आभूषण उतार दिये , बस एक उँगलीमें एक छल्ला भर रह गया , जो जल्दीमें निकल नहीं रहा था । हरिपालजीने देखा कि सेठानीकी उँगलीमें अभी छल्ला है और उससे भी सन्त - सेवा हो सकती है , तो बड़ी निष्ठुरतापूर्वक उँगली मरोड़कर उसे भी निकाल ही लिया । अब तो रुक्मिणीजीको बहुत क्रोध आया कि इस दुष्टको इतने आभूषण दे दिये गये , फिर भी एक छल्लेके लिये इसने मेरी उँगली मरोड़ दी । वे शाप देनेको उद्यत हो गयीं । भगवान् उनके मनोभावको जान गये और कहीं श्रीरुक्मिणीजी शाप ही न दे दें - यह सोचकर तुरंत अपने असली रूपमें प्रकट हो गये और भक्त हरिपालको अपने वक्षःस्थलसे चिपटा लिया , मानो प्रभुने इस प्रकार श्रीरुक्मिणीजीको यह बता दिया हो कि इसे शाप न दो , अन्यथा इसका शाप भी मैं अपने ही ऊपर ले लूँगा । 


जब हरिपालजीको यह पता चला कि जिन सेठ सेठानीको मैंने लूट लिया है , वे तो मेरे परमाराध्य ही हैं , तो उनकी दशा विचित्र हो गयी । वे बार - बार प्रभुके चरणों में गिरकर क्षमा याचना करते हुए प्रायश्चित्त करने और सारा धन वापस करने लगे । तब भगवान्ने कहा- भैया ! यह तो मैं तुम्हारे लिये ही लाया था , तुम्हारी सन्त सेवासे मैं बहुत प्रसन्न हूँ , तुम तो मेरे भक्तोंके मुकुटमणि ' भक्तराज ' हो । तुम किसी प्रकारकी चिन्ता न करो और यह सारा धन ले जाकर सन्तोंकी सेवा करो । श्रीहरिपालजीने कहा- प्रभो ! यदि सन्तोंको इस बातका पता लग जायगा , तो वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे और मेरी जगहँसाई भी बहुत होगी ? कि इसने तो भगवान्‌को ही लूट लिया । भगवान्ने कहा- डरो मत , यह सब मेरी ही इच्छासे हुआ है ; अतः मैं किसीसे नहीं कहूँगा ।


 इस प्रकार वार्तालापकर और दर्शन देकर जब भगवान् जानेको उद्यत हुए तो हरिपालजीने कहा- प्रभो ! यदि आपने सन्त - सेवासे सन्तुष्ट होकर मुझे दर्शन दिये हैं , तो इसकी प्रेरणा तो मुझे मेरी पत्नीने दी है , अतः कृपा करके उसे भी दर्शन दें । भगवान् भक्त हरिपालके भावको जानकर बहुत प्रसन्न हुए और घर चलकर दर्शन देनेकी स्वीकृति दे दी । फिर क्या था , हरिपालजी आनन्दसे नाच उठे । उन्होंने कन्धेपर एक ओर भगवान्‌को और एक ओर माता रुक्मिणीको बैठाया और घर लाकर सिंहासनपर बैठाकर उनकी सेवा - पूजा की । तत्पश्चात् सन्तोंका वृहद्भण्डारा हुआ । हरिपालजीकी पत्नी जब सन्तोंके लिये भोजन बनाने लगीं तो श्रीरुक्मिणीजीने भी साग्रह उसमें हाथ बँटाया , इसी प्रकार श्रीहरिपालजी जब परोसने लगे तो भगवान् भी उनके साथ - साथ जुट गये । सन्तोंने भक्त और भगवान्‌को जय - जयकार की और आनन्दपूर्वक भण्डारा सम्पन्न हुआ ।


 इस प्रकार श्रीभगवान् अपने भक्तोंसे उसी प्रकार स्नेह करते हैं , जैसे गोमाता अपने बछड़ेसे करती हैं , जैसे पयपान करते समय वत्स स्तनोंपर प्रहार करता है तो भी गोमाता उसे दूध देती हैं , वैसे ही भक्तद्वारा दिये कष्टको न ध्यान रखकर भगवान् सिर्फ उसके भावको ही देखते हैं । 


मित्र

इन्ही साधु संतो के दिव्य चरित्र के कारण भारत को विश्व गुरू का दर्जा प्राप्त है । तुलसी एहि संसार मे भांति भांति के लोग। 

यहां तो 

भूपाल एहि संसार मे भांति भांति के भक्त । 




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