Sri Nityanandji _ mahaprabhu श्री नित्यानन्द महाप्रभु

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 श्री नित्यानन्द जी महाप्रभु  
                                           के पावन लीला 

 गौड़ देस पाखंड मेटि कियो भजन परायन । करुना सिंधु कृतग्य भए अगनित गति दायन ॥ दसधा रस आक्रांति महत जन चरन उपासे । नाम लेत निहपाप दुरित तिहि नर के नासे ॥ अवतार बिदित पूरब मही उभै महँत देही धरी । नित्यानंद कृष्ण चैतन्य की भक्ति दसो दिसि बिस्तरी ॥७२ ॥

 श्रीनित्यानन्दजी तथा श्रीकृष्णचैतन्यमहाप्रभुजीको भक्तिका प्रकाश दसों दिशाओं में फैला । आप दोनों महानुभावोंने गौड़देशमें फैले हुए पाखण्ड ( कुप्रथाओं एवं मुसलमानोंके आतंक ) को मिटाकर वहाँके लोगोंको भगवद्भजनमें प्रवृत्त किया । आप दोनों करुणाके समुद्र , कृतज्ञ तथा अगणित अगतिक जीवोंको गति देनेवाले हुए । ( अर्थात् दुष्टोंको न मारकर उनकी दुष्टताका नाशकर उन्हें भक्त बनाया । ) आप दोनों सदा ही प्रेमरस विवश बने रहते थे । बड़े - बड़े महापुरुषोंने आपके श्रीचरणकमलोंकी उपासना की । आपका नाम लेते ही प्राणी निष्पाप हो जाते हैं , तत्काल उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । पूर्व देशकी भूमिमें श्रीबलराम और श्रीकृष्ण ही श्रीनित्यानन्दजी एवं श्रीकृष्णचैतन्य - इन दोनों महापुरुषोंके रूपमें प्रादुर्भूत हुए थे । इनके अवतारकी बात सर्वप्रसिद्ध है ॥ ७२ ॥

 श्रीनित्यानन्दजी एवं श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभुके विषय में विशेष विवरण इस प्रकार है


 श्रीनित्यानन्दजी 

भारतीय इतिहासके मध्यकालीन भक्ति - विकासमें निताई और निमाईका नाम बड़ी श्रद्धासे लिया जाता है । भगवद्भक्तिके प्रचारसे निताई और निमाईने केवल वंगदेशको ही नहीं , समस्त भारतको प्रभावित किया । नित्यानन्द मधुरातिमधुर भक्ति - सुधाका पान करके रात - दिन उन्मत्तकी तरह हरिनाम - ध्वनिसे असंख्य जीवोंका उद्धार करते रहते थे । 


आ हो शस्यश्यामला वंगभूमिके वीरभूमि जनपदके एकचाका गाँवमें शाके १३ ९ ५ के माघमासमें श्रीनित्यानन्दका जन्म हुआ था । उनके पिता - माता हाँड़ाई पण्डित और पद्मावती बड़े धर्मनिष्ठ थे । दोनों विष्णुभक्त थे । एक बार पद्मावतीने स्वप्नमें एक महापुरुषको देखा । उन्होंने कहा कि ' तुम्हारे गर्भसे एक ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा , जो पापियोंका उद्धार करेगा और नर - नारियोंको भक्तिका मार्ग दिखायेगा । ' नित्यानन्दने महापुरुषके कथनकी सत्यता प्रमाणित कर दी । बचपनसे ही नित्यानन्दमें अलौकिक पुरुषके लक्षण प्रकट होने लगे । वे श्रीकृष्णकी उदासीन रहने लगे । बाल - लीलाका अनुकरण करते - करते उन्मत्त हो जाया करते थे । वे बाल्यावस्थासे ही संसारके प्रपंचोंके प्रति उदासीन रहने लगे  ।

