Sri Raghunath das ji _ श्री रघुनाथदास जी

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श्री रघुनाथदास जी महाराज 

                                           


के पावन चरित्र 


गोस्वामीजी श्रीगरुड़जीकी तरह श्रीजगन्नाथ भगवान्के सम्मुख सिंहपौरिपर खड़े रहते थे । यह बात सर्वप्रसिद्ध है कि इन्हें ठण्डक लगने पर श्रीजगन्नाथ भगवान्ने अपनी रजाई ओढ़ायी थी । अतिसारके कारण बारम्बार दस्तका वेग लगनेपर स्वयं भगवान्ने सेवक का - सा कृत्य किया अर्थात् अपने श्रीकरकमलसे इनके शरीर एवं वस्त्रादि को धोया , सेवा शुश्रूषा की । इनका श्रीजगन्नाथ भगवान्के श्रीचरणकमल मे  परम अनुराग था । ये निरन्तर भगवान्की सेवामें लगे रहते थे । ये वैष्णवधर्मको सर्वश्रेष्ठ धर्म मानते थे अथवा भगवद्धर्म करने - करानेवालोंमें प्रधान थे । सर्वदा सुप्रसन्न मन रहते थे । श्रोनीलाचलधाममें निवास करते थे । उत्कल प्रान्तमें उड़ीसा नगरके रहनेवाले सब लोग इन्हें ' श्रीगरुड़जी ' कहा करते थे ॥ 

श्रीरघुनाथ गोस्वामीजीसे सम्बन्धित विशेष विवरण इस प्रकार है


 बंगालमें तीसबीपाके पास पहले एक सप्तग्राम नामक महासमृद्धिशाली प्रसिद्ध नगर था । इस नगरमें हिरण्यदास और गोवर्द्धनदास — ये दो प्रसिद्ध धनी महाजन रहते थे । दोनों भाई - भाई ही थे । ये लोग गौड़के तत्कालीन अधिपति सैयद हुसैनशाहका ठेकेपर लगान वसूल किया करते थे और ऐसा करनेमें बारह लाख रुपया सरकारी लगान भर देनेके बाद आठ लाख रुपया इनके पास बच जाता था । आठ लाख वार्षिक आय कम नहीं होती और वह भी उन दिनों ! खैर , कहनेका मतलब यह कि ऐसे सम्पन्न घरमें रघुनाथदासका जन्म हुआ था । हिरण्यदास सन्तानहीन थे और गोवर्द्धनदासके भी रघुनाथदासको छोड़कर और कोई सन्तान न थी इस तरह दोनों भाइयोंकी आशाके स्थल एकमात्र यही थे । 


बड़े लाड़ - दुलारके साथ बालक रघुनाथदासका लालन - पालन हुआ । अच्छे से अच्छे विद्वान् पढ़ानेको रखे गये । बालक रघुनाथने बड़े चावसे संस्कृत पढ़ना आरम्भ कर दिया और थोड़े ही समयमें उसने संस्कृत में पूर्ण अभिज्ञता प्राप्त कर ली । यही नहीं , भाषाकी शिक्षाके साथ - साथ रघुनाथको उस संजीवनी बूटीका भी स्वाद मिल गया , जिसके संयोगसे विद्या वास्तविक विद्या बनती है । वह संजीवनी बूटी है - भगवान्‌की भक्ति । बात यह हुई कि अपने जिन कुलपुरोहित श्रीबलराम आचार्यके यहाँ बालक रघुनाथ विद्याभ्यासके लिये जाता था , उनके यहाँ उन दिनों श्रीचैतन्य महाप्रभुके परमप्रिय शिष्य श्रीहरिदासजी रहा करते थे । उनके सत्संगसे हरिभक्तिकी एक पतली सी धार उसके हृदयमें भी वह निकली ।

