CHAITANYA MAHAPRABHU गर्व से कहो हम हिंदु है ।

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         श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु 

                   


                             के पावन चरित्र 


 श्रीचैतन्यमहाप्रभुका प्राकट्य शक संवत् १४०७ की फाल्गुन शुक्ला १५ को दिनके समय सिंहलग्नमें पश्चिमी बंगालके नवद्वीप नामक ग्राममें हुआ था । इनके पिताका नाम जगन्नाथमिश्र और माताका नाम शचीदेवी था । ये भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य भक्त थे । इन्हें लोग श्रीराधाका अवतार मानते हैं । बंगाल के वैष्णव तो इन्हें साक्षात् पूर्णब्रह्म ही मानते हैं इनके जीवनके अन्तिम छः वर्ष राधाभावमें ही बीते । उन दिनों इनके अन्दर महाभावके सारे लक्षण प्रकट हुए थे । जिस समय ये श्रीकृष्ण के विरहमें उन्मत्त होकर रोने और चीखने लगते थे , उस समय पत्थरका हृदय भी पिघल जाता था । इनके व्यक्तित्व का लोगोंपर विलक्षण प्रभाव पड़ा कि श्रीवासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानन्द सरस्वती जैसे अद्वैतवेदान्ती भी इनके थोड़ी देर के संग से श्रीकृष्णप्रेमी बन गये । यही नहीं , इनके विरोधी भी इनके भक्त बन गये और जगाई मघाई जैसे महान दुराचारी भी सन्त बन गये । नोरोजी नामका डाकू इनके संकीर्तनकी ध्वनि सुनकर और उपदेश सुनकर अपने दल - बलसहित भगवद्भक बन गया । नवदीपके काजीने कुछ लोगोंकि भड़काने मे आकर एक संकीर्तन कर्ता का डोल फोड़ दिया , स्वप्नमें उसे नृसिंह भगवान् के क्रोधित स्वरूपके दर्शन हुए , जिस उसनेचैतन्यमहाप्रभुसे क्षमा माँगी और संकीर्तनका विरोध करना छोड़ दिया । कई बड़े बड़े संन्यासी भी इनके अनुयायी हो गये । यद्यपि इनका प्रधान उद्देश्य भगवद्भकि और भगवन्नामका प्रचार करना और जग प्रेम और शान्तिका साम्राज्य स्थापित करना था , तथापि इन्होंने दूसरे धर्मों और दूसरे साधनोंकी कभी निन्द्रा नहीं की । इनके भक्ति सिद्धान्त में द्वैत और अद्वैतका बड़ा सुन्दर समन्वय हुआ है । इन्होंने कलिमलप्रमित जीवोंके उद्धार के लिये भगवन्नाम के जप और कीर्तनको ही मुख्य और सरल उपाय माना है । इनकी दक्षिण यात्रामै गोदावरीके तटपर इनका इनके शिष्य राय रामानन्दके साथ बड़ा विलक्षण संवाद हुआ , जिसमें इन्होंने राधाभावको सबसे ऊंचा भाव बतलाया ।


 श्रीचैतन्य भगवन्नामके बड़े ही रसिक , अनुभवी और प्रेमी थे । इन्होंने बतलाया है

 हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

 -'यह महामन्त्र सबसे अधिक लाभकारी और भगवत्प्रेमको बढ़ानेवाला है ।

 भगवन्नामका बिना श्रद्धा के उच्चारण करनेसे भी मनुष्य संसारके दुःखोंसे छूटकर भगवान्के परम धामका अधिकारी बन जाता है । ' श्रीचैतन्य महाप्रभुने हमें यह बताया है कि भक्तोंको भगवन्नामके उच्चारण के साथ दैवीसम्पत्तिका भी अर्जन करना चाहिये । दैवीसम्पत्तिके प्रधान लक्षण उन्होंने बताये हैं - दया , अहिंसा , मत्सरशून्यता , सत्य , समता , उदारता , मृदुता , शौच , अनासक्ति , परोपकार , समता , निष्कामता , चित्तकी स्थिरता , इन्द्रियदमन , बुफाहारविहार , गम्भीरता , परदुःखकातरता , मैत्री , तेज , धैर्य इत्यादि श्रीचैतन्यमहाप्रभु आचरणकी पवित्रतापर बहुत जोर देते थे । उन्होंने अपने संन्यासी शिष्योंके लिये यह नियम बना दिया था कि कोई स्त्रीसे बाततक न करे । एक बार इनके शिष्य छोटे हरिदासने माधवी नामकी एक वृद्धा स्त्रीसे बात कर ली थी , जो स्वयं महाप्रभुकी भक्त थी । केवल इस अपराधके लिये उन्होंने हरिदासका सदाके लिये परित्याग कर दिया , यद्यपि उनका चरित्र सर्वथा निर्दोष था ।


 श्रीचैतन्यमहाप्रभु चौबीस वर्षकी अवस्थातक गृहस्थाश्रममें रहे । इनका नाम निमाई ' पण्डित था , ये न्यायके बड़े पण्डित थे ।