कहते हैं कि एक बार आप श्रीरामलीलामें लक्ष्मणजीका अभिनय कर रहे थे , अभिनय करते - करते आपको भावावेश हो आया । मेघनादके साथ युद्धका प्रसंग था । जैसे ही आपको शक्तिबाण लगा , आप बेहोश होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । जो बालक हनुमान् बना था , वह अबोध था । वह लाने गया था संजीवनी बूटी , पर भूलकर अपने घर चला गया । जब बहुत देर होने लगी तो लोग इन्हें जगाने लगे , परंतु ये तो सचमुच मूर्च्छित थे , फिर जगें कैसे ! लीला देखनेवालोंमें वैद्य - डॉक्टर आदि भी थे , उन्होंने नाड़ी परीक्षण किया और लक्षण देखे तो चकित हो गये । नाड़ीकी गति मन्द हो गयी थी , जीवन बचनेके लक्षण भी कम होने लगे थे । लोगोंको जब चिकित्सकोंकी राय पता चली तो पूरे दर्शक - समाजमें खलबली मच गयी । किसीने इनके घर जाकर इनके माता - पिताको खबर दी । वे बेचारे भी रोते - बिलखते दौड़े आये और इनकी दशा देखकर माथा पीट - पीटकर विलाप करने लगे । इतनेमें जो बालक श्रीरामजीका अभिनय करते हुए अपनी गोदमें इनका सिर लेकर रुदन कर रहा था , उसे याद आया कि अभीतक हनुमानजी संजीवनी लेकर क्यों नहीं आये ? फिर तो तत्काल श्रीहनुमान्जीका अभिनय करनेवाले बालकको बुलवाया गया , वह संजीवनी लेकर आया और जैसे ही सुषेण बने बालकने इन्हें संजीवनी सुँघायी , ये तत्काल ही ' जय श्रीराम ' कहते हुए चैतन्य हो गये । इस प्रकार लीलाभिनयमें भी इनको भावावेश हो जाता था , तो भगवन्नाम संकीर्तनके समयके भावावेशकी बात ही क्या !


 एक बार उनके घरपर एक संन्यासी आये । निताईके स्वभाव और उनकी प्रतिभापर आकृष्ट होकर उन्होंने उनको अपने साथ ले लिया , निताई इस घटनाके बाद फिर कभी घर नहीं लौटे । निताईने तीर्थाटन आरम्भ किया । अयोध्या , हस्तिनापुर होते हुए वे व्रज पहुँचे । इस तीर्थयात्रामें उनकी श्रीमाधवेन्द्रपुरीसे भेंट हुई । दोनों प्रेमविह्वल होकर एक - दूसरेसे मिले । तदनन्तर निताई वृन्दावनमें एक पागलकी तरह भगवान् श्रीकृष्णके अन्वेषणमें घूमने लगे । बिना माँगे कोई कुछ दे देता तो खा लेते , नहीं तो भूखे ही रह जाते । महात्मा ईश्वरपुरीने उनसे एक बार कहा - ' ठाकुर ! यहाँ क्या देखते हो , तुम्हारे श्रीकृष्ण तो नवद्वीपमें शचीके घर पैदा हो गये हैं । ' निताई नवद्वीपके लिये चल पड़े । नित्यानन्द नवद्वीप पहुँचकर नन्दन आचार्यके घर ठहर गये । निमाई पण्डित ( श्रीचैतन्य ) -ने अपने शिष्योंसहित निताईके दर्शन किये । उनके कानों में कुण्डल थे , शरीरपर पीताम्बर लहरा रहा था । उनकी भुजाएँ घुटनोंतक लम्बी थीं , उनकी कान्ति अत्यन्त दिव्य थी । निमाई अपने - आपको अधिक समयतक सँभाल न सके । श्रीगौरचन्द्रने उनकी चरण - वन्दना की । नित्यानन्दने उनको अपने प्रेमालिंगनमें आबद्ध कर लिया । दोनोंने अद्भुत कम्प , अश्रुपात , गर्जन और हुंकारसे सारे वातावरणको प्रभावित कर दिया चैतन्यने कहा- ' बंगालमें भक्ति - भागीरथीके प्रवाहित होनेका समय आ गया है । ' निताई और निमाईकी अलौकिक छविने नवद्वीपको मनोमुग्ध कर लिया । 