            उन्हों दिनों खबर मिली कि श्रीचैतन्यदेव शान्तिपुर श्रीअद्वैताचार्यके घर पधारे हुए हैं । ज्यों ही यह समाचार मिला , त्यों ही आसपासके भक्तोंके दिल खिल उठे । रघुनाथ तो खबर पाते ही दर्शनके लिये छटपटा उठा । उसने शान्तिपुर जाने के लिये पितासे आज्ञा माँगी । पिताके लिये यह एक अनावश्यक - सा प्रस्ताव था ; पर जब उन्होंने देखा कि रघुनाथके चेहरेपर बेचैनी दौड़ रही है , तब उन्होंने उसे रोकना ठीक नहीं समझा और उसे एक राजकुमारकी भाँति बढ़िया पालकीमें बैठाकर , नौकर - चाकरोंके दलके साथ शान्तिपुर भेज दिया शान्तिपुरमें रघुनाथदास सीधा श्रीअद्वैताचार्यके घर पहुँचा जाकर भेंटकी वस्तुओंके सहित गौरके चरणोंमें लोट - पोट हो गया । गौर इसे देखते ही ताड़ गये कि इसका भविष्य क्या है । फिर भी उन्होंने ' अनासक्तभावसे घर - गृहस्थीमें रहते हुए भी भगवत्प्राप्ति की जा सकती है , आदि उपदेश देकर पड़ रहा था , जैसा नदीमें प्रवाहके विपरीत तैरना । " आशीर्वादसहित घरके लिये वापस किया । रघुनाथ घर वापस आ रहा था , पर उसे यह ऐसा कठिन मालूम पङ रहा था , जैसा नदी मे प्रवाह के विपरीत तैरना ।    


अस्तु , किसी तरह हृदयकी उथल - पुथलके साथ वह घर आया और माता , पिता तथा ताऊके चरणों में प्रणाम किया ; पर उन्होंने देखा कि उसके चेहरेका रंग ही बदला हुआ है । घरवालोंको पछतावा हुआ कि इसे गौरांगके पास क्यों जाने दिया । खैर , जो हुआ सो हुआ ; अब ऐसी गलती नहीं करनी चाहिये - ऐसा निश्चय करके उन्होंने अपने लड़केपर चौकी पहरा बैठा दिया । शायद विवाह हो जानेसे मेरे बेटेका चित्त स्थिर हो जाय — इस खयालसे श्रीगोवर्द्धनदास मजूमदारने झटपट व्यवस्था करके एक अत्यन्त रूपवती बालिकाके साथ अपने पुत्रका विवाह कर दिया । परंतु पीछे उनका खयाल गलत साबित हुआ । वह बार बार घरसे निकल भागनेका प्रयत्न करता और पहरेदार पकड़कर लौटा लाते । 


              उन दिनों उस देशमें गौरांगके बाद यदि किसी महापुरुषके नामकी धूम थी तो वह थी श्रीनित्यानन्दके नामकी । संन्यासी होकर अनेक देश - देशान्तरोंमें परिभ्रमण करनेके बाद श्रीनित्यानन्दमहाराज श्रीगौरांगके शरणापन्न हुए थे और उन्ही की आज्ञासे वे गौड़ - प्रदेशमें हरिनामका प्रचार कर रहे थे । उन्होंने पानीहाटी ग्रामको हरिनामप्रचारका प्रधान केन्द्र बना रखा था । रघुनाथदासकी भी इच्छा यह आनन्द लूटनेकी हुई । पिताने भी रोक नहीं लगायी , पर रघुनाथदासपर निगाह रखनेवालोंको और अधिक सावधानीके साथ काम करनेका आदेश कर दिया । रघुनाथदास पानीहाटी गये , श्रीनित्यानन्दके दर्शनसे अपने नेत्रोंको सुख पहुँचाया और हरिनामसंकीर्तनकी ध्वनिसे अपने कर्णविवरोंको पावन किया । यही नहीं , श्रीनित्यानन्दकी दयासे इन्हें समवेत असंख्य वैष्णवजनोंको दही चिउरेका महाप्रसाद चढ़ानेका भी सुअवसर प्राप्त हो गया । दूसरे दिन बहुत - सा दान - पुण्य करके श्रीनित्यानन्दजीसे आज्ञा लेकर घरको आ गये । 