इनके जीवन में अनेक अलौकिक घटनाएँ हुई , जो किसी मनुष्यके लिये सम्भव नहीं और जिनसे इनका ईश्वरत्व प्रकट होता है । इन्होंने एक बार श्री अद्वैतप्रभुको विश्वरूपका दर्शन कराया था तथा नित्यानन्दप्रभुको एक बार शंख , चक्र , गदा , पद्म , शार्ङ्गधनुष तथा मुरली लिये हुए षड्भुज नारायण के रूप में दूसरी बार दो हाथोंमें मुरली और दो हाथोंमें शंख - चक्र लिये हुए चतुर्भुजरूपमें और तीसरी बार द्विभुज श्रीकृष्ण के रूप में दर्शन दिया था । इनकी माता शचीदेवीने इनके अभिन्नहृदय श्रीनित्यानन्द प्रभु और इनको बलराम और श्रीकृष्ण के रूप में देखा था । गोदावरीके तटपर राय रामानन्दके सामने ये रसराज ( श्रीकृष्ण ) और महाभाव ( श्रीराधा ) के युगलरूप में प्रकट हुए , जिसे देखकर राय रामानन्द अपने शरीरको नहीं सम्हाल सके और मूर्छित होकर गिर पड़े । अपने जीवनके शेष भागमें , जब ये नीलाचलमें रहते थे , एक बार ये बन्द कमरेमेंसे बाहर निकल आये थे । उस समय इनके शरीरके जोड़ खुल गये , जिससे इनके अवयव बहुत लम्बे हो गये । एक दिन इनके अवयव कछुएके अवयवोंकी भाँति सिकुड़ गये और ये मिट्टीके लोंदेके समान पृथ्वीपर पड़े रहे । इनके जीवनमें कई चमत्कार सामान्य रूपसे भी दृष्टिगोचर होते थे । उदाहरणतः श्रीचैतन्यचरितामृत में लिखा है कि इन्होंने कई कोढ़ियों और अन्य असाध्य रोगोंसे पीड़ित रोगियोंको रोगमुक्त कर दिया । दक्षिण में जब ये अपने भक्त नरहरि सरकार ठाकुरके गाँव श्रीखण्डमें पहुँचे , तब नित्यानन्दप्रभुको मधुकी आवश्यकता हुई । इन्होंने उस समय एक सरोवरके जलको शहदके रूपमें पलट दिया , जिससे आजतक वह तालाब मधुपुष्करिणीके नामसे विख्यात है । 


इन घटनाओंका भक्तमालके टीकाकार श्रीप्रियादासजीने अपने कवित्तोंमें इस प्रकार वर्णन किया है



 गोपिन के अनुराग आगे आप हारे श्याम जान्यो यह लाल रंग कैसे आवै तन में । ये तो सब गौर तनी नख सिख बनी उनी खुल्यौ यों सुरंग अंग अंग रंगे बन में ॥ श्यामताई माँझ सों ललाई हूँ समाई जोही ताते मेरे जान फिरि आई यह मन में ' जसुमति सुत ' सोई ' शची सुत ' गौर भये नये नये नेह चोज नाचें निज गन में॥ आवै कभू प्रेम हेमपिण्डवत तन होत कभू संधि संधि छूटि अंग बढ़ि जात है । और एक न्यारी रीति आँसू पिचकारी मानों उभै लालप्यारी भावसागर समात है । ईशता बखान करौ सो प्रमान याकों काह ? जगन्नाथ क्षेत्र नेत्र निरखि साक्षात है । चतुर्भुज षटभुज रूप लै दिखाय दियो , दियो जो अनूप हित बात पात पात है ।।  इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही अत्यन्त सुन्दर , परम महान् श्रीगौरचन्द्र के रूपमें अवतरित हुए तथा संन्यास लेनेके उपरान्त ' श्रीकृष्णचैतन्य ' इस नामसे जगत्‌में विख्यात हुए । श्रीमहाप्रभुजीके अवतारके पूर्व सम्पूर्ण गौड़देशके लोग भक्तिका लेशमात्र भी नहीं जानते थे , परंतु श्रीमहाप्रभुजीने ' हरिबोल , हरिबोल ' की मंगलमय नामध्वनि सुनाकर सबको प्रेमसागरमें डुबा दिया । आपके एक - एक पार्षद वैष्णवशिरोमणि एवं जगत्के समस्त प्राणियोंका उद्धार करने में समर्थ हुए करोड़ों करोड़ों अजामिल भी जिनकी दुष्टतापर न्यौछावर हैं , ऐसे जगाई - मधाई सरीखे पापियोंको भी आपने प्रेममें मग्न कर दिया ।


 इस घटनाका श्रीप्रियादासजीने अपने एक कवित्तमें इस प्रकार वर्णन किया है


 कृष्णचैतन्यनाम जगत प्रगट भयौ अति अभिराम लै महन्त देह करी है । जितौ गौड़ देश भक्ति लेसहूँ न जानै कोई सोक प्रेमसागर में बोर्यो कहि ' हरी ' है । भए सिरमौर एक एक जग तारिबे कों धारिबे कों कौन साखि पोधिन में धरी है । कोटि कोटि अजामिल वारि डारै दुष्टता पै ऐसेहूँ मगन किये भक्ति भूमि भरी है॥ श्रीचैतन्य महाप्रभुके अन्तिम बारह वर्ष कृष्णविरहमें दिव्योन्मादकी स्थितिमें बीते । आप पुरीके गम्भीरा मन्दिरमें प्रायः भावावेशमें रोते - बिलखते रहते । अन्तमें शक संवत् १४५५ में आषाढ़मासमें एक दिन दिनके तीसरे पहरमें आप दौड़ते हुए सीधे श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरमें प्रवेश कर गये और महाप्रभु महाप्रभुमें ही लीन हो गये ।हरिशरणम हरिशरणम हरिशरणम 

भूपाल मिश्र 

सनातन वैदिक धर्म 

हbhupalmishra35620@gmail.com

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