माता शची निताईको अपने बड़े लड़केके समान मानती थीं । उनके जीवनकी अनेक अलौकिक घटनाएँ हैं । एक बार वे गौरके घर अवधूतवेषमें पहुँच गये । निताईके नयनोंसे अश्रु बह रहे थे , मधुर हरिनामका रसनासे उच्चारण हो रहा था । वे बाह्यज्ञानशून्य थे । गौरने माला पहनाकर उनका चरणामृत लिया । निताई चैतन्यके आदेशसे नवद्वीप और उसके आस - पासके स्थानों में हरिनामका प्रचार करने लगे । जगाई - मधाई सरीखे पातकियोंके उद्धारमें उन्होंने महान् योग दिया


           

जगाई - मधाई महान् क्रूरकर्मा , पापाचारकी पराकाष्ठा और साक्षात् पापरूप ही थे । कोई भी पातक , उपपातक या महापातक ऐसा नहीं था , जो इनके द्वारा किया न जाता रहा हो । यद्यपि इन्होंने ब्राह्मणवंशमें जन्म लिया था , पर कर्म इनके ऐसे थे कि राक्षस भी लज्जित हो जायँ । नाम तो इनके जगन्नाथ और माधव ( भगवान् के पावन नाम ) थे , परंतु कर्मसे ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ही थे । लूट , हत्या , मद्यपान और मांसाहार तथा परदाराभिगमन इनके नित्यकर्म थे । गौड़देशके शासककी ओरसे ये नदियाके कोतवाल बनाये गये थे । सदा डेरा तम्बू लिये ये एक मुहल्लेसे दूसरे मुहल्लेमें दौरा किया करते थे । जिस मुहल्लेमें इनका डेरा पड़ जाता , उस  मुहल्लेके लोगोंके प्राण सूख जाते ऐसे नर - पिशाचोंपर एक दिन श्रीनित्यानन्दजीकी दृष्टि पड़ी , वे श्रीहरिदासजी के साथ नवद्वीपमें श्रीहरिनाम संकीर्तनका प्रचार - प्रसार करने आये थे । उनके लिये महाप्रभुको आज्ञा थी कि पात्र - अपात्रका ध्यान दिये बिना सभीको भगवन्नामका समान भावसे उपदेश देना है । 


नित्यानन्दजीने जिस समय जगाई - मधाईको देखा , उस समय वे दोनों मंदिराके मदमें उन्मत्त होकर प्रलाप कर रहे थे लोगोंके द्वारा इन्हें ज्ञात हुआ कि ये हैं तो ब्राह्मणकुमार ही , परंतु राजमदसे उन्मत्त हो ये चाण्डालोंसे भी पतित हो गये हैं । उनकी इस शोचनीय दशापर नित्यानन्दजीको बड़ी दया आयी । वे सोचने लगे कि जिन लोगोंने भगवन्नामका आश्रय ले रखा है , उनको उपदेश देनेसे अधिक आवश्यक ऐसे लोगोंको उपदेश देना है , जो भगवद्विमुख हैं , किसी प्रकार इन लोगोंका उद्धार होना चाहिये । हरिदासजीसे और महाप्रभुके पास पहुँचनेपर उनसे भी आपने अपनी इच्छा बतायी ।


 प्रभुने हँसते हुए कहा- जिन्हें आपके दर्शन हो चुके हैं और जिनके उद्धारकी बात आपके मनमें आ चुकी है , भला वे पापी कैसे रह सकते हैं ? अर्थात् उनका तो उद्धार होना ही है ।



 महाप्रभुकी ओरसे नित्यानन्दजीको जगाई - मधाईके उद्धारका संकेत मिल गया था । एक रात वे जान बूझकर उस रास्तेसे गये , जिधर वे दोनों मदिरा पीकर बैठे थे । निताई मधुर स्वरमें संकीर्तन करते जा रहे थे । मधाईने कई बार पूछा- कौन है ? परंतु इन्होंने जानबूझकर उत्तर नहीं दिया । जब डाँटकर पूछा कि बोलता क्यों नहीं ? तो इन्होंने विनोदपूर्ण लहजेमें कहा - ' प्रभुके यहाँ संकीर्तनमें जा रहा हूँ , हमारा नाम है ' अवधूत ।