घर आ गये पर शरीरसे , मनसे नहीं । इस कीर्तन समारोहमें सम्मिलित होकर तो अब वे बिलकुल ही बेकाबू हो गये । इधर इन्होंने यह भी सुन रखा था कि गौड़ देशके सैकड़ों भक्त चातुर्मास्यभर श्रीचैतन्यचरणों में निवास करनेको नीलाचल जा रहे हैं , इस स्वर्णसंयोगको वे किसी तरह हाथसे जाने देना नहीं चाहते थे । एक दिन भगवत्प्रेरित महामायाने एक साथ सारे के सारे ड्योढ़ीदारोंको निद्रामें डाल दिया और सबेरा होते - न - होते रघुनाथ महलकी चहारदीवारीसे निकलकर नौ - दो - ग्यारह हो गये । इधर ज्यों ही मालूम हुआ कि रघुनाथ नहीं हैं तो सारे महलमें सनसनी फैल गयी । पूर्व , पश्चिम , उत्तर , दक्षिण - सभी दिशाओंको आदमी दौड़ पड़े ; पर वहाँ मिलनेको अब रघुनाथकी छाँह भी नहीं थी । अनुमान किया गया कि कहीं पुरी न गया हो । उन्होंने पाँच घुड़सवारोंको पुरीके रास्तेपर दौड़ा दिया , पर वहाँ रघुनाथदास कहाँ थे ? भगवान्ने उन्हें यह बुद्धि दी कि आम सड़क होकर जाना ठीक नहीं । इसलिये वे पगडण्डीके रास्ते से गये और रात होते - होते प्रायः तीस मीलपर जा पहुँचे । इधर यात्रियोंका संग लेनेके बाद गोवर्द्धनदासके आदमियोंको जब शिवानन्दसे मालूम हुआ कि रघुनाथ उनके साथ नहीं आये , तब हताश होकर वे लौट आये । सारे महलमें कुहराम मच गया । हितू - मित्र - सभी आँसू बहाकर समवेदना प्रकट करते और समझाते कि सबका रक्षक एकमात्र ईश्वर है , इसलिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये ; पर उन्हें ढाँढस नहीं बँधता । एक राजकुमार , जो कभी एक पग भी बिना सवारीके न चलता था , वह आज बड़े - बड़े विकट बटोहियोंके भी कान काट गया । उत्कट वैरागी रघुनाथको प्रथम दिनकी यात्रा समाप्त करनेके बाद एक ग्वालेके घरमें बसेरा मिला और उसके दिये हुए थोड़े - से दूधपर बसर करके उन्होंने दूसरे दिन बिलकुल तड़के फिर कूच कर दिया और इस तरह लम्बी पैदल यात्रा करके करीब एक महीनेका रास्ता रघुनाथने कुल बारह दिनोंमें तै कर डाला और इन बारह दिनों में उन्होंने कुल तीन बार रसोई बनाकर अपने उदरकुण्डमें आहुति दी । 

इस प्रकार प्रभुसेवित नीलाचलपुरीके दर्शन होते ही इन्होंने उसे नमस्कार किया और श्रीचरणोंकी ओर अग्रसर हुए । इनके हृदयमें न जाने क्या - क्या तरंगें उठ रही थीं । इसी प्रकार भावुकताके प्रवाहमें अलौकिक आनन्द लाभ करते हुए ये निश्चित स्थानके निकट जा पहुँचे । दूरसे ही इन्होंने देखा कि भक्तजनोंसे घिरे हुए श्रीचैतन्य प्रमुख आसनपर विराजमान हैं । उस अलौकिक शोभायुक्त मूर्तिका दर्शन करते ही रघुनाथका रोम - रोम खिल उठा । हर्षातिरेकसे उन्हें तन - वदनकी भी सुधि न रही । रघुनाथदास श्रीचरणोंके निकट पहुँच गये । सबसे पहले मुकुन्ददत्तकी निगाह उनपर पड़ी । देखते ही उन्होंने कहा - ' अच्छा , रघुनाथदास , आ गये ? '

तुरंत ही गौरका भी ध्यान गया । वे प्रसन्नतासे खिल उठे । ' अच्छा , वत्स रघुनाथ ! आ गये ? ' कहकर उनका स्वागत किया और उनके प्रणाम करने बाद झटसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक उन्हें उठाकर गले लगाया । पास बैठाकर उनके सिरपर हाथ फेरना शुरू किया । रघुनाथको ऐसा मालूम पड़ा , मानो उनकी रास्तेकी सारी थकावट हवा हो गयी । महाप्रभुकी करुणाशीलता देखकर उनकी आँखोंसे श्रद्धा और प्रेमके आँसू बरस पड़े । उन्हें भी गौरने निज करकमलोंसे ही पोंछा । 

       इसके अनन्तर चैतन्यदेवने स्वरूपदामोदरको अपने पास बुलाकर कहा कि ' देखो , मैं इस रघुनाथको तुम्हें सौंपता हूँ । ' खान - पानसे लेकर साधन - भजनतक सारी व्यवस्थाका भार तुम्हारे ऊपर है , भला ! बहुत अच्छा ! कहकर स्वरूपने प्रभुकी आज्ञा शिरोधार्य की और रघुनाथको अपनी कुटीमें ले गये । उनके समुद्र - स्नान करके वापस आनेपर उन्हें जगन्नाथजीका प्रसाद और महाप्रसाद लाकर दिया । रघुनाथने उसे बड़े प्रेमसे पाया । परंतु जब उन्होंने देखा कि यह तो रोजका सिलसिला है , तब उनके मनमें यह विचार हुआ कि रोज - रोज यह बढ़िया बढ़िया माल खानेसे वैराग्य कैसे सधेगा ? आखिर चार - पाँच दिनके बाद ही उन्होंने यह व्यवस्था बदल दी । ' मैं एक राजकुमारकी हैसियतका आदमी हूँ ' इस प्रकारका रहा सहा भाव भी भुलाकर वह साधारण भिक्षुककी भाँति जगन्नाथजीके सिंहद्वारपर खड़े होकर भिक्षावृत्ति करने लगे और बड़े आनन्दके साथ दिन व्यतीत करने लगे । जब लोगोंको मालूम हुआ कि ये बहुत बड़े घरके लड़के होकर भी इस अवस्थामें आ गये हैं , तब उन्हें अधिकाधिक परिमाणमें विविध प्रकारके पदार्थ देना आरम्भ कर दिया । आखिर घबराकर रघुनाथदासको यह क्रम भी त्याग देना पड़ा । अब वह चुपचाप एक अन्नक्षेत्रमें जाते और वहाँसे रूखी - सूखी भीख ले आते । रघुनाथकी गतिविधि क्या - से - क्या हो रही है , श्रीगौरांगदेवको पूरा पता लगता रहता । उनके दिन - दिन बढ़ते हुए वैराग्यको देखकर उन्हें बड़ा सुख मिलता रघुनाथकी उत्कट जिज्ञासा देखकर श्रीमहाप्रभुने एक दिन उन्हें साधनसम्बन्धी कुछ उपदेश दिया । कहा कि मैं तुम्हें सब शास्त्रोंका सार यह बतलाता हूँ कि ' श्रीकृष्णके नामका स्मरण और कीर्तन ही संसारमें कल्याण - प्राप्तिके सर्वश्रेष्ठ साधन हैं । पर इस साधनकी भी पात्रता प्राप्त करनेके साधन ये हैं कि निरन्तर साधुसंग करे , सांसारिक चर्चासे बचे , परनिन्दासे कोसों दूर रहे , स्वयं अमानी होकर दूसरोंका मान करे , किसीका दिल न दुखाये और दूसरेके दुखानेपर दुखी न हो , आत्मप्रतिष्ठाको विष्ठावत् समझे , सरल और सच्चरित्र होकर जीवन व्यतीत करे , आदि । 