 ' अवधूत नाम सुनते ही मधाई चिढ़कर बोला - ' क्यों वे बदमाश ! मुझसे दिल्लगी करता है । यह कहकर उस दुष्टने पासमें पड़े हुए एक पड़ेके टुकड़ेको उठाकर श्रीनित्यानन्दजीके सिरमें मारा सिरसे रक्तकी धार बह चली , पर नित्यानन्दजोको इसपर भी क्रोध नहीं आया , वे तो अपने नामके अनुरूप आनन्दमग्न हुए भगवन्नामका गान और नृत्य कर रहे थे । उन्हें शाप देनेके स्थानपर वे करुणामूर्ति भगवान्‌से कातर स्वरमें प्रार्थना करने लगे- ' प्रभो । इन ब्राह्मणकुमारोंका उद्धार करो , मुझसे इनकी दुर्दशा देखी नहीं जाती । 


' मधाई नित्यानन्दजीको इस प्रकार प्रेममग्न नृत्य करते देखकर और चिढ़ गया तथा पुनः प्रहार करनेको उद्यत हो गया , परंतु जगाईके समझाने - बुझानेपर शान्त हो गया । उधर महाप्रभुके घरपर कीर्तन प्रारम्भ होनेवाला था , भक्तोंकी मण्डली इकट्ठी हो गयी थी कि किसीने इस बातकी सूचना महाप्रभुको दे दी । तत्काल सम्पूर्ण भक्त मण्डलीके साथ महाप्रभु वहाँ पहुँच गये । महाप्रभुने जब नित्यानन्दजीके सिरसे रक्त प्रवाह होते देखा तो उनके क्रोधका पारावार न रहा । उस समय उनका करुणावरुणालयरूप प्रलयकारी रौद्र स्वरूपमें परिणत हो गया और वे ' चक्र - चक्र ' कहकर सुदर्शन चक्रका आवाहन करने लगे । महाप्रभुको अत्यन्त क्रोधाभिभूत और सुदर्शन चक्रको आकाशसे उतरते देखकर श्रीनित्यानन्दजीने सुदर्शन चक्रसे आकाशमें ही स्थिर रहनेकी प्रार्थना की और महाप्रभुके चरणकमलोंमें सिर रखकर कहने लगे - प्रभो ! आपका यह अवतार दुष्टोंके संहारके लिये नहीं अपितु उनके उद्धारके लिये हुआ है , आपकी दयाके मुख्य पात्र तो ये ही हैं , फिर प्रभो । जगाईने तो मेरी रक्षा की है , इसने मधाईको मुझपर दूसरी बार प्रहार करनेसे रोका है , अतः यह आपको परम कृपाका अधिकारी है । ' जगाईने मेरे निताईकी रक्षा की है - यह सुनते ही महाप्रभुका सारा क्रोध विलुप्त हो गया और उन्होंने तुरंत जगाईको हृदयसे लगा लिया । प्रभुका स्पर्श पाते ही जगाईके जन्म - जन्मान्तरके पाप क्षणमात्रमें नष्ट हो गये , उसका अन्तःकरण निर्मल हो गया और वह महाप्रभुके चरणों में पड़कर फूट - फूटकर रोने लगा । 


जगाई को इस प्रकार प्रेममें अधीर होकर रुदन करते देखकर मधाईके भी हृदयमें पश्चात्तापकी ज्वाला जलने लगी , उसे भी अपने कुकृत्यपर लज्जा आने लगी । वह आँखोंमें आँसू भरकर गद्गद कण्ठ और आर्त वाणी से कहने लगा- ' प्रभो ! हम दोनों भाइयों ने मिलकर समानरूपसे पाप किये हैं , आपने एक भाईको ही अपनी चरण शरण दी है ; नाथ ! हम दोनोंको अपनाइये , हम दोनोंकी रक्षा कौजिये । ' यह कहते कहते मधाई भी प्रभुके चरणोंमें अश्रुपात करते हुए लोटने लगा । परंतु मधाईके ऊपरसे महाप्रभुका रोष अभी गया नहीं था । वे गम्भीर स्वरमें बोले — ' मधाई । तूने मेरा अपराध किया होता तो मैं तुझे क्षमा कर देता , पर तूने श्रीपादनित्यानन्दजीका अपराध किया है , अतः उन्हींसे क्षमा माँग जब वे तुझे क्षमा कर देंगे , तभी तू मेरा अनुग्रहभाजन हो सकेगा , अन्यथा तेरा कल्याण सम्भव नहीं । ' यह सुनकर मधाई श्रीपादनित्यानन्दजीके चरणोंमें जा पड़ा और आँसुओं उनके चरणोंका प्रक्षालन करने लगा । उसका यह पश्चात्ताप देखकर श्रीपाद करुणाविगलित हो उठे । उन्होंने महाप्रभुसे कहा - ' प्रभो मेरे हृदय में इस मधाईके प्रति अणुमात्र भी रोष नहीं है , यदि मैंने जन्म - जन्मान्तरों में कोई भी सुकृत किया हो तो उसका पुण्य में इन दोनों भाइयों को देता हूँ । 