रघुनाथदास इच्छा और अनिच्छासे जबतक राजकुमार थे । तबतक थे ; अब वह वैरागी बन गये हैं , इसलिये उनका वैराग्य भी दिन - दिन बड़े वेगसे बढ़ता जाता है । पहले वे अन्नक्षेत्र में जाकर भिक्षा ले आते थे , पर अब उन्होंने यह भी बन्द कर दिया । कारण , भण्डारीको जैसे ही इनके वंश आदिका परिचय मिला , उसने भिक्षा में विशेषता कर दी । इसलिये इन्हें इस व्यवस्थाको भी त्यागकर नयी व्यवस्था करनी पड़ी । इसमें पूर्ण स्वाधीनता थी । जगन्नाथजीमें दूकानोंपर भगवान्का प्रसाद भात - दाल आदि बिकता है । यह प्रसाद बिकनेसे बचते बचते कई - कई दिनका हो जानेसे सड़ भी जाता है । सड़ जानेसे जब यह बिक्रीके कामका भी नहीं रहता , तब सड़कपर फेंक दिया जाता है , जिसे गौएँ आकर खा जाती हैं । रघुनाथदासको इस जीविकामें निर्द्वन्द्वता मालूम हुई । वे उसी फेंके हुए प्रसादमेंसे थोड़ा - सा बटोरकर ले आते और उसमें बहुत सा जल डालकर उसे धोते और उसमें से कुछ साफ - से खानेलायक चावल निकाल लेते और नमक मिलाकर उसीसे अपने पेटकी ज्वाला शान्त करते । गौरांगदेवको इनकी इस प्रसादीका पता लगा तो वे एक दिन सायंकालको दबे पाँव रघुनाथके पास पहुँचे । ज्यों हो उन्होंने देखा कि रघुनाथ प्रसाद पा रहे हैं तो जरा और भी दुबक गये और इसी तरह खड़े रहे ; एकाएक बन्दरकी तरह झपटकर छापा मारा । झटसे एक मुट्ठी भरके ' वाह बच्चू ! मेरा निमन्त्रण बन्द करके अब अकेले ही अकेले यह सब माल उड़ाया करते हो ? ' कहते हुए मुखमें पहुँचाया । ध्यान जाते ही ' वाह प्रभो ! यह क्या ? इस पापसे 

मेरा निस्तार कैसे होगा ! ' कहकर झटसे रघुनाथने दोनों हाथोंसे पतली उठा ली , जिससे महाप्रभु पुनः ऐसा न कर सकें । लज्जा और संकोचसे उनका चेहरा मुर्झा गया और नेत्रों में जल - बिन्दु झलक आये । महाप्रभु मुँहमें दिये हुए कौरको मुराते - मुराते रघुनाथकी ओर करुणाभरी दृष्टिसे निहारते पुनः हाथ मारनेको लपके और रघुनाथ ' हे प्रभो ! अब तो क्षमा कीजिये ' कहते हुए पतली लेकर भागे । तबतक यह सब हल्ला गुल्ला सुनकर स्वरूप गोस्वामी भी आ पहुँचे और यह देखकर कि श्रीगौर जबरदस्ती रघुनाथका उच्छिष्ट खानेका प्रयत्न कर रहे हैं , उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना की- ' प्रभो ! दया करके यह सब मत कीजिये , इसमें दूसरेका जन्म - कर्म बिगड़ता है । 

' चैतन्यदेवने मुखमें दिये हुए ग्रासको चबाते चबाते ही कहा – ' स्वरूप ! तुमसे सच कहता हूँ , ऐसा सुस्वादु अन्न मैंने आजतक नहीं पाया ।