" इतना सुनते ही प्रभुने दौड़कर मधाईको अंकमें उठा लिया और कहने लगे - ' मधाई । अब तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो गये हो , श्रीपादकी कृपासे तुम पापरहित हो गये हो । उन्होंने अपने सभी पुण्य प्रदानकर तुम्हें परम भागवत वैष्णव बना दिया है । '


 ऐसे करुणाविग्रह और पतितोद्धारक थे श्रीपादनित्यानन्दजी , जिन्होंने अपने ऊपर प्रहार करनेवालेको भी न केवल क्षमा कर दिया , बल्कि अपने जन्म - जन्मान्तरका पुण्य भी दे दिया । तभी तो महाप्रभु चैतन्य भी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे ।


 

श्रीपादनित्यानन्दजी चैतन्य महाप्रभुके साथ नवद्वीपसे पुरी आये । फिर उनके आदेशसे गौड़देशमें हरिनामका प्रचार करनेके लिये चल पड़े । गौरांगके कहनेपर उन्होंने पुनः विवाहित जीवनमें प्रेवश किया । अम्बिकानगरके सूर्यदासकी कन्या वसुधा और जाह्नवीका उन्होंने पाणिग्रहण किया । वे खड़दहमें भगवती भागीरथीके तटपर निवास करने लगे । उनके वीरचन्द्र नामका एक पुत्र भी हुआ । एक दिन भगवान् श्यामसुन्दरके मन्दिरमें हरिका नाम लेते - लेते वे सदाके लिये अचेत हो गये । भगवान्ने अपने भक्तको अपना लिया ।


 श्रीनित्यानन्दजी श्रीबलरामजीके अवतार हैं । एक बार उनके मनमें यह चाह उत्पन्न हुई कि अब प्रेमोन्मत्तताका रसास्वादन करना चाहिये । अतः वे ही श्रीबलरामजी श्रीनित्यानन्द महाप्रभुजीके रूप में प्रकट हुए । आपके अगाध हृदयमें सम्पूर्ण प्रेमराशि आकर परिपूर्ण रूपसे भर गयी , परंतु फिर भी आपको प्रेमतृष्णा बनी रहती थी । आपका प्रेम ऐसा बढ़ा कि उसका भार आपसे सँभालते नहीं बनता था । तब आपने उसे पार्षदों ( शिष्यों ) में यथायोग्य स्थापित कर दिया । आपके प्रेमकी कथा कहते - कहते और सुनते - सुनते अनेकों जन प्रेम - मतवाले हो गये । अनेकों ग्रन्थ इसके साक्षी हैं । 


श्रीनित्यानन्दजीकी इस प्रेमोन्मत्तताका श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार वर्णन किया है-

 आप बलदेव सदा वारुणी सों मत्त रहँ चहँ मन मानौ प्रेम मत्तताई चाखियै । सोई नित्यानन्द प्रभु महंत की देह धरी भरी सब आनि तऊ पुनि अभिलाखियै ॥ भयो बोझ भारी किहूँ जात न सँभारी तब ठौर ठौर पारषद माँझ धरि राखियै । कहत - कहत और सुनत - सुनत जाके भये मतवारे बहु ग्रन्थ ताकी साखियै ।। 


 हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

bhupalmishra35620@gmail.com 


 



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