 ' इसी प्रकार श्रीगौरांगदेवकी कृपादृष्टिसे प्रोत्साहित होते रहकर रघुनाथने वहीं पुरीमें रहकर सोलह वर्ष अहर्निश प्रेमोन्मादमें रहने लगे , तब उनकी देहरक्षाके लिये वे सदा उनके साथ ही रहने लगे । वे उनकी बड़ी श्रद्धाके साथ सेवा करते और उनके मुखसे निकले हुए वचनामृतका पान करते । आगे चलकर श्रीगौरका तिरोभाव हो गया , जिससे रघुनाथके शोकका पार न रहा ; और प्रभु के बाद जब श्रीस्वरूप भी विदा हो गये , तब तो उनका पुरीवास ही छूट गया । वे वृन्दावन चले गये ; इसके बाद वे वृन्दावनमें श्रीराधाकुण्डके किनारे डेरा डालकर कठोर साधनमें लग गये । वे केवल छाछ पीकर जीवन यापन करते । रातको सिर्फ घण्टे डेढ घण्टे सोते , शेष सारा समय भजनमें व्यतीत करते । प्रतिदिन एक लाख नाम - जपका उनका नियम था श्रीचैतन्यचरितामृतकारका कहना है कि रघुनाथदासके गुण अनन्त थे , जिनका हिसाब कोई नहीं लगा सकता । उनके नियम क्या थे , पत्थरकी लोक थे । चार ही घड़ीमें उनका खाना पीना , सोना आदि सब कुछ हो जाता था - शेष सारा समय साधनामें व्यतीत होता था । वैराग्य की तो वे मूर्ति ही थे । जीभसे स्वाद लेना तो वे जानते ही नहीं थे । वस्त्र भी फटे - पुराने केवल लज्जा और शीतसे रक्षा करनेके लिये रखते थे । प्रभुकी आज्ञाको ही भगवदाज्ञा समझकर चलते थे । एक बार ठण्ड के दिनों में इन्हें बड़े जोरकी सर्दी लगी तो जगन्नाथ भगवान्ने इन्हें अपनी रजाई ओढ़ायी थी । शौचके समय साथ जाकर सेवा करनेकी रीतिका प्रमाण तो वैसा ही समझना चाहिये जैसा कि सुखराशि श्रीप्रभुने श्रीमाधवदासजीके साथ किया था । 

               

               महाप्रभु श्रीकृष्णचैतन्यजीकी पूर्वनिर्दिष्ट आज्ञाके अनुसार श्रीरघुनाथदासजी श्रीजगन्नाथपुरीसे श्रीवृन्दावन चले आये और राधाकुण्डपर निवास किया । इन्होंने श्रीप्रिया प्रियतमके प्रबल चिन्तनद्वारा अपने शरीरको भावरूप कर लिया था । एक दिन भगवान्‌की मानसीपूजा करते समय दूध - भातका भोग लगाया और स्वयं भी इन्होंने प्रभुके अनुरोधसे भावपूरित हृदयसे प्रसादी दूध - भात पा लिया । इससे हृदयमें प्रेम तो खूब उमड़ा , परंतु साथ ही उस दूध - भातका रस शरीरकी नाड़ियोंमें व्याप्त हो गया , जिससे ज्वर हो आया । नाड़ी देखकर वैद्यने स्पष्ट कह दिया कि इन्होंने दूध - भात पाया है । 


श्रीरघुनाथदासजीपर भगवान् श्रीजगन्नाथस्वामीकी कृपाका वर्णन श्रीप्रियादासजीने इस प्रकार किया है-

 अति अनुराग घर सम्पति सों भरयो पागि ताहू करि त्याग कियौ नीलाचल वास है । धनको पठावै पिता ऐ पै नहीं भावै कछु देखियो सुहावै महाप्रभुजी कौ पास है । मन्दिरके द्वार रूप सुन्दर निहारयौ करें लाग्यौ सीत गात सकलात दई दास है । सौच संग जायबे की रीति को प्रमान वहै वैसे सब जानौ माधौदास सुखरास है ।। 

 महाप्रभु कृष्णचैतन्यजूकी आज्ञा पाइ आये वृन्दावन राधाकुण्ड बास कियो है । रहनि कहनि रूप चहनि न कहि सकै थकै सुनि तन भाव रूप करि लियो है ॥

               मानसीमें पायो दूध भात सरगत हिये लिये रस नारी देखि पैद कहि दियो है । कहाँ लीं प्रताप कहीं आप ही समझि लेहु देहु यही रीझि जासों आगे पाय जियो है ।

                   इनका संस्कृत भाषाका ज्ञान भी बहुत अच्छा था । वृन्दावनमें रहते समय इन्होंने संस्कृत मे कई ग्रंथ भी बनाये थे । चैतन्यचरितामृत के लेखक श्रीकृष्ण कविराजके ये दीक्षागुरु थे । अपने ग्रन्थके लिये बहुत कुछ मसाला उन्हें इन्हीं महापुरुष प्राप्त हुआ था । पचासी वर्षतक पूर्ण वैराग्यमय जीवन बिताकर भगवद्भजन करते हुए अन्त मे आप भगवदचरणो मे जा विराजे।

हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म कर्म 

bhupalmishra35620@gmail.com 


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